नमस्कार! 'ओल इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों, सभी चाहनेवालों का हम फिर एक बार इस साप्ताहिक विशेषांक में हार्दिक स्वागत करते हैं। हफ़्ते दर हफ़्ते हम इस साप्ताहिक स्तंभ में आपके ईमेलों को शामिल करते चले आ रहे हैं। और हम आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं कि आपने हमारे इस नए प्रयास को हाथों हाथ ग्रहण किया और अपने प्यार से नवाज़ा, और इसे सफल बनाया। हमारे वो साथी जो अब तक इस साप्ताहिक स्तम्भ से थोड़े दूर दूर ही रहे हैं, उनसे भी हमारी ग़ुज़ारिश है कि कम से कम एक ईमेल तो हमें करें अपनी यादें हमारे साथ बांटें। और कुछ ना सही तो किसी गीत की ही फ़रमाइश हमें लिख भेजें बस इतना लिखते हुए कि यह गीत आपको क्यों इतना पसंद है। oig@hindyugm.com के पते पर हम आपके ईमेलों का इंतज़ार किया करते हैं। और आइए अब पढ़ें कि आज किन्होंने हमें ईमेल किया है....
**********************************************
महोदय,
नमस्कार!
वास्तव में पहले से ही मालूम था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति सब से महान थी और आज भी है, आने वाले समय में भी इसकी बराबरी शायद ही कोई कर पाए। जो संगीत मैंने बचपन में सुना था वह आज इंटरनेट के माध्यम से हिन्दयुग्म पर देख और सुन सकता हूँ। इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई। हमारा शास्त्रीय संगीत सचमुच एक अमूल्य धरोहर है तथा आज भी एक ध्रुव तारे की तरह हमारा मार्ग-दर्शन कर रहा है। यदि पुराने संगीतकारों की तुलना आजकल वालों से करें तो पता चलता है कि पश्चिम की अनाप शनाप नक़ल करके हम अपने शुद्ध भारतीय संगीत से विमुख होते जा रहे है। इसमें दिनों दिन सुरीलापन भी कम होने लगा है जो चिंता की बात है। आप 'हिन्दयुग्म' के माध्यम से आजकल की पीढी को पुराने गीतों से जोड़ने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है। पुराने गीत आज भी उसी आकर्षण के साथ सुने जाते हैं जैसे पहले सुने जाते थे। आधुनिक संगीतकारों को सुन कर मुझे फैज़ अहमद फैज़ कि लिखी वह शायरी याद आने लगती है जिसमें उन्होंने कहा था, "कैसे कैसे लोग देखो ऐसे वैसे हो गए .....ऐसे वैसे लोग देखो कैसे कैसे हो गए"। एक दिन शायद ऐसा भी हो जब इतने अमूल्य संगीत को सुनने वाला कोई भी न हो। भगवान न करे कभी ऐसा दिन देखने को मिले। आपके प्रयास सार्थक हों, यही मेरी शुभकामना है।
सादर,
अश्विनी कुमार रॉय
************************************
अश्विनी जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका इस ईमेल के लिए, और आपका बहुत बहुत स्वागत है 'आवाज़' के इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ पर। यकीन मानिए, नये नये दोस्तों से जुड़कर हमें बेहद आनंद आता है, आगे भी युंही हमारे साथ सम्पर्क बनाये रखिएगा। इसमें कोई शक़ नहीं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे ज़्यादा कर्णप्रिय है और इसके वैज्ञानिक पक्ष और औषधिक गुणवत्ता को तो अब पश्चिम ने भी स्वीकारा है। जहाँ तक नये संगीतकारों के बारे में आपके विचार हैं, अब क्या किया जा सकता है, समय समय की बात है। अब देखिए ना, हम भी तो कागज़ पर ख़त लिखना छोड़ कर ईमेल के माध्यम से अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। ईमेल में वह बात कहाँ, वह जज़्बात कहाँ जो कागज़ पर लिखे ख़त में होते हैं। ठीक कहा ना? लेकिन क्या किया जाये, समय के साथ भी तो चलना है। अगर समय के साथ ना चलें तो समय ख़ुद ही हमें पीछे छोड़ देता है। हमें ऐसा लगता है कि दौर का संगीत अपने अपने जगह पर हैं। पुराने गानें बेहद सुरीले और अर्थपूर्ण हैं, इसमें कोई शक़ नहीं। ऐसा कभी नहीं होगा कि भविष्य में इन्हें सुनने वाले ना हों। अच्छे चीज़ की क़दर हर युग में बनी रहेगी, यही हमारा विश्वास है। और फिर साहिर साहब ने भी कहा है कि "कल और आयेंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"।
अश्विनी जी, आपने आगे अपने ईमेल में फ़िल्म 'सोहनी महिवाल' का गीत सुनना चाहा है महेन्द्र कपूर की आवाज़ में। आपने इस गीत के बारे में लिखा है कि यह महेन्द्र कपूर के करीयर का पहला महत्वपूर्ण गीत रहा है। इस गीत के अवधि करीब करीब ८ मिनट की है, जो उस समय के लिहाज़ से काफ़ी लम्बी है। पूरे गीत में बदलते दृश्यों के हिसाब से संगीत संयोजन में भी काफ़ी विविधता है, जिसके लिए श्रेय जाता है संगीतकार नौशाद साहब को। नौशाद साहब ने इस गीत के लिए ११०-पीस ऒर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था। तो आइए आपके अनुरोध पर सुनते हैं शक़ील बदयूनी की यह रचना।
गीत - रात ग़ज़ब की आई (सोहनी महिवाल)
तो बस आज इतना ही, अगले हफ़्ते का अंक बेहद बेहद बेहद ख़ास होगा। कैसे होगा, यह तो उसी दिन आपको पता चलेगा। तो उत्सुक्ता के जस्बे को बनाये रखिए और आज के लिये मुझे इजाज़त दीजिए। कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, नमस्कार!
सुजॉय चट्टर्जी
**********************************************
महोदय,
नमस्कार!
वास्तव में पहले से ही मालूम था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति सब से महान थी और आज भी है, आने वाले समय में भी इसकी बराबरी शायद ही कोई कर पाए। जो संगीत मैंने बचपन में सुना था वह आज इंटरनेट के माध्यम से हिन्दयुग्म पर देख और सुन सकता हूँ। इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई। हमारा शास्त्रीय संगीत सचमुच एक अमूल्य धरोहर है तथा आज भी एक ध्रुव तारे की तरह हमारा मार्ग-दर्शन कर रहा है। यदि पुराने संगीतकारों की तुलना आजकल वालों से करें तो पता चलता है कि पश्चिम की अनाप शनाप नक़ल करके हम अपने शुद्ध भारतीय संगीत से विमुख होते जा रहे है। इसमें दिनों दिन सुरीलापन भी कम होने लगा है जो चिंता की बात है। आप 'हिन्दयुग्म' के माध्यम से आजकल की पीढी को पुराने गीतों से जोड़ने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है। पुराने गीत आज भी उसी आकर्षण के साथ सुने जाते हैं जैसे पहले सुने जाते थे। आधुनिक संगीतकारों को सुन कर मुझे फैज़ अहमद फैज़ कि लिखी वह शायरी याद आने लगती है जिसमें उन्होंने कहा था, "कैसे कैसे लोग देखो ऐसे वैसे हो गए .....ऐसे वैसे लोग देखो कैसे कैसे हो गए"। एक दिन शायद ऐसा भी हो जब इतने अमूल्य संगीत को सुनने वाला कोई भी न हो। भगवान न करे कभी ऐसा दिन देखने को मिले। आपके प्रयास सार्थक हों, यही मेरी शुभकामना है।
सादर,
अश्विनी कुमार रॉय
************************************
अश्विनी जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका इस ईमेल के लिए, और आपका बहुत बहुत स्वागत है 'आवाज़' के इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ पर। यकीन मानिए, नये नये दोस्तों से जुड़कर हमें बेहद आनंद आता है, आगे भी युंही हमारे साथ सम्पर्क बनाये रखिएगा। इसमें कोई शक़ नहीं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे ज़्यादा कर्णप्रिय है और इसके वैज्ञानिक पक्ष और औषधिक गुणवत्ता को तो अब पश्चिम ने भी स्वीकारा है। जहाँ तक नये संगीतकारों के बारे में आपके विचार हैं, अब क्या किया जा सकता है, समय समय की बात है। अब देखिए ना, हम भी तो कागज़ पर ख़त लिखना छोड़ कर ईमेल के माध्यम से अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। ईमेल में वह बात कहाँ, वह जज़्बात कहाँ जो कागज़ पर लिखे ख़त में होते हैं। ठीक कहा ना? लेकिन क्या किया जाये, समय के साथ भी तो चलना है। अगर समय के साथ ना चलें तो समय ख़ुद ही हमें पीछे छोड़ देता है। हमें ऐसा लगता है कि दौर का संगीत अपने अपने जगह पर हैं। पुराने गानें बेहद सुरीले और अर्थपूर्ण हैं, इसमें कोई शक़ नहीं। ऐसा कभी नहीं होगा कि भविष्य में इन्हें सुनने वाले ना हों। अच्छे चीज़ की क़दर हर युग में बनी रहेगी, यही हमारा विश्वास है। और फिर साहिर साहब ने भी कहा है कि "कल और आयेंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"।
अश्विनी जी, आपने आगे अपने ईमेल में फ़िल्म 'सोहनी महिवाल' का गीत सुनना चाहा है महेन्द्र कपूर की आवाज़ में। आपने इस गीत के बारे में लिखा है कि यह महेन्द्र कपूर के करीयर का पहला महत्वपूर्ण गीत रहा है। इस गीत के अवधि करीब करीब ८ मिनट की है, जो उस समय के लिहाज़ से काफ़ी लम्बी है। पूरे गीत में बदलते दृश्यों के हिसाब से संगीत संयोजन में भी काफ़ी विविधता है, जिसके लिए श्रेय जाता है संगीतकार नौशाद साहब को। नौशाद साहब ने इस गीत के लिए ११०-पीस ऒर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था। तो आइए आपके अनुरोध पर सुनते हैं शक़ील बदयूनी की यह रचना।
गीत - रात ग़ज़ब की आई (सोहनी महिवाल)
तो बस आज इतना ही, अगले हफ़्ते का अंक बेहद बेहद बेहद ख़ास होगा। कैसे होगा, यह तो उसी दिन आपको पता चलेगा। तो उत्सुक्ता के जस्बे को बनाये रखिए और आज के लिये मुझे इजाज़त दीजिए। कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, नमस्कार!
सुजॉय चट्टर्जी
Comments
नमस्कार!
मैं आज अभिभूत हूँ कि आपने न केवल भारतीय संगीत के बारे में मेरे निजी विचारों को हिंद युग्म के पाठकों तक पहुँचाया बल्कि इसलिए भी कि मेरी पसंद के गीत को सबके लिए प्रस्तुत किया. कहते हैं मोहम्मद रफ़ी साहेब के इसरार पर ये गीत नौशाद जी द्वारा महेंद्र कपूर साहेब को गाने के लिए मिला था, जो उस समय गायक के रूप में अपनी पारी आरम्भ करने जा राहे थे. नौशाद साहेब ने रिकॉर्डिंग से पहले वाली रात को ही महेंद्र कपूर को अपने पास बुला कर कहा था कि इस गीत में तुम मेरी लाज रख लेना. महेंद्र कपूर साहेब पूरी रात शान्ति से सो भी नहीं पाये क्योंकि उन्हें बार बार नौशाद साहेब की वह बात याद आ रही थी कि रिकॉर्डिंग में कोई चूक नहीं होनी चाहिए. नौशाद साहेब ने पूरे दिन के लिए रिकॉर्डिंग स्टूडियो की बुकिंग करवा रखी थी क्योंकि उन्हें लग रहा था कि नया गायक होने से रिकॉर्डिंग में देर लग सकती थी. जैसे ही रिकॉर्डिंग शुरू हुई तो सिलसिला रुकने ना पाया. गीत की रिकॉर्डिंग हो चुकी थी और नौशाद साहेब ने इसे पहले ही टेक में ओ-के करार दे दिया और महेंद्र कपूर को प्रेम से गले लगा लिया. यह गीत इतना इमोशनल है कि सुनने वाला इस की पृष्ठ भूमि में खो जाता है तथा कहानी और संगीत का दोहरा आनंद लेने लगता है. आज जितनी अमर सोहनी-महीवाल की कहानी है उतना ही अमर यह गीत. इस गीत के शब्दों में शकील जी की कलम का जादू है और महेंद्र कपूर जी ने अपनी उम्दा आवाज से इसे अमर कर दिया है. आज लगभग सभी गायकों की आवाज की नक़ल मिल जाती है परन्तु महेंद्र कपूर साहेब के इस गीत को नक़ल करने का साहस कोई नहीं कर पाया है. यह गीत गाना जितना मुश्किल था उतना ही मुश्किल इसे सुरों में ढालना. लेकिन नौशाद साहेब के संगीत की ही ये खूबी थी की इस गीत में उन्होंने नायाब फेरबदल लेट हुए अलग अलग रागों से ये गीत रिकॉर्ड करवाया. यह गीत मैं जब भी सुनता हूँ मुझे उस समय के संगीत कौशल की ऊंचाइयों का अहसास होने लगता है. इतना सुन्दर गीत प्रस्तुत करने पर मैं आपका बहुत आभारी हूँ.
सादर, अश्विनी रॉय
धन्यवाद इंटरनेट के आविष्कारों का
विश्व को बहुत छोटा बना दिया
हिंद युग्म नहीं पढ़ा तो ऐसे लगता आज कुछ ===
आशीर्वाद के साथ आपकी गुड्डोदादी चिकागो