तालियों की गडगडाहट से गूँजता सभागार और सुरों को अपने तान में समेटती मेहदी हसन साहब की आवाज़. दोस्तों शायद अब ये समां कभी किसी संगीत प्रेमी को देखना नसीब नहीं हो सकेगा क्योंकि खुदा ने उन्हें हम सब से छीनकर अपने पास बुला लिया है ताकि जन्नतें भी उनकी महफिलों से रोशन हो सके. पर उनकी आवाज़ का बेशकीमती खज़ाना तो आज भी हमारे पास सुरक्षित है और ये जादू, कभी कम नहीं हो सकेगा इस बात को हर संगीत प्रेमी स्वीकार करेगा.
दोस्तों सुनिए हमारा ये खास कार्यक्रम, जिसके माध्यम से हम श्रद्धान्जली दे रहे हैं शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन साहब को, स्क्रिप्ट है विश्व दीपक की और स्वर है सजीव सारथी का. लगभग ढेढ घंटे के इस पोडकास्ट में आपको मिलेंगें मेहदी साहब के गायन के कई मुक्तलिफ़ अंदाज़. तो दोस्तों कुछ समय के लिए अपने रोजमर्रा के काम से मुक्त होकर डूब जाईये सुरों के इस अथाह समुन्दर में जिसका नाम है मेहदी हसन.
आपकी सुविधा के लिए हम लिखित स्क्रिप्ट यहाँ संलग्न कर रहे हैं
स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने जिनके वो सबसे प्रिय गायक थे, उनके इन्तेकाल की खबर सुनकर कहा -"आज बहुत बड़े ग़ज़ल गायक कलाकार मेहदी हसन साहब हमारे बीच नहीं रहे, मुझे इस बात का बहुत दु:ख है, ग़ज़ल-गायकी के क्षेत्र में उन्होंने बहुत बड़ा परिवर्तन लाया, आज उनके जाने से ग़ज़ल की बहुत बड़ी हानि हुई है, अब उन जैसा कलाकार फिर से आना मुश्किल है, वो बहुत बड़े शास्त्रीय संगीत के गायक भी थे, और उनके गाने में राजस्थान के संगीत की खुशबू भी थी, उन्होंने मेरे लिए कुछ गाने बनाए थे उनमें से हीं एक ग़ज़ल मैंने जो उन्होंने मुझे गाके भेजी थी, उसका मैंने डुएट रिकार्ड किया था, उनके साथ मेरा ये एक हीं गाना है, मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि मेहदी साहब की आत्मा को वो शांति प्रदान करें" यहाँ पर बताते चलें कि लता दी "सरहदें" एलबम के "तेरा मिलना बड़ा अच्छा लगे" गाने की बात कर रही हैं, जिसकी आधी रिकार्डिंग पाकिस्तान में और आधी हिन्दुस्तान में हुई थी, क्योंकि मेहदी हसन साहब चाह कर भी हिन्दुस्तान नहीं आ पड़े थे। यह ग़म उन्हें आखिर तक कचोटता रहा था।
मेहदी हसन यानि कि हमारे खां साहब का जन्म राजस्थान के झुंझुनू जिले के लूणा गांव में १८ जुलाई १९२७ को हुआ था। खां साहब के हिसाब से उनका जन्म "कलावंत" घराने की १६वीं पीढी में हुआ था। "कलावंत" नाम से हीं मालूम चलता है कि इस घराने में "कला" की कैसी काबिलियत थी। मौशिकी की शुरूआती तालीम उन्होंने अपने अब्बाजान उस्ताद अजीम खान और चचाजान उस्ताद ईस्माइल खान से ली। दोनों में हीं ध्रुपद के अच्छे जानकार थे। सुनते है ये ठुमरी खान साहब की आवाज़ में
खां साहब ने अपनी ग़ज़लों को राग यमन और राग ध्रुपद की बारीकियों से नवाज़ा था। इन्होंने ग़ज़ल-गायिकी को उस दौर में अलग पहचान दी, जब ग़ज़लों का मतलब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुबारक बेगम हुआ करते थे। हिन्दुस्तान के बंटवारे से पहले फाजिल्का बंगला यानि कि अविभाजित पंजाब में उन्होंने अपना पहला पर्फोमेंश दिया। वह परफोर्मेंश ध्रुपद-खयाल पर आधारित था। खां साहब दर-असल ध्रुपद-गायक हीं बनना चाहते थे, ग़ज़ल तो पंजाबी में कहें तो "ऐं वैं" हीं हो गया।
दोस्तों, खां साहब शहंशाह-ए-ग़ज़ल के नाम से जाने जाते थे। कहा जाता है कि ग़ज़लों में उनके जैसा सुर किसी और का नहीं लगा अब तक। हैरत होती है यह सोचकर कि ऐसा इंसान जो एक हुनर में इस कदर माहिर हो, उसकी शुरूआत किसी और हीं हुनर से हुई थी। जी हाँ, मौशिकी की पहली सीढी जो उन्होंने रेडियो पाकिस्तान के मार्फ़त १९५७ में चढी, वहाँ उनका कार्यक्रम ठुमरी का था। कहते हैं कि खां साहब ठुमरी और ध्रुपद के हीं होकर रह गए होते अगर रेडियो पाकिस्तान के दो अधिकारियों जेड ए बुखारी और रफ़ीक़ अनवर साहब ने उर्दू में उनकी खासी दिलचस्पी और साफ़ तलफ़्फ़ुज़ को देखकर उन्हें ग़ज़ल गाने के लिए प्रेरित न किया होता। हम शुक्रिया करते हैं उन दोनों का, जिनकी वजह से ग़ज़लों को खां साहब नसीब हुए।
१९४७ में जब हिन्दुस्तान तक़्सीम हुआ तो मेहदी हसन साहब पूरे परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए। हिन्दुस्तान छोड़ने का सबसे बड़ा नुकसान उन्हें यह हुआ कि पाकिस्तान में न रहने को घर, न खाने को रोटी.... पैसों की तंगहाली ने उन्हें मौशिकी से लगभग जुदा हीं कर दिया। पूरे परिवार का पेट पालने के लिए पहले वे एक साईकिल की दुकान में काम करने लगे। वहाँ से फारिग हुए तो उन्हें कार और डीजल ट्रैक्टर का मैकेनिक बनना पड़ा। सब ऐसा हीं चलता रहता अगर पाकिस्तान रेडियो ने उन्हें मौका न दिया होता। बस राह दिखाने की देर थी, मंज़िल ने तो खुद अपने राहगीर को चुन रखा था।
मेहदी साहब ने जो चलना शुरू किया तो क्या फिल्मी मोड़, क्या गैर-फिल्मी मोड़.. हर जगह मील के पत्थर उन्हीं के नाम के थे।
ग़ज़ल-गायिकी में अपना नाम सोने में दर्ज़ कर लेने के बाद उन्होंने पाकिस्तानी फिल्म-संगीत को आजमाना चाहा। उनका यह प्रयोग भी काबिल-ए-तारीफ़ रहा। १९६९ में रीलिज हुई फिल्म "तुम मिले प्यार मिला" में मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ के साथ उनका गाना "आपको भूल जाएँ हम, इतने तो बेवफा नहीं" उतना हीं मशहूर है, जितना कि १९७५ की "मेरा नाम है मोहब्बत" फिल्म का नाहीद अख्तर के साथ गाया हुआ "ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम" या फिर १९६७ की "ज़िंदगी कितनी हसीं है" फिल्म का "जब कोई प्यार से बुलाएगा"। फिल्म "दर्द" का "तेरी महफ़िल से ये दीवाना चला जाएगा" तो रूलाने में इतना कामयाब हुआ कि हिन्दुस्तान ने इसे "आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले" नाम से अपने इमोशन्स, अपनी भावनाओं में शामिल कर लिया।
बंटवारे के बाद अपना गाँव छूटने का दर्द उन्हें हमेशा सालता रहता था। १९७७ में जब वे पहली बार अपने गाँव लूणा आए तो इस कदर भाव-विभोर हो गए कि मिट्टी में लोट-लोट कर रोने लगे। उस समय वे जयपुर आए हुए थे सरकारी मेहमान बनकर। और उन्हीं के कहने पर सारा जत्था लूणा गया था। कहते हैं कि काफ़िला जब एक मंदिर के सामने से गुजर रहा था तो उन्होंने गाड़ी रूकवा दी और मंदिर की सीढियो के नीचे रेत में पलटियाँ खाने लगे। इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं कि उस वक़्त मेहदी साहब का बेटा डर गया कि वालिद साहब को क्या हो गया। बाद में जब मेहदी साहब से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यहीं बैठकर वे भजन गाया करते थे। सालों बाद माँ से बेटा मिले तो आखिर यही होता है।
२००० में खां साहब पैरलाइसिस के शिकार हुए और तब से मौशिकी से दुर हो गए। उनकी आवाज़ चली गई। कई सालों तक उन्होंने कुछ न कहा। एक शख्स हैं..अफज़ल सुभानी ,जो अपने बारे में कहते हैं कि "पाकिस्तान से बाहर का मैं पहला शागिर्द हूं, जिसे मेहदी हसन साहब ने गंडा बांध कर विधिवत शिष्य बनाया था"। मेहदी साहब की आवाज़ जाने के बाद वे हमेशा उनकी खबर लिया करते थे। एक बार जब उन्होंने टेलीफोन किया तो मेहदी साहब ने खुद उठाया और पूरे जोश के साथ घोषणा की कि "मेरी आवाज़ वापस आ गई है।" अफ़ज़ल सुभानी की मानें तो मेहदी साहब को उन्होंने इससे ज्यादा खुश कभी नहीं पाया था। दु:ख है कि यह खुशी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई।
"अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें"... तुम बिछड़ गए खां साहब हम सबसे... अब तो बस यही दरख्वास्त है कि "रंजिश हीं सही दिल हीं दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ"। जिस शख्स के लिए मन्ना दा ने कहा था कि उनकी एक हीं तमन्ना है कि वे कभी मेहदी हसन की तरह गा सकें, मरहूम जगजीत सिंह जी ने कहा था कि जो ग़ज़ल गाना चाहता है वह पहले मेहदी साहब की तरह शास्त्रीय संगीत में पारंगत हो ले.... आज उस शख्स ने इस दुनिया से अपनी आवाज़ हटा ली है और भेंट कर दी है दूसरी दुनिया को.. जहाँ पहले से हीं कई फ़नकार उनका इंतज़ार कर रहे थे। १३ जून को वह आवाज़ हमेशा के लिए शांत हो गई। अल्लाह उनकी रूह को बरकत दे... आमीन!!
फुटनोट
दोस्तों जैसा कि आप वाकिफ हैं कि प्रस्तुत पोडकास्ट को हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं पिछले ढेढ दो हफ़्तों से, इन कड़ियों को निरंतर सुनते हुए हमारे नियमित श्रोता दिलीप कवठेकर जो खुद भी एक गायक हैं, अपनी तरफ से मेहदी साहब की एक ग़ज़ल को गाकर हमारे लिए भेजा है, क्यों न उनके इस श्रद्धा पुष्प को भी हम अपनी श्रद्धान्जली का हिस्सा बनायें...लीजिए सुनिए दिलीप जी की आवाज़ में मेहदी साहब की ये गज़ल
Comments
बहुत सारी जानकारी हासिल हुयी !
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दिलीप जी की आवाज में मेहंदी साहब की ग़ज़ल को सुनना लाजवाब अनुभव रहा !
आभार !!!
मेरे गाये गीत को पॊड्कास्ट करने के लिये धन्यवाद. उन्हे गाने के लिये दो जन्म और चाहिये, मगर बस उन को याद तो कर ही सकते हैं.