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Showing posts from May, 2009

तेरे ख्यालों में हम...तेरी ही बाहों में हम... डुबो देती है आशा अपनी आवाज़ में इस गीत के सुननेवालों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 97 दो स्तों, अभी कुछ दिन पहले हमने आपको वी.शांताराम की फ़िल्म 'नवरंग' का गीत सुनवाया था " तू छूपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ " और बताया था कि इस गीत को रामलाल चौधरी की शहनाई के लिए भी याद किया जाता है। आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी रामलाल के संगीत से जुड़ा हुआ है मगर बतौर शहनाई वादक नहीं बल्कि बतौर संगीतकार। रामलाल भले ही साज़िंदे और सहायक के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, उन्होने दो-चार फ़िल्मों में संगीत भी दिया है, और उन्ही में से एक मशहूर फ़िल्म का एक गीत लेकर हम आज उपस्थित हुए हैं। इससे पहले कि आपको उस फ़िल्म और उस गीत के बारे में बतायें, रामलाल से जुड़ी कुछ बातें आपको बताना चाहेंगे। बतौर स्वतंत्र संगीतकार रामलाल को पहला मौका दिया था फ़िल्मकार पी. एल. संतोषी ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'तांगावाला'। राज कपूर और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के कुल ६ गानें रामलाल बना चुके थे लेकिन दुर्भाग्यवश फ़िल्म आगे बनी नहीं। और रामलाल एक बार फिर फ़िल्म संगीत जगत में बतौर साज़िंदे बाँसुरी और शहनाई बजाने लगे। इसके बाद सन् १९५२ मे उनके हाथ एक ब...

इस बार का कवि सम्मेलन रश्मि प्रभा के संग

सुनिए पॉडकास्टिंग के इस नए प्रयोग को रश्मि प्रभा नमस्कार! दोस्तो, हम एक फिर हाज़िर हैं इस माह के आपके अंतिम रविवार और अंतिम दिन को इंद्रधनुषी बनाने के लिए। जी हाँ, आपको भी इसका पूरे एक महीने से इंतज़ार होगा। तो इंतज़ार की घड़िया ख़त्म। सुबह की चाय पियें और साथ ही साथ हमारे इस पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का रस लेते रहें, जिसमें भावनाओं और अभिव्यक्तियों के विविध रंग समाहित हैं। सुबह की चाय के साथ ही क्यों, इसका आनंद शाम की शिकंजी के साथ भी लें। पिछले महीने हमें रश्मि प्रभा के रूप में साहित्य-सेवा की एक नई किरण मिलीं हैं। कविता-मंच पर ये कविताएँ तो लिख ही रही हैं, इस बार के कवि-सम्मेलन के संयोजन का दायित्व भी इन्हीं ने सम्हाला है। और आगे भी अपनी ओर से बेहतरीन प्रयास करते रहने का वचन दिया है। इस बार के कवि सम्मेलन की सबसे ख़ास बात यह है कि इस बार दुनिया के अलग-अलग कोनों से कुल 19 कवि हिस्सा ले रहे हैं। संचालिका को लेकर यह संख्या 20 हो जाती है। और यह इत्तेफाक ही है कि इस बार जहाँ 10 महिला कवयिता हैं, वहीं 10 पुरुष कवयिता। कम से कम इस स्तर पर रश्मि प्रभा स्त्री-पुरुष समानता के तत्व को मूर्त करने म...

चरणदास को जो पीने की आदत न होती...सामाजिक जिम्मेदारियों को भी निभाते थे "गोल्डन इरा" के गीतकार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 96 आ सी. रामचन्द्र और किशोर कुमार के संगम से बने दो "गोल्ड" गीत अब तक हमने इस शृंखला में शामिल किया हैं, एक फ़िल्म 'आशा' से और दूसरी फ़िल्म 'पायल की झंकार' से। इन दोनो गीतों का रंग एक दूसरे से बिलकुल अलग था। आज भी हम इन दो महान फ़नकारों की एक रचना पेश कर रहे हैं लेकिन यह गीत ना तो फ़िल्म 'आशा' के " ईना मीना डीका " से मिलता जुलता है और ना ही 'पायल की झंकार' के " मुखड़े पे गेसू आ ही गये आधे इधर आधे उधर " का इस पर कोई प्रभाव है। आज का यह गीत है १९५४ की फ़िल्म 'पहली झलक' का - "चरणदास को पीने की जो आदत ना होती, तो आज मिया बाहर बीवी अंदर ना सोती"। 'पहली झलक' के निर्देशक थे एम. वी. रमण और इसमें मुख्य भूमिकायें निभायी किशोर कुमार और वैजयंतीमाला ने। यह बताना ज़रूरी है कि रमण साहब ने १९५७ में जब 'ईना मीना डीका" वाली 'आशा' बनायी, तो उसमें भी किशोर कुमार और वैजयंतीमाला को ही कास्ट किया था। 'पहली झलक' में किशोर कुमार जैसे गायक अभिनेता के होने के बावजूद फ़िल्म मे...

सुनो कहानी: शिखर-पुरुष

ज्ञानप्रकाश विवेक की "शिखर-पुरुष" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत की आवाज़ में सआदत हसन मंटो की "कसौटी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं चर्चित कहानीकार ज्ञानप्रकाश विवेक की शिखर-पुरुष , जिसको स्वर दिया है कनाडा निवासी स्वप्न मंजूषा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय ३६ मिनट ४० सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की सबसे चर्चित कहानी ' शिखर-पुरुष ' का टेक्स्ट हिंद युग्म पर कहानी कलश में उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में सामाजिक विडम्बनाओं के विभिन्न मंजर उपस्थित रहते हैं। हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी चाय का कप है कोई परशुराम का धनुष नहीं। कहा नहीं था मैने, क्योंकि तुम्हें यह फब्...

ना ना ना रे ना ना ...हाथ ना लगाना... दो अलग अंदाज़ ओ आवाज़ की गायिकाओं का सुंदर मेल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 95 आ म तौर पर फ़िल्मी युगल गीत में एक गायक और एक गायिका की आवाज़ें हुआ करती हैं। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे युगल गीत भी बने हैं जिन्हे या तो दो गायकों ने गाये हैं या फिर दो गायिकाओं ने, और इनमें से बहुत सारे गानें बेहद कामयाब भी हुए हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसा ही 'फ़िमेल डुएट' प्रस्तुत है। फ़िल्म संगीत के इतिहास मे अगर झाँका जाए तो हम पाते हैं कि ऐसी बहुत सारी फ़िल्में हैं जिनमें लता मंगेशकर ने नायिका का पार्श्वगायन किया है जब कि कुछ थोड़े से कमचर्चित गायिकाओं ने दूसरी चरित्र अभिनेत्रियों या फिर नायिका की सहेलियों, या फिर किसी जलसे या मुजरे के लिए अपनी आवाज़ें दी हैं। यह भी एक ऐसा ही गीत है जिसे दो बड़े ही अनोखी गायिकाओं ने गाया है। यह गीत है १९६३ की फ़िल्म ताजमहल का जिसे गाया है सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरुषोत्तम ने। यूँ तो इस मशहूर फ़िल्म के बहुत से गीत बहुत ही कामयाब हुए, ख़ास कर लता-रफ़ी के गाए "जो वादा किया" और "पाँव छू लेने दो", और दूसरे कुछ गीत भी प्रसिद्ध हुए। उस दृष्टि से सुमन और मीनू का गाया यह गीत ज़रा कम सुना...

मुझे फिर वही याद आने लगे हैं.... महफ़िल-ए-बेकरार और "हरि" का "खुमार"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१६ आ ज हम जिन दो शख्सियतों की बात करने जा रहे हैं,उनमें से एक को अपना नाम साबित करने में पूरे १८ साल लगे तो दूसरे नामचीन होने के बावजूद मुशाअरों तक हीं सिमटकर रह गए। जहाँ पहला नाम अब सबकी जुबान पर काबिज रहता है, वहीं दूसरा नाम मुमकिन है कि किसी को भी मालूम न हो(आश्चर्य की बात है ना कि एक नामचीन इंसान भी गुमनाम हो सकता है) । यूँ तो मैं चाहता तो आज का पूरा अंक पहले फ़नकार को हीं नज़र कर देता,लेकिन दूसरे फ़नकार में ऐसी कुछ बात है कि जब से मैने उन्हें पढा,सुना और देखा है(युट्युब पर)है, तब से उनका क़ायल हो गया हूँ और इसीलिए चाहता हूँ कि आज की गज़ल के "गज़लगो" भी दुनिया के सामने उसी ओहदे के साथ आएँ जिस ओहदे और जिस कद के साथ आज की गज़ल के "संगीतकार" और "गायक" को पेश किया जाना है। तो चलिए पहले फ़नकार से हीं बात की शुरूआत करते हैं। आपको शायद याद हो कि जब हम "छाया गांगुली" और उनकी एक प्यारी गज़ल की बात कर रहे थे तो इसी दरम्यान "गमन" की बात उभर आई थी। "गमन"- वही मुज़फ़्फ़र अली की एक संजीदा फिल्म, जिसके गानों को संगीत से स...

जिसे तू कबूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊं....पूछा था चंद्रमुखी से देव बाबू से लता के स्वर में.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 94 न्यू थियटर्स के प्रमथेश चंद्र बरुवा ने सन् १९३५ में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के मशहूर उपन्यास 'देवदास' को पहली बार रुपहले परदे पर साकार किया था। यह फ़िल्म बंगला में बनायी गयी थी और बेहद कामयाब रही। देवदास की भूमिका में कुंदन लाल सहगल ने हर एक के दिल को छू लिया। बंगाल में इस फ़िल्म की अपार सफलता से प्रेरित होकर बरुवा साहब ने इस फ़िल्म को हिंदी में बना डाली उसी साल और पूरे देश भर में सहगल दर्द का पर्याय बन गए। जमुना, राजकुमारी (कलकत्ता) और पहाड़ी सान्याल ने कमश: पारो, चंद्रमुखी और चुन्नी बाबू की भूमिकायें निभायी। इसके बाद सन् १९५५ में लोगों ने देवदास को तीसरी बार के लिये परदे पर तब देखा (हिंदी में दूसरी बार) जब बिमल राय ने 'ट्रेजेडी किंग' दिलीप कुमार को देवदास की भूमिका में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया। उस समय दिलीप कुमार के अलावा इस चरित्र के लिये किसी और का नाम सुझाना नामुमकिन था। दिलीप साहब हर एक की उम्मीदों पर खरे उतरे और उन्हे इस फ़िल्म के लिए उस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार भी मिला। पारो और चंद्रमुखी की भूमिकायों में ...

लोकगीतों में वतन वाले सुनें नाम मेरा

पिछले हफ़्ते हमने आपको अब्बास रज़ा अल्वी द्वारा संगीतबद्ध गोपालदास नीरज का एक गीत सुनवाया था। आज एक बार फिर से हम इन्हीं की एक संगीतबद्ध प्रस्तुति लेकर आये हैं। इस गीत को लिखा है स्वर्गीय सागर खयामी ने। गाया है सिडनी की गायिक शानाज़ हैदर ने। अब्बास के दोनों गीत इनके 'दूरियाँ' एल्बम के हिस्सा हैं। अब्बास ने यह एल्बम भारत के गरीब बच्चों की मदद के लिए कम्पोज किया था।

न ये चाँद होगा न तारे रहेंगें...एस एच बिहारी का लिखा ये अनमोल नग्मा गीता दत्त की आवाज़ में.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 93 आ ज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में प्यार के इज़हार का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत अंदाज़ पेश-ए-ख़िदमत है गीता दत्त की आवाज़ में। दोस्तों, आपने ऐसा कई कई गीतों में सुना होगा कि प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि जब तक यह दुनिया रहेगी, तब तक मेरा प्यार रहेगा; और जब तक चाँद सितारे चमकते रहेंगे, तब तक हमारे प्यार के दीये जलते रहेंगे, वगैरह वगैरह । लेकिन आज का जो यह गीत है वह एक क़दम आगे निकल जाता है और कहता है कि भले ही चाँद तारे चमकना छोड़ दें, लेकिन उनका प्यार हमेशा एक दूसरे के साथ बना रहेगा। आप समझ गये होंगे कि हमारा इशारा किस गीत की तरफ़ है। जी हाँ, फ़िल्म 'शर्त' का सदाबहार गीत "न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे"। इस गीत को हेमंत कुमार ने भी गाया था लेकिन आज हम गीताजी का गाया गीत आपको सुनवा रहे हैं। गीत का एक एक शब्द दिल को छू लेनेवाला है, जिनसे सच्चे प्यार की कोमलता झलकती है। 'चाँद' से याद आया कि इसी फ़िल्म में 'चाँद' से जुड़े कुछ और गानें भी थे, जैसे कि लता और हेमन्तदा का गाया "देखो वो चाँद छुपके कर...

शहर के दुकानदारों को जावेद अख्तर की सलाह - एल्बम संगम से नुसरत साहब की आवाज़ में

बात एक एल्बम की # 07 फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर. फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर आलेख प्रस्तुतीकरण - सजीव सारथी जैसा कि आप जानते हैं हमारे इस महीने के फीचर्ड एल्बम में दो फनकारों ने अपना योगदान दिया है. नुसरत साहब के बारे में हम पिछले दो अंकों में बात कर ही चुके हैं. आज कुछ चर्चा करते हैं अल्बम "संगम" के गीतकार जावेद अख्तर साहब की. जावेद अख्तर एक बेहद कामियाब पठकथा लेखक और गीतकार होने के साथ साथ साहित्य जगत में भी बतौर एक कवि और शायर अच्छा खासा रुतबा रखते हैं. और क्यों न हों, शायरी तो कई पीढियों से उनके खून में दौड़ रही है. वे गीतकार/ शायर जानिसार अख्तर और साफिया अख्तर के बेटे हैं, और अपने दौर के रससिद्ध शायर मुज़्तर खैराबादी जावेद के दादा हैं. उनकी परदादी सयिदुन निसा "हिरमां" उन्नीसवी सदी की जानी मानी उर्दू कवियित्री रही हैं और उन्हीं के खानदान में और पीछे लौटें तो अल्लामा फजले हक का भी नाम आता है, अल्लामा ग़ालिब के करीबी दोस्त थे और "दीवाने ग़ालिब" का संपादन उन्हीं के ह...

तारों की जुबाँ पर है मोहब्बत की कहानी ....मोहब्बत के नाम एक और नग्मा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 92 दो स्तों, आज के गीत की जानकारी शुरु करने से पहले हम अपना एक त्रुटि सुधार करना चाहेंगे। आपको याद होगा कुछ दिन पहले हमने आपको संगीतकार विनोद के संगीत में फ़िल्म 'एक थी लड़की' का मशहूर गीत सुनवाया था " लारा लप्पा लारा लप्पा "। इस गीत के गायक कलाकारों के नाम स्वरूप हमने लता मंगेशकर, जी. एम. दुर्रानी और साथियों का ज़िक्र किया था। फिर किसी श्रोता ने लिखा कि इस गीत में रफ़ी साहब की भी आवाज़ है। तो जब मैने इसकी खोजबीन शुरु की तो कई जगहों पर रफ़ी साहब का नाम मुझे दिखा और कई जगहों पर नहीं दिखा, लेकिन दुर्रानी साहब का नाम सभी जगह था। तब मैने सोचा क्यों न किसी वरिष्ठ व्यक्ति की मदद ली जाये जो फ़िल्म संगीत के अच्छे जानकार हों। तो मैने एक ऐसे वरिष्ठ शोधकर्ता से इस गीत के गायक कलाकारों के बारे में जानना चाहा जिनका पूरा जीवन फ़िल्म संगीत के शोध कार्य में ही बीता है। उन्होने मुझे बताया कि यह गीत असल में लता मंगेशकर, सतीश बत्रा, मोहम्मद रफ़ी और साथियों ने गाया है। इस गीत में जी. एम दुर्रानी साहब की आवाज़ बिल्कुल नहीं है और यह बात उन्हे किसी और ने नहीं बल्कि ...

एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा... .महफ़िल-ए-खास और पंकज उधास

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१५ दे श से बाहर बसे खानाबदोशों को रूलाने के लिए करीब २३ साल पहले एक शख्स ने फिल्मी संगीत की तिलिस्मी दुनिया में कदम रखा था। "चिट्ठी" लेकर आया वह शख्स देखते हीं देखते कब गज़लों की दुनिया का एक नायाब हीरा हो गया,किसी को पता न चला। उसके आने से पहले गज़लें या तो बु्द्धिजीवियों की महफ़िलों में सजती थीं या फ़िर शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों की जुबां पर और इस कारण गज़लें आम लोगों की पहुँच और समझ से दूर रहा करती थीं। वह आया तो यूँ लगा मानो गज़लों के पंख खोल दिए हों किसी ने। गज़ल आजाद हो गई और अब उसे बस गाया या समझा हीं नहीं जाने लगा बल्कि लोग उसे महसूस भी करने लगे। गज़ल कभी रूलाने लगी तो कभी दिल में हल्की टीस जगाने लगी। गज़लों को जीने वाला वह इंसान सीधे-साधे बोलों और मखमली आवाज़ के जरिये न जाने कितने दिलों में घर कर गया। फिर १९८६ में रीलिज हुई नाम की "चिट्ठी आई है" हो, १९९१ के साजन की "जियें तो जियें कैसे" हो या फिर ३ साल बाद रीलिज हुई "मोहरा" की "ना कज़रे की धार" हो, उस शख्स की आवाज़ की धार तब से अब तक हमेशा हीं तेज़-तर्रार रही ...

हरियाला सावन ढोल बजाता आया....मानसून की आहट पर कान धरे है ये मधुर समूहगान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 91 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - " १९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी ...

सफल 'हुई' तेरी आराधना - अंतिम कडी

अब तक आपने पढ़ा - आनंद आश्रम से शुरू हुआ सफ़र.... , हावड़ाब्रिज से कश्मीर की कली तक... , रोमांटिक फिल्मों के दौर में आराधना की धूम... , और अमर प्रेम, अजनबी और अनुराग जैसी कामियाब फिल्मों का सफ़र अब पढें आगे.... शक्ति सामंत को समर्पित 'आवाज़' की यह प्रस्तुति "सफल हुई तेरी आराधना" एक प्रयास है शक्तिदा के 'फ़िल्मोग्राफी' को बारीक़ी से जानने का और उनके फ़िल्मों के सदाबहार 'हिट' गीतों को एक बार फिर से सुनने का। पिछले अंक में हमने ज़िक्र किया था १९७४ की फ़िल्म 'अजनबी' का। आइए अब आगे बढ़ते हैं और क़दम रखते हैं सन १९७५ में। यह साल भी शक्तिदा के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा, इसी साल आयी फ़िल्म 'अमानुष' जिसका निर्माण व निर्देशन दोनो ही उन्होने किया। पहली बार बंगला के सर्वोत्तम नायक उत्तम कुमार को लेकर उन्होने यह फ़िल्म बनायी, साथ में थीं उनकी प्रिय अभिनेत्री शर्मिला। इसी फ़िल्म के बारे में बता रहे हैं ख़ुद शक्तिदा - " १९७२ में कलकत्ता में 'नक्सालाइट' का बहुत ज़्यादा 'प्राबलेम' शुरु हो गया था। कलकत्ता फ़िल्म इंडस्ट्री का बुरा हाल था। उससे पहले ...

गैरों के शे'रों को ओ सुनने वाले हो इस तरफ भी करम...दर्द में डूबी किशोर की सदा..

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 90 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ९०-वीं कड़ी में हम आप सभी का इस्तकबाल करते हैं। कल इस स्तंभ के अंतर्गत आपने सुना था कवि नीरज की रचना 'नयी उमर की नयी फ़सल' फ़िल्म से। नीरज जैसे अनूठे गीतकार का लिखा केवल एक गीत सुनकर यक़ीनन दिल नहीं भरता, इसीलिए हमने यह तय किया कि एक के बाद एक दो गानें आपको नीरजजी के लिखे हुए सुनवाया जाए। अत: आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में गूँजनेवाली है नीरज की एक फ़िल्मी रचना। जैसा कि कल हमने आपको बताया था कि नीरज ने सबसे ज़्यादा फ़िल्मी गीत संगीतकार सचिन देव बर्मन के लिए लिखे हैं। तो आज क्यों ना बर्मन दादा के लिए उनका लिखा गीत आपको सुनवाया जाए! १९७१ में आयी थी फ़िल्म 'गैम्बलर' 'अमरजीत प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। देव आनंद और ज़हीदा अभिनीत इस फ़िल्म के गाने बहुत बहुत चले और आज भी चल रहे हैं। ख़ास कर लता-किशोर का गाया "चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है" गीत को चूड़ियों पर बने तमाम गीतों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है। लेकिन आज हम इस गीत को यहाँ नहीं बजा रहे हैं बल्कि इसी फ़िल्म का एक ग़मज़दा नगमा लेकर आये हैं ...

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (6)

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत के नए अंक में आपका स्वागत है. आज जो गीत मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो बहाना है अपने एक पसंदीदा संगीतकार के बारे आपसे कुछ गुफ्तगू करने का. "फिर छिडी रात बात फूलों की..." जी हाँ इस संगीतकार की धुनों में हम सब ने हमेशा ही पायी है ताजे फूलों सी ताजगी और खुशबू भी. १९५२-५३ के आस पास आया एक गीत -"शामे गम की कसम...". इस गीत में तबला और ढोलक आदि वाध्य यंत्रों के स्थान पर स्पेनिश गिटार और इबल बेस से रिदम लेना का पहली बार प्रयास किया गया था. और ये सफल प्रयोग किया था संगीतकार खय्याम ने. खय्याम साहब फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद संगीतकारों में से हैं जिन्होंने गीतों में शब्दों को हमेशा अहमियत दी. उन्होंने ऐसे गीतकारों के साथ ही काम किया जिनका साहित्यिक पक्ष अधिक मजबूत रहा हो. आप खय्याम के संगीत कोष में शायद ही कोई ऐसा गीत पायेंगें जो किसी भी मायने में हल्का हो. फिल्म "शोला और शबनम" के दो गीत मुझे विशेष पसंद हैं - "जाने क्या ढूंढती रहती है ये ऑंखें मुझे में..." और " जीत ही लेंगें बाज़ी हम तुम ...". राज कपूर और माला ...

देखती ही रहो आज दर्पण ना तुम, प्यार का यह महूरत निकल जाएगा...नीरज का लिखा एक प्रेम गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 89 यूँ तो फ़िल्मी गीतकारों का एक अलग ही जहाँ है, उनकी अलग पहचान है, उनकी अलग अलग खासियत है, लेकिन फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर झाँका जाये तो हम पाते हैं कि समय समय पर कई साहित्य से जुड़े शायर और कवियों ने इस क्षेत्र में अपने हाथ आज़माये हैं। इन साहित्यकारों ने फ़िल्मों में बहुत कम काम किया है लेकिन जो भी किया है उसके लिए अच्छे फ़िल्म संगीत के चाहनेवाले उनके हमेशा क़द्रदान रहेंगे। इन्हे फ़िल्मी गीतों में पाना हमारा सौभाग्य है, फ़िल्म संगीत का सौभाग्य है। अगर हिंदी के साहित्यकारों की बात करें तो कवि प्रदीप, पंडित नरेन्द्र शर्मा, विरेन्द्र मिश्र, बाल कवि बैरागी, महादेवी वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, अमृता प्रीतम, और डा. हरिवंशराय बच्चन के साथ साथ कवि गोपालदास 'नीरज' जैसे साहित्यकारों के क़दम फ़िल्म जगत पर पड़े हैं। जी हाँ, कवि गोपाल दास 'नीरज', जिन्होने फ़िल्मों में नीरज के नाम से एक से एक 'हिट' गीत लिखे हैं। उन्होने सबसे ज़्यादा काम सचिन देव बर्मन के साथ किया है, जैसे कि शर्मिली, प्रेम पुजारी, गैम्बलर, तेरे मेरे सपने, आदि फ़िल्मों में। संगीत...