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विशेषांक : भोजपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयन्ती


क्षेत्रीय सिनेमा : एक सुनहरा पृष्ठ

पचास वर्ष का हुआ भोजपुरी सिनेमा

किशोरावस्था में किसी घटना या अवसर विशेष की स्मृतियाँ कई दशकों बाद जब इतिहास के सुनहरे पृष्ठ का रूप ले लेतीं हैं तो स्मृतियाँ सार्थक हो जाती हैं। आज ऐसा ही कुछ अनुभव मुझे भी हो रहा है। १२-१३ वर्ष की आयु में अपने दो और मित्रों के साथ पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ की वाराणसी के कई स्थलों पर हुई शूटिंग का चश्मदीद रहा हूँ। राजघाट स्थित गंगा नदी पर बने मालवीय पुल से अभिनेत्री कुमकुम (या उनके पुतले) का आत्महत्या के इरादे से नदी में छलांग लगाने का दृश्य हो या दशाश्वमेघ घाट के सामने बुढ़वा मंगल उत्सव के फिल्मांकन का दृश्य हो, आधी शताब्दी के बाद इन सभी स्मृतियों ने इस आलेख के लिए मुझे विवश किया।

भारतीय सिनेमा के सवाक युग से ही हिन्दी का वर्चस्व कायम रहा है। क्षेत्रीय और प्रादेशिक भाषाओं के सिनेमा का विकास भी हिन्दी सिनेमा के पगचिह्न पर चल कर हुआ है। हिन्दी भाषा की ही एक बोली या उपभाषा है- भोजपुरी, जो उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल और लगभग दो-तिहाई बिहार की अत्यन्त समृद्ध और प्रचलित बोली है। इसके अलावा देश के लगभग सभी महानगरों में बसे प्रवासी भोजपुरियों के बीच ही नहीं सुदूर मारिशस, फ़िजी, सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में भोजपुरी-भाषियों का वर्चस्व है।

लगभग आधी शताब्दी पहले ४ अप्रेल, १९६३ को वाराणसी नगर के व्यस्ततम लहुरावीर चौराहे के निकट स्थित प्रकाश टाकीज़ के बाहर और उसके आसपास सुबह से ही भारी भीड़ एकत्र थी। भीड़ के कारण यातायात नियंत्रित करने में पुलिसकर्मियों के पसीने छूट रहे थे। इस अपार भीड़ का कारण था, उस दिन सिनेमाघर में दोपहर १२ बजे के शो में देश की पहली भोजपुरी फिल्म- ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ का प्रदर्शन आरम्भ होने वाला था। उच्च श्रेणी के सभी टिकट अग्रिम बुक हो चुके थे। सारी आपाधापी निचले दर्जे के ५०-६० टिकटों की थी। अचानक टिकट खिड़की खुली और पहले टिकट पाने की लालसा में हंगामा शुरू हो गया। पुलिस को बल-प्रयोग कर दर्शकों को पंक्तिबद्ध कराना पड़ा। यह सारा दृश्य अपनी किशोरावस्था में मैंने प्रत्यक्ष देखा है। भारत की पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ के बारे में पूरे वाराणसी नगर में ही नहीं, आसपास के जिलों में रहने वालों में गजब का उत्साह था। उन दिनों प्रकाश टाकीज़ ग्रामीण-जन के लिए तीर्थ-स्थान सा बन गया था। ग्रामीण-जन अपना कार्यक्रम इस प्रकार बनाते थे कि सुबह पहुँच कर पहले गंगा-स्नान, फिर बाबा विश्वनाथ का दर्शन और चना-चबेना कर प्रकाश टाकीज़ में फिल्म देखा जाये और शाम होते वापस अपने गाँव पहुँच जाएँ। दरअसल अपनी भाषा, फिल्म के शीर्षक और आस्था के केन्द्र काशी नगर में प्रथम प्रदर्शन के कारण पूरे पूर्वाञ्चल में इस फिल्म ने धूम मचा दी थी।

यूँ तो इस फिल्म के सभी गीत एक से बढ़ कर थे, किन्तु फिल्म का शीर्षक गीत- ‘हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो, सैयाँ से कर दे मिलनवा...’ फिल्म प्रदर्शित होने से पहले ही रेडियो पर बज कर प्रसिद्ध हो चुका था। संगीतकार चित्रगुप्त ने राग पीलू के स्वरों का आकर्षक लोक-रूपान्तरण किया था। गीतकार शैलेन्द्र ने फिल्म के गीत लिखे थे, किन्तु इस शीर्षक गीत के पहले अन्तरे को छोड़ कर शेष सभी अन्तरे निर्गुण भाव में रचे हुए हैं। इन अन्तरॉ को फिल्म के अलग-अलग प्रसंगों में प्रयोग किया गया है। आइए, पहले इस फिल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय एक मधुर गीत को दो हिस्सों में सुनते हैं। बाद में हम आपको इस गीत के बारे में एक रोचक तथ्य और फिल्म के निर्माण की जानकारी भी देंगे।

शीर्षक गीत : फिल्म – गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो : स्वर – लता और ऊषा मंगेशकर





फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ के इस शीर्षक गीत से जुड़े एक रोचक प्रसंग की जानकारी देते हुए मेरे मित्र और आप सबके प्रिय लेखक सुजॉय चटर्जी ने वर्षों पहले गायिका ऊषा मंगेशकर द्वारा प्रस्तुत ‘जयमाला’ कार्यक्रम का उल्लेख किया। कार्यक्रम में ऊषा जी ने बताया था कि ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ उनकी पहली भोजपुरी थी, जिसमें लता दीदी के साथ इस गीत को गाना था। गीत के रिकार्डिंग के दिन लता जी के गले में कुछ तकलीफ हो गई और वो स्टुडियो न जा सकीं। संगीतकार चित्रगुप्त ने उस दिन ऊषा जी की अकेली आवाज़ में गीत रिकार्ड कर लिया। बाद में लता जी के स्वस्थ होने पर यह गाना दोनों बहनो की आवाज़ में रिकार्ड किया गया। उन दिनों रेडियो पर इस गीत का प्रसारण जब आरम्भ हुआ तो ऊषा जी की एकल स्वर वाला संस्करण ही बजने लगा। फिल्म के निर्माताओं को जब इस भूल की जानकारी हुई तब इसे सुधारा गया।

फिल्मोद्योग से जुड़े तमाम कलाकारों को देश की इस प्रथम भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ के निर्माण के दौरान ही एक नई सम्भावना नजर आने लगी थी। इस फिल्म में पार्श्वगायन के लिए लता जी ही नहीं मुहम्मद रफी और सुमन कल्याणपुर का योगदान भी सहजता से प्राप्त हो गया था। फिल्म में रफी साहब ने दुल्हन की विदाई के एक ऐसे मार्मिक गीत को स्वर दिया था जो आज भी विदाई गीतों में सिरमौर बना हुआ है। लीजिये आप भी सुनिए यह विदाई गीत।

‘सोनवा के पिंजरा में बन्द भईले...’ : फिल्म – गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो : स्वर – मो. रफी



फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ के निर्माण की कथा भी अत्यन्त रोचक है। १९५० के दशक में मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) में एक फिल्म पुरस्कार समारोह का आयोजन हुआ था, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद मुख्य अतिथि थे। इसी समारोह में सुप्रसिद्ध अभिनेता और उत्तर प्रदेश के भोजपुरीभाषी क्षेत्र गाजीपुर के निवासी नाज़िर हुसेन भी उपस्थित थे। दोनों भोजपुरीभाषियों की जब भेंट हुई तो राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने श्री हुसेन को भोजपुरी में फिल्म बनाने का सुझाव दिया। उत्साहित नाज़िर हुसेन ने ग्रामीण पृष्ठभूमि और इस पृष्ठभूमि की सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करती पटकथा लिख डाली। इस पटकथा पर प्रतिष्ठित कोयला व्यवसायी विश्वनाथप्रसाद शाहाबादी इतने मुग्ध हुए कि तत्काल निर्माण शुरू करने के लिए लालायित हो गए। दादर, मुम्बई के प्रीतम होटल में विश्वनाथ शाहाबादी के साथ बैठ कर नाज़िर हुसेन ने फिल्म के निर्माण दल का चयन आरम्भ किया। निर्देशन का दायित्व वाराणसी के कुन्दन कुमार को सौंपा गया। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना और अभिनेत्री कुमकुम को नायिका और असीम कुमार को नायक चुना गया। उस समय तक अनेक हिन्दी फिल्मों में पूर्वी लोक संगीत के बल पर धाक जमा चुके, बिहार-निवासी चित्रगुप्त को फिल्म के संगीत की कमान सौंपी गई और गीतकार के रूप में शैलेन्द्र को चुना गया। निर्माण-दल का गठन होते ही १६ फरवरी १९६१ के दिन पटना के शहीद स्मारक स्थल पर फिल्म का मुहूर्त हुआ और अगले दिन से ही फिल्म की विधिवत शूटिंग आरम्भ हो गई। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण हो जाने के बाद नवम्बर, १९६२ में सेंसर प्रमाणपत्र प्राप्त हुआ था। ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ चूँकि भोजपुरी की पहली फिल्म थी, अतः निर्माण प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर प्रयोग के तौर पर पहला एकमात्र प्रदर्शन वाराणसी के प्रकाश टाकीज़ में ४ अप्रेल, १९६३ को किया गया, जिसकी चर्चा ऊपर की पंक्तियों में की गई है। वाराणसी के पहले प्रदर्शन को आशातीत सफलता मिलने से उत्साहित निर्माताओं ने दूसरे चरण में दिल्ली के गोलचा सिनेमाघर मे फिल्म का प्रदर्शन किया, जिसे देखने के लिए तत्कालीन कई वरिष्ठ राजनीतिज्ञ पधारे। इनमें लालबहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम, सत्यनारायण सिन्हा आदि प्रमुख थे। आइए यहाँ रुक कर फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ का एक और मधुर गीत सुनते है, जिसे सुमन कल्याणपुर ने स्वर दिया है। यह नौटंकी के नृत्य-गीत के रूप में फिल्माया गया था। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि यह गीत अपने समय की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना हेलेन पर फिल्माया गया था। लीजिए, आप यह गीत सुनिए-

‘अब हम कैसे चलीं डगरिया...’ : फिल्म – गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो : स्वर – सुमन कल्याणपुर



फिल्म की नायिका कुमकुम 
लता जी जिन संगीतकारों की प्रतिभा का सम्मान करती थीं, उनमें चित्रगुप्त भी थे। फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ में उन्होने लता जी से एक ऐसा गीत गवाया, जिसके दो संस्करण हैं और दोनों को अलग-अलग प्रसंगों में फिल्माया गया। पहला संस्करण ग्रामीण पृष्ठभूमि में नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग के बीच फिल्माया गया था। इसी गीत में बांसुरी के स्थान पर सारंगी का प्रयोग कर और लय को थोड़ा बढ़ा कर तवायफ के कोठे पर फिल्माया गया था। यह चित्रगुप्त का सांगीतिक कौशल ही था कि दोनों प्रसंगों में गीत सार्थक अनुभूति कराने में सफल हुआ। लता मंगेशकर के स्वर में अब हम आपको गीत के दोनों संस्करण सुनवाते है।

‘काहे बंसुरिया बजवले...’ : फिल्म – गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो : स्वर – लता मंगेशकर





भोजपुरी की इस पहली फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ को मिली आशातीत सफलता से इस समृद्ध आंचलिक बोली में फिल्म-निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसके बाद भोजपुरी में ‘बिदेशिया’, ‘लागी नाहीं छूटे’, ‘भौजी’, ‘गंगा’ आदि कई अच्छी फिल्मों का निर्माण हुआ, किन्तु धीरे-धीरे इनमें अन्य विधाओं की तरह विकृतियाँ आने लगीं। इन फिल्मों से सामाजिक सरोकार लुप्त होते रहे और अश्लीलता की भरमार होने लगी। जहाँ एक ओर पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ में अभिनेता और पटकथा लेखक नाज़िर हुसेन ने दहेज की कुप्रथा, वर्ग भेद, विधवा विवाह, अधेड़ आयु के पुरुष का अवयस्क बालिकाओं से विवाह रचाने की विसंगतियों को उकेरा था, वहीं बाद की फिल्मों ने इस दायित्व से पल्ला झाड़ लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि भोजपुरी सिनेमा के दर्शक निरन्तर घटते गए। बीच-बीच में कुछेक अच्छी फिल्में भी बनीं, जिनके बल पर यह सिलसिला जारी रहा। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘फिल्म-बन्धु’ नामक एक संस्था का गठन किया था, जिसके आर्थिक सहयोग से कई अच्छी भोजपुरी फिल्मों का निर्माण हुआ। यह सिलसिला आज भी जारी है और जब तक भोजपुरीभाषी रहेंगे तब तक जारी रहेगा। परन्तु फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ का नाम भारतीय सिनेमा के इतिहास में भोजपुरी सिनेमा के भव्य भवन का नीव के पत्थर के रूप में स्मरण किया जाता रहेगा।

कृष्णमोहन मिश्र

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Comments

Anonymous said…
बड़ी अनमोल जानकारी, इसका शीर्षक गीत कुछ सुना सा था, पर बाकी सभी गीत आज पहली बार सुने, बहुत बढ़िया लगे - सजीव सारथी
AVADH said…
बहुत सुन्दर आलेख.
आभार
अवध लाल
Pankaj Mukesh said…
Ati sunder !!jitna main "ganga maiya tohe piyaree chadhaibo" ke baare mein jaanta tha, usase kahin jyaada, padhane ko mila!!!
bahut bahut shukriya!!!
ek hindi-bhojpoori film thi godaan!!!hero Raajkumar!!!
geet-hiya jarat rahat din rai ho rama!!!is gane ki shuiting bhi banaras ke saranath sthit singhpur gaon mei huwa tha... mere pita ji is gane ko soot haote dekha tha kuchh 13 baar retake hone par Rajkumar ka gussa hone!!!sirf ek seen jismein Raajkumar ko apna chehra camare ki taraf lana tha aur antara chal raha tha...aas aduri sooni dagariya, chhaye andhera ....
Pankaj Mukesh said…
bhojpoori film-jekra charanwa mein lagal ke baare main jaankaari ho to kripa kar ke jaroor batayen!!!
बहुत अच्छा लगा इसे जानकार.
Smart Indian said…
इस रोचक और जानकारीपूर्ण आलेख के लिये आभार! ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ का निर्माण अपने आप में ऐतिहासिक पहल थी।
Pankaj Mukesh said…
I would like to write something in the context co this bhojpoori film in BHOJPOORI LANGUAGE, i am unable to control myself at this moment!!!-EEHAY KUL BATIYA TA RADI VIVID BHARTEE MEIN PICCHALE BARAS SUNALE RAHLIN. RADIOYA MEIN YUNUS KHANAWA KAHAT RAHAL KI-O SAMAY KA PARDHAN MANTAREE SHRI LALBAHADU SHASTRI JI KE BATIYA SUN KE (TO LOGAN JAISAN BHOJPOORI BHASHI KE RAHATAN BHI AAJ TAK EKOW SALEEMA BHOJPOORI MAIN NAHIN BANAL) SALEEMA BANAWAY KA TANAL GAIL!!!
THANX

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