ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं.....वीभत्स रस को क्या खूब उभरा है रफ़ी साहब ने इस दर्द भरे नगमें में
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 499/2010/199
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज है इस स्तंभ की ४९९ वीं कड़ी। नौ रसों की चर्चा में अब बस एक ही रस बाक़ी है और वह है विभत्स रस। जी हाँ, 'रस माधुरी' लघु शृंखला की अंतिम कड़ी में आज ज़िक्र विभत्स रस का। विभत्स रस का अर्थ है अवसाद, या मानसिक अवसाद भी कह सकते हैं इसे। अपने आप से हमदर्दी इस रस का एक लक्षण है। कहा गया है कि विभत्स रस से ज़्यादा क्षतिकारक और व्यर्थ रस और कोई नहीं। विभत्स उस भाव को कहते हैं कि जिसमें है अतृप्ति, अवसाद और घृणा। गाली गलोच और अश्लीलता भी विभत्स रस के ही अलग रूप हैं। विभत्स रस के चलते मन में निराशावादी विचार पनपने लगते हैं और इंसान अपने धर्म और कर्म के मार्ग से दूर होता चला जाता है। शक्ति और आत्मविश्वास टूटने लगता है। यहाँ तक कि आत्महत्या की भी नौबत आ सकती है। अगर इस रस का ज़्यादा संचार हो गया तो आदमी मानसिक तौर पर अस्वस्थ होकर उन्मादी भी बन सकता है। विभत्स रस से बाहर निकलने का सब से अच्छा तरीक़ा है शृंगार रस का सहारा लेना। अच्छे मित्र और अच्छी रुचियाँ इंसान को मानसिक अवसाद से बाहर निकालने में मददगार साबित हो सकती हैं। दोस्तों, विभत्स रस के ये तमाम विशेषताओं को पढ़ने के बाद आप समझ गए होंगे कि हमारी फ़िल्मों में इस रस के गीतों की कितनी प्रचूरता है। "तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, अब तो पास बुलाले" जैसे गीत इस रस के उदाहरण है। तलत महमूद साहब ने इस तरह के निराशावादी और ग़मगीन गीत बहुत से गाए हैं। लेकिन हमने आज के लिए जिस गीत को चुना है, वह है १९७१ की फ़िल्म 'हीर रांझा' का मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं"। अपनी हीर से जुदा होकर दीवाना बने रांझा की ज़ुबान से निकले इस गीत में शब्दों के रंग भरे हैं गीतकार कैफ़ी आज़्मी ने और संगीत है मदन मोहन का।
वैसे तो मदन मोहन के साथ लता मंगेशकर का नाम जोड़ा जाता है अपने सर्वोत्तम गीतों के लिए, लेकिन सच्चाई यह है कि मदन मोहन साहब ने जितने भी गायक गायिकाओं से अपने गीत गवाए हैं, उन सभी से वो उनके १००% पर्फ़ेक्शन लेकर रहे हैं। फिर चाहे आशा भोसले हो या किशोर कुमार, मुकेश हो या तलत महमूद, भूपेन्द्र हो या फिर रफ़ी साहब। और यही बात गीतकारों के लिए भी लागू होती है। कैफ़ी आज़्मी के साथ मदन मोहन ने फ़िल्म 'हक़ीक़त' में काम किया जिसके गानें कालजयी बन गये हैं। और फ़िल्म 'हीर रांझा' के गानें भी उसी श्रेणी में शोभा पाते हैं। इस गीत के बोल मुकम्मल तो हैं ही, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी कमाल के हैं। फ़िल्म के सिचुएशन और सीन के मुताबिक़ गीत के इंटरल्युड संगीत में कभी बांसुरी पर भजन या कीर्तन शैली की धुन है तो अगले ही पल क़व्वाली का रीदम भी आ जाता है। तो आइए सुनते हैं यह गीत और इसी के साथ नौ रसों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'रस माधुरी' यहीं सम्पन्न होती है। आशा है इन रसों का आपने भरपूर रसपान किया होगा और हमारे चुने हुए ये नौ गीत भी आपको भाए होंगे। आपको यह शृंखला कैसी लगी, यह आप हमें टिप्पणी के अलावा हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भी भेज सकते हैं। दोस्तों, कल है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक। इस ख़ास अवसर पर हमने कुछ विशेष सोच रखा है आपके मनोरंजन के लिए। तो अवश्य पधारिएगा कल इसी समय अपने इस मनपसंद ब्लॊग पर। और हाँ, आज जो हम पहेली पूछने जा रहे हैं, वह होगा उस गीत के लिए जो बजेगा हमारे ५०१ अंक में। तो अब हमें इजाज़त दीजिए, और आप हल कीजिए आज की पहेली का और आनंद लीजिए रफ़ी साहब की आवाज़ का। नमस्कार!
क्या आप जानते हैं...
कि मुम्बई के ब्रीच कैण्डी का बॊम्बेलिस रेस्तराँ मदन मोहन की पसंदीदा जगहों में से एक थी जहाँ तलत महमूद और जयकिशन भी जाया करते थे। जिस दिन तीनों वहाँ मौजूद हों तो उनमें एक होड़ सी लग जाती थी कि कितनी लड़कियाँ किससे ऒटोग्राफ़ माँगती हैं। इसमें तलत की ही अक्सर जीत होती थी।
दोस्तों आज पहेली नहीं है. बल्कि एक निमंत्रण है, कल के ओल्ड इस गोल्ड के लिए, जो कि हमारी इस कोशिश में एक मील का पत्थर एपिसोड होने वाला है. कल ओल्ड इस गोल्ड भारतीय समय अनुसार सुबह ९ बजे प्रसारित होगा. जिसमें हम बात करेंगें भारत की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" की जिसके माध्यम से से हमें फिल्म संगीत की अनमोल धरोहर आज मिली हुई है. उन कलाकारों की जिन्होंने एक असंभव से लगते कार्य को अंजाम दिया. और एक बड़ी कोशिश हम कर रहे हैं. जैसा कि आप जानते होंगें भारत के पहली हिंदी फ़िल्मी गीत "दे दे खुदा के नाम पर" जो कि इसी फिल्म का था, कहीं भी ऑडियो विडियो के रूप में उपलब्ध नहीं है. एक प्रतियोगिता के माध्यम से हमने इस गीत को मुक्कमल किया (उपलब्ध बोलों को विस्तरित कर) और प्रतियोगिता के माध्यम से ही उसे हमारे संगीतकार मित्रों से स्वरबद्ध करा कर. जिस प्रविष्ठी को हमने चुना है इस गीत के नए संस्करण के रूप में उसे भी हम कल के एतिहासिक एपिसोड में आपके सामने रखेंगें....यदि आप को हमारी ये कोशिश अच्छी लगेगी तो हम इस तरह के प्रयोग आलम आरा के अन्य गीतों के साथ भी करना चाहेंगें. तो कल अवश्य पधारियेगा हमारी इस यादगार महफ़िल में. जहाँ तक पहेली का सवाल है ये एक नए रूप में आपके सामने होगी ५०१ वें एपिसोड से. शरद जी और अवध जी १०० का आंकड़ा छूने में सफल रहे हैं. इनके लिए एक खास तोहफा है जो हम देंगें इन्हें हमारे वार्षिक महोत्सव में. इसके आलावा जिन प्रतिभागियों ने बढ़ चढ कर पहेली में हिस्सा लिया उन सब का आभार तहे दिल से.....सबका नाम शायद नहीं ले पायें यहाँ पर जहाँ तक "." का चिन्ह आपको दिखे समझिए वो सब आप श्रोताओं के नाम हैं.....इंदु जी, प्रतिभा जी, नवीन जी, पदम सिंह जी, पाबला जी, मनु जी, सुमित जी, तन्हा जी, दिलीप जी, महेंद्र जी, निर्मला जी, स्वप्न मंजूषा जी, किशोर जी, राज सिंह जी, नीलम जी, शन्नो जी, ......................................................... सभी का आभार.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज है इस स्तंभ की ४९९ वीं कड़ी। नौ रसों की चर्चा में अब बस एक ही रस बाक़ी है और वह है विभत्स रस। जी हाँ, 'रस माधुरी' लघु शृंखला की अंतिम कड़ी में आज ज़िक्र विभत्स रस का। विभत्स रस का अर्थ है अवसाद, या मानसिक अवसाद भी कह सकते हैं इसे। अपने आप से हमदर्दी इस रस का एक लक्षण है। कहा गया है कि विभत्स रस से ज़्यादा क्षतिकारक और व्यर्थ रस और कोई नहीं। विभत्स उस भाव को कहते हैं कि जिसमें है अतृप्ति, अवसाद और घृणा। गाली गलोच और अश्लीलता भी विभत्स रस के ही अलग रूप हैं। विभत्स रस के चलते मन में निराशावादी विचार पनपने लगते हैं और इंसान अपने धर्म और कर्म के मार्ग से दूर होता चला जाता है। शक्ति और आत्मविश्वास टूटने लगता है। यहाँ तक कि आत्महत्या की भी नौबत आ सकती है। अगर इस रस का ज़्यादा संचार हो गया तो आदमी मानसिक तौर पर अस्वस्थ होकर उन्मादी भी बन सकता है। विभत्स रस से बाहर निकलने का सब से अच्छा तरीक़ा है शृंगार रस का सहारा लेना। अच्छे मित्र और अच्छी रुचियाँ इंसान को मानसिक अवसाद से बाहर निकालने में मददगार साबित हो सकती हैं। दोस्तों, विभत्स रस के ये तमाम विशेषताओं को पढ़ने के बाद आप समझ गए होंगे कि हमारी फ़िल्मों में इस रस के गीतों की कितनी प्रचूरता है। "तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, अब तो पास बुलाले" जैसे गीत इस रस के उदाहरण है। तलत महमूद साहब ने इस तरह के निराशावादी और ग़मगीन गीत बहुत से गाए हैं। लेकिन हमने आज के लिए जिस गीत को चुना है, वह है १९७१ की फ़िल्म 'हीर रांझा' का मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं"। अपनी हीर से जुदा होकर दीवाना बने रांझा की ज़ुबान से निकले इस गीत में शब्दों के रंग भरे हैं गीतकार कैफ़ी आज़्मी ने और संगीत है मदन मोहन का।
वैसे तो मदन मोहन के साथ लता मंगेशकर का नाम जोड़ा जाता है अपने सर्वोत्तम गीतों के लिए, लेकिन सच्चाई यह है कि मदन मोहन साहब ने जितने भी गायक गायिकाओं से अपने गीत गवाए हैं, उन सभी से वो उनके १००% पर्फ़ेक्शन लेकर रहे हैं। फिर चाहे आशा भोसले हो या किशोर कुमार, मुकेश हो या तलत महमूद, भूपेन्द्र हो या फिर रफ़ी साहब। और यही बात गीतकारों के लिए भी लागू होती है। कैफ़ी आज़्मी के साथ मदन मोहन ने फ़िल्म 'हक़ीक़त' में काम किया जिसके गानें कालजयी बन गये हैं। और फ़िल्म 'हीर रांझा' के गानें भी उसी श्रेणी में शोभा पाते हैं। इस गीत के बोल मुकम्मल तो हैं ही, इसकी धुन और संगीत संयोजन भी कमाल के हैं। फ़िल्म के सिचुएशन और सीन के मुताबिक़ गीत के इंटरल्युड संगीत में कभी बांसुरी पर भजन या कीर्तन शैली की धुन है तो अगले ही पल क़व्वाली का रीदम भी आ जाता है। तो आइए सुनते हैं यह गीत और इसी के साथ नौ रसों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'रस माधुरी' यहीं सम्पन्न होती है। आशा है इन रसों का आपने भरपूर रसपान किया होगा और हमारे चुने हुए ये नौ गीत भी आपको भाए होंगे। आपको यह शृंखला कैसी लगी, यह आप हमें टिप्पणी के अलावा हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भी भेज सकते हैं। दोस्तों, कल है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक। इस ख़ास अवसर पर हमने कुछ विशेष सोच रखा है आपके मनोरंजन के लिए। तो अवश्य पधारिएगा कल इसी समय अपने इस मनपसंद ब्लॊग पर। और हाँ, आज जो हम पहेली पूछने जा रहे हैं, वह होगा उस गीत के लिए जो बजेगा हमारे ५०१ अंक में। तो अब हमें इजाज़त दीजिए, और आप हल कीजिए आज की पहेली का और आनंद लीजिए रफ़ी साहब की आवाज़ का। नमस्कार!
क्या आप जानते हैं...
कि मुम्बई के ब्रीच कैण्डी का बॊम्बेलिस रेस्तराँ मदन मोहन की पसंदीदा जगहों में से एक थी जहाँ तलत महमूद और जयकिशन भी जाया करते थे। जिस दिन तीनों वहाँ मौजूद हों तो उनमें एक होड़ सी लग जाती थी कि कितनी लड़कियाँ किससे ऒटोग्राफ़ माँगती हैं। इसमें तलत की ही अक्सर जीत होती थी।
दोस्तों आज पहेली नहीं है. बल्कि एक निमंत्रण है, कल के ओल्ड इस गोल्ड के लिए, जो कि हमारी इस कोशिश में एक मील का पत्थर एपिसोड होने वाला है. कल ओल्ड इस गोल्ड भारतीय समय अनुसार सुबह ९ बजे प्रसारित होगा. जिसमें हम बात करेंगें भारत की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" की जिसके माध्यम से से हमें फिल्म संगीत की अनमोल धरोहर आज मिली हुई है. उन कलाकारों की जिन्होंने एक असंभव से लगते कार्य को अंजाम दिया. और एक बड़ी कोशिश हम कर रहे हैं. जैसा कि आप जानते होंगें भारत के पहली हिंदी फ़िल्मी गीत "दे दे खुदा के नाम पर" जो कि इसी फिल्म का था, कहीं भी ऑडियो विडियो के रूप में उपलब्ध नहीं है. एक प्रतियोगिता के माध्यम से हमने इस गीत को मुक्कमल किया (उपलब्ध बोलों को विस्तरित कर) और प्रतियोगिता के माध्यम से ही उसे हमारे संगीतकार मित्रों से स्वरबद्ध करा कर. जिस प्रविष्ठी को हमने चुना है इस गीत के नए संस्करण के रूप में उसे भी हम कल के एतिहासिक एपिसोड में आपके सामने रखेंगें....यदि आप को हमारी ये कोशिश अच्छी लगेगी तो हम इस तरह के प्रयोग आलम आरा के अन्य गीतों के साथ भी करना चाहेंगें. तो कल अवश्य पधारियेगा हमारी इस यादगार महफ़िल में. जहाँ तक पहेली का सवाल है ये एक नए रूप में आपके सामने होगी ५०१ वें एपिसोड से. शरद जी और अवध जी १०० का आंकड़ा छूने में सफल रहे हैं. इनके लिए एक खास तोहफा है जो हम देंगें इन्हें हमारे वार्षिक महोत्सव में. इसके आलावा जिन प्रतिभागियों ने बढ़ चढ कर पहेली में हिस्सा लिया उन सब का आभार तहे दिल से.....सबका नाम शायद नहीं ले पायें यहाँ पर जहाँ तक "." का चिन्ह आपको दिखे समझिए वो सब आप श्रोताओं के नाम हैं.....इंदु जी, प्रतिभा जी, नवीन जी, पदम सिंह जी, पाबला जी, मनु जी, सुमित जी, तन्हा जी, दिलीप जी, महेंद्र जी, निर्मला जी, स्वप्न मंजूषा जी, किशोर जी, राज सिंह जी, नीलम जी, शन्नो जी, ......................................................... सभी का आभार.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
गीत और संगीत के प्रति आप दोनों की दीवानगी,समर्पण देख आश्चर्यचकित रह गई.आप लोगो की बाते मासूमियत भरी होती थी और उसका एक स्तर आप लोगो ने हमेशा मेंटेन रखा.इन सब बातों के कारन और खुद गीत संगीत की बेहद शौक़ीन होने के कारन इस ब्लॉग से क्या जुडी आप सब से जुड गई.यहाँ पूरा परिवार मिल गया.आप लोगो को मोटिवेट करना पाबला भैया और मेरा मैंन ऐम था पर..यहाँ तो हम मोटिवेट हो गए.हा हा हा
बरसों तक ये कार्यक्रम चलता रहे.
सबको ढेर सारा प्यार और शुभकामनाये
इंदु बहिन जी की तरह मेरी भी (क्या सभी की) यही दिली इच्छा होगी कि यह कार्यक्रम इसी भांति अनवरत चलता रहे.
शुभेच्छु
अवध लाल
hamne kab bhaag liyaa ismein...?
hamein ekdam yaad nahin aa rahaa....
हमारे हिसाब से हमने इस प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया है जी..