ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 534/2010/234
फ़िल्मकार वी. शांताराम द्वारा निर्मित और/ या निर्देशित फ़िल्मों के गीतों से सजी लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का पहला खण्ड इन दिनों जारी है। गीतों के साथ साथ हम शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र की भी थोड़ी बहुत संक्षिप्त में चर्चा भी हम कर रहे हैं। पिछली कड़ी में हमने ४० के दशक के उनकी फ़िल्मों के बारे में जाना। आज हम ज़िक्र करते हैं ५० के दशक की। पिछले दो दशकों की तरह यह दशक भी शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र का एक अविस्मरणीय दशक सिद्ध हुआ। १९५० में शांताराम ने समाज की ज्वलंत समस्या दहेज पर वार किया था फ़िल्म 'दहेज' के ज़रिए। ६० वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी यह फ़िल्म उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस ज़माने में थी। इस फ़िल्म में करण दीवान और वी. शांताराम की पत्नी जयश्री शांताराम ने अभिनय किया था। वसंत देसाई का ही संगीत था और जयश्री शांताराम का गाया "अम्बुआ की डाली पे बोले रे कोयलिया" गीत बेहद मकबूल हुआ था। १९५२ में 'परछाइयाँ', १९५३ में 'तीन बत्ती चार रास्ता', १९५४ में 'सुबह का तारा', १९५४ में 'महात्मा कबीर' शांताराम निर्देशित कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं ५० के दशक के पहले भाग की। फिर आई १९५५ की फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे', जिसका एक गीत कल आपने सुना था। यही फ़िल्म वसंत देसाई की ज़िंदगी और शायद हिंदी सिने-संगीत के इतिहास का भी मीलस्तंभ बना। शांताराम की इस महत्वकांक्षी फ़िल्म लिए उन्होंने पूरे देश भर में घूम घूम कर एक से एक बेहतरीन संगीतज्ञों का चयन किया। संगीत नृत्य प्रधान इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कलकत्ता से बुलाया सुविख्यात तबला नवाज़ सामता प्रसाद को, संतूर के लिए पंडित शिव कुमार शर्मा को, और सारंगी के लिए पंडित राम नारायण को। यही नहीं फ़िल्म का शीर्षक गीत गवाया गया था शुद्ध शास्त्रीय गायक अमीर ख़ाँ साहब से. अभिनेत्री संध्या और विख्यात नृत्यशिल्पि गोपी कृष्ण जे जानदार अभिनय और नृत्यों से, शांताराम के प्रतिभा से, और वसंत देसाई के धुनों से इस फ़िल्म ने एक इतिहास की रचना की। इस फ़िल्म के सभी गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित हैं। आगे चलकर इस फ़िल्म के गानें जैसे जैसे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शामिल होते जाएँगे, हर गीत के विशेषताओं की हम तफ़सील से चर्चा करते जाएँगे। इस फ़िल्म के बाद १९५६ में आई थी 'तूफ़ान और दीया' जिसे निर्देशित किया था शांताराम जी के सुपुत्र प्रभात कुमार ने और जिसके बारे में हम चर्चा भी कर चुके हैं और फ़िल्म का शीर्षक गीत भी सुन चुके हैं।
सन् १९५७ में वी. शांताराम ने 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया, और स्वयं अभिनय भी किया। यह भी एक कालजयी फ़िल्म साबित हुई। कहानी, अभिनय, छायांकन, कैमरा, निर्देशन, सब कुछ मिलाकार एक बेहतरीन फ़िल्म। १९५८ में इस फ़िल्म को सैन फ़्रांसिस्को फ़िल्म महोत्सव में दिखाया गया था। फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि एक पुलिसवाला (शांताराम) एक फ़ार्म खोलता है जिसके सदस्य हैं ६ ख़ूनी। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में इस फ़िल्म के बारे में लिखते हैं - "१९५७ में वी. शाताराम डाकुओं की समस्या का गांधीवादी हल लेकर 'दो आँखें बारह हाथ' में आए। इस फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्णपदक तथा बर्लिन के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'सिल्वर लोटस' से पुरस्कृत किया गया था। और साथ में आये वसंत देसाई "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" लेकर। नैतिकता से परिपूर्ण प्रार्थना गीतों को भी कितनी सुंदर धुन दी जा सकती है, यह उसी वसंत देसाई ने दिखाया जो पिछले दशक में ऐसे गीतों के सामने अपने संगीत को कई बार बंधा और दबा पाते थे। नतीजा था एक ऐसा गीत जो देश के हर विद्यालय का प्रार्थना गीत बना और आज तक बना हुआ है। देसाई के भैरवी पर कम्पोज़ किए इस गीत से आनेवाली कई पीड़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगे - ऐसी विरासत विरलों को ही नसीब होती है।" दोस्तों, यहाँ पर आकर अगर इस कालजयी प्रार्थना को सुनें बग़ैर ही हम आगे बढ़ जाएँगे तो शायद इस शृंखला के साथ अन्याय होगा। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में इस गीत को अमर बोल दिए थे गीतकार भरत व्यास ने। तो आइए सुनते हैं यह अमर प्रार्थना "ऐ मालिक तेरे बंदे हम, हो ऐसे हमारे करम, नेकी पर चलें, और बदी से टलें, ताकि हँसते हुए निकले दम"। चलते चलते आपको यह भी बता दें कि इसी गीत का एक अन्य वर्ज़न भी है जिसे केवल समूह स्वरों में गाया गया है।
क्या आप जानते हैं...
कि 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म को हॊलीवूड प्रेस ऐसोसिएशन ने १९५८ का सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म होने का गौरव दिलवाया था। यह भारत के लिए जितनी गौरव की बात थी, उतना ही परिचय था शांताराम के प्रतिभा का।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ५ /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गायक बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
बिट्टू जी ने कल खाता खोला. श्याम जी अमित जी सभी को बधाई.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
फ़िल्मकार वी. शांताराम द्वारा निर्मित और/ या निर्देशित फ़िल्मों के गीतों से सजी लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का पहला खण्ड इन दिनों जारी है। गीतों के साथ साथ हम शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र की भी थोड़ी बहुत संक्षिप्त में चर्चा भी हम कर रहे हैं। पिछली कड़ी में हमने ४० के दशक के उनकी फ़िल्मों के बारे में जाना। आज हम ज़िक्र करते हैं ५० के दशक की। पिछले दो दशकों की तरह यह दशक भी शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र का एक अविस्मरणीय दशक सिद्ध हुआ। १९५० में शांताराम ने समाज की ज्वलंत समस्या दहेज पर वार किया था फ़िल्म 'दहेज' के ज़रिए। ६० वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी यह फ़िल्म उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस ज़माने में थी। इस फ़िल्म में करण दीवान और वी. शांताराम की पत्नी जयश्री शांताराम ने अभिनय किया था। वसंत देसाई का ही संगीत था और जयश्री शांताराम का गाया "अम्बुआ की डाली पे बोले रे कोयलिया" गीत बेहद मकबूल हुआ था। १९५२ में 'परछाइयाँ', १९५३ में 'तीन बत्ती चार रास्ता', १९५४ में 'सुबह का तारा', १९५४ में 'महात्मा कबीर' शांताराम निर्देशित कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं ५० के दशक के पहले भाग की। फिर आई १९५५ की फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे', जिसका एक गीत कल आपने सुना था। यही फ़िल्म वसंत देसाई की ज़िंदगी और शायद हिंदी सिने-संगीत के इतिहास का भी मीलस्तंभ बना। शांताराम की इस महत्वकांक्षी फ़िल्म लिए उन्होंने पूरे देश भर में घूम घूम कर एक से एक बेहतरीन संगीतज्ञों का चयन किया। संगीत नृत्य प्रधान इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कलकत्ता से बुलाया सुविख्यात तबला नवाज़ सामता प्रसाद को, संतूर के लिए पंडित शिव कुमार शर्मा को, और सारंगी के लिए पंडित राम नारायण को। यही नहीं फ़िल्म का शीर्षक गीत गवाया गया था शुद्ध शास्त्रीय गायक अमीर ख़ाँ साहब से. अभिनेत्री संध्या और विख्यात नृत्यशिल्पि गोपी कृष्ण जे जानदार अभिनय और नृत्यों से, शांताराम के प्रतिभा से, और वसंत देसाई के धुनों से इस फ़िल्म ने एक इतिहास की रचना की। इस फ़िल्म के सभी गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित हैं। आगे चलकर इस फ़िल्म के गानें जैसे जैसे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शामिल होते जाएँगे, हर गीत के विशेषताओं की हम तफ़सील से चर्चा करते जाएँगे। इस फ़िल्म के बाद १९५६ में आई थी 'तूफ़ान और दीया' जिसे निर्देशित किया था शांताराम जी के सुपुत्र प्रभात कुमार ने और जिसके बारे में हम चर्चा भी कर चुके हैं और फ़िल्म का शीर्षक गीत भी सुन चुके हैं।
सन् १९५७ में वी. शांताराम ने 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया, और स्वयं अभिनय भी किया। यह भी एक कालजयी फ़िल्म साबित हुई। कहानी, अभिनय, छायांकन, कैमरा, निर्देशन, सब कुछ मिलाकार एक बेहतरीन फ़िल्म। १९५८ में इस फ़िल्म को सैन फ़्रांसिस्को फ़िल्म महोत्सव में दिखाया गया था। फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि एक पुलिसवाला (शांताराम) एक फ़ार्म खोलता है जिसके सदस्य हैं ६ ख़ूनी। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में इस फ़िल्म के बारे में लिखते हैं - "१९५७ में वी. शाताराम डाकुओं की समस्या का गांधीवादी हल लेकर 'दो आँखें बारह हाथ' में आए। इस फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्णपदक तथा बर्लिन के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'सिल्वर लोटस' से पुरस्कृत किया गया था। और साथ में आये वसंत देसाई "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" लेकर। नैतिकता से परिपूर्ण प्रार्थना गीतों को भी कितनी सुंदर धुन दी जा सकती है, यह उसी वसंत देसाई ने दिखाया जो पिछले दशक में ऐसे गीतों के सामने अपने संगीत को कई बार बंधा और दबा पाते थे। नतीजा था एक ऐसा गीत जो देश के हर विद्यालय का प्रार्थना गीत बना और आज तक बना हुआ है। देसाई के भैरवी पर कम्पोज़ किए इस गीत से आनेवाली कई पीड़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगे - ऐसी विरासत विरलों को ही नसीब होती है।" दोस्तों, यहाँ पर आकर अगर इस कालजयी प्रार्थना को सुनें बग़ैर ही हम आगे बढ़ जाएँगे तो शायद इस शृंखला के साथ अन्याय होगा। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में इस गीत को अमर बोल दिए थे गीतकार भरत व्यास ने। तो आइए सुनते हैं यह अमर प्रार्थना "ऐ मालिक तेरे बंदे हम, हो ऐसे हमारे करम, नेकी पर चलें, और बदी से टलें, ताकि हँसते हुए निकले दम"। चलते चलते आपको यह भी बता दें कि इसी गीत का एक अन्य वर्ज़न भी है जिसे केवल समूह स्वरों में गाया गया है।
क्या आप जानते हैं...
कि 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म को हॊलीवूड प्रेस ऐसोसिएशन ने १९५८ का सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म होने का गौरव दिलवाया था। यह भारत के लिए जितनी गौरव की बात थी, उतना ही परिचय था शांताराम के प्रतिभा का।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली ५ /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -
अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?
सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गायक बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
बिट्टू जी ने कल खाता खोला. श्याम जी अमित जी सभी को बधाई.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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Mahendra Kapoor