ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए
'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ...
आदाब,
'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं।
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद!
ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे लिए जैसे टॊनिक का काम करते हैं। और रही बात आपके पसंद की क़व्वाली की, तो शायद आपको याद होगा, इस क़व्वाली के आलेख में मैंने इस बात का ज़िक्र भी किया था कि मुझे भी यह क़व्वाली अत्यन्त प्रिय है। चलिए हम दोनों की पसंद भी मिल गई। आप आगे भी इसी तरह का साथ बनाये रखिएगा। और अप अपनी अगली ग़ज़ल हमे कब भेज रहे हैं?
आइए अब आज के दूसरे ई-मेल पर आते हैं, इसे भेजा है अनीता सिंह ने। सच कहूँ, यह कोई ई-मेल नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों पहले हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के किसी अंक में अनीता सिंह की एक टिप्पणी मिली थी, जिसमें उन्होंने एक गीत की फ़रमाइश की थी। उस वक़्त हम उस गीत को सुनवा तो नहीं सके थे, लेकिन हमारे मन में यह बात ज़रूर रह गई थी कि कभी ना कभी हम अनीता जी की पसंद को पूरी कर सके। इसलिए हमने अपने ई-मेल के ड्राफ़्ट्स में उनकी यह टिप्पणी सेव कर के रख लिया था। तो चलिए आज उनकी उस टिप्पणी के साथ उनके पसंद का एक गीत सुना जाए। अनीता सिंह लिखती हैं...
जरा सी देर क्या हुई मैं तों चूक ही गई (पहेली से)। चलिए मेरे प्रश्न का उत्तर अल्पना जी ने दे ही दिया है, तो अपनी एक फरमाइश तो रख ही सकती हूँ न! मुझे एक शरारती गाना बहुत पसंद है, यदि आपके पास हो तो सुनाईयेगा। ''हम गवनवा न जैबे हो बिना झुलनी" और "चाहे तो मोरा जिया लई ले सांवरिया"। दोनो सुचित्रा सेन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र की फिल्म के हैं। फ़िल्म का नाम ???? क्यों बताऊँ???
वाह अनीता जी, बेहद सुंदर दो गीतों की फ़रमाइश आपने भेजी है। अब फ़िल्म का नाम चाहे आप बताएँ या ना बताएँ, यह तो ज़्यादातर लोगों को ही पता होगा। चलिए फिर भी हम बता देते हैं, ये दोनों गीत फ़िल्म 'ममता' के हैं। संगीतकार रोशन की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'ममता' और इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद सराहे गये थे। आज हम अनीता जी की फ़रमाइश पर सुनेंगे "हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी"। लेकिन गीत सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से इस गीत के बारे में कुछ जानकारी आपको दे दें!
अगर आप इस गीत को ध्यान से सुनें, तो आप इस गीत को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला भाग है "हम गवनवा न जैबे हो" (ठुमरी), दूसरा भाग है "सकल बन गगन पवन चलत पुर्वाई रे" (खमाज, बहार), और तीसरे भाग मे है "विकल मोरा मनवा उन बिन हाए" (पीलू, बसंत मुखाड़ी)। कम्पोज़िशन, संगीत संयोजन और रागों के इस्तेमाल पर अगर आप ग़ौर करें तो इन तीनों भागों को आप इंसान के जीवन के तीन भागों के रूप में भी देख सकते हैं। पहला हिस्सा बचपन का, दूसरे हिस्से में है यौवन और तीसरे हिस्से में है बुढ़ापा। इस गीत को प्रस्तुत करते हुए रोशन साहब ने यही बात विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था - "ममता फ़िल्म में ऐसी ही एक सिचुएशन बनी कि जिसमें बचपन, जवानी और बुढ़ापा को दर्शाना था संगीत के माध्यम से। तो ज़ाहिर है कि धुन ही पहले बनाई गई। जहाँ पे शब्दों की ज़्यादा अहमियत होती है, वहाँ गीत पहले लिखा जाता है।" दोस्तों इस गीत के लिए रोशन साहब को जितनी दाद मिलनी चाहिए, उतनी ही दाद मजरूह सुल्तानपुरी को भी मिलनी ही चाहिए। अक्सर यह मान लिया जाता है कि हिंदी के कठिन शब्द शायरी के प्रभाव में बाधा डालते हैं। पर मजरूह साहब ने विकल शब्दों का बड़ी ही कामयाबी और ख़ूबसूरती से प्रयोग कर के हमें दिया एक से सुंदर गीत, और यह गीत भी उन्हीं में से एक है। और रही बात इस गीत की गायिका लता जी की, अब उनकी तारीफ़ में कुछ कहने को बचा है भला! आइए सुनते हैं और अनीता सिंह जी का शुक्रिया अदा करते हैं इस गीत को चुनने के लिए।
गीत - हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी (ममता)
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। अगर आप भी ख़ानसाब की तरह हमें कुछ कहना चाहते हैं या अनीता जी की तरह कोई गीत सुनवाना चाहते हैं, तो हमें फ़ौरन ई-मेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। अब हमें इजाज़त दीजिए, अगले शनिवार आप ही में से फिर किसी दोस्त के ईमेल के साथ हम हाज़िर होंगे। और हाँ, कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित शृंखला में एक बेहद अनूठी लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। आप में से जिन जिन दोस्तों के स्पीकर काम नहीं करते, या फिर ऒडियो प्ले नहीं होते, उनसे ग़ुज़ारिश है कि जल्द ही उन्हें ठीक करा लें। बिना ऒडियो के आप इस शृंखला का मज़ा नहीं ले पाएँगे। तो कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए, नमस्कार!
प्रस्तुति: सुजॊय
आदाब,
'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं।
'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद!
ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे लिए जैसे टॊनिक का काम करते हैं। और रही बात आपके पसंद की क़व्वाली की, तो शायद आपको याद होगा, इस क़व्वाली के आलेख में मैंने इस बात का ज़िक्र भी किया था कि मुझे भी यह क़व्वाली अत्यन्त प्रिय है। चलिए हम दोनों की पसंद भी मिल गई। आप आगे भी इसी तरह का साथ बनाये रखिएगा। और अप अपनी अगली ग़ज़ल हमे कब भेज रहे हैं?
आइए अब आज के दूसरे ई-मेल पर आते हैं, इसे भेजा है अनीता सिंह ने। सच कहूँ, यह कोई ई-मेल नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों पहले हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के किसी अंक में अनीता सिंह की एक टिप्पणी मिली थी, जिसमें उन्होंने एक गीत की फ़रमाइश की थी। उस वक़्त हम उस गीत को सुनवा तो नहीं सके थे, लेकिन हमारे मन में यह बात ज़रूर रह गई थी कि कभी ना कभी हम अनीता जी की पसंद को पूरी कर सके। इसलिए हमने अपने ई-मेल के ड्राफ़्ट्स में उनकी यह टिप्पणी सेव कर के रख लिया था। तो चलिए आज उनकी उस टिप्पणी के साथ उनके पसंद का एक गीत सुना जाए। अनीता सिंह लिखती हैं...
जरा सी देर क्या हुई मैं तों चूक ही गई (पहेली से)। चलिए मेरे प्रश्न का उत्तर अल्पना जी ने दे ही दिया है, तो अपनी एक फरमाइश तो रख ही सकती हूँ न! मुझे एक शरारती गाना बहुत पसंद है, यदि आपके पास हो तो सुनाईयेगा। ''हम गवनवा न जैबे हो बिना झुलनी" और "चाहे तो मोरा जिया लई ले सांवरिया"। दोनो सुचित्रा सेन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र की फिल्म के हैं। फ़िल्म का नाम ???? क्यों बताऊँ???
वाह अनीता जी, बेहद सुंदर दो गीतों की फ़रमाइश आपने भेजी है। अब फ़िल्म का नाम चाहे आप बताएँ या ना बताएँ, यह तो ज़्यादातर लोगों को ही पता होगा। चलिए फिर भी हम बता देते हैं, ये दोनों गीत फ़िल्म 'ममता' के हैं। संगीतकार रोशन की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'ममता' और इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद सराहे गये थे। आज हम अनीता जी की फ़रमाइश पर सुनेंगे "हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी"। लेकिन गीत सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से इस गीत के बारे में कुछ जानकारी आपको दे दें!
अगर आप इस गीत को ध्यान से सुनें, तो आप इस गीत को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला भाग है "हम गवनवा न जैबे हो" (ठुमरी), दूसरा भाग है "सकल बन गगन पवन चलत पुर्वाई रे" (खमाज, बहार), और तीसरे भाग मे है "विकल मोरा मनवा उन बिन हाए" (पीलू, बसंत मुखाड़ी)। कम्पोज़िशन, संगीत संयोजन और रागों के इस्तेमाल पर अगर आप ग़ौर करें तो इन तीनों भागों को आप इंसान के जीवन के तीन भागों के रूप में भी देख सकते हैं। पहला हिस्सा बचपन का, दूसरे हिस्से में है यौवन और तीसरे हिस्से में है बुढ़ापा। इस गीत को प्रस्तुत करते हुए रोशन साहब ने यही बात विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था - "ममता फ़िल्म में ऐसी ही एक सिचुएशन बनी कि जिसमें बचपन, जवानी और बुढ़ापा को दर्शाना था संगीत के माध्यम से। तो ज़ाहिर है कि धुन ही पहले बनाई गई। जहाँ पे शब्दों की ज़्यादा अहमियत होती है, वहाँ गीत पहले लिखा जाता है।" दोस्तों इस गीत के लिए रोशन साहब को जितनी दाद मिलनी चाहिए, उतनी ही दाद मजरूह सुल्तानपुरी को भी मिलनी ही चाहिए। अक्सर यह मान लिया जाता है कि हिंदी के कठिन शब्द शायरी के प्रभाव में बाधा डालते हैं। पर मजरूह साहब ने विकल शब्दों का बड़ी ही कामयाबी और ख़ूबसूरती से प्रयोग कर के हमें दिया एक से सुंदर गीत, और यह गीत भी उन्हीं में से एक है। और रही बात इस गीत की गायिका लता जी की, अब उनकी तारीफ़ में कुछ कहने को बचा है भला! आइए सुनते हैं और अनीता सिंह जी का शुक्रिया अदा करते हैं इस गीत को चुनने के लिए।
गीत - हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी (ममता)
तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। अगर आप भी ख़ानसाब की तरह हमें कुछ कहना चाहते हैं या अनीता जी की तरह कोई गीत सुनवाना चाहते हैं, तो हमें फ़ौरन ई-मेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। अब हमें इजाज़त दीजिए, अगले शनिवार आप ही में से फिर किसी दोस्त के ईमेल के साथ हम हाज़िर होंगे। और हाँ, कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित शृंखला में एक बेहद अनूठी लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। आप में से जिन जिन दोस्तों के स्पीकर काम नहीं करते, या फिर ऒडियो प्ले नहीं होते, उनसे ग़ुज़ारिश है कि जल्द ही उन्हें ठीक करा लें। बिना ऒडियो के आप इस शृंखला का मज़ा नहीं ले पाएँगे। तो कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए, नमस्कार!
प्रस्तुति: सुजॊय
Comments
उसमे से एक गाना ये है खास जब सुनती हूँ
'युग से खुले है पट नैनन के मेरे
युग से अन्धेरा मोरे आंगना....''
और मेरा रोना बंद नही होता....
अनु!बेमिसाल पसंद है तुम्हारी.
कथा संयोजन के कथ्य के साथ नायिका के तीन काल खण्डों की विविधता का भाव , गीत ,सुर की शास्वत शाश्त्रीय परंपरा , स्वर का लालित्य और संगीत में इतने रंगों ,रागों का फैलाव इस गीत को अद्भुत बना देता है स्वयं में ही .
लेकिन पूर्णतःएहसास करना हो तो ' ममता ' न देखी हो तो जरूर देखिये .