ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 63
फ़िल्म 'अनोखी रात' का मशहूर गीत "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में" संगीतकार रोशन के संगीत से सजा आख़री गीत था। रोशन १६ नवंबर १९६७ को इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिये छोड़ गए, लेकिन पीछे छोड़ गए अपनी दिलकश धुनों का एक अनमोल ख़ज़ाना। फ़िल्म 'बहू बेग़म' भी उनके संगीत सफ़र के आख़री फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म भी १९६७ को ही प्रदर्शित हुई थी। एम. सादिक़ निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार। यह फ़िल्म एक 'पिरियड ड्रामा' है जिसमें पुरुष प्रधान समाज का चित्रण किया गया है, और उन दिनो नारी को किस तरह से दबाया - कुचलाया जाता था उसका भी आभास मिलता है इस फ़िल्म में। मीना कुमारी की सशक्त अभिनय ने इस फ़िल्म को उतना ही यादगार बना दिया है जितना कि इस फ़िल्म के गीत-संगीत ने। आज इसी फ़िल्म का गीत सज रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। लता मंगेशकर की आवाज़ में "दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें" फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने की एक ऐसी मोती है जिसकी चमक आज ४० सालों के बाद भी वैसी की वैसी बरकरार है।
"पूछे कोई कि दर्द-ए-वफ़ा कौन दे गया, रातों को जागने की सज़ा कौन दे गया, कहने से हो मलाल तो हम क्या जवाब दें" - साहिर लुधियानवीं के ऐसे ही सीधे सादे लेकिन बड़े ही ख़ूबसूरत और सशक्त तरीके से पिरोये हुए शब्दों का इस्तेमाल इस ग़ज़ल की खासियत है। और लताजी की मधुर आवाज़ और रोशन के पुर-असर धुन को पा कर तो जैसे यह ग़ज़ल जीवंत हो उठी है। भले लताजी ने ग़ैर-फ़िल्मी ग़ज़लें बहुत कम गायीं हैं, उनकी शानदार और असरदार फ़िल्मी ग़ज़लों को सुनकर यह कमी भी पूरी हो जाती है। रात के सन्नाठे में कभी इस ग़ज़ल को सुनियेगा दोस्तों, एक अलग ही समां बंध जाता है, एक अलग ही संसार रचती है यह ग़ज़ल। यह ग़ज़ल है तो ३ मिनट की ही, लेकिन एक बार सुनने पर इसका असर ३ हफ़्ते तक रहता है। फ़िल्म में नायिका के दिल की दुविधा, समाज का डर, दिल की बेचैनी, शर्म-ओ-हया, सभी कुछ समा गया है इस छोटी सी ग़ज़ल में। समात फ़रमाइए...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. जॉनी वाकर पर फिल्माया गया ओ पी नय्यर का रोमांटिक कॉमेडी गीत.
२. रफी और गीता दत्त की आवाजें.
३. गाने में कुछ खो गया है जिसे ढूँढने की कोशिश की जा रही है.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी सही जवाब है, नीलम जी भी पहचान गयी और मनु जी भी.भारत पंड्या जी ने फिल्म का नाम गलत बताया पर गाना एक दम सही है भाई..नीलम जी नाराज़ मत होईये...अभी तो महफिल सजी है आपकी पसंद का गाना भी ज़रूर सुनाया जायेगा....फिलहाल ये बताएं कि आज का गाना कैसा लगा. और हाँ जाईयेगा नहीं....आपके बिना तो महफिल का रंग ही बेरंग हो जायेगा :)
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
फ़िल्म 'अनोखी रात' का मशहूर गीत "ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में" संगीतकार रोशन के संगीत से सजा आख़री गीत था। रोशन १६ नवंबर १९६७ को इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिये छोड़ गए, लेकिन पीछे छोड़ गए अपनी दिलकश धुनों का एक अनमोल ख़ज़ाना। फ़िल्म 'बहू बेग़म' भी उनके संगीत सफ़र के आख़री फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म भी १९६७ को ही प्रदर्शित हुई थी। एम. सादिक़ निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप कुमार। यह फ़िल्म एक 'पिरियड ड्रामा' है जिसमें पुरुष प्रधान समाज का चित्रण किया गया है, और उन दिनो नारी को किस तरह से दबाया - कुचलाया जाता था उसका भी आभास मिलता है इस फ़िल्म में। मीना कुमारी की सशक्त अभिनय ने इस फ़िल्म को उतना ही यादगार बना दिया है जितना कि इस फ़िल्म के गीत-संगीत ने। आज इसी फ़िल्म का गीत सज रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। लता मंगेशकर की आवाज़ में "दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें" फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने की एक ऐसी मोती है जिसकी चमक आज ४० सालों के बाद भी वैसी की वैसी बरकरार है।
"पूछे कोई कि दर्द-ए-वफ़ा कौन दे गया, रातों को जागने की सज़ा कौन दे गया, कहने से हो मलाल तो हम क्या जवाब दें" - साहिर लुधियानवीं के ऐसे ही सीधे सादे लेकिन बड़े ही ख़ूबसूरत और सशक्त तरीके से पिरोये हुए शब्दों का इस्तेमाल इस ग़ज़ल की खासियत है। और लताजी की मधुर आवाज़ और रोशन के पुर-असर धुन को पा कर तो जैसे यह ग़ज़ल जीवंत हो उठी है। भले लताजी ने ग़ैर-फ़िल्मी ग़ज़लें बहुत कम गायीं हैं, उनकी शानदार और असरदार फ़िल्मी ग़ज़लों को सुनकर यह कमी भी पूरी हो जाती है। रात के सन्नाठे में कभी इस ग़ज़ल को सुनियेगा दोस्तों, एक अलग ही समां बंध जाता है, एक अलग ही संसार रचती है यह ग़ज़ल। यह ग़ज़ल है तो ३ मिनट की ही, लेकिन एक बार सुनने पर इसका असर ३ हफ़्ते तक रहता है। फ़िल्म में नायिका के दिल की दुविधा, समाज का डर, दिल की बेचैनी, शर्म-ओ-हया, सभी कुछ समा गया है इस छोटी सी ग़ज़ल में। समात फ़रमाइए...
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. जॉनी वाकर पर फिल्माया गया ओ पी नय्यर का रोमांटिक कॉमेडी गीत.
२. रफी और गीता दत्त की आवाजें.
३. गाने में कुछ खो गया है जिसे ढूँढने की कोशिश की जा रही है.
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी सही जवाब है, नीलम जी भी पहचान गयी और मनु जी भी.भारत पंड्या जी ने फिल्म का नाम गलत बताया पर गाना एक दम सही है भाई..नीलम जी नाराज़ मत होईये...अभी तो महफिल सजी है आपकी पसंद का गाना भी ज़रूर सुनाया जायेगा....फिलहाल ये बताएं कि आज का गाना कैसा लगा. और हाँ जाईयेगा नहीं....आपके बिना तो महफिल का रंग ही बेरंग हो जायेगा :)
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
याद आ गया,,,,,
मोटी मोटी आँखों वाली नायिका थी,,,,,ओफ्फिस में गाना था,,,,बेंच के नीचे,,,,
जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी,,,,
अभी अभी यहीं था किधर गया जी ,,,,,,
उत्तर देने की जल्दी में अब देख रहा हूँ,,,
ये गजल नहीं ,,बल्कि गीत है,,,
हाँ, मुखडा सुनकर जरूर गजल का ही गुमा होता है,,,,
है ना..........?????
rafi sahab ki aawaj to main pehchaanta hoon par geeta ji ki aawaz ki pehchaan nahi hai aur khone aur dhondne ki baat aayegi to shayad har koi ye he gaat batayega
rafi sahab ki aawaj to main pehchaanta hoon par geeta ji ki aawaz ki pehchaan nahi hai aur khone aur dhondne ki baat aayegi to shayad har koi ye he gaat batayega
rafi sahab ki aawaj to main pehchaanta hoon par geeta ji ki aawaz ki pehchaan nahi hai aur khone aur dhondne ki baat aayegi to shayad har koi ye he geet batayega
गाने से याद आया कि सुमीत जी के बारे में बाल-उद्यान में यही सोचा जा रहा है कि ' अभी-अभी वहीँ था किधर गया जी'. लेकिन वह जनाब यहाँ 'आवाज़' में हाजिरी लगा रहे हैं लेकिन नीलम जी की साँस फूली जा रही है सुमीत के पीछे भागते हुए. आखिर में आज पकड़ में आ ही गए.