१५ फ़रवरी १८६९ को मिर्ज़ा ग़ालिब का ७२ साल की उम्र में इन्तकाल हुआ था। करीब १५० साल गुज़र जाने के बाद भी ग़ालिब की ग़ज़लें आज उतनी ही लोकप्रिय और सार्थक हैं जितनी उस ज़माने में हुआ करती थीं। ग़ालिब पर बनी फ़िल्मों और टीवी प्रोग्रामों की चर्चा तथा उनकी एक ग़ज़ल लेकर सुजॉय चटर्जी आज आए हैं 'एक गीत सौ कहानियाँ' की सातवीं कड़ी में...
एक गीत सौ कहानियाँ # 7
अतीत के अदबी शायरों की बात चले तो जो नाम सबसे ज़्यादा चर्चित हुआ है, वह नाम है मिर्ज़ा ग़ालिब का। ग़ालिब की ग़ज़लें केवल ग़ज़लों की महफ़िलों और ग़ैर-फ़िल्मी रेकॉर्डों तक ही सीमित नहीं रही, फ़िल्मों में भी ग़ालिब की ग़ज़लें सर चढ़ कर बोलती रहीं। 'अनंग सेना' (१९३१), 'ज़हर-ए-इश्क़' (१९३३), 'यहूदी की लड़की' (१९३३), 'ख़ाक का पुतला' (१९३४), 'अनारकली' (१९३५), 'जजमेण्ट ऑफ़ अल्लाह' (१९३५), 'हृदय मंथन' (१९३६), 'क़ैदी' (१९४०), 'मासूम' (१९४१), 'एक रात' (१९४२), 'चौरंगी' (१९४२), 'हण्टरवाली की बेटी' (१९४३), 'अपना देश' (१९४९), 'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४), 'मैं नशे में हूँ' (१९५९), 'मौसम' (१९७५) और 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' (२००३) जैसी फ़िल्मों में ग़ालिब की ग़ज़लें सुनाई दी हैं। यूं तो गा़लिब ने बहुत सारी ग़ज़लें लिखी हैं, पर उनकी कुछ चुनिन्दा ग़ज़लें ही फ़िल्मों में बार-बार सुनाई दी है, जिनमें शामिल हैं “दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है”, “दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूं”, “रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो, हमसुखन कोई न हो और हमज़बां कोई न हो”, “नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने”, “कोई उम्मीदबर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती, मौत का एक दिन मुइयाँ है, नींद क्यों रात भर नहीं आती”, “आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक” और "ये न थी हमारे क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता"।
ग़ालिब की ग़ज़लें तो कई-कई बार फ़िल्मों में आईं, पर ख़ुद मिर्ज़ा ग़ालिब पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? सिर्फ़ एक। या यूं कहें कि भारत में एक और पाक़िस्तान में एक। भारत में ग़ालिब को श्रद्धांजली देने का बीड़ा उठाया फ़िल्मकार सोहराब मोदी ने। साल था १९५४। मिर्ज़ा ग़ालिब के किरदार में भारत भूषण और चौदवीं की भूमिका में सुरैया नज़र आए। फ़िल्म में संगीत था ग़ुलाम मोहम्मद का। ग़ालिब की तमाम ग़ज़लों के अलावा शक़ील बदायूनी ने भी कुछ नग़में लिखे थे इस फ़िल्म के लिए। फ़िल्म में शामिल थी ग़ालिब की ये ग़ज़लें - "आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक" (सुरैया), "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है" (तलत-सुरैया), "है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत" (रफ़ी), "इश्क़ मुझको न सही वहशत ही सही" (तलत), "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल" (सुरैया), "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" (तलत), "रहिए अब ऐसी जगह चलकर" (सुरैया) और "ये न थी हमारी क़िस्मत" (सुरैया)। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, इस मौक़े को याद करते हुए सुरैया ने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था, "ज़िंदगी में कुछ मौक़े ऐसे आते हैं जिनपर इन्सान सदा नाज़ करता है। मेरी ज़िंदगी में भी एक मौक़ा ऐसा आया था जब फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को प्रेसिडेण्ट'स् अवार्ड मिला और उस फ़िल्म का एक ख़ास शो राष्ट्रपति भवन में हुआ जहाँ हमने पण्डित नेहरू के साथ बैठकर यह फ़िल्म देखी थी। पण्डित नेहरू हर सीन में मेरी तारीफ़ करते और मैं फूली न समाती"।
पाकिस्तानी सिनेमा ने भी इस अज़ीम शायर को श्रद्धांजली स्वरूप एक फ़िल्म का निर्माण किया १९६१ में 'ग़ालिब' शीर्षक से। एस.के. पिक्चर्स के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था एम.एम.बिल्लू मेहरा (कुछ जगहों पर सैयद अताउल्लाह शाह का नाम दिया गया है) ने। फ़िल्म में संगीत था तस्सदुक़ हुसैन का, और ग़ालिब की ग़ज़लों के अतिरिक्त फ़िल्म के अन्य गीत लिखे तनवीर नक़वी ने। क्योंकि भारत में सुरैया चौदवीं का किरदार निभा चुकी थीं, इसलिए इस फ़िल्म के लिए भी किसी ऐसी अदाकारा को चुनना ज़रूरी था जो सुरैया के उस अभिनय, गायन और ख़ूबसूरती को टक्कर दे सके। इसलिए १९६१ की 'ग़ालिब' के लिए चुना गया नूरजहाँ को जो १९४७ में पाक़िस्तान चली गई थीं। और ग़ालिब के चरित्र में नज़र आए पाक़िस्तानी सुपरस्टार सुधीर। २४ नवंबर १९६१ के दिन प्रदर्शित हुई यह फ़िल्म। "ये न थी हमारी क़िस्मत" (नूरजहाँ, सलीम रज़ा), "तस्कीन को हम न रोये" (नूरजहाँ, नजमा नियाज़ी), "मुद्दत हुई है यार को" (नूरजहाँ), “दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त" (नूरजहाँ), "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है" (नूरजहाँ), "कभी नेकी भी उसके जी में गर" (नूरजहाँ), "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल" (नूरजहाँ), "कोई उम्मीद बर नहीं आती" (नूरजहाँ), "है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत" (नूरजहाँ) इन ग़ज़लों को इस फ़िल्म में जगह दी गई थी। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) और 'ग़ालिब' (१९६१), ये दोनों ही फ़िल्में बॉक्स-ऑफ़िस पर ऐवरेज चलीं, पर इनका संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ, और आज भी बड़े चाव से सुने जाते हैं, सरहद के दोनों तरफ़।
पाक़िस्तानी सरकार नें १९६९ में ख़ालिक़ इब्राहिम को नियुक्त किया था ग़ालिब पर एक वृत्तचित्र बनाने के लिए। फ़िल्म तो १९७१-७२ में पूरी कर ली गई। इस फ़िल्म में शामिल तथ्य इतिहास की दृष्टि से सही थे, पर पाक़िस्तानी सरकार के नज़रिये से नहीं। इसलिए इस फ़िल्म को मुक्ति नहीं मिली और आज यह फ़िल्म पाक़िस्तान सरकार के 'डिपार्टमेण्ट ऑफ़ फ़िल्म्स ऐण्ड पब्लिकेशन' के संग्रहालय में पड़ी हुई है। 16mm फ़ॉरमैट पर बनी इस फ़िल्म में ग़ालिब का किरदार निभाया था सुभानी बयूनुस ने, जिन्होंने बाद में कई टीवी प्रोडक्शनों में इसी किरदार को निभाया। १९८८ में गुलज़ार नें 'मिर्ज़ा ग़ालिब' शीर्षक से दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक बनाई, जो बहुत ज़्यादा कामयाब रही। ग़ालिब का चरित्र निभाया मंझे हुए अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने, और ग़ालिब की ग़ज़लों को आवाज़ें दी जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने। एक ऐल्बम के रूप में भी इन ग़ज़लों को जारी किया गया था जो बहुत सराहा गया। ग़ालिब के ग़ज़लों के ऐल्बम्स की बात चली है तो इस श्रेणी में उल्लेखनीय ऐल्बम है 'लता सिंग्स ग़ालिब', जिसमें ग़ालिब की ग़ज़लों को हृदयनाथ मंगेशकर ने कम्पोज़ किया और लता से गवाया। HMV की तरफ़ से जारी हुआ था यह रेकॉर्ड १९६९ में। इस ऐल्बम में अन्य तमाम ग़ज़लों के अलावा दो ग़ज़लें ऐसी थीं जो १९५४ और १९६१ की फ़िल्मों में भी शामिल थी। ये थीं "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" और "कोई उम्मीद बर नहीं आती"।
आज "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" की चर्चा करते हैं। ग़ज़ल में कुल ६ शेर हैं, पर 'मिर्ज़ा ग़ालिब' फ़िल्म में तलत की आवाज़ में केवल ४ ही शेर रेकॉर्ड किए गए थे। मूल ग़ज़ल के सभी शेर, उनके अंग्रेज़ी अनुवाद, और कुछ वज़नदार शब्दों के अर्थ ये रहे...
"फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया,
दिल, जिगर तिश्ना-ए-फ़रयाद आया।
Again I remember my moist eye
Again I wish to complain and cry
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़,
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया।
The doom's day was hardly over
Once again the time of your departure, I remember
ज़िंदगी यूं भी गुज़र जाती,
क्यों तेरा रहगुज़र याद आया।
Life would have passed in any case, then why
Did I remember the road you went by
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़याल,
दिल-ए-गुमगश्ता, मगर, याद आया।
Again to her street doth the mind wander
But the heart lost there, I remember
कोई वीरानी सी वीरानी है,
दश्त को देख के घर याद आया।
What desolation doth, O God, here fall
As I see the forest, my home I recall
मैंने मजनूं पे लड़कपन में 'असद',
संग उठाया था, कि सर याद आया।
For Majnu's head (in my boyhood) 'Asad' as I lifted a stone
I instanttly remembered my own.
इस ग़ज़ल के कुछ वज़नदार शब्दों के अर्थ ये रहे...
दीदा-ए-तर --- Tearful eyes
तिश्ना-ए-फ़रयाद --- Desperate to appeal
क़यामत --- The ultimate suffering
दश्त --- Wilderness
असद --- Mirza Ghalib's earlier 'Takhallus' i.e. Pen Name
संग --- Stone
इस ग़ज़ल को कुंदनलाल सहगल, बेगम अख़्तर, मेहदी हसन, और लता मंगेशकर जैसी किंगवदन्तियों ने समय समय पर गाये हैं। पर आज सुनिये तलत महमूद की आवाज़ में १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की इस ग़ज़ल को नीचे दिए गए प्लेयर पर क्लिक करके...
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
एक गीत सौ कहानियाँ # 7
अतीत के अदबी शायरों की बात चले तो जो नाम सबसे ज़्यादा चर्चित हुआ है, वह नाम है मिर्ज़ा ग़ालिब का। ग़ालिब की ग़ज़लें केवल ग़ज़लों की महफ़िलों और ग़ैर-फ़िल्मी रेकॉर्डों तक ही सीमित नहीं रही, फ़िल्मों में भी ग़ालिब की ग़ज़लें सर चढ़ कर बोलती रहीं। 'अनंग सेना' (१९३१), 'ज़हर-ए-इश्क़' (१९३३), 'यहूदी की लड़की' (१९३३), 'ख़ाक का पुतला' (१९३४), 'अनारकली' (१९३५), 'जजमेण्ट ऑफ़ अल्लाह' (१९३५), 'हृदय मंथन' (१९३६), 'क़ैदी' (१९४०), 'मासूम' (१९४१), 'एक रात' (१९४२), 'चौरंगी' (१९४२), 'हण्टरवाली की बेटी' (१९४३), 'अपना देश' (१९४९), 'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४), 'मैं नशे में हूँ' (१९५९), 'मौसम' (१९७५) और 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' (२००३) जैसी फ़िल्मों में ग़ालिब की ग़ज़लें सुनाई दी हैं। यूं तो गा़लिब ने बहुत सारी ग़ज़लें लिखी हैं, पर उनकी कुछ चुनिन्दा ग़ज़लें ही फ़िल्मों में बार-बार सुनाई दी है, जिनमें शामिल हैं “दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है”, “दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूं”, “रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो, हमसुखन कोई न हो और हमज़बां कोई न हो”, “नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने”, “कोई उम्मीदबर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती, मौत का एक दिन मुइयाँ है, नींद क्यों रात भर नहीं आती”, “आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक” और "ये न थी हमारे क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता"।
ग़ालिब की ग़ज़लें तो कई-कई बार फ़िल्मों में आईं, पर ख़ुद मिर्ज़ा ग़ालिब पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? सिर्फ़ एक। या यूं कहें कि भारत में एक और पाक़िस्तान में एक। भारत में ग़ालिब को श्रद्धांजली देने का बीड़ा उठाया फ़िल्मकार सोहराब मोदी ने। साल था १९५४। मिर्ज़ा ग़ालिब के किरदार में भारत भूषण और चौदवीं की भूमिका में सुरैया नज़र आए। फ़िल्म में संगीत था ग़ुलाम मोहम्मद का। ग़ालिब की तमाम ग़ज़लों के अलावा शक़ील बदायूनी ने भी कुछ नग़में लिखे थे इस फ़िल्म के लिए। फ़िल्म में शामिल थी ग़ालिब की ये ग़ज़लें - "आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक" (सुरैया), "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है" (तलत-सुरैया), "है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत" (रफ़ी), "इश्क़ मुझको न सही वहशत ही सही" (तलत), "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल" (सुरैया), "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" (तलत), "रहिए अब ऐसी जगह चलकर" (सुरैया) और "ये न थी हमारी क़िस्मत" (सुरैया)। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, इस मौक़े को याद करते हुए सुरैया ने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था, "ज़िंदगी में कुछ मौक़े ऐसे आते हैं जिनपर इन्सान सदा नाज़ करता है। मेरी ज़िंदगी में भी एक मौक़ा ऐसा आया था जब फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को प्रेसिडेण्ट'स् अवार्ड मिला और उस फ़िल्म का एक ख़ास शो राष्ट्रपति भवन में हुआ जहाँ हमने पण्डित नेहरू के साथ बैठकर यह फ़िल्म देखी थी। पण्डित नेहरू हर सीन में मेरी तारीफ़ करते और मैं फूली न समाती"।
पाकिस्तानी सिनेमा ने भी इस अज़ीम शायर को श्रद्धांजली स्वरूप एक फ़िल्म का निर्माण किया १९६१ में 'ग़ालिब' शीर्षक से। एस.के. पिक्चर्स के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था एम.एम.बिल्लू मेहरा (कुछ जगहों पर सैयद अताउल्लाह शाह का नाम दिया गया है) ने। फ़िल्म में संगीत था तस्सदुक़ हुसैन का, और ग़ालिब की ग़ज़लों के अतिरिक्त फ़िल्म के अन्य गीत लिखे तनवीर नक़वी ने। क्योंकि भारत में सुरैया चौदवीं का किरदार निभा चुकी थीं, इसलिए इस फ़िल्म के लिए भी किसी ऐसी अदाकारा को चुनना ज़रूरी था जो सुरैया के उस अभिनय, गायन और ख़ूबसूरती को टक्कर दे सके। इसलिए १९६१ की 'ग़ालिब' के लिए चुना गया नूरजहाँ को जो १९४७ में पाक़िस्तान चली गई थीं। और ग़ालिब के चरित्र में नज़र आए पाक़िस्तानी सुपरस्टार सुधीर। २४ नवंबर १९६१ के दिन प्रदर्शित हुई यह फ़िल्म। "ये न थी हमारी क़िस्मत" (नूरजहाँ, सलीम रज़ा), "तस्कीन को हम न रोये" (नूरजहाँ, नजमा नियाज़ी), "मुद्दत हुई है यार को" (नूरजहाँ), “दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त" (नूरजहाँ), "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है" (नूरजहाँ), "कभी नेकी भी उसके जी में गर" (नूरजहाँ), "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल" (नूरजहाँ), "कोई उम्मीद बर नहीं आती" (नूरजहाँ), "है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत" (नूरजहाँ) इन ग़ज़लों को इस फ़िल्म में जगह दी गई थी। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' (१९५४) और 'ग़ालिब' (१९६१), ये दोनों ही फ़िल्में बॉक्स-ऑफ़िस पर ऐवरेज चलीं, पर इनका संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ, और आज भी बड़े चाव से सुने जाते हैं, सरहद के दोनों तरफ़।
पाक़िस्तानी सरकार नें १९६९ में ख़ालिक़ इब्राहिम को नियुक्त किया था ग़ालिब पर एक वृत्तचित्र बनाने के लिए। फ़िल्म तो १९७१-७२ में पूरी कर ली गई। इस फ़िल्म में शामिल तथ्य इतिहास की दृष्टि से सही थे, पर पाक़िस्तानी सरकार के नज़रिये से नहीं। इसलिए इस फ़िल्म को मुक्ति नहीं मिली और आज यह फ़िल्म पाक़िस्तान सरकार के 'डिपार्टमेण्ट ऑफ़ फ़िल्म्स ऐण्ड पब्लिकेशन' के संग्रहालय में पड़ी हुई है। 16mm फ़ॉरमैट पर बनी इस फ़िल्म में ग़ालिब का किरदार निभाया था सुभानी बयूनुस ने, जिन्होंने बाद में कई टीवी प्रोडक्शनों में इसी किरदार को निभाया। १९८८ में गुलज़ार नें 'मिर्ज़ा ग़ालिब' शीर्षक से दूरदर्शन के लिए एक धारावाहिक बनाई, जो बहुत ज़्यादा कामयाब रही। ग़ालिब का चरित्र निभाया मंझे हुए अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने, और ग़ालिब की ग़ज़लों को आवाज़ें दी जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने। एक ऐल्बम के रूप में भी इन ग़ज़लों को जारी किया गया था जो बहुत सराहा गया। ग़ालिब के ग़ज़लों के ऐल्बम्स की बात चली है तो इस श्रेणी में उल्लेखनीय ऐल्बम है 'लता सिंग्स ग़ालिब', जिसमें ग़ालिब की ग़ज़लों को हृदयनाथ मंगेशकर ने कम्पोज़ किया और लता से गवाया। HMV की तरफ़ से जारी हुआ था यह रेकॉर्ड १९६९ में। इस ऐल्बम में अन्य तमाम ग़ज़लों के अलावा दो ग़ज़लें ऐसी थीं जो १९५४ और १९६१ की फ़िल्मों में भी शामिल थी। ये थीं "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" और "कोई उम्मीद बर नहीं आती"।
आज "फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया" की चर्चा करते हैं। ग़ज़ल में कुल ६ शेर हैं, पर 'मिर्ज़ा ग़ालिब' फ़िल्म में तलत की आवाज़ में केवल ४ ही शेर रेकॉर्ड किए गए थे। मूल ग़ज़ल के सभी शेर, उनके अंग्रेज़ी अनुवाद, और कुछ वज़नदार शब्दों के अर्थ ये रहे...
"फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया,
दिल, जिगर तिश्ना-ए-फ़रयाद आया।
Again I remember my moist eye
Again I wish to complain and cry
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़,
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया।
The doom's day was hardly over
Once again the time of your departure, I remember
ज़िंदगी यूं भी गुज़र जाती,
क्यों तेरा रहगुज़र याद आया।
Life would have passed in any case, then why
Did I remember the road you went by
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़याल,
दिल-ए-गुमगश्ता, मगर, याद आया।
Again to her street doth the mind wander
But the heart lost there, I remember
कोई वीरानी सी वीरानी है,
दश्त को देख के घर याद आया।
What desolation doth, O God, here fall
As I see the forest, my home I recall
मैंने मजनूं पे लड़कपन में 'असद',
संग उठाया था, कि सर याद आया।
For Majnu's head (in my boyhood) 'Asad' as I lifted a stone
I instanttly remembered my own.
इस ग़ज़ल के कुछ वज़नदार शब्दों के अर्थ ये रहे...
दीदा-ए-तर --- Tearful eyes
तिश्ना-ए-फ़रयाद --- Desperate to appeal
क़यामत --- The ultimate suffering
दश्त --- Wilderness
असद --- Mirza Ghalib's earlier 'Takhallus' i.e. Pen Name
संग --- Stone
इस ग़ज़ल को कुंदनलाल सहगल, बेगम अख़्तर, मेहदी हसन, और लता मंगेशकर जैसी किंगवदन्तियों ने समय समय पर गाये हैं। पर आज सुनिये तलत महमूद की आवाज़ में १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की इस ग़ज़ल को नीचे दिए गए प्लेयर पर क्लिक करके...
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
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