ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 50
'ओल्ड इस गोल्ड' की सुरीली धाराओं के साथ बहते बहते हम पूरे 50 दिन गुज़ार चुके हैं. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की गोल्डन जुबली अंक है. आज का यह अंक क्योंकि बहुत ख़ास है, 'गोलडेन' है, तो हमने सोचा क्यूँ ना आज के इस अंक को और भी यादगार बनाया जाए आप को एक ऐसी गोल्डन वोईस सुनाकर जो फिल्म संगीत में भीष्म पितामाह का स्थान रखते हैं. यह वो शख्स थे दोस्तों जिन्होने फिल्म संगीत को पहली बार एक निर्दिष्ट दिशा दिखाई जब फिल्म संगीत जन्म तो ले चुका था लेकिन अपनी एक पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था. जी हाँ, 1931 में जब फिल्म संगीत की शुरुआत हुई तो यह मुख्या रूप से नाट्य संगीत और शास्त्रिया संगीत पर पूरी तरह से निर्भर था. लेकिन इस अज़ीम फनकार के आते ही जैसे फिल्म संगीत ने करवट बदली और एक नयी अलग पहचान के साथ तेज़ी से लोकप्रियता की सीढियां चढ्ने लगा. यह कालजयी फनकार और कोई नहीं, यह थे पहले 'सिंगिंग सुपरस्टार' कुंदन लाल सहगल. फिल्म संगीत में सुगम संगीत की शैली पर आधारित गाने उन्ही से शुरू हुई थी कलकत्ता के न्यू थियेटर्स में जहाँ आर सी बोराल, तिमिर बरन और पंकज मालिक जैसे संगीतकारों ने उनकी आवाज़ के ज़रिए फिल्म संगीत में एक नयी क्रांति ले आए. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में पेश है सहगल साहब का गाया सन 1946 की फिल्म "शाहजहाँ" से एक नग्मा.
फिल्म "शाहजहाँ" के एल सहगल की आखिरी मशहूर फिल्म थी. इस फिल्म के संगीतकार थे नौशाद और इस फिल्म के जिस गीत को आज आप सुन रहे हैं उसके गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी. नौशाद और सहगल साहब की यही पहली और आखिरी फिल्म थी. नौशाद साहब सहगल साहब की आवाज़ के इतने दीवाने थे कि उन पर पूरी की पूरी कविता लिख डाली. यह है वो कविता...
"कोई चीज़ शायर की हमसाज़ मिलती,
कोई शै मुस्सब्बिर की दमसाज़ मिलती,
यह कहता है कागज़ पे हर शेर आकर,
मुझे काश सहगल की आवाज़ मिलती.
ऐसा कोई फनकार-ए-मुकम्मिल नहीं आया,
नग्मों का बरसता हुआ बादल नहीं आया,
मौसीक़ी के माहिर तो बहुत आए हैं लेकिन,
दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया.
सदाएँ मिट गयीं सारी सदा-ए-साज़ बाक़ी है,
अभी दुनिया-ए-मौसीक़ी का कुछ एजाज़ बाक़ी है,
जो नेमत दे गया है तू वो नेमत कम नहीं सहगल,
जहाँ में तू नहीं लेकिन तेरी आवाज़ बाक़ी है.
नौशाद मेरे दिल को यकीन है यह मुकम्मिल,
नग्मों की क़सम आज भी ज़िंदा है वो सहगल,
हर दिल में धड़कता हुआ वो साज़ है बाक़ी,
गो जिस्म नहीं है मगर आवाज़ है बाक़ी,
सहगल को खामोश कोई कर नहीं सकता,
वो ऐसा अमर है जो कभी मर नहीं सकता."
तो इसी अमर फनकार की सुनहरी आवाज़ में 'ओल्ड इस गोल्ड' का सुनहरा अंक पेश-ए-खिदमत है...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. हेमंत कुमार द्वारा निर्मित फिल्म के इस गीत में संगीत और गायन भी खुद हेमंत दा है.
२. कैफी आज़मी ने क्या खूब लिखा है इस गीत को.
३. मुखड़े में शब्द है - "निडर", दोस्तों वाकई बहुत ही प्यारा गाना है ये.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही जवाब है नीरज जी और मनु जी. ओल्ड इस गोल्ड के इस आयोजन के ५० वें संस्करण के लिए आप सभी नियमित श्रोता भी बधाई के पात्र हैं.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'ओल्ड इस गोल्ड' की सुरीली धाराओं के साथ बहते बहते हम पूरे 50 दिन गुज़ार चुके हैं. जी हाँ, आज 'ओल्ड इस गोल्ड' की गोल्डन जुबली अंक है. आज का यह अंक क्योंकि बहुत ख़ास है, 'गोलडेन' है, तो हमने सोचा क्यूँ ना आज के इस अंक को और भी यादगार बनाया जाए आप को एक ऐसी गोल्डन वोईस सुनाकर जो फिल्म संगीत में भीष्म पितामाह का स्थान रखते हैं. यह वो शख्स थे दोस्तों जिन्होने फिल्म संगीत को पहली बार एक निर्दिष्ट दिशा दिखाई जब फिल्म संगीत जन्म तो ले चुका था लेकिन अपनी एक पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था. जी हाँ, 1931 में जब फिल्म संगीत की शुरुआत हुई तो यह मुख्या रूप से नाट्य संगीत और शास्त्रिया संगीत पर पूरी तरह से निर्भर था. लेकिन इस अज़ीम फनकार के आते ही जैसे फिल्म संगीत ने करवट बदली और एक नयी अलग पहचान के साथ तेज़ी से लोकप्रियता की सीढियां चढ्ने लगा. यह कालजयी फनकार और कोई नहीं, यह थे पहले 'सिंगिंग सुपरस्टार' कुंदन लाल सहगल. फिल्म संगीत में सुगम संगीत की शैली पर आधारित गाने उन्ही से शुरू हुई थी कलकत्ता के न्यू थियेटर्स में जहाँ आर सी बोराल, तिमिर बरन और पंकज मालिक जैसे संगीतकारों ने उनकी आवाज़ के ज़रिए फिल्म संगीत में एक नयी क्रांति ले आए. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में पेश है सहगल साहब का गाया सन 1946 की फिल्म "शाहजहाँ" से एक नग्मा.
फिल्म "शाहजहाँ" के एल सहगल की आखिरी मशहूर फिल्म थी. इस फिल्म के संगीतकार थे नौशाद और इस फिल्म के जिस गीत को आज आप सुन रहे हैं उसके गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी. नौशाद और सहगल साहब की यही पहली और आखिरी फिल्म थी. नौशाद साहब सहगल साहब की आवाज़ के इतने दीवाने थे कि उन पर पूरी की पूरी कविता लिख डाली. यह है वो कविता...
"कोई चीज़ शायर की हमसाज़ मिलती,
कोई शै मुस्सब्बिर की दमसाज़ मिलती,
यह कहता है कागज़ पे हर शेर आकर,
मुझे काश सहगल की आवाज़ मिलती.
ऐसा कोई फनकार-ए-मुकम्मिल नहीं आया,
नग्मों का बरसता हुआ बादल नहीं आया,
मौसीक़ी के माहिर तो बहुत आए हैं लेकिन,
दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया.
सदाएँ मिट गयीं सारी सदा-ए-साज़ बाक़ी है,
अभी दुनिया-ए-मौसीक़ी का कुछ एजाज़ बाक़ी है,
जो नेमत दे गया है तू वो नेमत कम नहीं सहगल,
जहाँ में तू नहीं लेकिन तेरी आवाज़ बाक़ी है.
नौशाद मेरे दिल को यकीन है यह मुकम्मिल,
नग्मों की क़सम आज भी ज़िंदा है वो सहगल,
हर दिल में धड़कता हुआ वो साज़ है बाक़ी,
गो जिस्म नहीं है मगर आवाज़ है बाक़ी,
सहगल को खामोश कोई कर नहीं सकता,
वो ऐसा अमर है जो कभी मर नहीं सकता."
तो इसी अमर फनकार की सुनहरी आवाज़ में 'ओल्ड इस गोल्ड' का सुनहरा अंक पेश-ए-खिदमत है...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. हेमंत कुमार द्वारा निर्मित फिल्म के इस गीत में संगीत और गायन भी खुद हेमंत दा है.
२. कैफी आज़मी ने क्या खूब लिखा है इस गीत को.
३. मुखड़े में शब्द है - "निडर", दोस्तों वाकई बहुत ही प्यारा गाना है ये.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
बिलकुल सही जवाब है नीरज जी और मनु जी. ओल्ड इस गोल्ड के इस आयोजन के ५० वें संस्करण के लिए आप सभी नियमित श्रोता भी बधाई के पात्र हैं.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
darte darte likh rahen hain ,galat hone par sajeev ji se daant pad jaati hai na ,shaayad sahi hi ho