मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२
अभी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से हम "फ़्रीलासिंग" की दुनिया में वापस आ चुके हैं यानि कि किसी भी महफ़िल पर किसी भी तरीके की रोक-टोक नहीं, कोई नियम-कानून नहीं.. । अब से गायक, ग़ज़लगो और संगीतकार को बराबर का अधिकार हासिल होगा, इसलिए कभी कोई महफ़िल गुलुकार को पेश-ए-नज़र होगी तो कभी ग़ज़लगो के रदीफ़ और काफ़ियों की मोमबत्तियों से महफ़िलें रौशन की जाएँगीं.. और कभी तो ऐसा होगा कि संगीतकार के राग-मल्हार से सुरों और धुनों की बारिसें उतरेंगी ज़र्रा-नवाज़ों के दौलतखाने में। और हर बार महफ़िल का मज़ा वही होगा.. न एक टका कम, न आधा टका ज्यादा। तो इस दुनिया में पहला कदम रखा जाए? सब तैयार हैं ना?
अगर आप में से किसी ने कल का "ताज़ा सुर ताल" देखा हो तो एक शख्स के बारे में मेरी राय से जरूर वाकिफ़ होंगे। ये शख्स ऐसे हैं जिनके लिए सात सुर इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह हैं.. इन सात रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम हीं गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ।" जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की हीं बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे हीं राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले हीं बनते हैं।
यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाईयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे.. पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से हीं राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से हीं चलता यह सिलसिला तब खत्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने हीं नुसरत साहब की जगह ली।
राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंश ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले हीं बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के जरिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में हीं "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले हीं "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले हीं बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में हीं इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे हीं पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।
बातें बहुत हो गईं..अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। चूँकि इस गाने के अधिकतर शब्द पंजाबी के हैं और मुझे कहीं भी इस गाने के बोल हासिल नहीं हुए, इसलिए अपनी समझ से मैंने शब्दों को पहचानने की कोशिश की है। अब ये बोल किस हद तक सही हैं, इसका फैसला आप सब हीं कर सकते हैं। मैं आपसे बस यही दरख्वास्त करता हूँ कि जिस किसी को भी सही लफ़्ज़ मालूम हों, वह टिप्पणियों के माध्यम से हमारी सहायता जरूर करें। या तो रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें या फिर पूरा का पूरा गाना हीं टिप्पणी में डाल दें। उम्मीद है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। चलिए तो हम भी आपको निराश न करते हुए आज की महफ़िल की लाजवाब नज़्म का दीदार करवाते हैं। मुझे भले हीं इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बने"- यह पंक्ति हीं काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना!
हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..
सोचा मैंके प्यार जता दें (.....)
हाथे खोके जावन वाला.. सोंचा पा गया पल्ले
ईंज मैं रोई, जी मैं ______ के खोई,
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना,
मैरा दिल तड़पे दिलदार बिना
दिन तो लेके शामत(?) आई, रांवां तकदी रैंदी,
वो की जाने, रोंदी(?) कमली, की की दुखरे सहदीं
मेड़ें चलदी, जीवे नाल पइ बलदी,
(...)
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना
खपरांदे वीच फंस गई जाके आसां वाली बेरी
समझ न आए केरे वेल्ले हो गई ये फुलकेरी
मोरे केड़ा, मेरे नाल जेड़ा
रुस बैठा तकरार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना
हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आरज़ू" और शेर कुछ यूँ था-
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
आरजू है हमारी आप से जनाब !
यूँ लंबी छुट्टी न किया करें जनाब . (मंजु जी)
ये दिल न कोई आरजू ऐसी कभी कर
कि दम तोड़ दे तेरे अंदर ही वो घुटकर. (शन्नो जी)
आरजू ही ना रही सुबह वतन की अब मुझको,
शाम ए गुरबत है अजब वक्त सुहाना तेरा (अनाम)
न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को (जनाब सरवर)
दिल की यह आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले,
लो बन गया नसीब कि तुम हम से आ मिले. (हसन कमाल)
आरज़ू तो खूब रही कि आप जल्दी लौट आयें,
देर से ही सही, खैर मकदम है आपका (पूजा जी)
पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी और शन्नो जी की शुभकामनाओं के साथ। हम आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। शन्नो जी, आप आईं तो पहले लेकिन शान-ए-महफ़िल का खिताब मंजु जी ले गईं क्योंकि आपके बताए हुए शब्द पर इन्होंने चार पंक्तियाँ लिख डालीं। महफ़िल फिर से पटरी पर आ गई है, यह सूचना शायद सभी मित्रों के पास सही वक़्त पर नहीं पहुँची थी, इसलिए तो २-३ दिनों तक बस आप तीन लोगों के भरोसे हीं महफ़िल की शमा जलती रही। फिर जाकर सुमित जी का आना हुआ। सुमित जी के बाद अवध जी आए जिन्होंने अपने पसंदीदा गुलुकार की ग़ज़ल को खूब सराहा और इस दौरान हमें शुक्रिया भी कहा। अवध जी, शुक्रिया तो हमें आपका करना चाहिए, जो आपने हबीब साहब की कुछ और ग़ज़लों से हमारी पहचान करवाई। हम जरूर हीं उन ग़ज़लों का महफ़िल का हिस्सा बनाएँगे। वैसे यह बताईये कि "गजरा बना के ले आ मलिनिया" और "गजरा लगा के ले आ सजनवा" एक हीं ग़ज़ल या दो मुख्तलिफ़? अगर दो हैं तो हम दूसरी ग़ज़ल ढूँढने की अवश्य कोशिश करेंगे। और अगर आपके पास ये ग़ज़लें हों (ऑडिया या फिर टेक्स्ट) तो हमें भेज दें, हमें सहूलियत मिलेगी। महफ़िल की आखिरी शमा पूजा जी के नाम रही, जो अंतिम दिन ज़फ़र के दरबार का मुआयना करने आई थीं :) चलिए आप आईं तो सही.. महफ़िल को "रिस्टार्ट" करने के साथ-साथ मुझे मेरे जन्मदिवस की भी बधाईयाँ मिलीं। मैं आप सभी मित्रों का इसके लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
अभी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से हम "फ़्रीलासिंग" की दुनिया में वापस आ चुके हैं यानि कि किसी भी महफ़िल पर किसी भी तरीके की रोक-टोक नहीं, कोई नियम-कानून नहीं.. । अब से गायक, ग़ज़लगो और संगीतकार को बराबर का अधिकार हासिल होगा, इसलिए कभी कोई महफ़िल गुलुकार को पेश-ए-नज़र होगी तो कभी ग़ज़लगो के रदीफ़ और काफ़ियों की मोमबत्तियों से महफ़िलें रौशन की जाएँगीं.. और कभी तो ऐसा होगा कि संगीतकार के राग-मल्हार से सुरों और धुनों की बारिसें उतरेंगी ज़र्रा-नवाज़ों के दौलतखाने में। और हर बार महफ़िल का मज़ा वही होगा.. न एक टका कम, न आधा टका ज्यादा। तो इस दुनिया में पहला कदम रखा जाए? सब तैयार हैं ना?
अगर आप में से किसी ने कल का "ताज़ा सुर ताल" देखा हो तो एक शख्स के बारे में मेरी राय से जरूर वाकिफ़ होंगे। ये शख्स ऐसे हैं जिनके लिए सात सुर इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह हैं.. इन सात रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम हीं गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ।" जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की हीं बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे हीं राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले हीं बनते हैं।
यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाईयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे.. पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से हीं राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से हीं चलता यह सिलसिला तब खत्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने हीं नुसरत साहब की जगह ली।
राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंश ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले हीं बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के जरिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में हीं "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले हीं "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले हीं बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में हीं इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे हीं पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।
बातें बहुत हो गईं..अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। चूँकि इस गाने के अधिकतर शब्द पंजाबी के हैं और मुझे कहीं भी इस गाने के बोल हासिल नहीं हुए, इसलिए अपनी समझ से मैंने शब्दों को पहचानने की कोशिश की है। अब ये बोल किस हद तक सही हैं, इसका फैसला आप सब हीं कर सकते हैं। मैं आपसे बस यही दरख्वास्त करता हूँ कि जिस किसी को भी सही लफ़्ज़ मालूम हों, वह टिप्पणियों के माध्यम से हमारी सहायता जरूर करें। या तो रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें या फिर पूरा का पूरा गाना हीं टिप्पणी में डाल दें। उम्मीद है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। चलिए तो हम भी आपको निराश न करते हुए आज की महफ़िल की लाजवाब नज़्म का दीदार करवाते हैं। मुझे भले हीं इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बने"- यह पंक्ति हीं काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना!
हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..
सोचा मैंके प्यार जता दें (.....)
हाथे खोके जावन वाला.. सोंचा पा गया पल्ले
ईंज मैं रोई, जी मैं ______ के खोई,
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना,
मैरा दिल तड़पे दिलदार बिना
दिन तो लेके शामत(?) आई, रांवां तकदी रैंदी,
वो की जाने, रोंदी(?) कमली, की की दुखरे सहदीं
मेड़ें चलदी, जीवे नाल पइ बलदी,
(...)
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना
खपरांदे वीच फंस गई जाके आसां वाली बेरी
समझ न आए केरे वेल्ले हो गई ये फुलकेरी
मोरे केड़ा, मेरे नाल जेड़ा
रुस बैठा तकरार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना
हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आरज़ू" और शेर कुछ यूँ था-
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
आरजू है हमारी आप से जनाब !
यूँ लंबी छुट्टी न किया करें जनाब . (मंजु जी)
ये दिल न कोई आरजू ऐसी कभी कर
कि दम तोड़ दे तेरे अंदर ही वो घुटकर. (शन्नो जी)
आरजू ही ना रही सुबह वतन की अब मुझको,
शाम ए गुरबत है अजब वक्त सुहाना तेरा (अनाम)
न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को (जनाब सरवर)
दिल की यह आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले,
लो बन गया नसीब कि तुम हम से आ मिले. (हसन कमाल)
आरज़ू तो खूब रही कि आप जल्दी लौट आयें,
देर से ही सही, खैर मकदम है आपका (पूजा जी)
पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी और शन्नो जी की शुभकामनाओं के साथ। हम आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। शन्नो जी, आप आईं तो पहले लेकिन शान-ए-महफ़िल का खिताब मंजु जी ले गईं क्योंकि आपके बताए हुए शब्द पर इन्होंने चार पंक्तियाँ लिख डालीं। महफ़िल फिर से पटरी पर आ गई है, यह सूचना शायद सभी मित्रों के पास सही वक़्त पर नहीं पहुँची थी, इसलिए तो २-३ दिनों तक बस आप तीन लोगों के भरोसे हीं महफ़िल की शमा जलती रही। फिर जाकर सुमित जी का आना हुआ। सुमित जी के बाद अवध जी आए जिन्होंने अपने पसंदीदा गुलुकार की ग़ज़ल को खूब सराहा और इस दौरान हमें शुक्रिया भी कहा। अवध जी, शुक्रिया तो हमें आपका करना चाहिए, जो आपने हबीब साहब की कुछ और ग़ज़लों से हमारी पहचान करवाई। हम जरूर हीं उन ग़ज़लों का महफ़िल का हिस्सा बनाएँगे। वैसे यह बताईये कि "गजरा बना के ले आ मलिनिया" और "गजरा लगा के ले आ सजनवा" एक हीं ग़ज़ल या दो मुख्तलिफ़? अगर दो हैं तो हम दूसरी ग़ज़ल ढूँढने की अवश्य कोशिश करेंगे। और अगर आपके पास ये ग़ज़लें हों (ऑडिया या फिर टेक्स्ट) तो हमें भेज दें, हमें सहूलियत मिलेगी। महफ़िल की आखिरी शमा पूजा जी के नाम रही, जो अंतिम दिन ज़फ़र के दरबार का मुआयना करने आई थीं :) चलिए आप आईं तो सही.. महफ़िल को "रिस्टार्ट" करने के साथ-साथ मुझे मेरे जन्मदिवस की भी बधाईयाँ मिलीं। मैं आप सभी मित्रों का इसके लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
-विश्व दीपक
अच्छा अंदाज़ है शिकायत करने का... :p
पर आज आपकी शिकायत दूर किये देते हैं :)
गायब शब्द है "बिछड़" ..
वैसे बहुत से गायब शब्द हैं जो हमें भी समझ में नहीं आये.... पर बेहद ग़मगीन नज्म है, इतनी कि हमारी आँख से आंसू आ गये ....
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो - बशीर बद्र
कार्तिक की सुबह है मुस्काई ,
दे रही अनंत -असीम बधाई .
' मंजू 'जीवेत शरदःशतम ' का ,
लगे मंत्र आपको प्यारा .
जवाब - बिछड़ शेर हाजिर है -
बिछड़ कर हम से कहाँ जाओगे
तासीर हमारी वापिस ले आएगी .
सौभाग्य जगा दिया ,
ताज पहना दिया . शुक्रिया !!!!!!!!!!!!
और मंजू जी को बधाई :)
1.
शायद कोई रोयेगा अपनी कब्र पर भी
बिछड़ जाने की रस्म निभानी ही होगी.
2.
लंबी डगर बिन किसी हमसफर
फिर भी चलता ही रहता सफर
जिंदगी का साया बिछड़ जायेगा
जब हम होंगे एक दिन बेखबर.
( स्वरचित )
आप के लिए शेर -
बिछड़ नहीं पाएंगे कभी '
मिलन हमारा हुआ यही .
आंख से बिछड़ा और दामन मैं रह गया (स्वरचित)
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों मैं मिले
जैसे सूखे हुए कुछ फूल किताबों मैं मिले
Dr. Arun Kumar