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ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१७)...वादियों में मिले जब दो चाहने वाले तो इस गीत ने दी उनके प्रेम को परवाज़

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस शनिवार विशेषांक में। इसमें हम आपके लिए लेकर आते हैं 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', जिसमें आप ही में से किसी ना किसी दोस्त के यादों को पूरी दुनिया के साथ बांटा करते हैं जिन्हें आपने हमसे शेयर किए हैं एक ईमेल के माध्यम से। आज भी एक बड़ा ही दिल को छू लेनेवाला ईमेल हम शामिल कर रहे हैं। हाँ, इस ईमेल को पेश करने से पहले आपको बता दें कि जिस शख़्स ने हमें यह ईमेल भेजा है, इन्होंने ना तो अपना नाम लिखा है और ना ही हमारे oig@hindyugm.com के पते पर इसे भेजा है, बल्कि एक गुमनाम आइ.डी से सीधे मेरे व्यक्तिगत ईमेल आइ.डी पर भेज दिया है। कोई बात नहीं, आपके जज़्बात हम तक पहुँच गए, यही बहुत है हमारे लिए। तो ये रहा आपका ईमेल...


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प्रिय सुजॊय जी,
मैं अपना यह ईमेल आप के ईमेल पते पर भेज रहा हूँ, ताकि आप पहले यह जाँच लें कि यह पोस्ट करने लायक है भी या नहीं। अगर सही लगे तो शामिल कर लीजिएगा।

मैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का 'ईमेल के बहाने...' बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ और सब के अनुभवों से भावुक भी हो जाता हूँ। हाल में मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही क़िस्सा हुआ जिसे मैं आप सब के साथ शेयर करना चाहता हूँ। क़िस्सा कहना शायद ग़लत होगा, यु कहिए कि मेरी ज़िंदगी के साथ मुलाक़ात हो गई। मैं ३३ साल का युवा हूँ, और आज की पीढ़ी का तो आप जानते ही हैं कि प्रेम संबंध कितने जल्द बनते हैं और टूटते भी हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। लेकिन इतने सालों में मुझे अब जाकर एक ऐसा साथी मिला जिसे पाकर जैसे मेरी दुनिया ही बदल गई। मैंने यह जाना है कि शारीरिक मिलन से बहुत बहुत ज़्यादा बढ़के होता है मन से मन का मिलन। लगता है कि मुझे भी अपना मन का मीत मिल ही गया। हमारे ना केवल ख़यालात मिलते जुलते हैं, बल्कि हर चीज़ में टेस्ट बिल्कुल एक जैसा है। भले ही हमारे बीच उम्र का लगभग ८-९ साल का फ़ासला है, लेकिन मन-मस्तिष्क बिल्कुल समान आयुवर्ग जैसा ही लगता है। और तो और, फ़िल्मी-गीतों में भी हमारी पसंद बिल्कुल एक जैसी है। हमारी जिस दिन पहली मुलाक़ात हुई थी, एक गाना बज रहा था, "दिखाई दिए युं कि बेख़ुद किया, हमें आप से भी जुदा कर चले"। गाना तो अपने समय से ख़्तम हो गया, पर इसका असर गहरा था। हम अपने अपने घर चले गए, और घर पहुँचकर मेरे साथी ने एस.एम.एस पर इस गीत का मुखड़ा लिख कर भेजा। क्योंकि मुझे बहुत जल्द ही यह शहर छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए चले जाना था, मैंने जवाब में लिख दिया, "बहुत आरज़ू थी गली की तेरी, सो यास-ए-लहू में नहा कर चले"। और बस, हमें एक दूसरे से प्यार हो गया। फ़ोन पर देर तक हम रोते रहे, रोते ही रहे।

हमारी मुलाक़ातें होती रहीं। ऐसे ही किसी दिन हमने गाना सुन लिया "दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन"। गीत कुछ ऐसा भाया कि बार बार रिवाइण्ड कर सुनते रहे और जैसे गीत के तीसरे अंतरे की तरफ़ सचमुच किसी बर्फ़ीली पहाड़ी में पहूँच गए। उस रात मेरे साथी ने भी सपने में देखा कि हम दोनों किसी पहाड़ पर किसी झरने के बगल में हाथों को हाथों में लिए बैठे हुए हैं। बस फिर क्या था, मेरे मन में आया कि क्यों ना हमेशा के लिए इस जगह को छोड़ने से पहले एक बार किसी हिल-स्टेशन की सैर कर उस साथी के सपने को पूरा किया जाए, इसे अपने जीवन की एक अविस्मरणीय यात्रा बना ली जाए। बस, गुलज़ार साहब के चमत्कृत कर देने वाले बोलों के सहारे हम भी चल पड़े उस बर्फ़ीली सर्दी वाले पहाड़ की तरफ़, जहाँ पर ख़ामोशियाँ गूंजती हुई सुनाई देती हो। और जहाँ तक आँखों में भीगे भीगे लम्हों का सवाल था, उसकी कसर हम दोनों ने पूरी कर दी। ख़ूब रोये हम एक दूसरे के कंधों पर सर रख कर। इस समाज व्यवस्था के लिए हम दोनों का अकेले इस तरह से जाने को शायद मान्यता ना मिले, लेकिन हमारा प्यार कितना पवित्र है, यह बस हम ही जानते हैं और हमें किसी को कोई कैफ़ीयत देने की ज़रूरत नहीं। तो हम पहुँच गए अपने गंतव्य स्थल, और जिस गीत को अब तक हज़ारों बार सुना था, ऐसा लगा कि पहली बार इसे हम जी रहे हों। "बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर, वादी में गूँजती हुई ख़ामोशियाँ सुनें, आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिए हुए..."। हम वापस भी आ गए और अब बस दो तीन रोज़ में मैं जा रहा हूँ यहाँ से, लेकिन गुलज़ार साहब का लिखा यह गीत हमेशा हमेशा के लिए जैसे मेरे दिल में, आँखों में क़ैद हो गया।

और पता है हम दोनों ने मिलकर इसी गीत को आगे बढ़ाते हुए कुछ लिखा भी है इस गीत की ही शैली में। गुलज़ार साहब का तो कोई भी मुक़ाबला नहीं कर सकता, बस युंही हमने कुछ लिख दिया यहाँ वहाँ से लफ़्ज़ जुटा कर। तो पहले पढ़िए कि मेरे साथी ने क्या लिखा है...

"या रिमझिम बरसात में झरोखे से ताक कर,
युंही काले बादलों की गड़गड़ाहट सुनें,
बूंदों को हथेलियों पर देखें टपकते हुए,
दिल ढ़ूंढ़ता है..."

और फिर मैंने भी तो कुछ लिखा था...

"सर्पीले रास्तों पे किसी कारवाँ में बैठकर,
नग़में प्यार के सुनें कांधों पे रख के सर,
पोंछते रहें अश्क़ों को मुस्कान लिए हुए,
दिल ढ़ूंढ़ता है..."

बस इतना ही कहना था मुझे। हमारे प्यार को भले ही स्वीकृति ना मिले लेकिन हम दोनों को पता है कि हमारे बीच किस तरह का मधुर रिश्ता है और वही हमारे लिए बहुत है। आप हम दोनों की तरफ़ से फ़िल्म 'मौसम' के इसी गीत को सुनवा दीजिएगा।

बहुत बहुत धन्यवाद!

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दोस्त, आप ने अपना नाम तो नहीं लिखा, ना ही उस हिलस्टेशन का नाम लिखा जहाँ पर आप गए थे, लेकिन फिर भी आपके ईमेल ने हमारे दिल को छू लिया और यही हमारे लिए बहुत है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं ज़िंदगी में जिन्हें कोई नाम नहीं दिया जा सकता। अब देखिए, गुलज़ार साहब ने ही तो लिखा था ना कि "हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ूशबू, हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलज़ाम ना दो, सिर्फ़ अहसास है यह रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो"। तो आइए फ़िल्म 'मौसम' के उस गीत को सुनते हैं लता मंगेशकर और भूपेन्द्र की आवाज़ों में जो अब आपके जीवन का एक हिस्सा बन चुका है। आपने इस गीत के साथ जुड़ी अपनी भावनाओं को तो व्यक्त कर दिया, अब हमें भी मौक़ा दीजिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के रवायत के मुताबिक़ इस गीत से जुड़ी कुछ तथ्य बताने का। विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में आशा भोसले और आर. डी. बर्मन से बातचीत करते हुए गुलज़ार साहब ने इस गीत के बारे में कहा था - "इस गाने के बारे में एक बात कह दूँ कि इस गाने का जो मुखड़ा है, जो पहली लाइन है, "दिल ढ़ूंढ़ता है फिर वोही फ़ुरसत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुर-ए-जाना किए हुए", यह दरअसल ग़ालिब का शेर है। तो कुछ शेरों में मैंने नज़्में कही है इस तरह कि वो फ़ुरसत के कौन से दिन थे, किस तरह का मूड होगा, जिसकी तलाश ग़ालिब कर रहे थे जब उन्होंने यह शेर कहा था। और यह सिचुएशन मेरे हाथ में थी कि यह आदमी छुट्टियों की तलाश कर रहा है, इसलिए मैंने ग़ालिब की इस शेर को ले लिया।" तो आइए मदन मोहन के संगीत निर्देशन में इस कालजयी रचना का आनंद लेते हैं। गीत तो उत्कृष्ट है ही, लता जी की आवाज़ में गीत का शुरुआती आलाप से ही जैसे इश्क़ हो जाता है, और मन कहीं दूर निकल जाता है फ़ुरसत के लम्हों की तलाश में। आप सब इस गीत के साथ अपने फ़ुरसत के उन मीठे लम्हों को दुबारा जी लीजिए और मुझे फिलहाल इजाज़त दीजिए कल तक के लिए, नमस्कार!

गीत - दिल ढ़ूंढ़ता है (मौसम, लता-भूपेन्द्र)


सुजॉय चट्टर्जी

Comments

बहुत शानदार गीत.. धन्यवाद.,
किसी दिन पंकज मलिक साहब की कम्पोजिशन "दिल को चुरा गया परदेसी" सुनवा दें..
Dear Sir,
Thanks for your courtesy and the following e-mail for me.
"We are very glad to receive your mail. hum aapke is mail ko is shanivaar 'Email ke bahaane' mein shaamil karenge. agar aap apni pasand ka koi geet sunwana chaahen to likh bhejiye.
Regards
Sujoy Chatterjee
But I haven't seen my mail as promised by you and the song I requested to listen is also missing. Is it really that hard to keep one's words? Regards,
Ashwani Roy
AVADH said…
वास्तव में हमारे अनाम साथी की ई-मेल बहुत मर्म स्पर्शी थी. गुलज़ार के गीत को बढ़ाने की कोशिश भी अच्छी ही थी.हमारी दुआ है कि उन्हें अपना प्यार मिले.
अवध लाल
AVADH said…
प्रिय अश्विनी भाई,
इतनी जल्दी नाराज़ न होइए. हो सकता है कि कुछ और साथियों की ई-मेल आपसे पहले प्राप्त हुई हों.इसलिए वायदा खिलाफी का इलज़ाम अभी लगाना शायद उचित न हो. After all, you may please give Sujoy ji the benefit of doubt.
अवध लाल
मैं आ गईईईइ .दोनों बच्चो की शादी हो गई.मौसम का गीत सुना रहे हैं न् ? यहाँ मौसम इतना बेईमान हुआ कि रिमझिम गिरे सावन -सा हो गया.पर फिर भी मौसम बड़ा प्यारा था जम के बरसते मह ने जोश को कम नही किया.शादी और रिसेप्शन के दिन एक बूँद नही गिरी.
ये गाना मुझे भी बहुत पसंद है 'तारों को देखते रहे छत पर पड़े हुए ' वाले दिन,माहौल अब नही रहे शहरो में किन्तु ये गीत मन को आज भी बहुत भाता है.सच्ची क्या करूं ? ऐसिच हूँ मैं तो आज भी.
अश्वनी जी, थोडा सा धैर्य रखिये....आने वाला शनिवार आपके नाम का है. फ़िल्मी जुबान में बोले तो "जो एक बार हमने कमिटमेंट कर दिया तो कर दिया...." :) अब तो मुस्कुरा दीजिए

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