ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ में छोटे मोटे काम करने लगे। उनके फ़िल्मी करीयर की शुरुआत हुई थी 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' में बतौर बिट-प्लेयर १९२७ की मूक फ़िल्म 'अलीबाबा और चालीस चोर' फ़िल्म में। उन चालीस चोरों में से एक चोर वो भी थे फ़िल्म में। बोलती फ़िल्मों की शुरुआत होने पर उन्होंने कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया, जिनमें शामिल हैं 'मेरी जान' (१९३१), 'दिलावर' (१९३१) और 'ज़रीना' (१९३२)। उसके बाद वो जुड़े 'सागर मूवीटोन' के साथ और कई फ़िल्मों में चरित्र किरदारों के रोल अदा किए। बतौर निर्देशक उन्हें पहला ब्रेक इसी कंपनी ने दिया सन १९३५ में, और फ़िल्म थी 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह'। सिसिल बी. डी'मिले की १९३२ की फ़िल्म 'दि साइन ऒफ़ दि क्रॊस' से प्रेरीत इस फ़िल्म का विषय था रोमन-अरब में मुठभेड़। फ़िल्म काफ़ी चर्चित हुई और इसी फ़िल्म से शुरु हुई एक ऐसी जोड़ी की जो अंत तक कायम रही। यह जोड़ी थी महबूब ख़ान और कैमरामैन फ़रदून ए. ईरानी की। ईरानी ने महबूब साहब के हर फ़िल्म को अपने कैमरे पर उतारा।
दोस्तों, महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी को हम कल फिर आगे बढ़ाएँगे, आइए अब आज के गीत का ज़िक्र किया जाए। आपको सुनवा रहे हैं १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और मशहूर गीत "उठाये जा उनके सितम और जीये जा"। लता मंगेशकर की कमसिन आवाज़ में यह है नौशाद साहब की संगीत रचना। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी। हुआ युं था कि महबूब साहब की १९४८ की फ़िल्म 'अनोखी अदा' बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही थी। और उससे पहले साल १९४७ में भी 'ऐलान' और 'एक्स्ट्रा गर्ल' फ़िल्मों के सितारे भी गर्दिश में ही रहे थे। ऐसे में महबूब साहब ने अपनी पूरी टीम को ही बदल डालने की सोची सिवाय संगीतकार नौशाद के। जहाँ तक गीत संगीत पक्ष का सवाल है, मुकेश और लता आ गये सुरेन्द्र और उमा देवी की जगह, और गीतकार शक़ील बदायूनी की जगह मजरूह साहब को चुना गया। फ़िल्म की कहानी प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी और इस फ़िल्म ने इस जौनर का ट्रेण्ड सेट कर दिया। राज कपूर, दिलीप कुमार और नरगिस का प्रेम त्रिकोण इस फ़िल्म में लोगों को ख़ूब रास आया और फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई। फ़िल्म के साथ साथ इसके गानें भी ऐसे लोकप्रिय हुए कि आज भी ये सुनाई पड़ जाते हैं। नौशाद साहब जब विविध भारती के 'जयमाला' में तशरीफ़ लाये थे, तब इसी गीत को बजाते हुए उन्होंने कहा था - "महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़' के लिए उन्होंने मुझे म्युज़िक डिरेक्टर चुना और उन्होंने प्लेबैक सिंगर्स चुनने का ज़िम्मा भी मुझे ही सौंपा। मैंने हीरोइन नरगिस के लिए पहली बार लता मंगेशकर की आवाज़ चुनी। महबूब साहब कहने लगे कि मराठी ज़ुबान की लड़की है, क्या ये उर्दू ज़बान के शब्द ठीक से बोल पाएगी? मैंने उनसे कहा कि यह ज़िम्मेदारी मेरी है, आपकी नहीं। उसके बाद वे बिल्कुल चुप हो गए। मैंने लता को ख़ूब रटाया, अच्छी तरह से सिखाया बिना धुन के। मैंने उससे कहा कि पहला टेक ही ओ.के होना चाहिए, मैंने सब लोगों को चैलेंज दिया है कि फ़र्स्ट टेक ही ओ.के. होगा। लता मेरे विश्वास पर खरी उतरी और नतीजा आपके सामने है। तो सुनिए यही गीत फ़िल्म 'अंदाज़ से।"
क्या आप जानते हैं...
कि शक़ील बदायूनी के अपने १८ वर्ष के करीयर में नौशाद साहब के संगीत में 'अंदाज़' ही एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने गीत नहीं लिखे। नौशाद की बाक़ी सभी फ़िल्मों में शक़ील ने ही गीत लिखे थे जब तक शक़ील ज़िंदा थे।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ७ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है लता की
सवाल १ - गीत के मुखड़े में किस संगीत वाध्य का जिक्र है - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
मुकाबला दिलचस्प है और बाज़ी किसी की भी हो सकती है, पर इस पल तो श्याम जी आगे हैं...बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ में छोटे मोटे काम करने लगे। उनके फ़िल्मी करीयर की शुरुआत हुई थी 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' में बतौर बिट-प्लेयर १९२७ की मूक फ़िल्म 'अलीबाबा और चालीस चोर' फ़िल्म में। उन चालीस चोरों में से एक चोर वो भी थे फ़िल्म में। बोलती फ़िल्मों की शुरुआत होने पर उन्होंने कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया, जिनमें शामिल हैं 'मेरी जान' (१९३१), 'दिलावर' (१९३१) और 'ज़रीना' (१९३२)। उसके बाद वो जुड़े 'सागर मूवीटोन' के साथ और कई फ़िल्मों में चरित्र किरदारों के रोल अदा किए। बतौर निर्देशक उन्हें पहला ब्रेक इसी कंपनी ने दिया सन १९३५ में, और फ़िल्म थी 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह'। सिसिल बी. डी'मिले की १९३२ की फ़िल्म 'दि साइन ऒफ़ दि क्रॊस' से प्रेरीत इस फ़िल्म का विषय था रोमन-अरब में मुठभेड़। फ़िल्म काफ़ी चर्चित हुई और इसी फ़िल्म से शुरु हुई एक ऐसी जोड़ी की जो अंत तक कायम रही। यह जोड़ी थी महबूब ख़ान और कैमरामैन फ़रदून ए. ईरानी की। ईरानी ने महबूब साहब के हर फ़िल्म को अपने कैमरे पर उतारा।
दोस्तों, महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी को हम कल फिर आगे बढ़ाएँगे, आइए अब आज के गीत का ज़िक्र किया जाए। आपको सुनवा रहे हैं १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और मशहूर गीत "उठाये जा उनके सितम और जीये जा"। लता मंगेशकर की कमसिन आवाज़ में यह है नौशाद साहब की संगीत रचना। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी। हुआ युं था कि महबूब साहब की १९४८ की फ़िल्म 'अनोखी अदा' बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही थी। और उससे पहले साल १९४७ में भी 'ऐलान' और 'एक्स्ट्रा गर्ल' फ़िल्मों के सितारे भी गर्दिश में ही रहे थे। ऐसे में महबूब साहब ने अपनी पूरी टीम को ही बदल डालने की सोची सिवाय संगीतकार नौशाद के। जहाँ तक गीत संगीत पक्ष का सवाल है, मुकेश और लता आ गये सुरेन्द्र और उमा देवी की जगह, और गीतकार शक़ील बदायूनी की जगह मजरूह साहब को चुना गया। फ़िल्म की कहानी प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी और इस फ़िल्म ने इस जौनर का ट्रेण्ड सेट कर दिया। राज कपूर, दिलीप कुमार और नरगिस का प्रेम त्रिकोण इस फ़िल्म में लोगों को ख़ूब रास आया और फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई। फ़िल्म के साथ साथ इसके गानें भी ऐसे लोकप्रिय हुए कि आज भी ये सुनाई पड़ जाते हैं। नौशाद साहब जब विविध भारती के 'जयमाला' में तशरीफ़ लाये थे, तब इसी गीत को बजाते हुए उन्होंने कहा था - "महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़' के लिए उन्होंने मुझे म्युज़िक डिरेक्टर चुना और उन्होंने प्लेबैक सिंगर्स चुनने का ज़िम्मा भी मुझे ही सौंपा। मैंने हीरोइन नरगिस के लिए पहली बार लता मंगेशकर की आवाज़ चुनी। महबूब साहब कहने लगे कि मराठी ज़ुबान की लड़की है, क्या ये उर्दू ज़बान के शब्द ठीक से बोल पाएगी? मैंने उनसे कहा कि यह ज़िम्मेदारी मेरी है, आपकी नहीं। उसके बाद वे बिल्कुल चुप हो गए। मैंने लता को ख़ूब रटाया, अच्छी तरह से सिखाया बिना धुन के। मैंने उससे कहा कि पहला टेक ही ओ.के होना चाहिए, मैंने सब लोगों को चैलेंज दिया है कि फ़र्स्ट टेक ही ओ.के. होगा। लता मेरे विश्वास पर खरी उतरी और नतीजा आपके सामने है। तो सुनिए यही गीत फ़िल्म 'अंदाज़ से।"
क्या आप जानते हैं...
कि शक़ील बदायूनी के अपने १८ वर्ष के करीयर में नौशाद साहब के संगीत में 'अंदाज़' ही एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने गीत नहीं लिखे। नौशाद की बाक़ी सभी फ़िल्मों में शक़ील ने ही गीत लिखे थे जब तक शक़ील ज़िंदा थे।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ७ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है लता की
सवाल १ - गीत के मुखड़े में किस संगीत वाध्य का जिक्र है - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
मुकाबला दिलचस्प है और बाज़ी किसी की भी हो सकती है, पर इस पल तो श्याम जी आगे हैं...बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
अवध लाल
अवध लाल
अब दूसरे उत्तर पर ही गुज़ारा करना पड़ेगा.
अवध लाल
उत्तर तो सभी प्रश्नों के आ ही चुके हैं.क्या बोलू?यूँ मुझे बोलने के लिए किसी टोपिक की जरूरत ही नही पडती.क्या करू?ऐसिच हूँ मैं तो.
पर....आप लोगो से बहुत प्यार करती हूँ यकीन करे ना करे.जल्दी ही आती हूँ.