आधा है चंद्रमा रात आधी.....पर हम वी शांताराम जैसे हिंदी फिल्म के लौह स्तंभ पर अपनी बात आधी नहीं छोडेंगें
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 535/2010/235
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - इस लघु शृंखला के पहले खण्ड के अंतिम चरण मे आज हम पहुँच चुके हैं। इस खण्ड में हम बात कर रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की। उनकी फ़िल्मी यात्रा में हम पहुँच चुके थे १९५७ की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' तक। आज बातें उनकी एक और संगीत व नृत्य प्रधान फ़िल्म 'नवरंग' की, जो आई थी ५० के दशक के आख़िर में, साल था १९५९। इससे पहले की हम इस फ़िल्म की विस्तृत चर्चा करें, आइए आपको बता दें कि ६०, ७० और ८० के दशकों में शांताराम जी ने किन किन फ़िल्मों का निर्देशन किया था। १९६१ में फिर एक बार शास्त्रीय संगीत पर आधारित म्युज़िकल फ़िल्म आई 'स्त्री'। 'नवरंग' और 'स्त्री', इन दोनों फ़िल्मों में वसत देसाई का नहीं, बल्कि सी. रामचन्द्र का संगीत था। १९६३ में वादक व संगीत सहायक रामलाल को उन्होंने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में संगीत देने का मौका दिया फ़िल्म 'सेहरा' में। इस फ़िल्म के गानें भी ख़ूब चले। १९६४ की में वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री शांताराम को बतौर नायिका लॉन्च किया फ़िल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' में। जीतेन्द्र की भी यह पहली फ़िल्म थी और इस फ़िल्म के संगीत ने भी ख़ूब नाम कमाया। संगीतकार एक बार फिर रामलाल। १९६६ में 'लड़की सह्याद्री की' और १९६७ में 'बूंद जो बन गए मोती' इस दशक की दो और उल्लेखनीय फ़िल्में थीं। इन दो फ़िल्मों के संगीतकार थे क्रम से वसंत देसाई और सतीश भाटिया। मुकेश की आवाज़ में "ये कौन चित्रकार है" गीत प्रकृति की सुषमा का वर्णन करने वाले गीतों में सर्वोपरी लगता है। ऐसे में १९७१ में 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली', १९७२ में 'पिंजरा', १९७५ में 'चंदनाची चोली अंग अंग जली', और १९७७ में 'चानी' नाम की कमचर्चित फ़िल्में आईं जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही। बहुत कम लोगों ने सुना होगा, पर फ़िल्म 'चानी' में लता का गाया 'मैं तो जाऊँगी जाऊँगी जाऊँगी उस पार" गीत में कुछ और ही बात है। इस गीत को हम खोज पाए तो आपको ज़रूर सुनवाएँगे कभी। १९८६ में शांताराम ने 'फ़ायर' नामक फ़िल्म का निर्देशन किया था जो उनकी फ़िल्मी सफ़र की अंतिम फ़िल्म थी। एक अभिनेता, निर्माता और निर्देशक होने के अलावा वी. शांताराम फ़िल्म सोसायटी' के अध्यक्ष भी रहे ७० के दशक के आख़िर के सालों में। १९८६ में सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए शांताराम जी को दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ३० अक्तुबर १९९० को वी. शांताराम का बम्बई में निधन हो गया।
दोस्तों, वी. शांताराम के फ़िल्म के जिस गीत से उन पर केन्द्रित इस शृंखला को हम समाप्त कर रहे हैं, वह है फ़िल्म नवरंग का कालजयी युगल गीत "आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह ना जाए तेरी मेरी बात अधी, मुलाक़ात आधी"। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांताराम जी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीत-प्रधान फ़िल्म बनाने की सोची और इस तरह से 'नवरंग' की कल्पना की गई। अभिनेत्री के रूप में संध्या को ही फ़िल्म में बरकरार रखा गया, लेकिन नायक के रूप में आ गये महिपाल। संगीत पक्ष के लिए वसंत देसाई की जगह पर आ गई अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र। भरत व्यास ने फ़िल्म के सभी गीत लिखे। आशा भोसले और महेन्द्र कपूर के गाये इस गीत के साथ महेन्द्र कपूर का एक दिलचस्प वक्या जुड़ा हुआ है, जिसे महेन्द्र कपूर ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहे थे। उनके अनुसार इस गीत के निर्माण के दौरान उनका करीयर दाव पर लग गया था। हुआ युं था कि यह गीत किसी रिकॉर्डिंग स्टुडिओ में नहीं बल्कि 'राजकमल कलामंदिर' में रेकॊर्ड किया जा रहा था, जो एक फ़िल्म स्टुडिओ था। एक तरफ़ वो इस बात से नर्वस थे कि पहली बार अशा भोसले के साथ गा रहे हैं, और दूसरी तरफ़ देखा कि रेकॊर्डिस्ट मंगेश देसाई और दूसरे नकनीकी सहायक एक एक कर के कन्ट्रोल रूम से बाहर निकल के आ रहे हैं और उनकी तरफ़ अजीब निगाहों से देख रहे हैं। सी. रामच्न्द्र मंगेश से पूछते हैं कि 'काय बख्तोस तू?' (तुम क्या देख रहे हो?)। मंगेश देसाई कहते हैं कि रेकॊर्डिंग् कैन्सल करनी पड़ेगी क्योंकि महेन्द्र कपूर की आवाज़ स्थिर नहीं है, और वो नर्वस हैं। तब अन्ना ने कहा कि ये तो फ़र्स्ट क्लास गा रहा है, तुम अपना वायरिंग् चेक करो। और तभी इस बात पर से पर्दा उठा कि महेन्द्र कपूर के माइक्रोफ़ोन का प्लग ढीला हो गया था, जिस वजह से ये कंपन आ रहा था। महेन्द्र कपूर यह मानते हैं कि अगर उस प्लग के ढीले होने की बात पता ना चलती तो शायद उसी दिन उनका करीयर ख़त्म हो जाता। तो दोस्तों, आइए अब इस गीत को सुनते हैं, और इसी के साथ समाप्त करते हैं 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला का पहला खण्ड जो समर्पित था महान फ़िल्मकार वी. शांताराम को। अगले हफ़्ते इस शृंखला के दूसरे खण्ड में हम एक और महान फ़िल्मकार के फ़िल्मी सफ़र के साथ हाज़िर होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिए, शनिवार को 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में पधारना ना भूलिएगा, नमस्कार!
क्या आप जानते हैं...
कि बतौर लेखक वी. शांताराम को उनकी तीन फ़िल्मों के साथ जोड़ा जा सकता है - 'अमृत मंथन' (संवाद), 'नवरंग' (स्क्रीनप्ले), 'सेहरा' (स्क्रीनप्ले)
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ६ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - नौशाद साहब हैं संगीतकार
सवाल १ - किस निर्देशक की चर्चा में होगा ये गीत - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गायिका बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी एक बार फिर सही निकले. रोमेंद्र समय पर पहुंचे कल तो अमित भाई का भी जवाब उनके लिए एक अंक का बोनस दे गया. शरद जी आज देखते हैं...:)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - इस लघु शृंखला के पहले खण्ड के अंतिम चरण मे आज हम पहुँच चुके हैं। इस खण्ड में हम बात कर रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की। उनकी फ़िल्मी यात्रा में हम पहुँच चुके थे १९५७ की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' तक। आज बातें उनकी एक और संगीत व नृत्य प्रधान फ़िल्म 'नवरंग' की, जो आई थी ५० के दशक के आख़िर में, साल था १९५९। इससे पहले की हम इस फ़िल्म की विस्तृत चर्चा करें, आइए आपको बता दें कि ६०, ७० और ८० के दशकों में शांताराम जी ने किन किन फ़िल्मों का निर्देशन किया था। १९६१ में फिर एक बार शास्त्रीय संगीत पर आधारित म्युज़िकल फ़िल्म आई 'स्त्री'। 'नवरंग' और 'स्त्री', इन दोनों फ़िल्मों में वसत देसाई का नहीं, बल्कि सी. रामचन्द्र का संगीत था। १९६३ में वादक व संगीत सहायक रामलाल को उन्होंने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में संगीत देने का मौका दिया फ़िल्म 'सेहरा' में। इस फ़िल्म के गानें भी ख़ूब चले। १९६४ की में वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री शांताराम को बतौर नायिका लॉन्च किया फ़िल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' में। जीतेन्द्र की भी यह पहली फ़िल्म थी और इस फ़िल्म के संगीत ने भी ख़ूब नाम कमाया। संगीतकार एक बार फिर रामलाल। १९६६ में 'लड़की सह्याद्री की' और १९६७ में 'बूंद जो बन गए मोती' इस दशक की दो और उल्लेखनीय फ़िल्में थीं। इन दो फ़िल्मों के संगीतकार थे क्रम से वसंत देसाई और सतीश भाटिया। मुकेश की आवाज़ में "ये कौन चित्रकार है" गीत प्रकृति की सुषमा का वर्णन करने वाले गीतों में सर्वोपरी लगता है। ऐसे में १९७१ में 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली', १९७२ में 'पिंजरा', १९७५ में 'चंदनाची चोली अंग अंग जली', और १९७७ में 'चानी' नाम की कमचर्चित फ़िल्में आईं जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही। बहुत कम लोगों ने सुना होगा, पर फ़िल्म 'चानी' में लता का गाया 'मैं तो जाऊँगी जाऊँगी जाऊँगी उस पार" गीत में कुछ और ही बात है। इस गीत को हम खोज पाए तो आपको ज़रूर सुनवाएँगे कभी। १९८६ में शांताराम ने 'फ़ायर' नामक फ़िल्म का निर्देशन किया था जो उनकी फ़िल्मी सफ़र की अंतिम फ़िल्म थी। एक अभिनेता, निर्माता और निर्देशक होने के अलावा वी. शांताराम फ़िल्म सोसायटी' के अध्यक्ष भी रहे ७० के दशक के आख़िर के सालों में। १९८६ में सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए शांताराम जी को दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ३० अक्तुबर १९९० को वी. शांताराम का बम्बई में निधन हो गया।
दोस्तों, वी. शांताराम के फ़िल्म के जिस गीत से उन पर केन्द्रित इस शृंखला को हम समाप्त कर रहे हैं, वह है फ़िल्म नवरंग का कालजयी युगल गीत "आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह ना जाए तेरी मेरी बात अधी, मुलाक़ात आधी"। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांताराम जी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीत-प्रधान फ़िल्म बनाने की सोची और इस तरह से 'नवरंग' की कल्पना की गई। अभिनेत्री के रूप में संध्या को ही फ़िल्म में बरकरार रखा गया, लेकिन नायक के रूप में आ गये महिपाल। संगीत पक्ष के लिए वसंत देसाई की जगह पर आ गई अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र। भरत व्यास ने फ़िल्म के सभी गीत लिखे। आशा भोसले और महेन्द्र कपूर के गाये इस गीत के साथ महेन्द्र कपूर का एक दिलचस्प वक्या जुड़ा हुआ है, जिसे महेन्द्र कपूर ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहे थे। उनके अनुसार इस गीत के निर्माण के दौरान उनका करीयर दाव पर लग गया था। हुआ युं था कि यह गीत किसी रिकॉर्डिंग स्टुडिओ में नहीं बल्कि 'राजकमल कलामंदिर' में रेकॊर्ड किया जा रहा था, जो एक फ़िल्म स्टुडिओ था। एक तरफ़ वो इस बात से नर्वस थे कि पहली बार अशा भोसले के साथ गा रहे हैं, और दूसरी तरफ़ देखा कि रेकॊर्डिस्ट मंगेश देसाई और दूसरे नकनीकी सहायक एक एक कर के कन्ट्रोल रूम से बाहर निकल के आ रहे हैं और उनकी तरफ़ अजीब निगाहों से देख रहे हैं। सी. रामच्न्द्र मंगेश से पूछते हैं कि 'काय बख्तोस तू?' (तुम क्या देख रहे हो?)। मंगेश देसाई कहते हैं कि रेकॊर्डिंग् कैन्सल करनी पड़ेगी क्योंकि महेन्द्र कपूर की आवाज़ स्थिर नहीं है, और वो नर्वस हैं। तब अन्ना ने कहा कि ये तो फ़र्स्ट क्लास गा रहा है, तुम अपना वायरिंग् चेक करो। और तभी इस बात पर से पर्दा उठा कि महेन्द्र कपूर के माइक्रोफ़ोन का प्लग ढीला हो गया था, जिस वजह से ये कंपन आ रहा था। महेन्द्र कपूर यह मानते हैं कि अगर उस प्लग के ढीले होने की बात पता ना चलती तो शायद उसी दिन उनका करीयर ख़त्म हो जाता। तो दोस्तों, आइए अब इस गीत को सुनते हैं, और इसी के साथ समाप्त करते हैं 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला का पहला खण्ड जो समर्पित था महान फ़िल्मकार वी. शांताराम को। अगले हफ़्ते इस शृंखला के दूसरे खण्ड में हम एक और महान फ़िल्मकार के फ़िल्मी सफ़र के साथ हाज़िर होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिए, शनिवार को 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में पधारना ना भूलिएगा, नमस्कार!
क्या आप जानते हैं...
कि बतौर लेखक वी. शांताराम को उनकी तीन फ़िल्मों के साथ जोड़ा जा सकता है - 'अमृत मंथन' (संवाद), 'नवरंग' (स्क्रीनप्ले), 'सेहरा' (स्क्रीनप्ले)
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ६ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - नौशाद साहब हैं संगीतकार
सवाल १ - किस निर्देशक की चर्चा में होगा ये गीत - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गायिका बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी एक बार फिर सही निकले. रोमेंद्र समय पर पहुंचे कल तो अमित भाई का भी जवाब उनके लिए एक अंक का बोनस दे गया. शरद जी आज देखते हैं...:)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
अब जैसा शरद जी कह चुके हैं याह उत्तर सहल लग रहे हैं. पहेली के सरल होने का कारण यह है कि आप महारथी निर्देशकों की बात कर रहे हैं और ज़ाहिर है कि उनकी फ़िल्में और उनके गीत जाने पहचाने ही होंगे.
अवध लाल
अवध लाल