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ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब एक और भारी गडबडी वाले गीत की तरफ़ ध्यान आकर्षित कराया शरद जी ने

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है इस साप्ताहिक विशेषांक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में। पिछले दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमनें लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले' पेश की थी। इसी संदर्भ में शरद तैलंग जी ने हमें एक ईमेल भेजा। तो आइए आज शरद जी के उसी ईमेल को यहाँ प्रस्तुत करते हैं....
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सुजॊय जी,

पिछले दिनों मैनें जयपुर के संस्कृत के विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री जी का एक लेख पढा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि सहगल साहब का प्रसिद्ध गीत "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" में मूल पंक्ति थी "चार कहार मिल मोरी डोलिया उठावै", लेकिन उन्होंने गा दिया "डोलिया सजावै", जबकि डोली सजाने का काम दुल्हन की सखियां करती हैं, कहार तो उठाते हैं। इसी तरह आगे की पंक्तियों में भी मूल गीत है "देहरी तो पर्वत हुई और अंगना भया बिदेस", जब कि उन्होंने गाया "अंगना तो परबत भया और देहरी भयी बिदेस", क्यों कि देहरी तो पर्बत समान हो सकती है जिसे लांघना मुश्किल हो जाएगा और पीहर का आंगन इतना दूर हो जाएगा जैसे बिदेस हो। लेकिन जो प्रचलित हो गया सभी उसी को गाए जा रहे है ।
शरद तैलंग


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दोस्तों, शरद जी ने जिस लेख का ज़िक्र किया, वह मघुमती पत्रिका के अक्टूबर २००९ अंक में प्रकाशित हुआ था। आइए उसी लेख का एक अंश यहाँ प्रस्तुत करते हैं, जिसमें इन गड़बड़ियों का ज़िक्र हुआ है। सहगल साहब के साथ साथ जगमोहन के गाये एक गीत का भी उल्लेख है। आइए पढ़ा जाए...

"पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सृजनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक 'देहरी भई बिदेस' की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है। देहरी भई बिदेस भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।

पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं - चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया टूटो जाय आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है - देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पडेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं भी गा गये जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम प्रशंसक हैं।

नई पीढी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था - ये चाँद नहीं, तेरी आरसी है। उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुँह से निकल गया ये चाँद नहीं तेरी आरती है। बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में आरसी शब्द है या आरती ?

सौजन्य: मधुमती, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर

तो लीजिए दोस्तों, आज सुनिए कुंदन लाल सहगल और कानन देवी की युगल आवाज़ों में १९३८ की फ़िल्म 'स्ट्रीट सिंगर' का मशहूर गीत, या युं कहिए कि ठुमरी, "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए"। आर. सी. बोराल का संगीत है और यह न्यु थिएटर्स की फ़िल्म थी।

गीत - बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए (स्ट्रीट सिंगर, १९३८ - सहगल/ कानन देवी)


तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', जिसके लिए हम आभार व्यक्त करना चाहेंगे शरद तैलंग जी का। अगले हफ़्ते 'ओल्द इज़ गोल्ड' शनिवार विशेषांक लेकर हम पुन: उपस्थित होंगे, और कल से ज़रूर शामिल होइएगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमीत महफ़िल में, क्योंकि कल से इसमें एक और बेहद ख़ास लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। अब दीजिए इजाज़त, नमस्कार!

सुजॉय चट्टर्जी

Comments

यह तो वाकई में बड़ी अनोखी किन्तु सत्य बात है..
गुड्डोदादी said…
सुजॉय व सजीव
आशिर्वाद बहुत अच्छा
सहगल जी और कानन देवी जी की आवाज़ में गीत सुन अतीत में पहुँच गई
बहुत शौक से सुनते थी ग्रामा फोन पर काली तवी में सूई लगा कर सारा परिवार इर्दगिर्द बैठ जाता था यहाँ तक की हुसनलाल,पंडित बग राम जी भी ऐसे ही सुनते थे
Anonymous said…
क्षमा करना बेटा पंडित बागा राम लिखना था
जानकरी के लिये धन्यवाद.
manu said…
kyaa kahein...?


jab kaafi kuchh kahnaa hotaa hai to sochte hain...


kyaa kahein.....!!!!!
CG स्वर said…
शानदार श्रंखला है ई मेल के बहाने यादों के खजाने, यहां आकर मजा आ गया। बधाई।

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