ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 517/2010/217
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! एक दोहे मे कहा गया है कि "दोस (दोष) पराये देख के चला हसन्त हसन्त, अपनी याद ना आवे जिनका आदि ना अंत"। यानी कि हम दूसरों की ग़लतियों को देख कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन अपनी ग़लतियों का कोई अहसास नहीं होता। अब आप अगर यह सोच रहे होंगे कि हमें दूसरों की ग़लतियाँ नहीं निकालनी चाहिए, तो ज़रा ठहरिए, क्योंकि कबीरदास के एक अन्य दोहे में यह भी कहा गया है कि "निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटि चवाय, बिना पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय"। यानि कि हमें उन लोगों को अपने आस पास ही रखने चाहिए जो हमारी निंदा करते हैं, ताकि इसी बहाने हमें अपनी ख़ामियों और ग़लतियों के बारे में पता चलता रहेगा, जिससे कि हम अपने आप को सुधार सकते हैं। आप समझ रहे होंगे कि हम ये सब बातें किस संदर्भ में कर रहे हैं। जी हाँ, 'गीत गड़बड़ी वले' शृंखला के संदर्भ में। क्या है कि हमें भी अच्छा तो नहीं लग रहा है कि इन महान कलाकारों की ग़लतियों को बार बार उजागर करें, लेकिन अब जब शृंखला शुरु हो ही चुकी है, तो इसे अंजाम भी तो देना पड़ेगा। तो चलिए सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। आज और कल के लिए हमने दो ऐसे गीत चुने हैं जिनमें किसी शब्द में नुक्ता लगा देने की वजह से ग़लत उच्चारण हो गया है। इस तरह की ग़लतियाँ उस समय होती है जब गीतकार रिहर्सल या रेकॊर्डिंग् पर मौजूद ना हों। आज का गीत है फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का, जिसे आशा भोसले ने गाया है। गीत के बोल हैं "मैं जब भी अकेली होती हूँ, तुम चुपके से आ जाते हो, और झाँक के मेरी आँखों में, बीते दिन याद दिलाते हो"। इस गीत के अंतिम अंतरे के बोल हैं - "रो रो के तुम्हे ख़त लिखती हूँ, और ख़ुद पढ़ कर रो लेती हूँ, हालात के तपते तूफान में जज़्बात की कश्ती खेती हूँ"। आशा जी ने "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों को तो नुक्ता के साथ सही सही गाया, लेकिन उन्होंने ग़लती से "खेती" शब्द में भी नुक्ता लगा कर उसे "ख़ेती" कर दिया। यह ग़लती ज़रूर "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों की वजह से ही हुई होगी, जिनकी वजह से यकायक उनके मुख से "खेती" के बजाय "ख़ेती" निकल गया होगा। ख़ैर, कोई बात नहीं, इतने सुंदर गीत के लिए ऐसी छोटी सी ग़लती तो माफ़ की ही जा सकती है, है न?
'धर्मपुत्र' साल १९६१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था बी. आर. चोपड़ा ने और उनके छोटे भाई यश चोपड़ा इस फ़िल्म के निर्देशक थे। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शशि कपूर, माला सिंहा, रहमान, । आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म को लिखा था अख़्तर-उल-रहमान ने। फ़िल्म के गानें लिखे साहिर लुधियानवी ने और संगीत था एन. दत्ता का। साहिर और एन. दत्ता की जोड़ी इससे पहले बी. आर. फ़िल्म्स की ही 'धूल का फूल' में काम कर चुकी थी। आपको यह भी बता दें कि यश चोपड़ा ने 'धूल का फूल' निर्देशित कर अपने आप को बतौर निर्देशक स्थापित किया था, और 'धर्मपुत्र' उनकी निर्देशित दूसरी फ़िल्म थी। इन दोनों फ़िल्मों को देख कर लोगों को पता चल चुका था कि यश चोपड़ा फ़िल्मी दुनिया में लम्बी पारी खेलने के लिए ही उतरे हैं। 'धर्मपुत्र' के सिनेमाटोग्राफ़र थे धरम चोपड़ा और सहायक संगीत निर्देशक के रूप में फ़िल्म के संगीत सृजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया यूसुफ़ आज़ाद ने। 'धुनों की यात्रा' किताब के लेखक पंकज राग के शब्दों में, "विभाजन की ख़ूनी पृष्ठभूमि में पनपते प्यार के क्षणों को पूरी फ़िल्म में संजोकर रखने में साहिर के गीतों और एन. दत्ता की धुनों ने बड़ा योअगदान दिया। बागेश्वरी का पुट देकर काफ़ी हाट में "मैं जब भी अकेली होती हूँ" में आशा की गायकी के द्वारा किस ख़ूबी से प्यार के लम्हों को जीवन्त करने में एन. दत्ता सफल रहे थे, यह इस गीत को सुन कर ही पता चलता है।" तो लीजिए दोस्तों, हम सब मिलकर सुनें फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का यह ख़ूबसूरत गीत।
क्या आप जानते हैं...
कि एन. दत्ता का पूरा नाम है दत्ता नाइक, और उनकी पहली दो फ़िल्में थीं 'मिलाप' और 'मैरीन ड्राइव', ये दोनों ही फ़िल्में १९५५ में प्रदर्शित हुई थीं।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०८ /शृंखला ०२
लीजिए गीत का प्रिल्यूड और शुरूआती शेर भी सुन लीजिए-
अतिरिक्त सूत्र - ये आवाज़ थी लता मंगेशकर की.
सवाल १ - फिल्म का नाम और निर्देशक बताएं - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
इस दूसरी शृंखला में श्याम कान्त जी और अमित जी अब ७-७ अंकों पर साथ साथ हैं, शरद जी ५ और बिट्टू जी ४ अंकों पर हैं, मुकाबल दिलचस्प है....आज के जवाब पर बहुत निर्भर करेगा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! एक दोहे मे कहा गया है कि "दोस (दोष) पराये देख के चला हसन्त हसन्त, अपनी याद ना आवे जिनका आदि ना अंत"। यानी कि हम दूसरों की ग़लतियों को देख कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन अपनी ग़लतियों का कोई अहसास नहीं होता। अब आप अगर यह सोच रहे होंगे कि हमें दूसरों की ग़लतियाँ नहीं निकालनी चाहिए, तो ज़रा ठहरिए, क्योंकि कबीरदास के एक अन्य दोहे में यह भी कहा गया है कि "निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटि चवाय, बिना पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय"। यानि कि हमें उन लोगों को अपने आस पास ही रखने चाहिए जो हमारी निंदा करते हैं, ताकि इसी बहाने हमें अपनी ख़ामियों और ग़लतियों के बारे में पता चलता रहेगा, जिससे कि हम अपने आप को सुधार सकते हैं। आप समझ रहे होंगे कि हम ये सब बातें किस संदर्भ में कर रहे हैं। जी हाँ, 'गीत गड़बड़ी वले' शृंखला के संदर्भ में। क्या है कि हमें भी अच्छा तो नहीं लग रहा है कि इन महान कलाकारों की ग़लतियों को बार बार उजागर करें, लेकिन अब जब शृंखला शुरु हो ही चुकी है, तो इसे अंजाम भी तो देना पड़ेगा। तो चलिए सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। आज और कल के लिए हमने दो ऐसे गीत चुने हैं जिनमें किसी शब्द में नुक्ता लगा देने की वजह से ग़लत उच्चारण हो गया है। इस तरह की ग़लतियाँ उस समय होती है जब गीतकार रिहर्सल या रेकॊर्डिंग् पर मौजूद ना हों। आज का गीत है फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का, जिसे आशा भोसले ने गाया है। गीत के बोल हैं "मैं जब भी अकेली होती हूँ, तुम चुपके से आ जाते हो, और झाँक के मेरी आँखों में, बीते दिन याद दिलाते हो"। इस गीत के अंतिम अंतरे के बोल हैं - "रो रो के तुम्हे ख़त लिखती हूँ, और ख़ुद पढ़ कर रो लेती हूँ, हालात के तपते तूफान में जज़्बात की कश्ती खेती हूँ"। आशा जी ने "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों को तो नुक्ता के साथ सही सही गाया, लेकिन उन्होंने ग़लती से "खेती" शब्द में भी नुक्ता लगा कर उसे "ख़ेती" कर दिया। यह ग़लती ज़रूर "ख़त" और "ख़ुद" शब्दों की वजह से ही हुई होगी, जिनकी वजह से यकायक उनके मुख से "खेती" के बजाय "ख़ेती" निकल गया होगा। ख़ैर, कोई बात नहीं, इतने सुंदर गीत के लिए ऐसी छोटी सी ग़लती तो माफ़ की ही जा सकती है, है न?
'धर्मपुत्र' साल १९६१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था बी. आर. चोपड़ा ने और उनके छोटे भाई यश चोपड़ा इस फ़िल्म के निर्देशक थे। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शशि कपूर, माला सिंहा, रहमान, । आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म को लिखा था अख़्तर-उल-रहमान ने। फ़िल्म के गानें लिखे साहिर लुधियानवी ने और संगीत था एन. दत्ता का। साहिर और एन. दत्ता की जोड़ी इससे पहले बी. आर. फ़िल्म्स की ही 'धूल का फूल' में काम कर चुकी थी। आपको यह भी बता दें कि यश चोपड़ा ने 'धूल का फूल' निर्देशित कर अपने आप को बतौर निर्देशक स्थापित किया था, और 'धर्मपुत्र' उनकी निर्देशित दूसरी फ़िल्म थी। इन दोनों फ़िल्मों को देख कर लोगों को पता चल चुका था कि यश चोपड़ा फ़िल्मी दुनिया में लम्बी पारी खेलने के लिए ही उतरे हैं। 'धर्मपुत्र' के सिनेमाटोग्राफ़र थे धरम चोपड़ा और सहायक संगीत निर्देशक के रूप में फ़िल्म के संगीत सृजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया यूसुफ़ आज़ाद ने। 'धुनों की यात्रा' किताब के लेखक पंकज राग के शब्दों में, "विभाजन की ख़ूनी पृष्ठभूमि में पनपते प्यार के क्षणों को पूरी फ़िल्म में संजोकर रखने में साहिर के गीतों और एन. दत्ता की धुनों ने बड़ा योअगदान दिया। बागेश्वरी का पुट देकर काफ़ी हाट में "मैं जब भी अकेली होती हूँ" में आशा की गायकी के द्वारा किस ख़ूबी से प्यार के लम्हों को जीवन्त करने में एन. दत्ता सफल रहे थे, यह इस गीत को सुन कर ही पता चलता है।" तो लीजिए दोस्तों, हम सब मिलकर सुनें फ़िल्म 'धर्मपुत्र' का यह ख़ूबसूरत गीत।
क्या आप जानते हैं...
कि एन. दत्ता का पूरा नाम है दत्ता नाइक, और उनकी पहली दो फ़िल्में थीं 'मिलाप' और 'मैरीन ड्राइव', ये दोनों ही फ़िल्में १९५५ में प्रदर्शित हुई थीं।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ०८ /शृंखला ०२
लीजिए गीत का प्रिल्यूड और शुरूआती शेर भी सुन लीजिए-
अतिरिक्त सूत्र - ये आवाज़ थी लता मंगेशकर की.
सवाल १ - फिल्म का नाम और निर्देशक बताएं - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
इस दूसरी शृंखला में श्याम कान्त जी और अमित जी अब ७-७ अंकों पर साथ साथ हैं, शरद जी ५ और बिट्टू जी ४ अंकों पर हैं, मुकाबल दिलचस्प है....आज के जवाब पर बहुत निर्भर करेगा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
Pratibha Kaushal-Sampat
Ottawa, CANADA
Kishore "Kish" Sampat
Ottawa, Canada
बेटे आदित्य की शादी है अठारह नवम्बर की और बिटिया की सगाई आज ही हुई है.
क्या कहा बधाई देना चाहते हैं????
तो दीजिए ना बाबा.
मैं बहुत खुश हूँ.अब बिजी होने का कारन मालुम हो गया न? तो माफ कर दीजिए.आप सबको ढेर सारा प्यार.नमस्कार....और दीपावली की इत्तीईईईई सारी बधाइयाँ.फिल्म धरती कहे पुकार के का एक मात्र उमंग भरा दीपावली और दीयों की बात करता गाना याद आ रहा है .तो सुनिए...'दीये जलाएं प्यार के चलो इसी खुशी में बरस बीता के आई है ये शाम जिंदगी में...आगे की पंक्तियाँ और भी प्यारी है आप खुद सुनियेगा.नही याद आ रहा???अपने सुजॉय और सजीव जी किस लिए हैं.एक बार उन्हें कहिये.यूँ भी ये गीत आज तक नही सुनाया है उन्होंने.
मैंने तो सुर्रा छोड़ दिया और ये फुर्र्रर्र्र हुई.
क्या करूं? ऐसिच हूँ मैं तो .पक्की नालायक और दुष्ट.
कैसे हो कहाँ हो कुछ तो कहो.....
मैं तुम को सदायें देती हूँ......
इस खेती को फिर से सुनना पडेगा...हमारे ख़याल से आशा ने ..अपने हिसाब से ग़लत नहीं गाया होगा...
आवाज...
जो कितना सब कुछ चेक करता है...और हिंद युग्म..कविता...
क्यूँ कुछ भी चेक नहीं करता.......??
अब क्या आपने नोट किया था कि उसमें शुरू में रफ़ी साहेब के उच्चारण में भी नुक़ते की ग़लती हुई थी.हम सब दोस्तों का मानना था कि रफ़ी साहेब ने एक/दो जगह "नाराज़"(naaraaz) की जगह कहा था "नाराज"(naaraaj).अब दुबारा ज़रा गौर से फिर सुनियेगा.जबकि अन्य शब्द जैसे 'ज़िन्दगी'वगैरह में कोई शंका नहीं थी.
हमारी सहमति थी कि यह भूलवश नहीं बल्कि शायद जानबूझ कर किया गया था. क्योंकि रफ़ी साहेब वैसे चाहे पंजाब से रहे हों पर उनके "शीन क़ाफ" पर कोई शक नहीं किया जा सकता था.
अब आप बताएं कि क्या हमारी सोच सही थी?
अवध लाल
मुझे भी ऐसा ही लगा था. पर सुनने पर साफ़ ज़ाहिर है. आशा जी से ग़लती तो हुई थी.
अगर आज की पीढ़ी बुरा न माने तो एक बात कहने की इजाज़त चाहता हूँ. अधिकतर युवावर्ग की बोली में आप पाएंगे कि 'फ' और 'फ़' में बहुधा ग़ल्तियाँ होती हैं जैसे 'रायता फ़ैल (फैल नहीं) गया', 'कपड़ा फ़ट (फट नहीं) गया', 'फ़टाफ़ट (फटाफट नहीं), 'फ़िर (फिर नहीं) एक बार', 'कहाँ फ़ंस(फँस नहीं)गए', आदि, आदि.
अवध लाल
माफ़ी चाहते हैं...
जिस गीत का ज़िक्र था उसे देखते ही जाने क्या हो गया था...
अब अवध जी का तहे-दिल से शुक्रिया...
आपकी ही वजह से इस खूबसूरत गीत का फिल्मांकन आज पहली बार देखा ...यूं ट्यूब पर...बचपन में जब ये सुना था तो खेती और ख़इति (लिखा नहीं जा रहा...) में इतना फर्क नहीं मालूम था..आशा जी से गलती ही हुई है..
अब रफ़ी साहब की बात भी सही है...फिल्म संगम के गाने में भी नुक्ते की गलती है ..
पर रफ़ी साहब से.....!!!
हो सकता है कि ये जानबूझ कर डाली गयी हो.....क्यूंकि रफ़ी, लता, के उच्चारण पर शक नहीं है..बेशक रफ़ी साहब पंजाब के हों और लता दक्षीण की.....जहां कहीं रफ़ी जी का पंजाबी लहजा मिलता भी है तो जानकर गाया लगता है..
जैसे..
लत है किसी की जादू का जाल
रंग डाले दिल पे किसी का जमाल...
फिलहाल दोबारा माला सिन्हा और रहमान पर फिल्माए इस गीत का लुत्फ़ उठाने जा रहे हैं...वो छत पर फिल्माया गया सीन तो एकदम मस्त है..
:)
माफ़ी चाहते हैं...
जिस गीत का ज़िक्र था उसे देखते ही जाने क्या हो गया था...
अब अवध जी का तहे-दिल से शुक्रिया...
आपकी ही वजह से इस खूबसूरत गीत का फिल्मांकन आज पहली बार देखा ...यूं ट्यूब पर...बचपन में जब ये सुना था तो खेती और ख़इति (लिखा नहीं जा रहा...) में इतना फर्क नहीं मालूम था..आशा जी से गलती ही हुई है..
अब रफ़ी साहब की बात भी सही है...फिल्म संगम के गाने में भी नुक्ते की गलती है ..
पर रफ़ी साहब से.....!!!
हो सकता है कि ये जानबूझ कर डाली गयी हो.....क्यूंकि रफ़ी, लता, के उच्चारण पर शक नहीं है..बेशक रफ़ी साहब पंजाब के हों और लता दक्षीण की.....जहां कहीं रफ़ी जी का पंजाबी लहजा मिलता भी है तो जानकर गाया लगता है..
जैसे..
लत है किसी की जादू का जाल
रंग डाले दिल पे किसी का जमाल...
फिलहाल दोबारा माला सिन्हा और रहमान पर फिल्माए इस गीत का लुत्फ़ उठाने जा रहे हैं...वो छत पर फिल्माया गया सीन तो एकदम मस्त है..
:)