ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 500/2010/200
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस माइलस्टोन एपिसोड में। एक सुरीला सफ़र जो हमने शुरु किया था २० फ़रवरी २००९ की शाम, वह सफ़र बहुत सारे सुमधुर पड़ावों से होता हुआ आज, ७ अक्तुबर को आ पहुँच रहा है अपने ५००-वें मंज़िल पर। दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस यादगार मौक़े पर हम सब से पहले आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। जिस तरह का प्यार आपने इस स्तंभ को दिया है, जिस तरह से आपने इस स्तंभ का साथ दिया है और इसे सफल बनाया है, उसी का यह नतीजा है कि आज हम इस मुक़ाम तक पहुँच पाये हैं।
दोस्तों, इस यादगार शाम को कुछ ख़ास तरीक़े से मनाने के लिए हमने सोचा कि क्यों ना कुछ ऐसा किया जाए कि जिससे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह ५००-वाँ एपिसोड वाक़ई एक यादगार एपिसोड बन जाए। १४ मार्च, १९३१ भारतीय सिनेमा के लिए एक यादगार दिन था, क्योंकि इसी दिन बम्बई के मजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी इस देश की पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा'। 'आलम आरा' से ना केवल बोलती फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ, बल्कि इसी से शुरुआत हुई फ़िल्मी गीतों की, फ़िल्म संगीत की। आज फ़िल्म संगीत मनोरंजन का सब से अहम और लोकप्रिय साधन है, शायद उनकी फ़िल्मों से भी ज़्यादा। दोस्तों, जिस 'आलम आरा' से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई थी, बेहद अफ़सोस की बात है कि आज 'आलम आरा' का प्रिण्ट नष्ट हो चुका है। और क्योंकि उस ज़माने में 'आलम आरा' के गीतों को ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड पर उतारे नहीं गये थे, इसलिए फ़िल्म के प्रिण्ट के साथ साथ इस फ़िल्म के गानें भी खो गए, हमेशा हमेशा के लिए। कुछ सूत्रों से इस फ़िल्म के गीतों के बोल तो हमने हासिल किए हैं, लेकिन उनकी धुनें कैसी रही होंगी, किस तरह से उन्हें गाया गया होगा, यह आज कोई नहीं बता सकता। इस फ़िल्म में वज़ीर मोहम्मद ख़ान के गाये "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की" गीत को पहला फ़िल्मी गीत माना जाता है, लेकिन इस गीत का केवल मुखड़ा ही लोगों को पता है। क्या इस गीत के अंतरे भी थे, यह कोई नहीं जानता। इसलिए हमने यह सोचा कि क्यों ना इस पहले पहले फ़िल्मी गीत को रिवाइव किया जाए। क्यों ना इसके अंतरे नये तरीक़े से लिखे जाएँ, और फिर पूरे गीत को स्वरबद्ध कर किसी नए गायक से गवाया जाए! और क्यों ना इस गीत को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५००-वें अंक में रिलीज़ किया जाए!
शुरु हो गई तैयारी पहली बोलती फ़िल्म के पहले गीत को रिवाइव करने की। इसके लिए सब से पहले ज़रूरत थी इस गीत के बोलों को पूरा करने की क्योंकि जैसा कि हमने आपको बताया कि इस गीत का केवल मुखड़ा ही आज हमें मालूम है। फ़िल्म के नष्ट हो जाने से गीत का बाक़ी का हिस्सा भी उसके साथ खो गया। मुखड़ा कुछ ऐसा है - "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की, चाहे अगर तो माँग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की"। तो एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया और उसके तहत आमंत्रित किए कुछ ऐसे शेर जो इस ग़ज़ल/गीत को पूरा कर सके। हमें बहुत सारे एन्ट्रीज़ मिले, जिनमें से हमने चुने दो शेर और इस तरह से यह ग़ज़ल मुकम्मल हुई। आगे बढ़ने से पहले आइए आपको बता दें कि जिन दो शख़्स के शेर हमने चुने हैं उनके नाम हैं स्वपनिल तिवारी 'आतिश' और निखिल आनंद गिरि। इस तरह से आर्दशिर ईरानी का लिखा मुखड़ा एक गीत की शक्ल में पूरा हुआ। आगे बढ़ने से पहले, ये रहे वो दो शेर -
इत्र, परांदी और महावर, जिस्म सजा, पर बेमानी,
दुल्हन रूह को कब है ज़रूरत सजने और सँचरने की। ---- स्वपनिल तिवारी 'आतिश'
चला फ़कीरा हँसता हँसता, फिर जाने कब आयेगा,
जोड़ जोड़ कर रोने वाले फ़ुरसत कर कुछ देने की। ---- निखिल आनंद गिरि
लिखने का कार्य तो पूरा हो गया, अब बात आई इसे स्वरबद्ध करने की। इसके लिए भी एक प्रतियोगिता की घोषणा की गई। हमें कुल ९ प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें से हमारी टीम ने इस प्रविष्टि को चुना जो आज इस महफ़िल में बज रहा है। तो साहब पहले फ़िल्मी गीत को री-कम्पोज़ किया है हमारे बेहद कामियाब संगीतकार कृष्ण राज ने, जिन्होंने इस गीत का संगीत संयोजन भी ख़ुद ही किया। आपको याद होगा कि किस प्रकार कृष्ण राज हमारी "काव्यनाद" प्रतियोगिता में भाग लेते रहे हैं, और सफल भी होते रहे हैं. इस गीत में गीटार के लिए विशेष सहयोग उन्हें मिला विशाल रोमी से। धुन और ट्रैक तैयार हो जाने के बाद उसे भेज दिया गया गायक मनु वर्गीज़ के पास और उन्होंने अपनी दिलकश आवाज़ से इस गीत को सजाकर हमारे सपने को पूर्णता प्रदान की। इस तरह से रिवाइव हो गया पहली बोलती फ़िल्म का पहला गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे"। दोस्तों, यह गीत भले ही १९३१ की फ़िल्म का गीत है, लेकिन क्योंकि आज २०१० में हम इसे रिवाइव कर रहे हैं, इसलिए इसका अंदाज़ भी हमने कुछ इसी ज़माने का रखा है। लेकिन इस बात का भी पूरा पूरा ध्यान रखा गया है कि मेलडी और गीत के मूड के साथ, उसके स्तर के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता ना करना पड़े। गीत कैसा बना है यह तो हम आप ही पर छोड़ते हैं। इस गीत के निर्माण से जुड़े प्रत्येक कलाकार ने अपनी तरफ़ से भरपूर कोशिश की है कि अपना बेस्ट इसमें दें, आगे आपकी राय सर आँखों पर। चूँकि कृष्ण और उनकी टीम की ये प्रविष्ठी इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ चुनी गयी है, इस टीम को दिया जा रहा है ५००० रूपए का नकद पुरस्कार. सलाम है 'आलम आरा' फ़िल्म से जुड़े समस्त कलाकारों को, जिनकी लगन और मेहनत ने बोलती फ़िल्मों का द्वार खोल दिया था इस देश में और साथ ही फ़िल्मी गीतों का भी।
और अब 'आलम आरा' से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें आपको बतायी जाए! इस फ़िल्म का निर्माण किया था अर्दशिर ईरानी और अब्दुल अली युसूफ़ भाई ने 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' के बैनर तले। यह फ़िल्म आंशिक रूप से सवाक थी। इस फ़िल्म को जिस तरह का पब्लिक रेस्पॊन्स मिला था, वह अकल्पनीय था। उस ज़माने में किसी फ़िल्म का टिकट चंद आने में मिल जाता था, लेकिन इस फ़िल्म के टिकट बिके ४ रूपए में, जो उस ज़माने के हिसाब से एक बहुत बड़ी रकम थी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मास्टर विट्ठल, ज़ुबेदा, पृथ्विराज कपूर, जिल्लो बाई, याकूब, जगदिश सेठी और वज़ीर मोहम्मद ख़ान। फ़िल्म का निर्देशन आर्दशिर ईरानी ने ही किया और कहा जाता है कि फ़िल्म के गानें भी उन्होंने ही लिखे और इनकी धुनें भी उन्होंने ही तय की थी, हालाँकि क्रेडिट्स में फ़ीरोज़शाह एम. मिस्त्री और बी. ईरानी के नाम दिए गये थे बतौर संगीतकार। 'आलम आरा' में कुल सात गानें थे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि १९४६ और १९७३ में 'आलम आरा' फ़िल्म फिर से बनी और इनमें भी वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने अभिनय किया। ज़ुबेदा की आवाज़ में इस फ़िल्म का एक अन्य गीत "बदला दिलवाएगा या रब तू सितमगारों से" भी उस ज़माने में ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। और अब हम आपके लिए कहीं से खोज लाये हैं आर्दशिर ईरानी के कहे हुए शब्द जो उन्होंने कहे थे इस फ़िल्म के गीतों के रेकॊर्डिंग् के बारे में - "There were no sound-proof stages, we preferred to shoot indoors and at night. Since our studio is located near a railway track most of our shooting was done between the hours that the trains ceased operation. We worked with a single system Tamar recording equipment. There were also no booms. Microphones had to be hidden in incredible places to keep out of camera range". 'आलम आरा' १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित हुई थी; २३ मार्च १९३१ को 'टाइम्स ऒफ़ इण्डिया' में एक शख़्स ने इस फ़िल्म की साउण्ड क्वालिटी के बारे में रिव्यू में लिखा था -"Principal interest naturally attaches to the voice production and synchronization. The latter is syllable perfect; the former is somewhat patchy, due to inexperience of the players in facing the microphone and a consequent tendency to talk too loudly". दोस्तों ये सब बातें पढ़कर कैसा रोमांच हो आता है न? कैसा रहा होगा उस ज़माने में फ़िल्म निर्माण के तौर तरीक़े, कैसे रेकॊर्ड होते होंगे गानें? कितनी कठिनाइयों, परेशानियों और सीमित साधनों के ज़रिए काम करना पड़ता होगा। उन अज़ीम फ़नकारों की मेहनत और लगन का ही नतीजा है, यह उसी का फल है कि हिंदी फ़िल्में आज समूचे विश्व में सर चढ़ कर बोल रहा है। तो आइए अब सुना जाए यह गीत; 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक समर्पित है 'आलम आरा' फ़िल्म के पूरे टीम के नाम। हमें आपकी राय का इंतज़ार रहेगा, टिप्पणी के अलावा admin@radioplaybackindia.com पर भी आप अपनी राय भेज सकते हैं।
गीत - दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे (२०१० संस्करण)
क्या आप जानते हैं...
कि वज़ीर मोहम्मद ख़ान का १४ अक्तुबर १९७४ को निधन हो गया, यानी कि आज से ठीक ७ दिन बाद उनकी पुण्यतिथि है।
Song - De De Khuda Ke Naam Par (2010 edition, The Returns Of Alam Aara)
Music - Krishn Raj Kumar
Lyrics - Adarshir Irani, Nikhil Aanand Giri, and Swapnil Tiwari Aatish.
Guitor - Vishaal Romi
Vocal - Manu Varghese
Mixing - Nitin
Original Composition covered under Creative Commons license. All rights reserved with Hind yugm and the Artists concerned.
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस माइलस्टोन एपिसोड में। एक सुरीला सफ़र जो हमने शुरु किया था २० फ़रवरी २००९ की शाम, वह सफ़र बहुत सारे सुमधुर पड़ावों से होता हुआ आज, ७ अक्तुबर को आ पहुँच रहा है अपने ५००-वें मंज़िल पर। दोस्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस यादगार मौक़े पर हम सब से पहले आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। जिस तरह का प्यार आपने इस स्तंभ को दिया है, जिस तरह से आपने इस स्तंभ का साथ दिया है और इसे सफल बनाया है, उसी का यह नतीजा है कि आज हम इस मुक़ाम तक पहुँच पाये हैं।
दोस्तों, इस यादगार शाम को कुछ ख़ास तरीक़े से मनाने के लिए हमने सोचा कि क्यों ना कुछ ऐसा किया जाए कि जिससे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का यह ५००-वाँ एपिसोड वाक़ई एक यादगार एपिसोड बन जाए। १४ मार्च, १९३१ भारतीय सिनेमा के लिए एक यादगार दिन था, क्योंकि इसी दिन बम्बई के मजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी इस देश की पहली बोलती फ़िल्म 'आलम आरा'। 'आलम आरा' से ना केवल बोलती फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ, बल्कि इसी से शुरुआत हुई फ़िल्मी गीतों की, फ़िल्म संगीत की। आज फ़िल्म संगीत मनोरंजन का सब से अहम और लोकप्रिय साधन है, शायद उनकी फ़िल्मों से भी ज़्यादा। दोस्तों, जिस 'आलम आरा' से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई थी, बेहद अफ़सोस की बात है कि आज 'आलम आरा' का प्रिण्ट नष्ट हो चुका है। और क्योंकि उस ज़माने में 'आलम आरा' के गीतों को ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड पर उतारे नहीं गये थे, इसलिए फ़िल्म के प्रिण्ट के साथ साथ इस फ़िल्म के गानें भी खो गए, हमेशा हमेशा के लिए। कुछ सूत्रों से इस फ़िल्म के गीतों के बोल तो हमने हासिल किए हैं, लेकिन उनकी धुनें कैसी रही होंगी, किस तरह से उन्हें गाया गया होगा, यह आज कोई नहीं बता सकता। इस फ़िल्म में वज़ीर मोहम्मद ख़ान के गाये "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की" गीत को पहला फ़िल्मी गीत माना जाता है, लेकिन इस गीत का केवल मुखड़ा ही लोगों को पता है। क्या इस गीत के अंतरे भी थे, यह कोई नहीं जानता। इसलिए हमने यह सोचा कि क्यों ना इस पहले पहले फ़िल्मी गीत को रिवाइव किया जाए। क्यों ना इसके अंतरे नये तरीक़े से लिखे जाएँ, और फिर पूरे गीत को स्वरबद्ध कर किसी नए गायक से गवाया जाए! और क्यों ना इस गीत को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ५००-वें अंक में रिलीज़ किया जाए!
शुरु हो गई तैयारी पहली बोलती फ़िल्म के पहले गीत को रिवाइव करने की। इसके लिए सब से पहले ज़रूरत थी इस गीत के बोलों को पूरा करने की क्योंकि जैसा कि हमने आपको बताया कि इस गीत का केवल मुखड़ा ही आज हमें मालूम है। फ़िल्म के नष्ट हो जाने से गीत का बाक़ी का हिस्सा भी उसके साथ खो गया। मुखड़ा कुछ ऐसा है - "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की, चाहे अगर तो माँग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की"। तो एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया और उसके तहत आमंत्रित किए कुछ ऐसे शेर जो इस ग़ज़ल/गीत को पूरा कर सके। हमें बहुत सारे एन्ट्रीज़ मिले, जिनमें से हमने चुने दो शेर और इस तरह से यह ग़ज़ल मुकम्मल हुई। आगे बढ़ने से पहले आइए आपको बता दें कि जिन दो शख़्स के शेर हमने चुने हैं उनके नाम हैं स्वपनिल तिवारी 'आतिश' और निखिल आनंद गिरि। इस तरह से आर्दशिर ईरानी का लिखा मुखड़ा एक गीत की शक्ल में पूरा हुआ। आगे बढ़ने से पहले, ये रहे वो दो शेर -
इत्र, परांदी और महावर, जिस्म सजा, पर बेमानी,
दुल्हन रूह को कब है ज़रूरत सजने और सँचरने की। ---- स्वपनिल तिवारी 'आतिश'
चला फ़कीरा हँसता हँसता, फिर जाने कब आयेगा,
जोड़ जोड़ कर रोने वाले फ़ुरसत कर कुछ देने की। ---- निखिल आनंद गिरि
लिखने का कार्य तो पूरा हो गया, अब बात आई इसे स्वरबद्ध करने की। इसके लिए भी एक प्रतियोगिता की घोषणा की गई। हमें कुल ९ प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें से हमारी टीम ने इस प्रविष्टि को चुना जो आज इस महफ़िल में बज रहा है। तो साहब पहले फ़िल्मी गीत को री-कम्पोज़ किया है हमारे बेहद कामियाब संगीतकार कृष्ण राज ने, जिन्होंने इस गीत का संगीत संयोजन भी ख़ुद ही किया। आपको याद होगा कि किस प्रकार कृष्ण राज हमारी "काव्यनाद" प्रतियोगिता में भाग लेते रहे हैं, और सफल भी होते रहे हैं. इस गीत में गीटार के लिए विशेष सहयोग उन्हें मिला विशाल रोमी से। धुन और ट्रैक तैयार हो जाने के बाद उसे भेज दिया गया गायक मनु वर्गीज़ के पास और उन्होंने अपनी दिलकश आवाज़ से इस गीत को सजाकर हमारे सपने को पूर्णता प्रदान की। इस तरह से रिवाइव हो गया पहली बोलती फ़िल्म का पहला गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे"। दोस्तों, यह गीत भले ही १९३१ की फ़िल्म का गीत है, लेकिन क्योंकि आज २०१० में हम इसे रिवाइव कर रहे हैं, इसलिए इसका अंदाज़ भी हमने कुछ इसी ज़माने का रखा है। लेकिन इस बात का भी पूरा पूरा ध्यान रखा गया है कि मेलडी और गीत के मूड के साथ, उसके स्तर के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता ना करना पड़े। गीत कैसा बना है यह तो हम आप ही पर छोड़ते हैं। इस गीत के निर्माण से जुड़े प्रत्येक कलाकार ने अपनी तरफ़ से भरपूर कोशिश की है कि अपना बेस्ट इसमें दें, आगे आपकी राय सर आँखों पर। चूँकि कृष्ण और उनकी टीम की ये प्रविष्ठी इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ चुनी गयी है, इस टीम को दिया जा रहा है ५००० रूपए का नकद पुरस्कार. सलाम है 'आलम आरा' फ़िल्म से जुड़े समस्त कलाकारों को, जिनकी लगन और मेहनत ने बोलती फ़िल्मों का द्वार खोल दिया था इस देश में और साथ ही फ़िल्मी गीतों का भी।
और अब 'आलम आरा' से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें आपको बतायी जाए! इस फ़िल्म का निर्माण किया था अर्दशिर ईरानी और अब्दुल अली युसूफ़ भाई ने 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' के बैनर तले। यह फ़िल्म आंशिक रूप से सवाक थी। इस फ़िल्म को जिस तरह का पब्लिक रेस्पॊन्स मिला था, वह अकल्पनीय था। उस ज़माने में किसी फ़िल्म का टिकट चंद आने में मिल जाता था, लेकिन इस फ़िल्म के टिकट बिके ४ रूपए में, जो उस ज़माने के हिसाब से एक बहुत बड़ी रकम थी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मास्टर विट्ठल, ज़ुबेदा, पृथ्विराज कपूर, जिल्लो बाई, याकूब, जगदिश सेठी और वज़ीर मोहम्मद ख़ान। फ़िल्म का निर्देशन आर्दशिर ईरानी ने ही किया और कहा जाता है कि फ़िल्म के गानें भी उन्होंने ही लिखे और इनकी धुनें भी उन्होंने ही तय की थी, हालाँकि क्रेडिट्स में फ़ीरोज़शाह एम. मिस्त्री और बी. ईरानी के नाम दिए गये थे बतौर संगीतकार। 'आलम आरा' में कुल सात गानें थे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि १९४६ और १९७३ में 'आलम आरा' फ़िल्म फिर से बनी और इनमें भी वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने अभिनय किया। ज़ुबेदा की आवाज़ में इस फ़िल्म का एक अन्य गीत "बदला दिलवाएगा या रब तू सितमगारों से" भी उस ज़माने में ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। और अब हम आपके लिए कहीं से खोज लाये हैं आर्दशिर ईरानी के कहे हुए शब्द जो उन्होंने कहे थे इस फ़िल्म के गीतों के रेकॊर्डिंग् के बारे में - "There were no sound-proof stages, we preferred to shoot indoors and at night. Since our studio is located near a railway track most of our shooting was done between the hours that the trains ceased operation. We worked with a single system Tamar recording equipment. There were also no booms. Microphones had to be hidden in incredible places to keep out of camera range". 'आलम आरा' १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित हुई थी; २३ मार्च १९३१ को 'टाइम्स ऒफ़ इण्डिया' में एक शख़्स ने इस फ़िल्म की साउण्ड क्वालिटी के बारे में रिव्यू में लिखा था -"Principal interest naturally attaches to the voice production and synchronization. The latter is syllable perfect; the former is somewhat patchy, due to inexperience of the players in facing the microphone and a consequent tendency to talk too loudly". दोस्तों ये सब बातें पढ़कर कैसा रोमांच हो आता है न? कैसा रहा होगा उस ज़माने में फ़िल्म निर्माण के तौर तरीक़े, कैसे रेकॊर्ड होते होंगे गानें? कितनी कठिनाइयों, परेशानियों और सीमित साधनों के ज़रिए काम करना पड़ता होगा। उन अज़ीम फ़नकारों की मेहनत और लगन का ही नतीजा है, यह उसी का फल है कि हिंदी फ़िल्में आज समूचे विश्व में सर चढ़ कर बोल रहा है। तो आइए अब सुना जाए यह गीत; 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ५००-वाँ अंक समर्पित है 'आलम आरा' फ़िल्म के पूरे टीम के नाम। हमें आपकी राय का इंतज़ार रहेगा, टिप्पणी के अलावा admin@radioplaybackindia.com पर भी आप अपनी राय भेज सकते हैं।
गीत - दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे (२०१० संस्करण)
क्या आप जानते हैं...
कि वज़ीर मोहम्मद ख़ान का १४ अक्तुबर १९७४ को निधन हो गया, यानी कि आज से ठीक ७ दिन बाद उनकी पुण्यतिथि है।
मेकिंग ऑफ़ "दे दे खुदा के नाम पर (२०१० संस्करण)" - गीत की टीम द्वारा
विशाल रोमी: मैं ईश्वर को धन्येवाद देता हूँ कि मुझे मौका मिला, कृष्ण (जो कि इस प्रोजेक्ट के प्रमुख हैं) की टीम के साथ काम करने का. कृष्ण राज ने हमेशा मेरी गलतियों को सुधारा है और मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित किया है. मनु ने भी बहुत अच्छे से इस गीत को निभाया है. ये बिलकुल अलग तरह का गीत था जिस पर काम करने में मुझे बहुत आनंद आया.
मनु वर्गीस: एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने से अच्छा अनुभव और क्या होगा. मैं अपने मित्र कृष्ण राज का बेहद आभारी हूँ जिसने मुझे मेरे अब तक के सफर के सबसे बहतरीन इस गीत को गाने का मौका दिया. और यक़ीनन मैं परमेश्वर का धन्येवाद कहना चाहूँगा जिसने मुझे अपने राज्य से हिंदी का प्रतिनिधित्व करने का ये मौका दिया और इस गीत को गाने का अवसर प्रदान किया. अच्छे संगीत की जय हो, यही कामना है.
कृष्ण राज: यह तो एक बिलकुल ही जबरदस्त अनुभव था मेरे लिए. सच कहूँ तो मैं बहुत शंकित था कि क्या मैं इस गीत के साथ न्याय कर पाऊंगा. ये भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा का गीत है, जाहिर है जब हिंद युग्म इसे दुबारा से बनाने की योजना बनाएगा तो श्रोताओं की उम्मीदें बढ़ जायेगीं. ऐसे में मेरे शक अपनी जगह सही थे. इस गीत के मेकिंग के दौरान बहुत सी कठिनाईयां मेरे सामने आई. मसलन मैं बीमार पड़ गया. यही वजह थी कि मुझे गायन के लिए किसी और को चुनना पड़ा, ऐसे में मैंने अपने मित्र गायक मनु से आग्रह किया क्योंकि आवाज़ बहुत नर्म है और इस तरह के गानों पर जचती है, और मनु ने इसे बहुत बढ़िया से गाया. विशाल भी बहुत जबरदस्त गीटारिस्ट है. ईश्वर को धन्येवाद कि मुझे एक बहुत अच्छी टीम मिली हुई है. और अंत में शुक्रिया अदा करना चाहूँगा अपने साउंड इंजिनियर नितिन का जिन्होंने इस गीत को मिक्स किया, वो जो पीछे आप कोरस में आवाजें सुन रहे हैं वो भी नितिन की ही है, उम्मीद है कि हम सब आपकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगें.
विशाल रोमी: मैं ईश्वर को धन्येवाद देता हूँ कि मुझे मौका मिला, कृष्ण (जो कि इस प्रोजेक्ट के प्रमुख हैं) की टीम के साथ काम करने का. कृष्ण राज ने हमेशा मेरी गलतियों को सुधारा है और मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित किया है. मनु ने भी बहुत अच्छे से इस गीत को निभाया है. ये बिलकुल अलग तरह का गीत था जिस पर काम करने में मुझे बहुत आनंद आया.
मनु वर्गीस: एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने से अच्छा अनुभव और क्या होगा. मैं अपने मित्र कृष्ण राज का बेहद आभारी हूँ जिसने मुझे मेरे अब तक के सफर के सबसे बहतरीन इस गीत को गाने का मौका दिया. और यक़ीनन मैं परमेश्वर का धन्येवाद कहना चाहूँगा जिसने मुझे अपने राज्य से हिंदी का प्रतिनिधित्व करने का ये मौका दिया और इस गीत को गाने का अवसर प्रदान किया. अच्छे संगीत की जय हो, यही कामना है.
कृष्ण राज: यह तो एक बिलकुल ही जबरदस्त अनुभव था मेरे लिए. सच कहूँ तो मैं बहुत शंकित था कि क्या मैं इस गीत के साथ न्याय कर पाऊंगा. ये भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा का गीत है, जाहिर है जब हिंद युग्म इसे दुबारा से बनाने की योजना बनाएगा तो श्रोताओं की उम्मीदें बढ़ जायेगीं. ऐसे में मेरे शक अपनी जगह सही थे. इस गीत के मेकिंग के दौरान बहुत सी कठिनाईयां मेरे सामने आई. मसलन मैं बीमार पड़ गया. यही वजह थी कि मुझे गायन के लिए किसी और को चुनना पड़ा, ऐसे में मैंने अपने मित्र गायक मनु से आग्रह किया क्योंकि आवाज़ बहुत नर्म है और इस तरह के गानों पर जचती है, और मनु ने इसे बहुत बढ़िया से गाया. विशाल भी बहुत जबरदस्त गीटारिस्ट है. ईश्वर को धन्येवाद कि मुझे एक बहुत अच्छी टीम मिली हुई है. और अंत में शुक्रिया अदा करना चाहूँगा अपने साउंड इंजिनियर नितिन का जिन्होंने इस गीत को मिक्स किया, वो जो पीछे आप कोरस में आवाजें सुन रहे हैं वो भी नितिन की ही है, उम्मीद है कि हम सब आपकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगें.
कृष्ण राज
कृष्ण राज कुमार ने काव्यनाद प्रतियोगिता की हर कड़ी में भाग लिया है। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्रथम पुरस्कार, सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए द्वितीय पुरस्कार, महादेवी वर्मा के लिए भी प्रथम पुरस्कार। निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' के लिए भी इनकी प्रविष्टि उल्लेखनीय थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम! आज उनकी जय बोल' के लिए द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया। कृष्ण राज कुमार जो मात्र २४ वर्ष के हैं, और B.Tech की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने संगीत करियर को सजाने सवांरने में जी जान से लगे हैं, पिछले 14 सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। अभी तीसरे सत्र में उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया ऋषि ने अपने गीत लौट चल के लिए. ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।
मनु वर्गीस
२५ वर्षीया गायक मनु वर्गीस कर्णाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं श्री पी आर मुरली से. कुछ समय के लिए 'टीम ध्वनि" का हिस्सा रहे, और उनकी पहली अल्बम स्लेमबुक में एक सोलो गीत भी गाया. कोच्ची के मशहूर संगीतकार जैरी अमल्देव के साथ पिछले २ वर्षों से कार्यरत हैं. कोच्ची में आयोजित रफ़ी साहब के गीतों की एक प्रतियोगिता में पहला स्थान प्राप्त कर चुके हैं. कुछ आत्मीय अलबमों में काम कर चुके हैं और "कैरली" टी वी पर भी कुछ कार्यक्रमों का भी हिस्सा रह चुके हैं मनु.
विशाल रोमी
विशाल एक वित्तीय कंपनी में कार्यरत हैं और संगीत में बतौर गीटार वादक अपनी पहचान बनाने में सक्रीय हैं. विशाल पिछले ६ सालों के इस वाध्य की शिक्षा ले रहे हैं. कृष्ण राज की टीम में उनके साथ कई प्रोजेक्ट्स कर चुके हैं. यह युवा गीटार वादक संगीत के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाने की प्रबल इच्छा रखता है.
कृष्ण राज कुमार ने काव्यनाद प्रतियोगिता की हर कड़ी में भाग लिया है। जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' के लिए प्रथम पुरस्कार, सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए द्वितीय पुरस्कार, महादेवी वर्मा के लिए भी प्रथम पुरस्कार। निराला की कविता 'स्नेह निर्झर बह गया है' के लिए भी इनकी प्रविष्टि उल्लेखनीय थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम! आज उनकी जय बोल' के लिए द्वितीय पुरस्कार प्राप्त किया। कृष्ण राज कुमार जो मात्र २४ वर्ष के हैं, और B.Tech की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने संगीत करियर को सजाने सवांरने में जी जान से लगे हैं, पिछले 14 सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। अभी तीसरे सत्र में उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया ऋषि ने अपने गीत लौट चल के लिए. ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा।
मनु वर्गीस
२५ वर्षीया गायक मनु वर्गीस कर्णाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं श्री पी आर मुरली से. कुछ समय के लिए 'टीम ध्वनि" का हिस्सा रहे, और उनकी पहली अल्बम स्लेमबुक में एक सोलो गीत भी गाया. कोच्ची के मशहूर संगीतकार जैरी अमल्देव के साथ पिछले २ वर्षों से कार्यरत हैं. कोच्ची में आयोजित रफ़ी साहब के गीतों की एक प्रतियोगिता में पहला स्थान प्राप्त कर चुके हैं. कुछ आत्मीय अलबमों में काम कर चुके हैं और "कैरली" टी वी पर भी कुछ कार्यक्रमों का भी हिस्सा रह चुके हैं मनु.
विशाल रोमी
विशाल एक वित्तीय कंपनी में कार्यरत हैं और संगीत में बतौर गीटार वादक अपनी पहचान बनाने में सक्रीय हैं. विशाल पिछले ६ सालों के इस वाध्य की शिक्षा ले रहे हैं. कृष्ण राज की टीम में उनके साथ कई प्रोजेक्ट्स कर चुके हैं. यह युवा गीटार वादक संगीत के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाने की प्रबल इच्छा रखता है.
Song - De De Khuda Ke Naam Par (2010 edition, The Returns Of Alam Aara)
Music - Krishn Raj Kumar
Lyrics - Adarshir Irani, Nikhil Aanand Giri, and Swapnil Tiwari Aatish.
Guitor - Vishaal Romi
Vocal - Manu Varghese
Mixing - Nitin
Original Composition covered under Creative Commons license. All rights reserved with Hind yugm and the Artists concerned.
Comments
Regards
Sujoy
AIse hi kaam aap aage bhi kare, ye ishear se prarthanaa.
आलम आरा चित्र की नायिका जुबेदा थी
उनकी दो या तीन लाईन बोली थी १९८० मुझे मिल गई तो हिन्द युग्म में भेझ दूँगी
जो पहले गीतों में दर्द था मन को छू लेने वाला अब नहीं है
जब ढोलक बजती थी उसकी थाप दिल पर बजती थी
आजा रे समय वापिस
हार्दिक बधाई!
क्या यह गीत सीडी पर उपलब्ध कराने की योजना है?
amit kumar
क्यों ना कहना चाहेंगे भाई? अपना ब्लॉग,अपने लोग जिनकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है.
अपने जॉब के बाद इतना समय निकल कर नित नई जानकारी देना,प्यारे प्यारे गाने सुनाना.कमाल! इस टीम की जितनी तारीफ की जाये शब्द कम हैं,संगीत के प्रति ये समर्पण,जुनून बहुत कम देखने को मिलता है और इस तरह के लोगो के कारन ही संगीत का ये बेमिसाल खजाना आज तक सुरक्षित है.चूँकि मेरे ट्विन्स शरारती चूहों ने स्पीकर की बंद बजा दी है इसलिए मैं आलमार के गीत के इस नए रूप को नही सुन पा रही पर..निःसंदेह सुन्दर,मधुर होगा ही.
गीत की पूरी टीम को बधाई.एक हजारवां एपिसोड भी जल्दी ही आएगा हम सब उसे पढेंगे और सुनेंगे,देख लेना.सच्ची.
जहाँ किसी काम को ले के किसी पर इस तरह पागलपन की हद तक धुन सवार हो,सफलता मिलती ही है.बताओ मुझे कैसे मालूम?
क्योंकि ऐसिच हूँ मैं भी.धुन की पक्की.
क्यों ना कहना चाहेंगे भाई? अपना ब्लॉग,अपने लोग जिनकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है.
अपने जॉब के बाद इतना समय निकल कर नित नई जानकारी देना,प्यारे प्यारे गाने सुनाना.कमाल! इस टीम की जितनी तारीफ की जाये शब्द कम हैं,संगीत के प्रति ये समर्पण,जुनून बहुत कम देखने को मिलता है और इस तरह के लोगो के कारन ही संगीत का ये बेमिसाल खजाना आज तक सुरक्षित है.चूँकि मेरे ट्विन्स शरारती चूहों ने स्पीकर की बैंड बजा दी है इसलिए मैं आलम आरा के गीत के इस नए रूप को नही सुन पा रही पर..निःसंदेह सुन्दर,मधुर होगा ही.
गीत की पूरी टीम को बधाई.एक हजारवां एपिसोड भी जल्दी ही आएगा हम सब उसे पढेंगे और सुनेंगे,देख लेना.सच्ची.
जहाँ किसी काम को ले के किसी पर इस तरह पागलपन की हद तक धुन सवार हो,सफलता मिलती ही है.बताओ मुझे कैसे मालूम?
क्योंकि ऐसिच हूँ मैं भी.धुन की पक्की.
-- Biswajit
maine ye gana 1 jan 1982 ko suna tha doordarshan ke ek programme me.
bol sahi hain per dhun alag hai.
lekin fir bhi ye hind yugm ka ek mahaan prayas hai jo hamari khoi hui virasat ko fir se dhoondh nikala.