ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 537/2010/237
महबूब ख़ान का फ़िल्मी सफ़रनामा लेकर हमने कल से शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड। ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। महबूब साहब की फ़िल्मी यात्रा में कल हम आ पहुँचे थे उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' तक। अभिनय और निर्देशक बनने के साथ साथ उन्होंने लेखन कार्य में भी हाथ डाला था। 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' की कहानी और स्क्रीनप्ले तथा १९३८ की फ़िल्म 'वतन' की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। लेकिन महबूब साहब जाने गये एक उत्कृष्ट फ़िल्म निर्देशक के रूप में। तो आइए उनके निर्देशन करीयर को थोड़ा विस्तार से जानने की हम कोशिश करें। ३० के दशक के उस दौर में कुंदन लाल सहगल की वजह से कलकत्ते का न्यु थिएटर्स फ़िल्म जगत पर राज कर रही था। ऐसे में सागर मूवीटोन के महबूब ख़ान ने सुरेन्द्रनाथ को लौंच कर न्यु थिएटर्स के सामने प्रतियोगिता की भावना रख दी। १९३६ में सागर मूवीटोन के बैनर तले महबूब साहब ने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'डेक्कन क्वीन' और 'मनमोहन'। दोनों में गायक अभिनेता थे सुरेन्द्रनाथ। 'डेक्कन क्वीन' में उनके गाये "याद ना कर दिल-ए-हज़ीन" और "बिरहा की आग लगी" जैसे गीत लोकप्रिय हुए थे, और इन गीतों में सहगल साहब की झलक भी दिख जाती थी। १९३७ में आई फ़िल्म 'जागीरदार' जिसमें मोतीलाल और माया बनर्जी का गाया युगल गीत "नदी किनारे बैठ के आओ सुर में जी बहलाएँ" उस ज़माने में ख़ूब मशहूर हुआ था। १९३९ में महबूब ख़ान ने बनाई 'एक ही रास्ता' और इसी फ़िल्म से उनके सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ रुझान का पता चला। इस फ़िल्म का नायक एक फ़ौज से रिटायर्ड सैनिक है जिसने अपनी ज़िंदगी में काफ़ी मौत और तबाही देखी है, और जो एक अस्थिर मानसिक दौर से गुज़र रहा होता है। एक बलात्कारी के क़त्ल के इल्ज़ाम में उसकी सुनवाई अदालत में शुरु होती है, जहाँ पर वो इस कानून व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह कहते हुए कि युद्ध में निर्दोष लोगों का क़त्ल करने के लिए हमें पुरस्कृत किया जाता है जबकि एक दरींदे के क़त्ल के लिए उसे फाँसी की सज़ा होने जा रही है। इस फ़िल्म के बाद से तो जैसे इस तरह के संदेशात्मक फ़िल्मों की लड़ी सी लगा दी महबूब साहब ने, जिनकी चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे।
आइए अब उस गीत की चर्चा करते हैं जिसे आज हम लेकर आये हैं ख़ास आपको सुनवाने के लिए। कल लता जी आवाज़ में एक ग़मगीन गीत आपने सुना था। आज भी लता जी की ही आवाज़ है और नौशाद साहब का संगीत। अगर कुछ बदल गया है तो वो हैं गीतकार और गीत का मूड। यानी गीतकार शक़ील बदायूनी की रचना है और एक बेहद ख़ुशमिज़ाज नग्मा १९५२ की मशहूर फ़िल्म 'आन' का, "आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई"। फ़िल्म 'आन' के सभी गीतों की मिक्सिंग लंदन में हुई थी जिसके लिए महबूब ख़ान नौशाद को अपने साथ वहाँ ले गये थे। बदक़िस्मती से नौशाद साहब बीमार पड़ गये। विविध भारती के 'नौशाद-नामा' सीरीज़ में इस बारे में उन्होंने कहा था - "मेरी तबीयत ख़राब होती जा रही थी। बहुत तनाव था। मेरी और महबूब साहब की आये दिन झगड़े होने लगे फ़िल्म की एडिटिंग को लेकर। फ़िल्म १५ एम.एम का था और साउण्ड ३५ एम.एम का। इसलिए दोनों को आपस में सिंक्रोनाइज़ करना पड़ता था। लंदन की कंपनी ने कह दिया कि यह आख़िरी बार के लिए वो इस तरह का सिंक्रोनाइज़ेशन करेंगे, और वो हर फ़ूट के लिए ६ पाउण्ड चार्ज करेंगे। उस वक़्त एक पाउण्ड का मतलब था ३०-३५ रुपय। और महबूब साहब ने हज़ारों फ़ीट की फ़िल्म ले रखी थी। मैंने उनसे कहा कि यह तो बड़ा महँगा सौदा है। आख़िर में हम दोनों ने यह तय किया कि सिर्फ़ 'ओ.के.' शॊट्स को ही करवाएँगे। होटल रूम में बैठकर हम दिन भर 'ओ.के. शॊट्स को छाँटा करते थे। इस काम में कई हफ़्ते गुज़र गए। एक दिन किसी शॊट को लेकर मेरे और महबूब साहब के बीच झगड़ा हो गया और हम दोनों की बातचीत बंद हो गई। और महबूब साहब के बेटे इक़बाल हम दोनों के बीच के कम्युनिकेटर का काम करने लगा। हम एक ही फ़्लैट के अलग अलग कमरों में रहते थे। एक रोज़ सुबह सुबह महबूब साहब मेरे कमरे में आये और कहने लगे कि उनके मरहूम वालिद उनके ख़्वाब में आये थे और कहा कि नौशाद जो कह रहा है वही सही है। मैंने उनसे कहा कि आपके वालिद आपसे ज़्यादा होशियार हैं। फिर उसके बाद मेरी तबीयत और ख़राब होने लगी। यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ कि मैंने कैसे काम पूरा किया। साउण्ड मिक्सिंग ख़त्म हो जाने के बाद मैंने महबूब साहब से कहा कि मैं भारत वापस जाना चाहता हूँ। ना चाहते हुए भी उन्होंने मुझे रिहा कर दिया।" दोस्तों, नौशाद साहब और महबूब साहब की दोस्ती बहुत गहरी थी, और नौशाद साहब के साथ ही महबूब साहब की सब से बेहतरीन फ़िल्में आईं। तो आइए आज इस जोड़ी को सलाम करते हुए फ़िल्म 'आन' का यह गीत सुनते हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'आन' के लिए महबूब साहब को विश्व के महानतम फ़िल्मकारों में से एक सिसिल बी. डी'मेलो से तारीफ़ हासिल हुई थी, जिन्होंने महबूब साहब को एक पत्र में लिखा था - "I found it an important piece of work, not only because I enjoyed it but also because it shows the tremendous potential of Indian motion pictures for securing world markets. I believe it is quite possible to make pictures in your great country, which will be understood and enjoyed by all nations and without sacrificing the culture and customs of India. We look forward to the day when you will be regular contributors to our screen fare with many fine stories bringing the romance and magic of India."
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - ये है एक भजन
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
कल आखिर शरद जी पहुँच ही गए श्याम जी से पहले....वैसे आप सभी के हिंदी फिल्म संगीत ज्ञान को देखकर बेहद खुशी होती है सच.....खैर अभी भी ३ अंकों से पीछे हैं शरद जी...क्या वो जीत पायेंगें श्याम जी से ये बाज़ी....:) वक्त बताएगा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
महबूब ख़ान का फ़िल्मी सफ़रनामा लेकर हमने कल से शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड। ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। महबूब साहब की फ़िल्मी यात्रा में कल हम आ पहुँचे थे उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' तक। अभिनय और निर्देशक बनने के साथ साथ उन्होंने लेखन कार्य में भी हाथ डाला था। 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' की कहानी और स्क्रीनप्ले तथा १९३८ की फ़िल्म 'वतन' की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। लेकिन महबूब साहब जाने गये एक उत्कृष्ट फ़िल्म निर्देशक के रूप में। तो आइए उनके निर्देशन करीयर को थोड़ा विस्तार से जानने की हम कोशिश करें। ३० के दशक के उस दौर में कुंदन लाल सहगल की वजह से कलकत्ते का न्यु थिएटर्स फ़िल्म जगत पर राज कर रही था। ऐसे में सागर मूवीटोन के महबूब ख़ान ने सुरेन्द्रनाथ को लौंच कर न्यु थिएटर्स के सामने प्रतियोगिता की भावना रख दी। १९३६ में सागर मूवीटोन के बैनर तले महबूब साहब ने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'डेक्कन क्वीन' और 'मनमोहन'। दोनों में गायक अभिनेता थे सुरेन्द्रनाथ। 'डेक्कन क्वीन' में उनके गाये "याद ना कर दिल-ए-हज़ीन" और "बिरहा की आग लगी" जैसे गीत लोकप्रिय हुए थे, और इन गीतों में सहगल साहब की झलक भी दिख जाती थी। १९३७ में आई फ़िल्म 'जागीरदार' जिसमें मोतीलाल और माया बनर्जी का गाया युगल गीत "नदी किनारे बैठ के आओ सुर में जी बहलाएँ" उस ज़माने में ख़ूब मशहूर हुआ था। १९३९ में महबूब ख़ान ने बनाई 'एक ही रास्ता' और इसी फ़िल्म से उनके सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ रुझान का पता चला। इस फ़िल्म का नायक एक फ़ौज से रिटायर्ड सैनिक है जिसने अपनी ज़िंदगी में काफ़ी मौत और तबाही देखी है, और जो एक अस्थिर मानसिक दौर से गुज़र रहा होता है। एक बलात्कारी के क़त्ल के इल्ज़ाम में उसकी सुनवाई अदालत में शुरु होती है, जहाँ पर वो इस कानून व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह कहते हुए कि युद्ध में निर्दोष लोगों का क़त्ल करने के लिए हमें पुरस्कृत किया जाता है जबकि एक दरींदे के क़त्ल के लिए उसे फाँसी की सज़ा होने जा रही है। इस फ़िल्म के बाद से तो जैसे इस तरह के संदेशात्मक फ़िल्मों की लड़ी सी लगा दी महबूब साहब ने, जिनकी चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे।
आइए अब उस गीत की चर्चा करते हैं जिसे आज हम लेकर आये हैं ख़ास आपको सुनवाने के लिए। कल लता जी आवाज़ में एक ग़मगीन गीत आपने सुना था। आज भी लता जी की ही आवाज़ है और नौशाद साहब का संगीत। अगर कुछ बदल गया है तो वो हैं गीतकार और गीत का मूड। यानी गीतकार शक़ील बदायूनी की रचना है और एक बेहद ख़ुशमिज़ाज नग्मा १९५२ की मशहूर फ़िल्म 'आन' का, "आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई"। फ़िल्म 'आन' के सभी गीतों की मिक्सिंग लंदन में हुई थी जिसके लिए महबूब ख़ान नौशाद को अपने साथ वहाँ ले गये थे। बदक़िस्मती से नौशाद साहब बीमार पड़ गये। विविध भारती के 'नौशाद-नामा' सीरीज़ में इस बारे में उन्होंने कहा था - "मेरी तबीयत ख़राब होती जा रही थी। बहुत तनाव था। मेरी और महबूब साहब की आये दिन झगड़े होने लगे फ़िल्म की एडिटिंग को लेकर। फ़िल्म १५ एम.एम का था और साउण्ड ३५ एम.एम का। इसलिए दोनों को आपस में सिंक्रोनाइज़ करना पड़ता था। लंदन की कंपनी ने कह दिया कि यह आख़िरी बार के लिए वो इस तरह का सिंक्रोनाइज़ेशन करेंगे, और वो हर फ़ूट के लिए ६ पाउण्ड चार्ज करेंगे। उस वक़्त एक पाउण्ड का मतलब था ३०-३५ रुपय। और महबूब साहब ने हज़ारों फ़ीट की फ़िल्म ले रखी थी। मैंने उनसे कहा कि यह तो बड़ा महँगा सौदा है। आख़िर में हम दोनों ने यह तय किया कि सिर्फ़ 'ओ.के.' शॊट्स को ही करवाएँगे। होटल रूम में बैठकर हम दिन भर 'ओ.के. शॊट्स को छाँटा करते थे। इस काम में कई हफ़्ते गुज़र गए। एक दिन किसी शॊट को लेकर मेरे और महबूब साहब के बीच झगड़ा हो गया और हम दोनों की बातचीत बंद हो गई। और महबूब साहब के बेटे इक़बाल हम दोनों के बीच के कम्युनिकेटर का काम करने लगा। हम एक ही फ़्लैट के अलग अलग कमरों में रहते थे। एक रोज़ सुबह सुबह महबूब साहब मेरे कमरे में आये और कहने लगे कि उनके मरहूम वालिद उनके ख़्वाब में आये थे और कहा कि नौशाद जो कह रहा है वही सही है। मैंने उनसे कहा कि आपके वालिद आपसे ज़्यादा होशियार हैं। फिर उसके बाद मेरी तबीयत और ख़राब होने लगी। यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ कि मैंने कैसे काम पूरा किया। साउण्ड मिक्सिंग ख़त्म हो जाने के बाद मैंने महबूब साहब से कहा कि मैं भारत वापस जाना चाहता हूँ। ना चाहते हुए भी उन्होंने मुझे रिहा कर दिया।" दोस्तों, नौशाद साहब और महबूब साहब की दोस्ती बहुत गहरी थी, और नौशाद साहब के साथ ही महबूब साहब की सब से बेहतरीन फ़िल्में आईं। तो आइए आज इस जोड़ी को सलाम करते हुए फ़िल्म 'आन' का यह गीत सुनते हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'आन' के लिए महबूब साहब को विश्व के महानतम फ़िल्मकारों में से एक सिसिल बी. डी'मेलो से तारीफ़ हासिल हुई थी, जिन्होंने महबूब साहब को एक पत्र में लिखा था - "I found it an important piece of work, not only because I enjoyed it but also because it shows the tremendous potential of Indian motion pictures for securing world markets. I believe it is quite possible to make pictures in your great country, which will be understood and enjoyed by all nations and without sacrificing the culture and customs of India. We look forward to the day when you will be regular contributors to our screen fare with many fine stories bringing the romance and magic of India."
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - ये है एक भजन
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
कल आखिर शरद जी पहुँच ही गए श्याम जी से पहले....वैसे आप सभी के हिंदी फिल्म संगीत ज्ञान को देखकर बेहद खुशी होती है सच.....खैर अभी भी ३ अंकों से पीछे हैं शरद जी...क्या वो जीत पायेंगें श्याम जी से ये बाज़ी....:) वक्त बताएगा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
गीत नहीं एक पूजा है
मन की बांसुरी ही बजती है सुनते
काश आज आज भी ऐसे ही गीत होते
मैं गीत का इंटरल्यूड नही सुन पा रही.
नही..नही स्पीकर्स एकदम सही है अब.'ओप्शन' ही क्लिक नही हो रहा.शायद चाहता है कि मैं ...मैदान में ना ही उतरूं.जहाँ इतने वड्डे वड्डे गज यानि 'दिग्गज'हो वहाँ मैं????
मैं चुप रहूंगी.हा हा हा
क्या करू? ऐसिच जो हूँ मैं.
अवध लाल