ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 533/2010/233
'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित किया गया था। बम्बई में 'शकुंतला' दो साल तक चली थी। ४० के दशक का समय युद्ध का समय था समूचे विश्व में। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम। और इसी दौरान वी. शांताराम ने बनाई फ़िल्म 'डॊ. कोटनिस की अमर कहानी'। साल था १९४६। इस फ़िल्म को बनाने की प्रेरणा उन्हें एक नवोदित पत्रकार ख़्वाजा अहमद अब्बास से मिली थी। हमारे राष्ट्रीय कांग्रेस ने चीन के साथ सहानुभूति का व्यवहार करते हुए चीन - जापान युद्ध के दौरान चीन में एक मेडिकल मिशन भेजा था। उस टीम में एक डोक्टर थे द्वारकानाथ कोटनिस, जिन्होंने वहाँ जाकर एक चीनी नर्स से शादी की, लेकिन ड्युटि के दौरान उनकी मौत हो गई। इस घटना और जीवन चक्र को लेकर अब्बास साहब ने एक किताब लिखी थी, जिस पर यह फ़िल्म बनीं। इस फ़िल्म की सराहना केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ सरकार ने भी की थी। १९४६ में ही एक और फ़िल्म 'राजकमल' के बैनर तले प्रदर्शित हुई थी 'जीवन यात्रा'। मास्टर विनायक निर्देशित इस फ़िल्म में युं तो नयनतारा, प्रतिमा देवी और याकूब मुख्य कलाकार थे, लेकिन लता मंगेशकर ने भी एक भूमिका निभाई थीं। हालाँकि उन्हें इस फ़िल्म में गाने का मौका नहीं दिया गया था। ४० के दशक में शांताराम की कुछ अन्य फ़िल्में हैं 'शेजारी' (१९४१), 'माली' (१९४४), 'अमर कहानी' (१९४६), 'मतवाला शायर राम जोशी' (१९४७), और 'अपना देश' (१९४९)।
'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना के समय वी. शांताराम ने वसंत देसाई को, जो उस समय 'प्रभात' में उनके साथ कई विभागों में काम किया करते थे, उन्हें अपने साथ बम्बई ले आये और बतौर संगीतकार उन्हें मौका दे दिया 'शकुंतला' में। उसके बाद शांताराम और वसंत देसाई की जोड़ी ने एक से एक कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में हमें दीं। ५० के दशक की एक ऐसी ही संगीत और नृत्य प्रधान फ़िल्म थी 'झनक झनक पायल बाजे'। आज इसी फ़िल्म का एक गीत लेकर हम उपस्थित हुए हैं लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार की आवाज़ों में। राग मालगुंजी पर आधारित इस गीत को लिखा था हसरत जयपुरी ने। इस फ़िल्म की और इस फ़िल्म के संगीत की विस्तृत चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे, आज आइए वसंत देसाई साहब की बातें जान लेते हैं जो उन्होंने अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यु में कहे थे शांताराम जी के बारे में।
प्र: दादा, बात तो पुरानी है लेकिन यह बताइए कि आप शांताराम जी से मिले कैसे?
उ: अजी, बस एक दिन युंही सामने जाके खड़ा हो गया कि मुझे ऐक्टर बनना है।
प्र: ऐक्टर? यानी म्युज़िक डिरेक्टर नहीं?
उ: अरे, म्युज़िक तब कहाँ आता था! और वैसे भी फ़िल्मों में हर कोई पहले ऐक्टर बनने ही आता है। फिर बन जाता है टेक्निशियन, तो मैं भी बाल बढ़ाकर पहुँच गया ऐक्टर बनने।
प्र: बाल बढ़ाकर, यानी लम्बे बाल उस वक़्त भी ज़रूरी थे ऐक्टर बनने के लिए दादा?
उ: जी हाँ, लम्बे लम्बे बाल, जिन्हें डायलॊग बोलते वक़्त झटके से आँखों तक लाया जा सके। मगर एक कमी थी मुझमें अमीन साहब, मैं दुबला पतला और छोटे कद का था, जब कि वो स्टण्ट का ज़माना था। सब ऊँचे कद के पहलवान जैसे हुआ करते थे, छोटे आदमी का काम नहीं था।
प्र: अच्छा अच्छा, तो बताइए कि जब आप वी. शांताराम जी के सामने जा खड़े हुए तो वो क्या बोले?
उ: उन्होंने पूछा 'क्या करना चाहते हो?' मैंने गरदन हिलाकर बाल दिखाए और कहा कि ऐक्टर बनना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे सर से पाँव तक देखा और सोचा लड़का पागल है, इसमे ऐक्टर बनने के लिए है ही क्या! ना फ़िगर, ना हाइट, फिर उन्हें मुझपर तरस आ गया और बोले 'मैं तुम्हे रख तो लेता हूँ, मगर सब काम करना पड़ेगा, कल से आ जाओ स्टुडिओ में'।
प्र: आप शायद प्रभात स्टुडिओ कोल्हापुर का ज़िक्र कर रहे हैं!
उ: जी हाँ, कोल्हापुर की। प्रभात के पाँच मालिक थे, जो प्रभात के पाँच पाण्डव कहलाते थे। तो साहब, दूसरे दिन से हम प्रभात में ऒफ़िस बॊय बन गए।
प्र: यानी आपका पहला फ़िल्मी रोल 'ऒफ़िस बॊय' का था?
उ: अरे नहीं नहीं, रोल नहीं, सचमुच का ऒफ़िस बॊय।
प्र: सचमुच का ऒफ़िस बॊय यानी, दादा, आपको पगार क्या मिलती थी आपको उन दिनों?
उ: नो पगार, मुफ़्त, १८ - १८ घंटे का काम, जवानी थी, काम करने में मज़ा आता था। आराम करना पाप लगता था। अरे, मालिक ख़ुद काम करते थे हमारे साथ। ऋषी आश्रम के जैसा था प्रभात!
तो दोस्तों, ये थी वसंत देसाई की वी. शांताराम से पहले पहले मुलाक़ात और उस प्रभात के पहले पहले दिनों का हाल। आइए, अब आज का गीत सुना जाए फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे' फ़िल्म से। जैसा कि हमने कहा है, इस फ़िल्म के बारे में हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे।
क्या आप जानते हैं...
कि 'झनक झनक पायल बाजे' टेक्निकलर में बनने वाली भारत की पहली फ़िल्म थी।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ४ /शृंखला ०४
गीत का प्रिल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - इस फिल्म को देश में राष्ट्रपति पुरस्कार के अलावा कौन सा अन्तराष्ट्रीय सम्मान मिला था - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पहले तो श्यामकांत जी गलत जवाब दे बैठे थे, पर समय रहते उसका सुधार कर दिया, और दो अंक कमा लिए. अमित जी और अवध जी को भी सही जवाबों की बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित किया गया था। बम्बई में 'शकुंतला' दो साल तक चली थी। ४० के दशक का समय युद्ध का समय था समूचे विश्व में। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम। और इसी दौरान वी. शांताराम ने बनाई फ़िल्म 'डॊ. कोटनिस की अमर कहानी'। साल था १९४६। इस फ़िल्म को बनाने की प्रेरणा उन्हें एक नवोदित पत्रकार ख़्वाजा अहमद अब्बास से मिली थी। हमारे राष्ट्रीय कांग्रेस ने चीन के साथ सहानुभूति का व्यवहार करते हुए चीन - जापान युद्ध के दौरान चीन में एक मेडिकल मिशन भेजा था। उस टीम में एक डोक्टर थे द्वारकानाथ कोटनिस, जिन्होंने वहाँ जाकर एक चीनी नर्स से शादी की, लेकिन ड्युटि के दौरान उनकी मौत हो गई। इस घटना और जीवन चक्र को लेकर अब्बास साहब ने एक किताब लिखी थी, जिस पर यह फ़िल्म बनीं। इस फ़िल्म की सराहना केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ सरकार ने भी की थी। १९४६ में ही एक और फ़िल्म 'राजकमल' के बैनर तले प्रदर्शित हुई थी 'जीवन यात्रा'। मास्टर विनायक निर्देशित इस फ़िल्म में युं तो नयनतारा, प्रतिमा देवी और याकूब मुख्य कलाकार थे, लेकिन लता मंगेशकर ने भी एक भूमिका निभाई थीं। हालाँकि उन्हें इस फ़िल्म में गाने का मौका नहीं दिया गया था। ४० के दशक में शांताराम की कुछ अन्य फ़िल्में हैं 'शेजारी' (१९४१), 'माली' (१९४४), 'अमर कहानी' (१९४६), 'मतवाला शायर राम जोशी' (१९४७), और 'अपना देश' (१९४९)।
'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना के समय वी. शांताराम ने वसंत देसाई को, जो उस समय 'प्रभात' में उनके साथ कई विभागों में काम किया करते थे, उन्हें अपने साथ बम्बई ले आये और बतौर संगीतकार उन्हें मौका दे दिया 'शकुंतला' में। उसके बाद शांताराम और वसंत देसाई की जोड़ी ने एक से एक कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में हमें दीं। ५० के दशक की एक ऐसी ही संगीत और नृत्य प्रधान फ़िल्म थी 'झनक झनक पायल बाजे'। आज इसी फ़िल्म का एक गीत लेकर हम उपस्थित हुए हैं लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार की आवाज़ों में। राग मालगुंजी पर आधारित इस गीत को लिखा था हसरत जयपुरी ने। इस फ़िल्म की और इस फ़िल्म के संगीत की विस्तृत चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे, आज आइए वसंत देसाई साहब की बातें जान लेते हैं जो उन्होंने अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यु में कहे थे शांताराम जी के बारे में।
प्र: दादा, बात तो पुरानी है लेकिन यह बताइए कि आप शांताराम जी से मिले कैसे?
उ: अजी, बस एक दिन युंही सामने जाके खड़ा हो गया कि मुझे ऐक्टर बनना है।
प्र: ऐक्टर? यानी म्युज़िक डिरेक्टर नहीं?
उ: अरे, म्युज़िक तब कहाँ आता था! और वैसे भी फ़िल्मों में हर कोई पहले ऐक्टर बनने ही आता है। फिर बन जाता है टेक्निशियन, तो मैं भी बाल बढ़ाकर पहुँच गया ऐक्टर बनने।
प्र: बाल बढ़ाकर, यानी लम्बे बाल उस वक़्त भी ज़रूरी थे ऐक्टर बनने के लिए दादा?
उ: जी हाँ, लम्बे लम्बे बाल, जिन्हें डायलॊग बोलते वक़्त झटके से आँखों तक लाया जा सके। मगर एक कमी थी मुझमें अमीन साहब, मैं दुबला पतला और छोटे कद का था, जब कि वो स्टण्ट का ज़माना था। सब ऊँचे कद के पहलवान जैसे हुआ करते थे, छोटे आदमी का काम नहीं था।
प्र: अच्छा अच्छा, तो बताइए कि जब आप वी. शांताराम जी के सामने जा खड़े हुए तो वो क्या बोले?
उ: उन्होंने पूछा 'क्या करना चाहते हो?' मैंने गरदन हिलाकर बाल दिखाए और कहा कि ऐक्टर बनना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे सर से पाँव तक देखा और सोचा लड़का पागल है, इसमे ऐक्टर बनने के लिए है ही क्या! ना फ़िगर, ना हाइट, फिर उन्हें मुझपर तरस आ गया और बोले 'मैं तुम्हे रख तो लेता हूँ, मगर सब काम करना पड़ेगा, कल से आ जाओ स्टुडिओ में'।
प्र: आप शायद प्रभात स्टुडिओ कोल्हापुर का ज़िक्र कर रहे हैं!
उ: जी हाँ, कोल्हापुर की। प्रभात के पाँच मालिक थे, जो प्रभात के पाँच पाण्डव कहलाते थे। तो साहब, दूसरे दिन से हम प्रभात में ऒफ़िस बॊय बन गए।
प्र: यानी आपका पहला फ़िल्मी रोल 'ऒफ़िस बॊय' का था?
उ: अरे नहीं नहीं, रोल नहीं, सचमुच का ऒफ़िस बॊय।
प्र: सचमुच का ऒफ़िस बॊय यानी, दादा, आपको पगार क्या मिलती थी आपको उन दिनों?
उ: नो पगार, मुफ़्त, १८ - १८ घंटे का काम, जवानी थी, काम करने में मज़ा आता था। आराम करना पाप लगता था। अरे, मालिक ख़ुद काम करते थे हमारे साथ। ऋषी आश्रम के जैसा था प्रभात!
तो दोस्तों, ये थी वसंत देसाई की वी. शांताराम से पहले पहले मुलाक़ात और उस प्रभात के पहले पहले दिनों का हाल। आइए, अब आज का गीत सुना जाए फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे' फ़िल्म से। जैसा कि हमने कहा है, इस फ़िल्म के बारे में हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे।
क्या आप जानते हैं...
कि 'झनक झनक पायल बाजे' टेक्निकलर में बनने वाली भारत की पहली फ़िल्म थी।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ४ /शृंखला ०४
गीत का प्रिल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - इस फिल्म को देश में राष्ट्रपति पुरस्कार के अलावा कौन सा अन्तराष्ट्रीय सम्मान मिला था - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
पहले तो श्यामकांत जी गलत जवाब दे बैठे थे, पर समय रहते उसका सुधार कर दिया, और दो अंक कमा लिए. अमित जी और अवध जी को भी सही जवाबों की बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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1958: National Film Award for Best Film
1958: Berlin International Film Festival: OCIC Award
1958: Berlin International Film Festival: Silver Bear, Special Prize
1959: Golden Globe Awards: Samuel Goldwyn Award