लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारा
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१
पूरे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से:
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो,
इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों।
तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर हैं जो हरदिन लिखते हैं और अभी तक ५०० कड़ियाँ लिख चुके हैं, फिर भी अगर इन्हें छुट्टी पर घर जाना होता है तो पहले से हीं उतने आलेख लिखकर सजीव जी को थमा जाते हैं, ताकि "ओल्ड इज गोल्ड" सटीक समय पर हर दिन आए, ताकि नियम की अवहेलना न हो पाए। ये तो कभी आराम नहीं करते, फिर मैं क्यों आराम के पीछे भाग रहा हूँ। चाचा नेहरू भी कह गए हैं कि आराम हराम है। इस अपराधबोध का आना था कि मैने विश्राम करने के प्रबलतम विचार को एक एंड़ी मारी और बढ निकला आज की कड़ी की ओर। तो चलिए आज से आपकी महफ़िल-ए-ग़ज़ल फिर से सजने वाली है.. हर बुधवार, बिना रूके...वैसे हीं मज़ेदार अंदाज़ में।
आज की महफ़िल में हम जो ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं, उस ग़ज़ल का ज़िक्र हमने आज से पूरे ९ महीने पहले "गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी" शीर्षक से प्रकाशित आलेख में किया था। "गजरा बना के.." को जिस गुलुकार ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया था, वही गुलुकार, वही फ़नकार आज की ग़ज़ल में अपनी आवाज़ के जरिये मौजूद है। बस फ़र्क इतना है कि उस ग़ज़ल/नज़्म के ग़ज़लगो और आज के ग़ज़लगो दो मुक्तलिफ़ इंसान हैं। उस कड़ी में हमने कहा तो यह था कि हबीब साहब जल्द हीं ग़ालिब की एक ग़ज़ल के साथ हाज़िर हो रहे हैं.. लेकिन सच ये है कि हम जिस ग़ज़ल की बात कर रहे थे, वह ग़ालिब की नहीं है, बल्कि मुगलिया सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की है। हमने जल्दबाजी में ज़फ़र की ग़ज़ल ग़ालिब के हवाले कर दी थी.. हम उस गलती के लिए आपसे अभी माफ़ी माँगते हैं।
ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर के वक़्त ज़फ़र ने अपने किले बागियों के लिए खोल दिए थे। इस गुस्ताखी की उन्हें यह सज़ा मिली की उनके दो बेटों और एक पोते को मौत के घाट उतार दिया गया.. बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली, लेकिन मेजर हडस ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। ८२ साल के उस बूढे पर उस वक़्त क्या गुजरी होगी, इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। क्या ये कम था कि अंग्रेजों ने ज़फ़र को कैद करके दिल्ली से बाहर .. दिल्ली हीं नहीं उनकी सरज़मीं हिन्दुस्तान के बाहर बर्मा(आज का मयन्मार) भेज दिया.. कालापानी के तौर पर। ज़फ़र अपनी मौत के अंतिम दिन तक अपनी सरज़मों को वापस आने के लिए तड़पते रहे। उन्हें अपनी मौत का कोई गिला न था, उन्हें गिला..उन्हें अफसोस तो इस बात का था कि मरने के बाद जो मिट्टी उनके सीने पर डाली जायगी, वह मिट्टी पराई होगी। वे अपने कू-ए-यार में, अपने मादर-ए-वतन की गोद में दफ़न होना चाहते थे, लेकिन ऐसा न हुआ। बर्मा की गुमनाम गलियों में घुट-घुटकर मरने के बाद उन्हीं अजनबी पौधों और परिंदों के बीच सुपूर्द-ए-खाक होना उनके नसीब में था। ७ नवंबर १८६२ को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं रंगून (आज का यंगुन) में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफ़ना दिया गया। वह जगह बहादुर शाह ज़फ़र दरगाह के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शायद ज़फ़र को अपनी मौत का पूर्वाभास हो चुका था, तभी तो इस ग़ज़ल के एक-एक हर्फ़ में उनका दर्द मुखर होकर हमारे सामने आता है:
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो _____ में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
यह ग़ज़ल पढने वक़्त जितना असर करती है, उससे हज़ार गुणा असर तब होता है, जब इसे हबीब वली मोहम्मद की आवाज़ में सुना जाए। तो लीजिए पेश है हबीब साहब की यह पेशकश:
हाँ तो बात ज़फ़र की हो रही थी, तो आज भी हमारे हिन्दुस्तान में ऐसे कई सारे मुहिम चल रहे हैं, जिनके माध्यम से ज़फ़र की आखिरी मिट्टी, ज़फ़र के कब्र को हिन्दुस्तान लाए जाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जा रहा है। हम भी यही दुआ करते हैं कि सरकार जगे और उसे इस बात का बोध हो कि स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। आज़ादी की लड़ाई में आगे रहने वाले धुरंधरों और रणबांकुरों को इस तरह से नज़र-अंदाज़ किया जाना सही नहीं।
ज़फ़र उस वक़्त के शायर हैं जब ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे शायर अपनी काबिलियत से सबके बीच लोहा मनवा रहे थे। ऐसे में भी ज़फ़र ने अपनी खासी पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की। (और क्यों न करते, जब ये तीनों शायर इन्हीं के राज-दरबार में बैठकर अपनी शायरी सुनाया करते थे.. जब ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और ज़ौक़ की असमय मौत के बाद ग़ालिब ज़फ़र के साहबजादे के उस्ताद बने) ज़फ़र किस हद तक शेर कह जाते थे, यह जानने के लिए उनकी इस ग़ज़ल पर नज़र दौड़ाना जरूरी हो जाता है:
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता
ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता
नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरद्मन्द बनाया न बनाया होता
शोला-ए-हुस्न चमन् में न दिखाया उस ने
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता
रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "अनमोल" और शेर कुछ यूँ था-
याद थे मुझको जो पैगाम-ए-जुबानी की तरह,
मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
रिश्तों के पुल
मिलाते रहे
स्वार्थ के तटों को
और
अनमोल भावना की
नदी
बहती रही
नीचे से होकर
अछूती सी !! (अवनींद्र जी)
आँसू आँखों में छिपे होते हैं गम दिखाये नहीं जाते
बड़े अनमोल होते हैं वो लोग जो भुलाये नहीं जाते. (शन्नो जी)
ग़ज़ल की महफ़िल का अनमोल तोहफा तुमने दिया
बधाई हो सौवां अंक जो तुमने पूरा किया (नीलम जी)
अनमोल शतक की दे रही बधाई ,
'विश्व 'ने खुशियों की शहनाई बजाई . (मंजु जी)
बेशक हो मुश्किल भरी वो डगर,
मगर था 'अनमोल' ग़ज़ल का सफर (अवध जी)
जब तक बिके ना थे कोई पूछता ना था,
तूने मुझे खरीद कर अनमोल कर दिया। (अनाम)
चूँकि पिछली महफ़िल में हमने शतक पूरा किया था, इसलिए हमारे सभी शुभचिंतकों और मित्रों से हमें शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं। हम आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। पिछली महफ़िल में सबसे पहले शन्नो जी का आना हुआ और आपने हमें हमारी भूल (शब्द गायब न करना) से अवगत कराया। शिकायत करने में काहे की मुश्किल.. आगे से ऐसे कभी भी किंकर्तव्यविमूढ न होईयेगा। समझीं ना? :) आपके बाद सजीव जी ने हमें बधाईयाँ दीं। सजीव जी, सब कुछ तो आपके कारण हीं संभव हो सका है। आपसे प्रोत्साहन पाकर हीं तो मैं महफ़िल-ए-ग़ज़ल की दूसरी पारी लेकर हाज़िर हो पाया हूँ। अवनींद्र जी, आपने महफ़िल की पहली नज़्म कही, लेकिन चूँकि शब्द गायब करने में मुझसे देर हो गई थी, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी मैं आपको दे नहीं पाऊँगा.. मुझे मुआफ़ कीजिएगा। नीलम जी, आपके बधाई-पत्र की अंतिम पंक्ति (अब क्यों कोई करे कोई शिकवा न गिला) मैं समझ नहीं पाया, ज़रा प्रकाश डालियेगा। :) सुजॉय जी, आप मुझे यूँ लज्जित न कीजिए। आप ५०० एपिसोड तक पहुँच चुके हैं और जिस तरह की आप जानकारियाँ देते हैं, वह अंतर्जाल पर कहीं नहीं है, इसलिए आपका यह कहना कि फिल्मी गानों के बारे में जानकारी लाना आसान होता है.. आपकी बड़प्पन का परिचय देता है। पूजा जी, आपने कुछ दिन विश्राम करने को कहा था और मैंने महिने भर विश्राम कर लिया। आप नाराज़ तो नहीं हैं ना? :) चलिए अब आप फिर से नियमित हो जाईये, क्योंकि मैं भी नियमित होने जा रहा हूँ। मंजु जी और अवध जी, आपके "अनमोल" शब्द मेरी सर-आँखों पर.. प्रतीक जी, क्षमा कीजिएगा मैंने आपकी आग्रह के बावजूद महफ़िल को महिने भर का विराम दे दिया, आगे से ऐसा न होगा। :) सुमित भाई, महफ़िल आ गई फिर से, अब आप भी आ जाईये..
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
पूरे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से:
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो,
इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों।
तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को मैं यही सोचता था कि भाई पूरे सौ अंकों के बाद जाकर मुझे आराम करने का यह मौका नसीब हुआ है, तो इसे ज़ाया क्यों गंवाया जाए, चलो आज भी महफ़िल से नदारद हो लेता हूँ। यही सोचते-सोचते ४ हफ़्ते निकल गए। फिर जब इस बार बुधवार नजदीक आया तो विश्राम करने के विचार के साथ-साथ अपराध-बोध भी अपना सर उठाने लगा। अपराधबोध का मंतव्य था कि भाई तुमने तो सभी पाठकों से यह वादा किया था कि एक हफ़्ते में वापस आ जाओगे, फिर ये वादाखिलाफ़ी क्यों? अपराधबोध कम होता, अगर मेरे सामने सुजॉय जी का उदाहरण न होता। एक मैं हूँ जो सप्ताह में एक आलेख लिखता हूँ और अभी तक उन आलेखों की संख्या १०० तक हीं पहुँची है और एक ये हुज़ूर हैं जो हरदिन लिखते हैं और अभी तक ५०० कड़ियाँ लिख चुके हैं, फिर भी अगर इन्हें छुट्टी पर घर जाना होता है तो पहले से हीं उतने आलेख लिखकर सजीव जी को थमा जाते हैं, ताकि "ओल्ड इज गोल्ड" सटीक समय पर हर दिन आए, ताकि नियम की अवहेलना न हो पाए। ये तो कभी आराम नहीं करते, फिर मैं क्यों आराम के पीछे भाग रहा हूँ। चाचा नेहरू भी कह गए हैं कि आराम हराम है। इस अपराधबोध का आना था कि मैने विश्राम करने के प्रबलतम विचार को एक एंड़ी मारी और बढ निकला आज की कड़ी की ओर। तो चलिए आज से आपकी महफ़िल-ए-ग़ज़ल फिर से सजने वाली है.. हर बुधवार, बिना रूके...वैसे हीं मज़ेदार अंदाज़ में।
आज की महफ़िल में हम जो ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं, उस ग़ज़ल का ज़िक्र हमने आज से पूरे ९ महीने पहले "गजरा बना के ले आ... एक मखमली नज़्म के बहाने अफ़शां और हबीब की जुगलबंदी" शीर्षक से प्रकाशित आलेख में किया था। "गजरा बना के.." को जिस गुलुकार ने अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया था, वही गुलुकार, वही फ़नकार आज की ग़ज़ल में अपनी आवाज़ के जरिये मौजूद है। बस फ़र्क इतना है कि उस ग़ज़ल/नज़्म के ग़ज़लगो और आज के ग़ज़लगो दो मुक्तलिफ़ इंसान हैं। उस कड़ी में हमने कहा तो यह था कि हबीब साहब जल्द हीं ग़ालिब की एक ग़ज़ल के साथ हाज़िर हो रहे हैं.. लेकिन सच ये है कि हम जिस ग़ज़ल की बात कर रहे थे, वह ग़ालिब की नहीं है, बल्कि मुगलिया सल्तनत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की है। हमने जल्दबाजी में ज़फ़र की ग़ज़ल ग़ालिब के हवाले कर दी थी.. हम उस गलती के लिए आपसे अभी माफ़ी माँगते हैं।
ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर के वक़्त ज़फ़र ने अपने किले बागियों के लिए खोल दिए थे। इस गुस्ताखी की उन्हें यह सज़ा मिली की उनके दो बेटों और एक पोते को मौत के घाट उतार दिया गया.. बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली, लेकिन मेजर हडस ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। ८२ साल के उस बूढे पर उस वक़्त क्या गुजरी होगी, इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। क्या ये कम था कि अंग्रेजों ने ज़फ़र को कैद करके दिल्ली से बाहर .. दिल्ली हीं नहीं उनकी सरज़मीं हिन्दुस्तान के बाहर बर्मा(आज का मयन्मार) भेज दिया.. कालापानी के तौर पर। ज़फ़र अपनी मौत के अंतिम दिन तक अपनी सरज़मों को वापस आने के लिए तड़पते रहे। उन्हें अपनी मौत का कोई गिला न था, उन्हें गिला..उन्हें अफसोस तो इस बात का था कि मरने के बाद जो मिट्टी उनके सीने पर डाली जायगी, वह मिट्टी पराई होगी। वे अपने कू-ए-यार में, अपने मादर-ए-वतन की गोद में दफ़न होना चाहते थे, लेकिन ऐसा न हुआ। बर्मा की गुमनाम गलियों में घुट-घुटकर मरने के बाद उन्हीं अजनबी पौधों और परिंदों के बीच सुपूर्द-ए-खाक होना उनके नसीब में था। ७ नवंबर १८६२ को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं रंगून (आज का यंगुन) में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफ़ना दिया गया। वह जगह बहादुर शाह ज़फ़र दरगाह के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शायद ज़फ़र को अपनी मौत का पूर्वाभास हो चुका था, तभी तो इस ग़ज़ल के एक-एक हर्फ़ में उनका दर्द मुखर होकर हमारे सामने आता है:
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो _____ में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
यह ग़ज़ल पढने वक़्त जितना असर करती है, उससे हज़ार गुणा असर तब होता है, जब इसे हबीब वली मोहम्मद की आवाज़ में सुना जाए। तो लीजिए पेश है हबीब साहब की यह पेशकश:
हाँ तो बात ज़फ़र की हो रही थी, तो आज भी हमारे हिन्दुस्तान में ऐसे कई सारे मुहिम चल रहे हैं, जिनके माध्यम से ज़फ़र की आखिरी मिट्टी, ज़फ़र के कब्र को हिन्दुस्तान लाए जाने के लिए सरकार पर दबाव डाला जा रहा है। हम भी यही दुआ करते हैं कि सरकार जगे और उसे इस बात का बोध हो कि स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। आज़ादी की लड़ाई में आगे रहने वाले धुरंधरों और रणबांकुरों को इस तरह से नज़र-अंदाज़ किया जाना सही नहीं।
ज़फ़र उस वक़्त के शायर हैं जब ग़ालिब, ज़ौक़ और मोमिन जैसे शायर अपनी काबिलियत से सबके बीच लोहा मनवा रहे थे। ऐसे में भी ज़फ़र ने अपनी खासी पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की। (और क्यों न करते, जब ये तीनों शायर इन्हीं के राज-दरबार में बैठकर अपनी शायरी सुनाया करते थे.. जब ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और ज़ौक़ की असमय मौत के बाद ग़ालिब ज़फ़र के साहबजादे के उस्ताद बने) ज़फ़र किस हद तक शेर कह जाते थे, यह जानने के लिए उनकी इस ग़ज़ल पर नज़र दौड़ाना जरूरी हो जाता है:
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता
ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता
नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरद्मन्द बनाया न बनाया होता
शोला-ए-हुस्न चमन् में न दिखाया उस ने
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता
रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "अनमोल" और शेर कुछ यूँ था-
याद थे मुझको जो पैगाम-ए-जुबानी की तरह,
मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
रिश्तों के पुल
मिलाते रहे
स्वार्थ के तटों को
और
अनमोल भावना की
नदी
बहती रही
नीचे से होकर
अछूती सी !! (अवनींद्र जी)
आँसू आँखों में छिपे होते हैं गम दिखाये नहीं जाते
बड़े अनमोल होते हैं वो लोग जो भुलाये नहीं जाते. (शन्नो जी)
ग़ज़ल की महफ़िल का अनमोल तोहफा तुमने दिया
बधाई हो सौवां अंक जो तुमने पूरा किया (नीलम जी)
अनमोल शतक की दे रही बधाई ,
'विश्व 'ने खुशियों की शहनाई बजाई . (मंजु जी)
बेशक हो मुश्किल भरी वो डगर,
मगर था 'अनमोल' ग़ज़ल का सफर (अवध जी)
जब तक बिके ना थे कोई पूछता ना था,
तूने मुझे खरीद कर अनमोल कर दिया। (अनाम)
चूँकि पिछली महफ़िल में हमने शतक पूरा किया था, इसलिए हमारे सभी शुभचिंतकों और मित्रों से हमें शुभकामनाएँ प्राप्त हुईं। हम आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। पिछली महफ़िल में सबसे पहले शन्नो जी का आना हुआ और आपने हमें हमारी भूल (शब्द गायब न करना) से अवगत कराया। शिकायत करने में काहे की मुश्किल.. आगे से ऐसे कभी भी किंकर्तव्यविमूढ न होईयेगा। समझीं ना? :) आपके बाद सजीव जी ने हमें बधाईयाँ दीं। सजीव जी, सब कुछ तो आपके कारण हीं संभव हो सका है। आपसे प्रोत्साहन पाकर हीं तो मैं महफ़िल-ए-ग़ज़ल की दूसरी पारी लेकर हाज़िर हो पाया हूँ। अवनींद्र जी, आपने महफ़िल की पहली नज़्म कही, लेकिन चूँकि शब्द गायब करने में मुझसे देर हो गई थी, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी मैं आपको दे नहीं पाऊँगा.. मुझे मुआफ़ कीजिएगा। नीलम जी, आपके बधाई-पत्र की अंतिम पंक्ति (अब क्यों कोई करे कोई शिकवा न गिला) मैं समझ नहीं पाया, ज़रा प्रकाश डालियेगा। :) सुजॉय जी, आप मुझे यूँ लज्जित न कीजिए। आप ५०० एपिसोड तक पहुँच चुके हैं और जिस तरह की आप जानकारियाँ देते हैं, वह अंतर्जाल पर कहीं नहीं है, इसलिए आपका यह कहना कि फिल्मी गानों के बारे में जानकारी लाना आसान होता है.. आपकी बड़प्पन का परिचय देता है। पूजा जी, आपने कुछ दिन विश्राम करने को कहा था और मैंने महिने भर विश्राम कर लिया। आप नाराज़ तो नहीं हैं ना? :) चलिए अब आप फिर से नियमित हो जाईये, क्योंकि मैं भी नियमित होने जा रहा हूँ। मंजु जी और अवध जी, आपके "अनमोल" शब्द मेरी सर-आँखों पर.. प्रतीक जी, क्षमा कीजिएगा मैंने आपकी आग्रह के बावजूद महफ़िल को महिने भर का विराम दे दिया, आगे से ऐसा न होगा। :) सुमित भाई, महफ़िल आ गई फिर से, अब आप भी आ जाईये..
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
फिर आती हूँ बाकी बातों के संग...घबराने की कोई बात नहीं :)
आरजू है हमारी आप से जनाब !
यूँ लंबी छुट्टी न किया करें जनाब .
प्रतीक्षा को भाता नहीं है जनाब ,
दिल की कलम बेचैन रहे जनाब .
शिकायत करने की आगे से छूट मिली है तो उसका फायदा उठाते हुये कहने की हिम्मत कर रही हूँ कि: इस बार आपने इतनी लंबी खींची तन्हा जी, कि अब लोगों की लंबी शिकायतें भी सुननी होंगी आपको :)
वैसे उम्मीद है कि '' लंबी छुट्टियाँ '' मस्ती में गुजरी होंगी :)
इस बार जफ़र जी और उनके गुजरे दुखी जीवन के बारे इतना कुछ जाना जो पहले कभी नहीं पता लगा..शुक्रिया.
अब आपकी '' कल करे सो परसों '' वाली बात पर अमल करते हुये मैं भी शेर आराम से लिखने की सोचूँगी...तब तक के लिये क्या ये वाला चलेगा ????
'' ऐसी क्या है आरजू पड़ा हुआ है हफ्ता
अच्छा काम वही है जो होता रफ्ता-रफ्ता ''
( अभी ही लिखा है )
अब चलती हूँ खुदा हाफिज...
गायब शब्द है आरजू
शे'र- आरजू ही ना रही सुबह वतन की अब मुझको,
शाम ए गुरबत है अजब वक्त सुहाना तेरा
शायर का नाम याद नही
जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं,
तुम जियो हजारों साल
साल के दिन हों पचास हज़ार.
आपको बहुत बहुत शुक्रिया तनहा साहेब, मेरे खास पसंदीदा गुलुकार की आवाज़ सुनवाने के लिए.जैसा मैंने आपसे पहले भी दरख्वास्त की थी, हो सके तो इनकी 'गए दिनों का सुराग ले कर कहाँ से आया कहाँ गया वोह','आशियाँ जल गया गुलिस्तान लुट गया, अब यहाँ से निकल कर किधर जायेंगे' और 'गजरा लगा के ले आ सजनवा' भी पेश करने की ज़हमत करें.
एक शेर मुलाहिज़ा हो:
"न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को"
शायर: जनाब सरवर (आनंद पाठक)
अवध लाल
ये दिल न कोई आरजू ऐसी कभी कर
कि दम तोड़ दे तेरे अंदर ही वो घुटकर.
( स्वरचित )
tanha jee
लो बन गया नसीब कि तुम हम से आ मिले.
शायर: हसन कमाल
अवध लाल
आरज़ू तो खूब रही कि आप जल्दी लौट आयें,
देर से ही सही, खैर मकदम है आपका :)