१३ फ़रवरी २०१२ को जानेमाने शायर शहरयार का इन्तकाल हो गया। कुछ फ़िल्मों के लिए उन्होंने गीत व ग़ज़लें भी लिखे जिनका स्तर आम फ़िल्मी रचनाओं से बहुत उपर है। 'उमरावजान', 'गमन', 'फ़ासले', 'अंजुमन' जैसी फ़िल्मों की ग़ज़लों और गीतों को सुनने का एक अलग ही मज़ा है। उन्हें श्रद्धांजली स्वरूप फ़िल्म 'फ़ासले' के एक लोकप्रिय युगल गीत की चर्चा आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' की आठवीं कड़ी में, सुजॉय चटर्जी के साथ...
एक गीत सौ कहानियाँ # 8
यूं तो फ़िल्मी गीतकारों की अपनी अलग टोली है, पर समय समय पर साहित्य जगत के जानेमाने कवियों और शायरों ने फ़िल्मों में अपना स्तरीय योगदान दिया है, जिनके लिए फ़िल्म जगत उनका आभारी हैं। ऐसे अज़ीम कवियों और शायरों के लिखे गीतों व ग़ज़लों ने फ़िल्म संगीत को न केवल समृद्ध किया, बल्कि सुनने वालों को अमूल्य उपहार दिया। ऐसे ही एक मशहूर शायर रहे शहरयार, जिनका हाल ही में देहान्त हो गया। अख़लक़ मुहम्मद ख़ान के नाम से जन्मे शहरयार को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से साल २००८ में सम्मानित किया गया था। ७५-वर्षीय इस अज़ीम शायर को एक लेखक और शिक्षक के रूप में बहुत इज़्ज़त तो मिली ही, इन्होंने मुज़फ़्फ़र अली की तमाम फ़िल्मों के लिए गानें भी लिखे। 'उमरावजान' की ग़ज़लें आज इतिहास बन चुकी हैं। "ये क्या जगह है दोस्तों", "इन आँखों की मस्ती के", "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए", "ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें" जैसी कालजयी ग़ज़लें हों या फ़िल्म 'गमन' की "सीने में जलन" या "अजीब सनीहा मुझ पर गुज़र गया" हो, शहरयार की हर रचना अपने आप में बेमिसाल है, लाजवाब है। फ़िल्म 'अंजुमन' की ग़ज़लें लोगों में ज़्यादा चर्चित न रही हों, पर कुछ लोगों को शबाना आज़मी की गाई इस फ़िल्म की "गुलाब जिस्म का" आज भी अच्छी तरह याद है।
फ़िल्म जगत में शहरयार का नाम भले मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्मों के साथ जोड़ा जाता हो, पर यश चोपड़ा ने ८० के दशक की अपनी फ़िल्म 'फ़ासले' के गीतकार के रूप में इन्हीं को चुना था। यश चोपड़ा की अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म ने कामयाबी के झंडे तो नहीं गाढ़े, पर इसके गीतों ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल की। शिव-हरि का सुरीला संगीत पाकर शहरयार के नग़में जैसे खिल उठे। आशा भोसले की गाई ग़ज़ल "यूं तो मिलने तो हम मिले हैं बहुत, दरमियाँ फिर भी फ़ासले हैं बहुत" मेरी इस फ़िल्म की पसंदीदा ग़ज़ल है। पर सर्वसाधारण में फ़िल्म का जो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ था, वह था लता मंगेशकर और किशोर कुमार का गाया "हम चुप हैं कि दिल सुन रहे हैं, धड़कनों को, आहटों को, सांसें रुक सी गई हैं"। और शहरयार की सांसें रुक गईं अलीगढ़ में इस १३ फ़रवरी की शाम ८:३० बजे। उनके छोटे बेटे फ़रिदून, जो मुंबई में रहते हैं, ने बताया कि पिछले साल चिकित्सा के लिए उनके पिता मुंबई आए थे और उन्होंने यश चोपड़ा से मुलाक़ात भी की थी। शायद 'फ़ासले' के दिनों की यादें ही उन्हें खींच ले गई होंगी यश जी के पास।
फ़िल्म 'फ़ासले' का यह रोमांटिक डुएट "हम चुप हैं..." फ़िल्माया गया था रोहन कपूर और फ़रहा पर। इस लेख के लिए जब मैंने रोहन कपूर से सम्पर्क किया और उनसे शहरयार साहब और ख़ास कर इस गीत से जुड़ी उनकी यादों के बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ इन शब्दों में जवाब दिया - "शहरयार साहब के गुज़र जाने की ख़बर सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ। भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को 'quantity' में नहीं बल्कि 'quality' में तोली जानी चाहिए। वो सूक्ष्म और सच्चे लेखकों में से थे और मैं भगवान का आभारी हूँ कि मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। एक रूमानी शायर... उन्होंने यश जी के लिए लिखा। यश जी, जो उस समय साहिर लुधियानवी से गीत लिखवाते थे, शहरयार साहब को बतौर गीतकार चुनना ही शहरयार साहब के लिए किसी जीत से कम नहीं थी। "हुम चुप हैं" शहरयार साहब ने लिखा और किशोर दा व लता जी नें बेहद ख़ूबसूरती के साथ गाया। यह फ़िल्म का पिक्चराइज़ होने वाला पहला गाना था। पूरा गीत स्विट्ज़रलैण्ड की पहाड़ों में फ़िल्माया गया था। कड़ाके की ठण्ड थी और मुझे व फ़रहा को इस गीत में रोमांटिक लिप-सिंक करना था, और वह भी टाइट कोज़-अप में। बहुत मुश्किल काम था। पर शिव-हरि की मेलडीयस धुन ने गीत को इतना सुंदर बना दिया कि हम दोनों ने गीत का हर छोटे से छोटा अंश को फ़िल्माने का भरपूर आनन्द लिया। ८० के दशक का यह एक सदाबहार गीत साबित हुआ था। इस गीत की यादें मेरे दिल में हमेशा ताज़ी रहेंगी।"
२७ सितंबर १९८५ को प्रदर्शित इस फ़िल्म में रोहन कपूर और फ़रहा के अतिरिक्त मुख्य भूमिकाओं में थे सुनिल दत्त, रेखा, दीप्ति नवल, राज किरण और फ़ारूक़ शेख़। शहरयार साहब के जाने की ख़बर सुन कर फ़ारूक़ शेख़ ने कहा - "उर्दू साहित्य जगत के लिए यह एक बहुत बड़ी क्षति है। शहरयार साहब ने मेरी फ़िल्मों - 'गमन', 'उमराव जान', 'अंजुमन' और 'फ़ासले' - के गीतों को लिखा था और हर एक गीत अपने आप में मास्टरपीस साबित हुए। ८० के दशक में मेरी उनसे कई बार मुलाक़ातें हुई हैं, और हाल में उनके बेटे के घर पर मीरा रोड में मुलाक़ात हुई थी जब वो अपनी कैन्सर की चिकित्सा के लिए आए थे। शहरयार साहब एक बहुत ही पढ़े हुए शायर थे जिन्होंने हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि उनके लिखे शेर समाज को कुछ न कुछ संदेश ज़रूर दें। एक सच्चे कलाकार की तरह वो पब्लिसिटी से दूर रहना पसन्द करते थे। पर उनकी लेखनी ही उनकी ज़ुबान थी।"
शहरयार का जन्म १६ जून, १९३६ को बरेली के एक गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने बुलन्दशहर में प्राप्त की और फिर उसके बाद वो जुड़े अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से। १९८६ में इसी यूनिवर्सिटी में उर्दू लेक्चरर की नौकरी मिल गई जहाँ से उन्होंने १९९६ में उर्दू डिपार्टमेण्ट के चेयरमैन के रूप में रिटायर किया। वो साहित्यिक पत्रिका 'शेर-ओ-हिकमत' के सम्पादक रहे, और १९८७ में अपनी काव्य संकलन 'ख़्वाब का दर बन्द है' के लिए उर्दू का 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' भी अर्जित किया। आज शहरयार इस फ़ानी दुनिया से बहुत दूर निकल चुके हैं पर उर्दू साहित्य जगत और सिने-संगीत जगत को जो भेंटें उन्होंने दी हैं, उनकी वजह से वो हमेशा के लिए अमर हो गए हैं। जिस तरह के इस गीत के बोल हैं कि "सांसें रुक सी गई हैं", ठीक वैसे ही उनके जाने के बाद वक़्त रुक गया है, यानी उनके लिखे गीत कालजयी हो गए हैं, उनकी ग़ज़लों पर वक़्त का कोई असर नहीं रहा।
लता-किशोर के गाए, शहरयार के लिखे व शिव-हरि के स्वरबद्ध किए फ़िल्म 'फ़ासले' के इस गीत को सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें...
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
एक गीत सौ कहानियाँ # 8
यूं तो फ़िल्मी गीतकारों की अपनी अलग टोली है, पर समय समय पर साहित्य जगत के जानेमाने कवियों और शायरों ने फ़िल्मों में अपना स्तरीय योगदान दिया है, जिनके लिए फ़िल्म जगत उनका आभारी हैं। ऐसे अज़ीम कवियों और शायरों के लिखे गीतों व ग़ज़लों ने फ़िल्म संगीत को न केवल समृद्ध किया, बल्कि सुनने वालों को अमूल्य उपहार दिया। ऐसे ही एक मशहूर शायर रहे शहरयार, जिनका हाल ही में देहान्त हो गया। अख़लक़ मुहम्मद ख़ान के नाम से जन्मे शहरयार को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से साल २००८ में सम्मानित किया गया था। ७५-वर्षीय इस अज़ीम शायर को एक लेखक और शिक्षक के रूप में बहुत इज़्ज़त तो मिली ही, इन्होंने मुज़फ़्फ़र अली की तमाम फ़िल्मों के लिए गानें भी लिखे। 'उमरावजान' की ग़ज़लें आज इतिहास बन चुकी हैं। "ये क्या जगह है दोस्तों", "इन आँखों की मस्ती के", "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए", "ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें" जैसी कालजयी ग़ज़लें हों या फ़िल्म 'गमन' की "सीने में जलन" या "अजीब सनीहा मुझ पर गुज़र गया" हो, शहरयार की हर रचना अपने आप में बेमिसाल है, लाजवाब है। फ़िल्म 'अंजुमन' की ग़ज़लें लोगों में ज़्यादा चर्चित न रही हों, पर कुछ लोगों को शबाना आज़मी की गाई इस फ़िल्म की "गुलाब जिस्म का" आज भी अच्छी तरह याद है।
फ़िल्म जगत में शहरयार का नाम भले मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्मों के साथ जोड़ा जाता हो, पर यश चोपड़ा ने ८० के दशक की अपनी फ़िल्म 'फ़ासले' के गीतकार के रूप में इन्हीं को चुना था। यश चोपड़ा की अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म ने कामयाबी के झंडे तो नहीं गाढ़े, पर इसके गीतों ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल की। शिव-हरि का सुरीला संगीत पाकर शहरयार के नग़में जैसे खिल उठे। आशा भोसले की गाई ग़ज़ल "यूं तो मिलने तो हम मिले हैं बहुत, दरमियाँ फिर भी फ़ासले हैं बहुत" मेरी इस फ़िल्म की पसंदीदा ग़ज़ल है। पर सर्वसाधारण में फ़िल्म का जो गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ था, वह था लता मंगेशकर और किशोर कुमार का गाया "हम चुप हैं कि दिल सुन रहे हैं, धड़कनों को, आहटों को, सांसें रुक सी गई हैं"। और शहरयार की सांसें रुक गईं अलीगढ़ में इस १३ फ़रवरी की शाम ८:३० बजे। उनके छोटे बेटे फ़रिदून, जो मुंबई में रहते हैं, ने बताया कि पिछले साल चिकित्सा के लिए उनके पिता मुंबई आए थे और उन्होंने यश चोपड़ा से मुलाक़ात भी की थी। शायद 'फ़ासले' के दिनों की यादें ही उन्हें खींच ले गई होंगी यश जी के पास।
फ़िल्म 'फ़ासले' का यह रोमांटिक डुएट "हम चुप हैं..." फ़िल्माया गया था रोहन कपूर और फ़रहा पर। इस लेख के लिए जब मैंने रोहन कपूर से सम्पर्क किया और उनसे शहरयार साहब और ख़ास कर इस गीत से जुड़ी उनकी यादों के बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ इन शब्दों में जवाब दिया - "शहरयार साहब के गुज़र जाने की ख़बर सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ। भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को 'quantity' में नहीं बल्कि 'quality' में तोली जानी चाहिए। वो सूक्ष्म और सच्चे लेखकों में से थे और मैं भगवान का आभारी हूँ कि मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। एक रूमानी शायर... उन्होंने यश जी के लिए लिखा। यश जी, जो उस समय साहिर लुधियानवी से गीत लिखवाते थे, शहरयार साहब को बतौर गीतकार चुनना ही शहरयार साहब के लिए किसी जीत से कम नहीं थी। "हुम चुप हैं" शहरयार साहब ने लिखा और किशोर दा व लता जी नें बेहद ख़ूबसूरती के साथ गाया। यह फ़िल्म का पिक्चराइज़ होने वाला पहला गाना था। पूरा गीत स्विट्ज़रलैण्ड की पहाड़ों में फ़िल्माया गया था। कड़ाके की ठण्ड थी और मुझे व फ़रहा को इस गीत में रोमांटिक लिप-सिंक करना था, और वह भी टाइट कोज़-अप में। बहुत मुश्किल काम था। पर शिव-हरि की मेलडीयस धुन ने गीत को इतना सुंदर बना दिया कि हम दोनों ने गीत का हर छोटे से छोटा अंश को फ़िल्माने का भरपूर आनन्द लिया। ८० के दशक का यह एक सदाबहार गीत साबित हुआ था। इस गीत की यादें मेरे दिल में हमेशा ताज़ी रहेंगी।"
२७ सितंबर १९८५ को प्रदर्शित इस फ़िल्म में रोहन कपूर और फ़रहा के अतिरिक्त मुख्य भूमिकाओं में थे सुनिल दत्त, रेखा, दीप्ति नवल, राज किरण और फ़ारूक़ शेख़। शहरयार साहब के जाने की ख़बर सुन कर फ़ारूक़ शेख़ ने कहा - "उर्दू साहित्य जगत के लिए यह एक बहुत बड़ी क्षति है। शहरयार साहब ने मेरी फ़िल्मों - 'गमन', 'उमराव जान', 'अंजुमन' और 'फ़ासले' - के गीतों को लिखा था और हर एक गीत अपने आप में मास्टरपीस साबित हुए। ८० के दशक में मेरी उनसे कई बार मुलाक़ातें हुई हैं, और हाल में उनके बेटे के घर पर मीरा रोड में मुलाक़ात हुई थी जब वो अपनी कैन्सर की चिकित्सा के लिए आए थे। शहरयार साहब एक बहुत ही पढ़े हुए शायर थे जिन्होंने हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि उनके लिखे शेर समाज को कुछ न कुछ संदेश ज़रूर दें। एक सच्चे कलाकार की तरह वो पब्लिसिटी से दूर रहना पसन्द करते थे। पर उनकी लेखनी ही उनकी ज़ुबान थी।"
शहरयार का जन्म १६ जून, १९३६ को बरेली के एक गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने बुलन्दशहर में प्राप्त की और फिर उसके बाद वो जुड़े अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से। १९८६ में इसी यूनिवर्सिटी में उर्दू लेक्चरर की नौकरी मिल गई जहाँ से उन्होंने १९९६ में उर्दू डिपार्टमेण्ट के चेयरमैन के रूप में रिटायर किया। वो साहित्यिक पत्रिका 'शेर-ओ-हिकमत' के सम्पादक रहे, और १९८७ में अपनी काव्य संकलन 'ख़्वाब का दर बन्द है' के लिए उर्दू का 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' भी अर्जित किया। आज शहरयार इस फ़ानी दुनिया से बहुत दूर निकल चुके हैं पर उर्दू साहित्य जगत और सिने-संगीत जगत को जो भेंटें उन्होंने दी हैं, उनकी वजह से वो हमेशा के लिए अमर हो गए हैं। जिस तरह के इस गीत के बोल हैं कि "सांसें रुक सी गई हैं", ठीक वैसे ही उनके जाने के बाद वक़्त रुक गया है, यानी उनके लिखे गीत कालजयी हो गए हैं, उनकी ग़ज़लों पर वक़्त का कोई असर नहीं रहा।
लता-किशोर के गाए, शहरयार के लिखे व शिव-हरि के स्वरबद्ध किए फ़िल्म 'फ़ासले' के इस गीत को सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें...
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
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