अभी बहुत समय नहीं गुजरा जब बस्तर का नाम अपरिचित सा था। आज माओवादी अतिवाद के कारण दिल्ली के हर बड़े अखबार का सम्पादकीय बस्तर हो गया है। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैय्यर के शब्द हैं – ‘बस्तर अनेक सूरदास विशेषज्ञों का हाथी है, सब अपने अपने ढंग से उसका बखान कर रहे हैं। बस्तर को वे कौतुक से बाहर बाहर को देखते हैं और वैसा ही दिखाते हैं।‘ माओवाद पर चिंता जताते हुए इस अंचल के वयोवृद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी कहते हैं कि ‘नक्सली भी यदि मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये।‘ अब प्रश्न उठता है कि इस अंचल की वास्तविकता क्या है? क्या वे कुछ अंग्रेजी किताबें ही सही कह रहे हैं जिनमें गुण्डाधुर और गणपति को एक ही तराजू में तौला गया है, भूमकाल और माओवाद पर्यायवाची करार दिये गये हैं। बस्तर में माओवाद के वर्तमान स्वरूप में एसे कौन से तत्व हैं जो उन्हें ‘भूमकाल’ शब्द से जोडे जाने की स्वतंत्रता देते हैं? क्या इसी जोडने मिलाने के खेल में बस्तर के दो चेहरे नहीं हो गये? एक चेहरा जो अनकहा है और दूसरा जिसपर कि एक बस्तरिया कहावत ही सही बैठती है – “कावरा-कोल्हार” (काक-कोलाहल)। लेखक का मानना है कि इन्ही प्रश्नों के मनोमंथन के दौरान ही उपन्यास “आमचो बस्तर” की संकल्पना हुई।
उपन्यास में दो समानांतर कहानियाँ हैं। पहली कहानी है जो प्रागैतिहासिक काल से आरंभ करते हुए प्राचीन बस्तर में संघर्ष के चिन्ह तलाशती है, प्रचलित मिथकों में संघर्ष के मायने ढूंढती है। नल-वाकाटक-नाग-गंग तथा काकतीय/चालुक्य वंश के शासनकाल (जिसमें मराठा आधिपत्य एवं ब्रिटिश आधिपत्य का काल सम्मिलित है) में हुए सशस्त्र विद्रोहों के पीछे के कारण और भावनायें तलाश करती है।.....शताब्दियों से बस्तर के आदिवासियों को अपनी लडाईयाँ लडते हुए इतनी समझ रही है कि उन्हें क्या चाहिये और शत्रु कौन है। यह चाहे 1774 की क्रांति में कंपनी सरकार का अधिकारी जॉनसन हो या कि 1795 के विद्रोह में कम्पनी सरकार का जासूस जे. डी. ब्लंट। 1876 के हमलों के पीछे आदिवासियों के हमलों का लक्ष्य सरकारी कर्मचारी (मुंशी) थे जिससे भिन्न किसी भी व्यक्ति पर आक्रमण नहीं किया गया तो 1859 के कोई विद्रोह में केवल उनकी ही हत्या की गयी जिन्होंने चेतावनी के बावजूद भी सागवान के वृक्ष काटे। पुनश्च, अपने राजा, मराठाओं, ब्रिटिश सरकार तथा स्वतंत्र भारत सरकार के विरुद्ध जो भूमकाल हुए वे हैं – हलबा विद्रोह (1774-1779), भोपालपट्टनम संघर्ष (1795), परलकोट विद्रोह (1825), तारापुर विद्रोह (1842-1854), मेरिया विद्रोह (1842-1863), महान मुक्ति संग्राम (1856-57), कोई विद्रोह (1859), मुरिया विद्रोह (1876), रानी-चो-रिस (1878-1882), महान भूमकाल (1910), महाराजा प्रबीर चंद्र का विद्रोह (1964-66)। इस सभी क्रांतियों के सूत्रधार उपन्यास के पात्र हैं। उपन्यास की समानांतर चलने वाली दूसरी कहानी बस्तर के शिक्षित नवयुवकों के संघर्ष की है। इन पात्रों और उनके जीवन संघर्ष की अनेकों घटनाओं के माध्यम से शोषण, हत्याओं तथा वर्गसंघर्ष के माओवाद से संबंध को समझने का एक प्रयास भी है। उपन्यास में कोशिश की गयी है कि घटनाओं का वर्णन करते हुए ही बस्तर के पर्यटन स्थल, यहाँ की सांस्कृतिक विशेषतायें, तीज त्यौहार, देवी-देवता और आस्था, पहनावा, लोक नृत्य, दशहरा आदि का विवरण भी हो जिससे इस उपन्यास के पाठक के मन में बस्तर क्षेत्र की एक स्पष्ट तस्वीर उभर सके। उपन्यास में लेखक नें विषय की जटिलता के कारण रिपोर्ट और कहानी को जोडने का प्रयोग किया है। लेखक नें रिसर्च आधारित इस उपन्यास के निष्कर्षों के सर्वे- तकनीक का भी प्रयोग किया है जिसमें बस्तर के लगभग सभी हिस्सों से सभी उम्र के शिक्षित आदिवासियों, अशिक्षित आदिवासियों, गैर-आदिवासियों से सामाजिक-आर्थिक स्थिति, विकास को ले कर उनकी सोच, पर्यावरण पर उनका दृष्टिकोण आदि को ले कर कई प्रश्न उनके सम्मुख रखे। उपन्यास में पंडा बैजनाथ, नरोन्हा से ले कर ब्रम्हदेव शर्मा तक जो प्रशासक रहे हैं उनकी नीतियों और दूरगामी प्रभावों पर भी बात की गयी है।
आतीत के आन्दोलन यह बताते हैं कि आदिवासी जागरूक हैं और अपनी लडाई स्वयं लडना जानते हैं उन्हें विचारचाराओं की घुट्टी पिला कर हो सकता है हम उनके भीतर के मूल तत्व से ही वंचित हो जायें या कि इस अंचल की पहचान ही बदल जाये। स्वत:स्फूर्त आन्दोलनों और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिये होने वाले सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध के बीच की बारीक रेखा पर उपन्यास में चर्चा की गयी है। वस्तुत: यह उपन्यास माओवाद का विश्लेषण करने की अपेक्षा बस्तरियों की वह दिशा और दशा को चित्रित करता है जो थोपे गये युद्ध के कारण हो गयी है। उपन्यास यह विश्लेषित करता है कि किस तरह मुलुगु के जंगलों में मिल रही असफलता के बाद तथा कई राज्यों से सीमा जुड़े होने के कारण नक्सलवादी अबूझमाड क्षेत्र में प्रविष्ठ हुए। स्वयं को बनाये रखने के लिये मुद्दो की पहचान बाद में की गयी तथापि पैंतीस वर्ष से अधिक की अपनी उपस्थिति में उपलब्धि के नाम पर तेन्दू पत्ता के दाम निर्धारण के अलावा कोई ठोस उपलब्धि गिनाने के लिये नहीं है। बस्तर क्षेत्र में किसी मजदूर या किसान आन्दोलन में प्रतिनिधित्व का श्रेय भी माओवादियों को नहीं जाता। अपनी भैगोलिक विवशताओं के कारण वाम-अतिवादियों की शरणस्थली बना अबूझमाड़ देख रहा है किस तरह आदिम परम्परायें, जीवनशैली और भाषा सभी नष्ट होते जा रहे हैं।
कुछ अंश उपन्यास से –
“तुमने झारखण्ड में कभी सुना है कि माओवादी उलगुलान कर रहे हैं? नहीं न? तो फिर बस्तर में वे ‘भूमकाल’ शब्द को कैसे ओढ़ सकते हैं? इस शब्द में आत्मा है। यह बस्तर के आदिवासियों की एकता, संगठन क्षमता और संघर्ष का प्रतीक शब्द है। इस शब्द की अपनी मौलिकता है। माओवादियों द्वारा भूमकाल शब्द के इस्तेमाल पर मुझे आपत्ति है।“
“क्या इससे कुछ फर्क पड़ता है?”
“हाँ कल कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढियाँ यह समझें कि भूमकाल 2004 को आरंभ हुआ। भूमकाल सलवा जुडुम के खिलाफ लड़ाई थी। भूमकालिये गणपति, किशनजी, गुडसा उसेंडी आदि आदि हैं। मैं यह मानता हूँ कि भूमकाल शब्द का इस्तेमाल आदिवासियों की पहचान मिटाने की साजिश है। जब तक गुण्ड़ाधुर की वीरता, काल कालेन्द्र के संघर्ष या ड़ेबरीधुर के बलिदान की कहानियाँ धूमिल नहीं होंगी बारूदी सुरंग में मारी जा रही लाशो पर लाल सलाम का जयघोष भूमकाल नहीं कहा जा सकता।” दीपक ने अपने भावावेश को दबाने के लिये निधि की हथेली जोर से दबा दी।
“क्या तुमको नहीं लगता कि बस्तर पर जो लेखन हो रहा है उससे लोगों की रुचि....”
“ठहरो ठहरो। तुम गलत ट्रैक पर जा रही हो। बस्तर पर कम, इन दिनों माओवादियों और उनके आधार क्षेत्र पर अधिक लिखा जा रहा है। आश्चर्य की बात है न कि किसी की रुचि यहाँ के लोग, उनकी परम्परायें, उनकी जीवन शैली, उनकी चाहत, उनके सपने....किसी में नहीं है। हालिया लेखन ने घर-घर तक पहुँचाया है कि माओवादी कैसे रहते हैं, क्या खाते हैं क्या सोचते हैं...”
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“तो आप माओवाद का बस्तर में क्या भविष्य देखते है?” दीपक ने पूछा।
“मैं ड़रा हुआ हूँ। मुझे बुरे सपने आते हैं। तुम लोग माड़ इलाके से आ रहे हो। दीपक क्या वहाँ तुम्हे वही गाता गुनगुनाता बस्तर दिखा? बंदूख ताने पीटी करते और लाल सलाम चीखते लोग वो हैं जिनसे मिट्टी की खुशबू ने मुँह मोड़ लिया है। तुमने वहाँ माँदर की थाप पर गाये जाते लोग गीत सुने? अब तो साम्राज्यवाद से विरोध के गीत होते है। इन गीतों में जीवन नहीं है, मस्ती नहीं है बस्तरियापन नहीं है। घोटुल मर गये। धीरे धीरे अपना अस्तित्व खो रहे हैं भीमादेव, आंगादेव, पाटदेव, भैरवदेव, लिंगो और माँ दंतेश्वरी भी। भूत-प्रेत, जादू-तोना, झाड़-फूक, सिरहा-गुनिया, पँजियार, पेरामा, गायता....कुछ भी नहीं रहा। मेले मड़ई और मुर्गा लड़ाई के बिना कैसा बस्तर? और कुछ ऐसा भी बदलाव हुआ है जो कभी सोचा नहीं था। अरुन्धति राय का लेख पढ़ना ‘वाकिंग विद द कामरेडस’; वो खुलासा करती हैं कि ‘आदिवासी औरतें केवल वर्ग-शत्रु की नृशंस हत्या दिखाने वाला वीडियो देखना पसंद करती हैं।‘ क्या यह बस्तर की आदिवासी औरतों की बात हो रही है? क्या इतना बदलाव हो गया है? क्या तुममे यह हिम्मत है कि अपने अखबार में यह सवाल खड़ा करो कि वो कौन लोग है जो आदिवासी युवतियों को नृशंस हत्याओं के वीडियो दिखा रहे हैं? साफ है कि किस तरह मासूम दिमाग से खेला जा रहा है और उनके भोलेपन की हत्या की जा रही है।”
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“तो क्या आप सलवा जुडुम के समर्थक हैं?” निधि नें चुभने वाला सवाल किया।
“निधि यह एक खेमा पकडने वाली बात है जो सही नहीं है। एसा ही सवाल है जैसे कि अरे आप वामपंथी नहीं हैं तो निश्चित ही दक्षिणपंथी हैं? अगर मुझे इन दोनों साँचों में ढ़लने से इनकार हो तो? तुम्हें मैं एक कहानी बताता हूँ शायद उसके बाद हमें बहस में पड़ने की जरूरत न रह जाये।“
“जी...”
“कहानी मंगलू की है जिससे मैं दंतेवाड़ा में मिला था। तब वह सलवाजुडुम कैम्प में रह रहा था। मैने पूछा कि अपना घर-बाड़ी छोड कर क्यों भाग आये? उसने बताया कि उसके गाँव में माओवादी लोगों का हुकुम चलता है इससे उसे शिकायत नहीं थी। समस्या शुरु हुई जब उसके दो मुर्गों में से एक मुर्गा उसके ही पड़ोसी को बटाई में मिल गया। तुम्हें मालूम ही होगा कि किसी गाँव को अपने कब्जे में लेने के बाद जन-जानवर गणना की जाती है फिर माओवादी सभी धन-पशुधन को बराबरी के आधार पर बाँट देते हैं। रोज आधा पेट सोने वाला मंगलू पूंजीपति हो गया था क्योंकि अपने खून-पसीने से उसने दो मुर्गे सम्पत्ति बना ली थी। मंगलू इस बटाई के लिये सहमत नहीं था। उसने विरोध किया लेकिन दो चार थप्पड खाने के बाद उसे समानता का सिद्धांत समझ में आ गया। मंगलू के कुछ दिन भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए बीते। दुर्भाग्य से उसका मुर्गा मर गया। अब उसकी पीड़ा और बढ़ गयी थी। बटाई में चला गया मुर्गा वापस पाने के लिये वह पडोसी से रोज झगड़ने लगा। बात सरकार चलाने का दावा करने वालों तक भी पहुँची लेकिन मंगलू को मुर्गा वापस नहीं किया गया। मंगलू के लिये यह मुर्गा दिन की तड़प और रात का सपना बन गया था। एक दिन जब बर्दाश्त नें जवाब दे दिया तो वह उठा और अपने मुर्गे की गर्दन मरोड़ कर गाँव से भाग गया.....।“ मरकाम नें कहानी को शून्य में छोड़ दिया।
सुनिए पुस्तक का एक अध्याय, लेखक राजीव रंजन प्रसाद के स्वर में - चावल के दाम
सुनिए एक और अध्याय - नक्सलवाद और समकालीनता (स्वर: राजीव रंजन प्रसाद )
उपन्यास "आमचो बस्तर" का विमोचन दिल्ली में १५ फरवरी को होने जा रहा है, जिसमें आप सब सादर आमंत्रित हैं. रेडियो प्लेबैक के सभी श्रोता जो दिल्ली और आस पास के क्षेत्रों में रहते हैं इस साहित्यिक कार्यक्रम अवश्य पधारें. लीजिए पुस्तक के लेखक राजीव रंजन का आमंत्रण आपके सबके नाम -
आदरणीय स्वजन
बस्तर के अतीत और वर्तमान की त्रासदी पर केन्द्रित मेरा उपन्यास "आमचो बस्तर" यश प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसका लोकार्पण 15.02.2012 को छत्तीसगढ राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह करेंगे। इस अवसर पर आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है। विस्तृत कार्यक्रम की जानकारी संलग्न आमंत्रण पत्र में दी गयी है
विनीत-
राजीव रंजन प्रसाद
07895624088
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