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राहत साहब के सहारे अल्लाह के बंदों ने संगीत की नैया को संभाला जिसे नॉक आउट ने लगभग डुबो हीं दिया था

ताज़ा सुर ताल ४१/२०१०


विश्व दीपक - सभी दोस्तों को नमस्कार! सुजॊय जी, कैसी रही दुर्गा पूजा और छुट्टियाँ?

सुजॊय - बहुत बढ़िया, और आशा है आपने भी नवरात्रि और दशहरा धूम धाम से मनाया होगा!

विश्व दीपक - पिछले हफ़्ते सजीव जी ने 'टी.एस.टी' का कमान सम्भाला था और 'गुज़ारिश' के गानें हमें सुनवाए।

सुजॊय - सब से पहले तो मैं सजीव जी से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दूँ। नाराज़गी इसलिए कि हम एक हफ़्ते के लिए छुट्टी पे क्या चले गए, कि उन्होंने इतनी ख़ूबसूरत फ़िल्म का रिव्यु ख़ुद ही लिख डाला। और भी तो बहुत सी फ़िल्में थीं, उन पर लिख सकते थे। 'गुज़ारिश' हमारे लिए छोड़ देते!

विश्व दीपक - लेकिन सुजॊय जी, यह भी तो देखिए कि कितना अच्छा रिव्यु उन्होंने लिखा था, क्या हम उस स्तर का लिख पाते?

सुजॊय - अरे, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बहुत ही अच्छा रिव्यु था उनका लिखा हुआ। जैसा संगीत है उस फ़िल्म का, रिव्यु ने भी पूरा पूरा न्याय किया। चलिए अब आज की कार्यवाही शुरु की जाए। वापस आने के बाद जैसा कि मैं देख रहा हूँ कि बहुत सारी नई फ़िल्मों के गानें रिलीज़ हो चुके हैं। इसलिए आज भी दो फ़िल्मों के गानें लेकर हम उपस्थित हुए हैं। पहली फ़िल्म है 'अल्लाह के बंदे' और दूसरी फ़िल्म है 'नॊक आउट'।

विश्व दीपक - शुरु करते हैं 'अल्लाह के बंदे' से। यह फ़िल्म बाल अपराध विषय पर केन्द्रित है। किस तरह से आज बच्चे गुमराह हो रहे हैं, यही इस फ़िल्म का मुद्दा है। फ़िल्म की कहानी के केन्द्रबिंदु में है दो लड़के जो अपनी ज़िंदगी का पहला मर्डर करते हैं १२ वर्ष की आयु में। उन्हें 'जुवेनाइल प्रिज़न' में भेज दिया जाता है, जहाँ से वापस आने के बाद वो अपने स्लम पर राज करने की कोशिश करते हैं। रवि वालिया निर्मित और फ़ारुक कबीर निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी फ़ारुक ने ही लिखी है। १२ नवंबर २०१० को प्रदर्शित होने वाली इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं विक्रम गोखले, ज़ाकिर हुसैन, शरमन जोशी, फ़ारुक कबीर, अतुल कुलकर्णी, और नसीरूद्दीन शाह।

सुजॊय - फ़िल्म के गीत संगीत का पक्ष भी मज़ेदार है क्योंकि इसमें एक नहीं, दो नहीं, बल्कि पाँच संगीतकारों ने संगीत दिया है, जब कि सभी गानें केवल एक ही गीतकार सरीम मोमिन ने लिखे हैं। रवायत तो एक संगीतकार और एक से अधिक गीतकारों की रही है, लेकिन इसमें पासा पलट गया है। भले ही पाँच संगीतकार हैं, लेकिन पूरी टीम को लीड कर रहे हैं चिरंतन भट्ट। बाक़ी संगीतकार हैं कैलाश खेर - नरेश - परेश, तरुण - विनायक, हमज़ा फ़ारुक़ी, और इश्क़ बेक्टर। तो लीजिए फ़िल्म का पहला गीत सुना जाए, चिरंतन भट्ट का संगीत और आवाज़ें हैं हमज़ा फ़ारुक़ी और कृष्णा की।

गीत - मौला समझा दे इन्हें


विश्व दीपक - सूफ़ी रॉक के रंग में रंगा यह गाना था। इस तरह का सूफ़ी संगीत और रॉक म्युज़िक का फ़्युज़न पहली बार सुनने को मिल रहा है। यह गीत आजकल ख़ूब बज रहा है चारों तरफ़ और तेज़ी से लोकप्रियता के पायदान चढ़ता जा रहा है। फ़िल्म के दो प्रमुख चरित्रों पर फ़िल्माया यह गीत फ़िल्म की कहानी को समर्थन देता है। गीत में ऐटिट्युड भी है, मेलडी भी, आधुनिक रंग भी, और आध्यात्मिक अंग भी है इसमें। सरीम मोमिन ने भी अच्छे बोल दिए हैं, जिसमें ग़लत राह पर चलने वालों को सही राह दिखाने की ऊपरवाले से प्रार्थना की जा रही है।

सुजॊय - ऊंची पट्टी पर गाये इस गीत में हमज़ा और कृष्णा ने अच्छी जुगलबंदी की है। इससे पहले कुष्णा का गाया हिमेश रेशम्मिया की तर्ज़ पर फ़िल्म 'नमस्ते लंदन' का गीत मुझे याद आ रहा है, "मैं जहाँ भी रहूँ"। उस गीत में कृष्णा अंतरे में जिस तरह की ऊँची पट्टी पर "कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है, पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है, बस याद साथ है", और यही वाला हिस्सा इस गीत का आकर्षक हिस्सा है।

विश्व दीपक - आइए अब दूसरे गीत की तरफ़ बढ़ते हैं, यह है कैलाश खेर का गाया "क्या हवा क्या बादल"। संगीत है कैलाश खेर और उनके साथी नरेश और परेश का।

गीत - क्या हवा क्या बादल


सुजॊय - सितार जैसी धुन से शुरू होने वाले इस गीत में एक दर्दीला रंग है। दर्दीला केवल इसलिए नहीं कि जिस तरह से कैलाश ने इसे गाया है या जो भाव यह व्यक्त कर रहा है, बल्कि सबकुछ मिलाकर इस गीत को सुनते हुए थोड़ी सी उदासी जैसे छा जाती है। कैलासा टीम का बनाया यह गीत बिल्कुल उसी अंदाज़ का है। यह फ़िल्म का शीर्षक गीत भी है, और इसी गीत का एक और वर्ज़न भी है जिसकी अवधि है ७ मिनट।

विश्व दीपक - बस कहना है कि इस गीत को सुनकर कैलासा बैण्ड का कोई प्राइवेट ऐल्बम गीत जैसा लगा। लेकिन अच्छे बोल, अच्छा संगीत, कुल मिलाकर अच्छे गीतों की फ़ेहरिस्त में ही शामिल होगा यह गीत। आइए अब मूड को थोड़ा सा बदला जाए और सुना जाए रवि खोटे और फ़ारुक कबीर की आवा्ज़ों में एक छोटा सा गाना "रब्बा रब्बा"। नवोदित संगीतकार जोड़ी तरुण और विनायक की प्रस्तुति, जिसमें है रॉक अंदाज़। ज़्यादा कुछ कहने लायक नहीं है। सुनिए और मन करे तो झूमिए।

गीत - रब्बा रब्बा


सुजॊय - मुझे ऐसा लगता है कि यह गीत और अच्छा बन सकता था अगर इसकी अवधि थोड़ी और ज़्यादा होती। जब तक इस गीत का रीदम ज़हन में चढ़ने लगता है, उसी वक़्त गाना ख़त्म हो जाता है। इसे अगर रॉकक थीम के ऐंगल से सोचा जाए तो उतना बुरा नहीं है, लेकिन गीत के रूप में ज़रा कमज़ोर सा लगता है। चलिए अगले गाने पे चलते हैं और इस बार आवाज़ सुनिधि चौहान की।

विश्व दीपक - एक धीमी गति वाला गीत, कम से कम साज़ों का इस्तेमाल, सुनिधि की गायन-दक्षता का परिचय, कुल मिलाकर यह गीत "मायूस" हमें मायूस नहीं करता। इसमें भी दर्द छुपा हुआ है। वैसे फ़िल्म की कहानी से ही पता चलता है कि नकारात्मक सोच ही फ़िल्म का विषय है, ऐसे में फ़िल्म के गानों में वह "फ़ील गूड" वाली बात कहाँ से आ सकती थी भला! इस गीत को स्वरबद्ध किया है हमज़ा फ़ारुक़ी ने।

सुजॊय - जिस तरह का कम्पोज़िशन है, हर गायक इसे निभा नहीं सकता या सकती। सुनिधि जैसी गायिका के ही बस की बात है यह गीत। चलिए सुनते हैं।

गीत - मायूस


विश्व दीपक - और अब जल्दी से फ़िल्म का अंतिम गाना भी सुन लिया जाए इश्क़ बेक्टर और साथियों की आवाज़ में। "काला जादू हो गया रे", जी हाँ, यही है इस गीत के बोल। सुन कर तुरंत हमें हाल ही में आई फ़िल्म 'खट्टा मीठा' का गीत "बुल-शिट" की याद आ जाती है। आम रोज़ मर्रा की ज़िंदगी से उठाये विषयों को लेकर यह पेप्पी नंबर बनाया गया है।

सुजॊय - ख़ासियत कोई नहीं पर सुनने लायक ज़रूर है। इसका रीदम कैची है जो हमें गीत को अंत तक सुनने पर मजबूर करता है। कुछ कुछ अनु मलिक या बप्पी लाहिड़ी स्टाइल का गाना है। अगर अच्छे और निराले ढंग से फ़िल्माया जाए, तो इस गाने को लम्बे समय तक लोग याद रख सकते हैं। सुनिए...

गीत - काला जादू हो गया रे


सुजॊय - 'अल्लाह के बंदे' जिस तरह की फ़िल्म है, उस हिसाब से इसके गानें अच्छे ही बने हैं। मेरा पिक है "मौला" और "क्या हवा क्या बादल"।

विश्व दीपक - मौला मुझे भी बेहद पसंद आया। सरीम ने सोच-समझकर शब्दों का चुनाव किया है। कोई भी लफ़्ज़ गैर-ज़रूरी नहीं लगता। इस तरह से यह गीत बड़ा हीं सुंदर बन पड़ा है। सच कहूँ तो हिन्दी फिल्मों में सूफ़ी-रॉक सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई, लगा कि कुछ तो अलग किया जा रहा है। जहाँ तक "क्या हवा क्या बादल" की बात है तो गीत की शुरूआत में मुझे कैलाश थोड़े अटपटे-से लगे, लेकिन अंतरा आते-आते कैलाश-नरेश-परेश अपने रंग में वापस आ चुके थे। सुनिधि का गाया "मायूस" भी अच्छा बन पड़ा है।

सुजॊय - आइए अब आज की दूसरी फ़िल्म 'नॉक आउट' की तरफ़ बढ़ते हैं। फ़िल्म का शीर्षक सुन कर शायक आप अपनी नाक सिकुड़ लें यह सोच कर कि इस तरह की फ़िल्म मे अच्छे गानों की गुंजाइश कहाँ होती है, है न? अगर आप ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए, इस फ़िल्म में कुल ६ गानें हैं, जिनमें से ३ गानें बहुत सुंदर हैं जबकि बाक़ी के ३ गानें चलताऊ क़िस्म के हैं। इसलिए हम आपको यहाँ पर ३ गानें सुनवा रहे हैं।

विश्व दीपक - 'नॉक आउट' के निर्देशक हैं मणि शंकर, संगीतकार हैं गौरव दासगुप्ता, गानें लिखे हैं विशाल दादलानी, पंछी जालोनवी और शेली ने। फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में हैं संजय दत्त, कंगना रनौत, इरफ़ान ख़ान, गुलशन ग्रोवर, रुख़सार, अपूर्व लखिया और सुशांत सिंह।

सुजॊय - संगीतकार गौरव दासगुप्ता का नाम अगर आपकी ज़हन में नहीं आ रहा है तो आपको याद दिला दूँ कि इन्होंने इससे पहले २००७ में 'दस कहानियाँ', २००९ में 'राज़-२' और 'हेल्प' जैसी फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। देखते हैं 'नॊक आउट' में वो कुछ कमाल दिखा पाते हैं या नहीं। आइए हमारा चुना हुआ पहला गाना सुनिए राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में "ख़ुशनुमा सा ये रोशन हो जहाँ"। गीतकार हैं पंछी जालोनवी।

गीत - ख़ुशनुमा सा ये रोशन हो जहाँ


विश्व दीपक - क्या कोई ऐसी फ़िल्म है जिसमें राहत साहब नहीं गा रहे हैं इन दिनों? लेकिन यह जो गीत था, वह राहत साहब के दूसरे गीतों से अलग क़िस्म का है। हम शायद पिछली बार ही यह बात कर रहे थे कि राहत साहब को अलग अलग तरह के गानें गाने चाहिए ताकि टाइपकास्ट ना हो जाएँ, और उन्होंने इस बात का ख़याल रखना शायद शुरु कर दिया है। जहाँ तक इस गीत का सवाल है, बहुत ही आशावादी गीत है, और पंछी साहब ने अच्छे बोल लिखे हैं। आशावाद, शांति और भाईचारे की भावनाएँ गीत में भरी हुई हैं। संगीत संयोजन भी सुकूनदायक है। गौरव दासगुप्ता का शायद अब तक का सर्वश्रेष्ठ गीत यही है।

सुजॊय - बिल्कुल! और पंछी जालोनवी का ज़िक्र आया तो मुझे उनके द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम की याद आ गई जिसमें उन्होंने अपने इस नाम "पंछी" के बारे में कहा था। उन्होंने कुछ इस तरह से कहा था - "फ़ौजी भाइयों, आप सोच रहे होंगे कि इस वक़्त जो शख़्स आप से बातें कर रहा है, उसका नाम पंछी क्यों है। लोग अपनी जाति और मज़हब बदल लेते हैं, मैंने अपने जीन्स (genes) बदल डाले और इंसान से पंछी बन गया (हँसते हुए)। वह ख़याल भी फ़ौज से ही जुड़ा हुआ है। आप लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ दोस्तों की तरह रहते हैं और मक़सद भी एक है, देश की सेवा। पंछियों में भी फ़िरकापरस्ती नहीं होती है। कभी मंदिर में बैठ जाते हैं तो कभी मस्जिद में।"

विश्व दीपक - वाह! बड़े ख़ूबसूरत विचार है जालोनवी साहब के। अच्छा, इसी गीत का एक और वर्ज़न है, जिसे थोड़ा सा बदल कर "ख़ुशनुमा सा वह मौसम" कर दिया गया है, और इस बार आवाज़ है कृष्णा की। इस गीत को भी सुनते चलें, गीत को सुनते हुए आपको फ़िल्म 'लम्हा' के "मादनो" गीत की याद आ सकती है। इस गीत में भी कश्मीरी रंग है, रुबाब और सारंगी के इस्तेमाल से दर्द और तड़प के भाव बहुत अच्छी तरह से उभरकर सामने आया है। एक और ज़रूरी बात कि इस वर्ज़न को पंछी जालोनवी ने नहीं बल्कि शेली ने लिखा है।

सुजॊय - गायक कृष्णा को लोग ज़्यादा याद नहीं करते हैं, उनसे गानें भी कम गवाये जाते हैं, लेकिन मेरा ख़याल है कि उनकी गायकी में वो सब बातें मौजूद हैं जो आजकल के गिने चुने सूफ़ी टाइप के गायकों में मौजूद हैं। भविष्य में इनका भी वक़्त ज़रूर आएगा, ऐसी हमारी शुभकामना है कृष्णा के लिए। और आइए अब इस गीत को सुना जाए।

गीत - ख़ुशनुमा-सा वो मौसम


विश्व दीपक - और अब आज की प्रस्तुति का आठवाँ और अंतिम गीत। 'नॉक आउट' में एक और सुनने लायक गीत है के.के की आवाज़ में, "तू ही मेरी हमनवा मुझमें रवाँ रहा, तू ही मेरे ऐ ख़ुदा साँसों में भी चला"। इस गीत को गौरव ने प्रीतम - के. के स्टाइल के गीत की तरह रूप देने की कोशिश की है। इस गीत में भी सूफ़ी रंग है, मुखड़ा जके "मौला" पे ख़त्म होता है। कम्पोज़िशन भले ही सुना सुना सा लगे, लेकिन अच्छे बोल और अच्छी आवाज़ को पाकर यह गीत कर्णप्रिय बन गया है।

सुजॊय - के.के. की आवाज़ मे एक ताज़गी रहती है जिसकी वजह से उनका गाया हर गीत सुनने में अच्छा लगता है। मुझे नहीं लगता कि के.के. ने कोई ऐसा गीत गाया है जो सुनने लायक ना हो। आइए आज की प्रस्तुति का समापन इस दिलकश आवाज़ से कर दी जाए।

गीत - तू ही मेरी हमनवा


सुजॊय - 'नॉक आउट' के बाक़ी के तीन गीत हैं विशाल दादलानी का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत, सुनिधि चौहान का गाया "जब जब दिल मिले", तथा सुमित्रा और संजीव दर्शन का गाया "गंगुबाई पे आई जवानी"। इन तीनों गीतों में कोई ख़ास बात नहीं है, बहुत ही साधारण, और "गंगुबाई" तो अश्लील है जिसमें गीतकार लिखते हैं "गंगुबाई पे आई जवानी जब से, सारे लौंडे हैरान परेशान तब से"। बेहतर यही होगा कि इन तीनों गीतों को सुने बग़ैर ही पर्दा गिरा दिया जाए।

विश्व दीपक - आपने सही कहा कि तीन हीं गीत सुनने लायक हैं इस फिल्म के, लेकिन अच्छी बात ये है कि ये तीनों गीत बहुत हीं खूबसूरत हैं। राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ। राहत साहब के बाद इन कव्वालियों के लिए अगर कॊई सही उम्मीदवार है तो वो हैं कृष्णा.. इनकी आवाज़ में खालिस सूफ़ियाना अंदाज़ है और पुरअसर कशिश भी। आज की दोनों फिल्मों के गानों में वही गाना अव्वल रहा है, जिसमें कृष्णा की गलाकारी का कमाल है। इससे बढकर और किसी गायक को क्या चाहिए होगा! सुजॉय जी, मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि आपकी बदौलत मैंने इन दों नैपथ्य में लगभग खो चुकी फिल्मों के गानें सुनें। उम्मीद करता है कि अगली बार भी आप ऐसी भी कोई फिल्म (फिल्में) लेकर आएँगे। तब तक के लिए इस समीक्षा को विराम दिया जाए। जय हिन्द!

आवाज़ की राय में

चुस्त-दुरुस्त गीत: मौला और खुशनुमा

लुंज-पुंज गीत: काला जादू

Comments

नॉक आउट के तीनों गीत लहभग एक ही मिजाज़ के हैं, आजकल इस तरह के गीतों की ओवर डोस हो रखी है, इस लिए कुछ ऊब सी भी भी हो गयी है, अल्लाह के बंदे में संगीत अच्छा है, हालाँकि यहाँ भी सूफी रंग ही तारी है, सुनिधि का गाया "मायूस" वाकई मुश्किल गीत है, बहुत ही बढ़िया अंजाम दिया है. वी डी क्या तुम्हें "पंछी" साहब का नाम सुनकर कुछ याद आया ?, सुजॉय क्या तुम पंछी के लिखे कुछ और गीतों की सूची दे सकते हो ?
Sujoy Chatterjee said…
filhaal to mujhe film Dus ke gaane hi yaad aa rahe hain Panchhi saahab ke likhe huye, jaise "chham se koi aa jaaye: vagerah...

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