ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 39
आज तो 'ओल्ड इस गोल्ड' की महफ़िल में होने जा रहा है एक ज़बरदस्त हंगामा, क्योंकि आज हमने जो गीत चुना है उसमें होनेवाला है एक ज़बरदस्त मुक़ाबला. यह गीत ना केवल हंगामाखेज है बल्कि अपनी तरह का एकमात्र गीत है. इस गीत के बनने के बाद आज 40 साल गुज़र चुके हैं, लेकिन इस गीत को टक्कर दे सके, ऐसा कोई गीत अब तक ना बन पाया है और लगता नहीं भविष्य में भी कभी बन पाएगा. ज़्यादा भूमिका ना बढाते हुए आपको बता दें कि यह वही गीत है फिल्म "पड़ोसन" का जिसे आप कई कई बार सुन चुके होंगे, लेकिन जितनी बार भी आप सुने यह नया सा ही लगता है और दिल थाम कर गाना पूरा सुने बगैर रहा नहीं जाता. जी हाँ, आज का गीत है "एक चतुर नार करके शृंगार". 1968 में फिल्म पड़ोसन बनी थी जिसमें किशोर कुमार, सुनील दत्त, सायरा बानो और महमूद ने अभिनय किया था. अभिनय क्या किया था, इन कलाकारों ने तो जैसे कोई हास्य आंदोलन यानी कि 'लाफ रोइट्स' ही छेड दिया था. 'सिचुयेशन' यह थी कि सुनील दत्त अपनी पडोसन सायरा बानो पर मार मिटे थे लेकिन सायरा बानो उन्हे भाव भी नहीं दे रही थी. तो जब संगीत मास्टर के रूप में महमूद सायरा बानो को गाना सिखाने आते हैं तो सुनील दत्त अपने दोस्तों के साथ मिलकर उन्हे परेशान करते हैं. और इन दोस्तों में शामिल थे कोई और नहीं बल्कि हमारे किशोर-दा. ऐसे असाधारण 'सिचुयेशन' पर एक कामयाब गीत लिखना और उससे लोगों के दिलों तक पहुँचाना कोई आसान काम नहीं था. लेकिन पड़ोसन की पूरी 'टीम' ने जो कमाल इस गाने में कर दिखाया है उसका शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. इसका सिर्फ़ और सिर्फ़ सुनकर ही आनंद उठाया जा सकता है.
कहा जाता है कि भले ही राजेंदर कृष्ण ने यह गीत लिखा है और आर डी बर्मन ने संगीतबद्ध किया है, लेकिन इस गीत में किशोर कुमार ने भी कई चीज़ें अपनी ओर से डाली थी और इस गाने का जो अलग अंदाज़ नज़र आता है वो उन्ही की बदौलत है. इस गीत में मन्ना डे को महमूद के लिए 'प्लेबॅक' करना था. क्योंकि महमूद फिल्म में एक शास्त्रिया गायक के चरित्र में थे और उन दिनों मन्ना डे उनके लिए पार्श्वगायन किया करते थे, इसलिए जब महमूद और उस पर शास्त्रिया संगीत की बात आई तो मन्ना डे के अलावा किसी और के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन मन्ना डे को एक बात खटक रही थी की उस गीत में जो मुक़ाबला होता है उसमें महमूद हार जाते हैं. उन्हे यह बात ज़रा पसंद नहीं आई की एक अच्छा शास्त्रिया गायक होने के बावजूद उन्हे एक ऐसे गायक किशोर से हारना होगा जिसे शास्त्रिया संगीत नहीं आती. लेकिन वो आखिर मान गये और हमें मिला हास्य गीतों का यह सरताज गाना. एक बात और आपको यहाँ बता दें कि किशोर कुमार का जो चरित्र इस फिल्म में था वो प्रेरित था शास्त्रीय गायक धनंजय बेनर्जी से जो कि उन्ही के रिश्तेदार थे. लेकिन ऐसा भी पढ्ने सुनने में आता है कि किशोर ने अपनी आँखों की मुद्राएँ खेमचंद प्रकाश से नकल की, जो एक अच्छे नर्तक भी थे. और चलने का अंदाज़ उन्होने नकल किया बर्मन दादा, यानी कि एस डी बर्मन का. दोस्तों, आप शायद बेक़रार हो रहे होंगे इस गीत को सुनने के लिए, तो मैं और ज़्यादा आपका वक़्त ना लेते हुए पेश करता हूँ आज का 'ओल्ड इस गोल्ड', सुनिए...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. ये वो ग़ज़ल है जिस पर नौशाद साहब मर मिटे थे.
२. लता - मदन मोहन की बेमिसाल टीम.
३. कुछ और कहने की जरुरत है क्या ? :)
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर पारुल ने सबको मात दी, पारुल के साथ साथ नीरज जी, मनु जी को भी सही गीत पहचानने की बधाई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
आज तो 'ओल्ड इस गोल्ड' की महफ़िल में होने जा रहा है एक ज़बरदस्त हंगामा, क्योंकि आज हमने जो गीत चुना है उसमें होनेवाला है एक ज़बरदस्त मुक़ाबला. यह गीत ना केवल हंगामाखेज है बल्कि अपनी तरह का एकमात्र गीत है. इस गीत के बनने के बाद आज 40 साल गुज़र चुके हैं, लेकिन इस गीत को टक्कर दे सके, ऐसा कोई गीत अब तक ना बन पाया है और लगता नहीं भविष्य में भी कभी बन पाएगा. ज़्यादा भूमिका ना बढाते हुए आपको बता दें कि यह वही गीत है फिल्म "पड़ोसन" का जिसे आप कई कई बार सुन चुके होंगे, लेकिन जितनी बार भी आप सुने यह नया सा ही लगता है और दिल थाम कर गाना पूरा सुने बगैर रहा नहीं जाता. जी हाँ, आज का गीत है "एक चतुर नार करके शृंगार". 1968 में फिल्म पड़ोसन बनी थी जिसमें किशोर कुमार, सुनील दत्त, सायरा बानो और महमूद ने अभिनय किया था. अभिनय क्या किया था, इन कलाकारों ने तो जैसे कोई हास्य आंदोलन यानी कि 'लाफ रोइट्स' ही छेड दिया था. 'सिचुयेशन' यह थी कि सुनील दत्त अपनी पडोसन सायरा बानो पर मार मिटे थे लेकिन सायरा बानो उन्हे भाव भी नहीं दे रही थी. तो जब संगीत मास्टर के रूप में महमूद सायरा बानो को गाना सिखाने आते हैं तो सुनील दत्त अपने दोस्तों के साथ मिलकर उन्हे परेशान करते हैं. और इन दोस्तों में शामिल थे कोई और नहीं बल्कि हमारे किशोर-दा. ऐसे असाधारण 'सिचुयेशन' पर एक कामयाब गीत लिखना और उससे लोगों के दिलों तक पहुँचाना कोई आसान काम नहीं था. लेकिन पड़ोसन की पूरी 'टीम' ने जो कमाल इस गाने में कर दिखाया है उसका शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. इसका सिर्फ़ और सिर्फ़ सुनकर ही आनंद उठाया जा सकता है.
कहा जाता है कि भले ही राजेंदर कृष्ण ने यह गीत लिखा है और आर डी बर्मन ने संगीतबद्ध किया है, लेकिन इस गीत में किशोर कुमार ने भी कई चीज़ें अपनी ओर से डाली थी और इस गाने का जो अलग अंदाज़ नज़र आता है वो उन्ही की बदौलत है. इस गीत में मन्ना डे को महमूद के लिए 'प्लेबॅक' करना था. क्योंकि महमूद फिल्म में एक शास्त्रिया गायक के चरित्र में थे और उन दिनों मन्ना डे उनके लिए पार्श्वगायन किया करते थे, इसलिए जब महमूद और उस पर शास्त्रिया संगीत की बात आई तो मन्ना डे के अलावा किसी और के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन मन्ना डे को एक बात खटक रही थी की उस गीत में जो मुक़ाबला होता है उसमें महमूद हार जाते हैं. उन्हे यह बात ज़रा पसंद नहीं आई की एक अच्छा शास्त्रिया गायक होने के बावजूद उन्हे एक ऐसे गायक किशोर से हारना होगा जिसे शास्त्रिया संगीत नहीं आती. लेकिन वो आखिर मान गये और हमें मिला हास्य गीतों का यह सरताज गाना. एक बात और आपको यहाँ बता दें कि किशोर कुमार का जो चरित्र इस फिल्म में था वो प्रेरित था शास्त्रीय गायक धनंजय बेनर्जी से जो कि उन्ही के रिश्तेदार थे. लेकिन ऐसा भी पढ्ने सुनने में आता है कि किशोर ने अपनी आँखों की मुद्राएँ खेमचंद प्रकाश से नकल की, जो एक अच्छे नर्तक भी थे. और चलने का अंदाज़ उन्होने नकल किया बर्मन दादा, यानी कि एस डी बर्मन का. दोस्तों, आप शायद बेक़रार हो रहे होंगे इस गीत को सुनने के लिए, तो मैं और ज़्यादा आपका वक़्त ना लेते हुए पेश करता हूँ आज का 'ओल्ड इस गोल्ड', सुनिए...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. ये वो ग़ज़ल है जिस पर नौशाद साहब मर मिटे थे.
२. लता - मदन मोहन की बेमिसाल टीम.
३. कुछ और कहने की जरुरत है क्या ? :)
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर पारुल ने सबको मात दी, पारुल के साथ साथ नीरज जी, मनु जी को भी सही गीत पहचानने की बधाई.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Hum hein matai kooncha o bazaar ki tarah?
ya phir,
Hai Isi mein pyar ki aabrooo, woh jafa karen mein wafa karoon...
Ya phir koi aur Ghazal bhi ho sakti hai. :-)
मन्ना दा को हारना चुभ रहा था ये बात सही कही. आगे की बात ये है, जो स्वयं अमितकुमार नें मुझी बताई थी.
किशोर कुमार को जब ये मालूम हुआ था तो वे मन्ना दा के पास पहुंचे थे और उन्हे याद दिलाया था कि फ़िल्म बसंत बहार के ’केतकी गुलाब जूही चंपक बन फ़ूले’ गीत में उन्होने यूंही भीमसेन जोशी जी को हराया था!!
मन्ना दा ने खिलाडी भावना से कबूल किया!!
या फिर मेरे ख्याल से,,
आपकी नजरो ने समझा प्यार के काबिल मुझे,,,,,( मगर ये ग़ज़ल नहीं है)