महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग,
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।
जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।
ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था:
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने:
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं विशेषकर दु:ख की संवेदना"। जब तलक आप कथ्य को खुद महसूस नहीं करते, तब तलक लिखा गया हरेक लफ़्ज़ बेमानी है। मीर इसी कला के मर्मज्ञ थे, सबसे बड़े मर्मज्ञ। इस बात को उन्होंने खुद भी अपने शेर में कहा है:
मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
मीर का दीवान जितना उनके ग़म का संग्रह था, उतना हीं जमाने के ग़म का -
दरहमी हाल की है सारे मिरा दीवां में,
सैर कर तू भी यह मजमूआ परीशानी का।
अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" में "बच्चन सिंह" जी मीर के बारे में लिखते हैं:
मीर ग़ज़लों के बादशाह थे। उनकी दो हज़ार से अधिक ग़ज़लें छह दीवानों में संगृहीत हैं। "कुल्लियात-ए-मीर" में अनेक मस्नवियाँ, क़सीदे, वासोख़्त, मर्सिये आदि शामिल हैं। उनकी शायरी के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं:-
इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
इश्क़ इक "मीर" भारी पत्थर है
कब दिल-ए-नातवां से उठता है
हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया
सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किया है- "क़द्रदानों ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"। जिनकी शायरी मुसाफ़िर शहर-दर-शहर दिल में लेकर घूमते हैं, हमारी खुश-किस्मती है कि हमारी महफ़िल को आज उनकी खिदमत करने का मौका हासिल हुआ है। कई महीनों से हमारे दिल में यह बात खटक रही थी कि भाई ग़ालिब पर दस महफ़िलें हो गईं और मीर पर एक भी नहीं। तो चलिए आज वह खटक भी दूर हो गई, इसी को कहते हैं "देर आयद दुरूस्त आयद"। इतनी बातों के बाद लगे हाथ अब आज की ग़ज़ल भी सुन लेते हैं। आज की ग़ज़ल मेरे हिसाब से मीर की सबसे मक़बूल गज़ल है और मेरे दिल के सबसे करीब भी। "जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है।" एकतरफ़ा प्यार की कसक इससे बढिया तरीके से व्यक्त नहीं की जा सकती। मीर के लफ़्ज़ों में छुपी कसक को ग़ज़ल गायिकी को एक अलग हीं अंदाज़ देने वाले "हरिहरण" ने बखूबी पेश किया है। यूँ तो इस ग़ज़ल को कई गुलूकारों ने अपनी आवाज़ दी है, लेकिन हरिहरण का "क्लासिकल टच" और किसी की गायकी में नहीं है। पूरे ९ मिनट की यह ग़ज़ल मेरे इस दावे की पुख्ता सुबूत है:
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक ____ दो बारा जाने है
तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-
आँखों से लहू टपका दामन में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई...
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
मेरे अश्रु भरे मन की खातिर
वो फैला दे दामन तो जी लूं (अवनींद्र जी)
दामन छुड़ा के अपना वो पूछ्ते हैं मुझसे
जब ये न थाम पाए थामोगे हाथ कैसे ? (शरद जी)
इन लम्हों के दामन में पाकीजा से रिश्ते हैं
कोई कलमा मुहब्बत का दोहराते फ़रिश्ते हैं (जावेद अख्तर)
दामन में आंसू थे, या रुस्वाईयां थी
ये किस्मत थी या वो बे- वफ़ाइयाँ थी (नीलम जी)
फूलों से बढियां कांटे हैं ,
जो दामन थाम लेते हैं. (मंजु जी)
फूल खिले है गुलशन गुलशन,
लेकिन अपना अपना दामन (जिगर मुरादाबादी)
रात के दामन में शमा जब जलती है
हवा आके उससे लिपट के मचलती है (शन्नो जी)
छोड़ कर तेरे प्यार का दामन यह बता दे के हम किधर जाएँ
हमको डर है के तेरी बाहों में हम सिमट कर ना आज मर जाएँ. (रजा मेहदी अली खान)
आपको मुबारक हों ज़माने की सारी खुशियाँ
हर गम जिंदगी का हमारे दामन में भर दो . (शन्नो जी)
पिछली महफ़िल की शान बने अवनीद्र जी। हुज़ूर, आप की अदा हमें बेहद पसंद आई। एक शब्द पर पूरी की पूरी ग़ज़ल कह देना आसान नहीं। हम आपके हुनर को सलाम को करते हैं। आपके बाद महफ़िल को अपने स्वरचित शेर से शरद जी ने रंगीन किया। शरद जी, आपने तो बड़ा हीं गूढ प्रश्न पूछा है। अगर आशिक़ एक दामन नहीं थाम सकता तो हाथ क्या खाक थामेगा! उम्मीद करता हूँ कि कोई सच्चा आशिक़ इसका जवाब देगा। शरद जी के बाद नीलम जी की बारी थी। इस बार तो आपने दिल खोलकर महफ़िल की ज़र्रानवाज़ी की। आपने अपने शेरों के साथ जानेमाने शायरों के भी शेर शामिल किए। और एक शेर में जब आप शायर का नाम भूल गए तो अवध जी ने वह कमी भी पूरी कर दी। आप दोनों की लख़नवी बातचीत हमें खूब भाई। अब आप दोनों मिलकर मीर से निपटें, जिन्हें लख़नऊ में बस उल्लू हीं नज़र आते थे :) अवध जी, प्रकाश पंडित जी की पुस्तकों से मैं जो भी जानकारी हासिल कर पाता हूँ, वे सब अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं। मेरे पास उनकी बस एक कि़ताब है "मज़ाज और उनकी शायरी"। अगर और भी कुछ मालूम हुआ, तो आपको ज़रूर इत्तला करूँगा। मंजु जी, इस बार तो छोटे बहर के एक शेर से आपने बड़ी बाज़ी मार ली है। यही सोच रहा हूँ कि फूल और काँटों का यह अंतर मेरे लिए अब तक अनजाना कैसे था? सुमित जी, आपको "फूल खिले हैं.." वाले शेर के शायर का नाम पता न था, इसका मतलब यही हुआ कि आप "जिगर मुरादाबादी" वाली महफ़िल से नदारद थे :) शन्नो जी, ये हुई ना बात। इसी तरह खुलकर शेरों का मज़ा लेती रहें और लफ़्ज़ों की बौछार से हमें भी भिंगोती रहें।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग,
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।
जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।
ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था:
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।
हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने:
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।
ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं विशेषकर दु:ख की संवेदना"। जब तलक आप कथ्य को खुद महसूस नहीं करते, तब तलक लिखा गया हरेक लफ़्ज़ बेमानी है। मीर इसी कला के मर्मज्ञ थे, सबसे बड़े मर्मज्ञ। इस बात को उन्होंने खुद भी अपने शेर में कहा है:
मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।
मीर का दीवान जितना उनके ग़म का संग्रह था, उतना हीं जमाने के ग़म का -
दरहमी हाल की है सारे मिरा दीवां में,
सैर कर तू भी यह मजमूआ परीशानी का।
अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" में "बच्चन सिंह" जी मीर के बारे में लिखते हैं:
मीर का पूरा नाम मीर तक़ी मीर था। मीर ने फ़ारसी में अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसका अनुवाद "ज़िक्रे मीर" के नाम से हो चुका है। ज़िक्रे मीर के हिसाब से उनका जन्म १७२५ में अकबराबाद (आगरा) में हुआ था। लेकिन और घटनाओं के समय उन्होंने अपनी जो उम्र बताई है उससे हिसाब लगाने पर उनकी जन्म-तिथि ११३७ हि.या १७२४ ई. निकलती है। (प्रकाश पंडित की पुस्तक "मीर और उनकी शायरी" में भी इस बात का उल्लेख है) मीर के पिता प्रसिद्ध सूफ़ी फ़कीर थे। उनका प्रभाव मीर की रचनाओं पर देखा जा सकता है। दिल्ली को उजड़ती देखकर वे लखनऊ चले आए। नवाब आसफ़ुद्दौला ने उनका स्वागत किया और तीन सौ रूपये की मासिक वृत्ति बाँध दी। नवाब से उनकी पटरी नहीं बैठी। उन्होंने दरबार में जाना छोड़ दिया। फिर भी नवाब ने उनकी वृत्ति नहीं बंद की। १८१० में मीर का देहांत हो गया।
मीर पर वली की शायरी का प्रभाव है - जबान, ग़ज़ल की ज़मीन और भावों में दोनों में थोड़ा-बहुत सादृश्य है। पर दोनों में एक बुनियादी अंतर है। वली के इश्क़ में प्रेमिका की अराधना है तो मीर के इश्क़ पर सूफ़ियों के इश्क़-हक़ीक़ी का भी रंग है और वह रोजमर्रा की समस्याओं में नीर-क्षीर की तरह घुलमिल गया है। मीर की शायरी में जीवन के जितने विविध आयाम मिलेंगे उतने उस काल के किसी अन्य कवि में नहीं दिखाई पड़ते।
दिल्ली मीर का अपना शहर था। लखनऊ में रहते हुए भी वे दिल्ली को कभी नहीं भूले। दिल्ली छोड़ने का दर्द उन्हें सालता रहा। लखनऊ से उन्हें बेहद नफ़रत थी। भले हीं वे लखनऊ के पैसे पर पल रहे थे, फिर भी लखनऊ उन्हें चुगदों (उल्लुओं) से भरा हुआ और आदमियत से खाली लग रहा था। लखनऊ के कवियों की इश्क़िया शायरी में वह दर्द न था, जो छटपटाहट पैदा कर सके। लखनऊ के लोकप्रिय शायर "जुर्रत" को मीर चुम्मा-चाटी का शायर कहा करते थे।
मीर विचारधारा में कबीर के निकट हैं तो भाषा की मिठास में सूर के। जिस तरह कबीर कहते थे कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल", उसी तरह मीर का कहना है - "उसे देखूँ जिधर करूँ निगाह, वही एक सूरत हज़ारों जगह।" दैरो-हरम की चिंता उन्हें नहीं है। मीर उससे ऊपर उठकर प्रेमधर्म और हृदयधर्म का समर्थन करते हैं-
दैरो-हरम से गुजरे, अब दिल है घर हमारा,
है ख़त्म इस आवले पर सैरो-सफ़र हमारा।
हिन्दी के सूफ़ी कवि भी इतने असांप्रदायिक नहीं थे, जितने मीर थे। इस अर्थ में मीर जायसी और कुतबन के आगे थे। वे लोग इस्लाम के घेरे को नहीं तोड़ सके थे, जबकि मीर ने उसे तोड़ दिया था। पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-इमामों में उनकी आस्था नहीं थी, पर मुसलमां होने में थी। शेखों-इमामों की तो उन्होंने वह गत बनाई है कि उन्हें देखकर फ़रिश्तों के भी होश उड़ जाएँ -
फिर ’मीर’ आज मस्जिद-ए-जामें में थे इमाम,
दाग़-ए-शराब धोते थे कल जानमाज़ का। (जानमाज़ - जिस कपड़े पर नमाज़ पढी जाती है)
सौन्दर्य-वर्णन मीर के यहाँ भी मिलेगा, किन्तु इस सावधानी के साथ कि "कुछ इश्क़-ओ-हवस में फ़र्क़ भी कर-
क्या तन-ए-नाज़ुक है, जां को भी हसद जिस तन प’ है,
क्या बदन का रंग है, तह जिसकी पैराहन प’ है।
मीर की भाषा में फ़ारसी के शब्द कम नहीं हैं, पर उनकी शायरी का लहजा, शैली, लय, सुर भारतीय है। उनकी कविता का पूरा माहौल कहीं से भी ईरानी नहीं है।
मीर ग़ज़लों के बादशाह थे। उनकी दो हज़ार से अधिक ग़ज़लें छह दीवानों में संगृहीत हैं। "कुल्लियात-ए-मीर" में अनेक मस्नवियाँ, क़सीदे, वासोख़्त, मर्सिये आदि शामिल हैं। उनकी शायरी के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं:-
इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या
इश्क़ इक "मीर" भारी पत्थर है
कब दिल-ए-नातवां से उठता है
हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया
सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किया है- "क़द्रदानों ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"। जिनकी शायरी मुसाफ़िर शहर-दर-शहर दिल में लेकर घूमते हैं, हमारी खुश-किस्मती है कि हमारी महफ़िल को आज उनकी खिदमत करने का मौका हासिल हुआ है। कई महीनों से हमारे दिल में यह बात खटक रही थी कि भाई ग़ालिब पर दस महफ़िलें हो गईं और मीर पर एक भी नहीं। तो चलिए आज वह खटक भी दूर हो गई, इसी को कहते हैं "देर आयद दुरूस्त आयद"। इतनी बातों के बाद लगे हाथ अब आज की ग़ज़ल भी सुन लेते हैं। आज की ग़ज़ल मेरे हिसाब से मीर की सबसे मक़बूल गज़ल है और मेरे दिल के सबसे करीब भी। "जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है।" एकतरफ़ा प्यार की कसक इससे बढिया तरीके से व्यक्त नहीं की जा सकती। मीर के लफ़्ज़ों में छुपी कसक को ग़ज़ल गायिकी को एक अलग हीं अंदाज़ देने वाले "हरिहरण" ने बखूबी पेश किया है। यूँ तो इस ग़ज़ल को कई गुलूकारों ने अपनी आवाज़ दी है, लेकिन हरिहरण का "क्लासिकल टच" और किसी की गायकी में नहीं है। पूरे ९ मिनट की यह ग़ज़ल मेरे इस दावे की पुख्ता सुबूत है:
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक ____ दो बारा जाने है
तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-
आँखों से लहू टपका दामन में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई...
इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:
मेरे अश्रु भरे मन की खातिर
वो फैला दे दामन तो जी लूं (अवनींद्र जी)
दामन छुड़ा के अपना वो पूछ्ते हैं मुझसे
जब ये न थाम पाए थामोगे हाथ कैसे ? (शरद जी)
इन लम्हों के दामन में पाकीजा से रिश्ते हैं
कोई कलमा मुहब्बत का दोहराते फ़रिश्ते हैं (जावेद अख्तर)
दामन में आंसू थे, या रुस्वाईयां थी
ये किस्मत थी या वो बे- वफ़ाइयाँ थी (नीलम जी)
फूलों से बढियां कांटे हैं ,
जो दामन थाम लेते हैं. (मंजु जी)
फूल खिले है गुलशन गुलशन,
लेकिन अपना अपना दामन (जिगर मुरादाबादी)
रात के दामन में शमा जब जलती है
हवा आके उससे लिपट के मचलती है (शन्नो जी)
छोड़ कर तेरे प्यार का दामन यह बता दे के हम किधर जाएँ
हमको डर है के तेरी बाहों में हम सिमट कर ना आज मर जाएँ. (रजा मेहदी अली खान)
आपको मुबारक हों ज़माने की सारी खुशियाँ
हर गम जिंदगी का हमारे दामन में भर दो . (शन्नो जी)
पिछली महफ़िल की शान बने अवनीद्र जी। हुज़ूर, आप की अदा हमें बेहद पसंद आई। एक शब्द पर पूरी की पूरी ग़ज़ल कह देना आसान नहीं। हम आपके हुनर को सलाम को करते हैं। आपके बाद महफ़िल को अपने स्वरचित शेर से शरद जी ने रंगीन किया। शरद जी, आपने तो बड़ा हीं गूढ प्रश्न पूछा है। अगर आशिक़ एक दामन नहीं थाम सकता तो हाथ क्या खाक थामेगा! उम्मीद करता हूँ कि कोई सच्चा आशिक़ इसका जवाब देगा। शरद जी के बाद नीलम जी की बारी थी। इस बार तो आपने दिल खोलकर महफ़िल की ज़र्रानवाज़ी की। आपने अपने शेरों के साथ जानेमाने शायरों के भी शेर शामिल किए। और एक शेर में जब आप शायर का नाम भूल गए तो अवध जी ने वह कमी भी पूरी कर दी। आप दोनों की लख़नवी बातचीत हमें खूब भाई। अब आप दोनों मिलकर मीर से निपटें, जिन्हें लख़नऊ में बस उल्लू हीं नज़र आते थे :) अवध जी, प्रकाश पंडित जी की पुस्तकों से मैं जो भी जानकारी हासिल कर पाता हूँ, वे सब अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं। मेरे पास उनकी बस एक कि़ताब है "मज़ाज और उनकी शायरी"। अगर और भी कुछ मालूम हुआ, तो आपको ज़रूर इत्तला करूँगा। मंजु जी, इस बार तो छोटे बहर के एक शेर से आपने बड़ी बाज़ी मार ली है। यही सोच रहा हूँ कि फूल और काँटों का यह अंतर मेरे लिए अब तक अनजाना कैसे था? सुमित जी, आपको "फूल खिले हैं.." वाले शेर के शायर का नाम पता न था, इसका मतलब यही हुआ कि आप "जिगर मुरादाबादी" वाली महफ़िल से नदारद थे :) शन्नो जी, ये हुई ना बात। इसी तरह खुलकर शेरों का मज़ा लेती रहें और लफ़्ज़ों की बौछार से हमें भी भिंगोती रहें।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
आह को चाहिये इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
....ग़ालिब
---------आशीष
उम्र यूँ काटी तेरे शहर में आकर हमने
(स्वरचित)
--------------------आशीष
आज वो खुद की ही दीवानगी पे आई है (स्वरचित )
मुझे तो आज कोई भी दर्द याद न रहा
(स्वरचित)
जीने की आस जागी तो मौत के पास थे
तुम इस तरह न पूछो हाल मरने वाले का \
बस इतना बता दो "मान" को कल शब् क्यूँ उदास थे (स्वरचित)
गजल का गायब वाला शब्द है.. ' उम्र '...और...
लीजिये ' उम्र ' पर शेर भी हाजिर है :
उम्र गुजरी यूँ ही तमाम मगर
एक दर्द का साथ में अहसास लिए
खामोश और चुपचाप बन जीते रहे
उन गमों का हाथों में जाम लिए.
हाँ जी, ठीक फरमाया...स्वरचित है...
filhaal meer saahaab ko salaam ke saath mera jawaab .umeed hai aapko bhi khaasa pasand aaya hoga deepak ji
फिर न आना उनके रोने मुस्कुराने में ,
वो बड़े ही माहिर हैं सूरतें बनाने में ,
उनके बच्चे भी सोये हैं भूखे
जिनकी उम्र गुजरी है रोटियाँ बनाने में
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में ।
(बहादुर शाह ज़फ़र )
आपने बहुत अच्छा शे'र लिखा, ये शेर मै लिखने वाला था पर आपने ये पहले ही लिख दिया, कोई बात नही उम्र शब्द से एक और शे'र है हमारे पास, पर शायर का नाम 'फाकिर' है
ता-उम्र ढूंढता रहा मंजिल मे ईश्क की,
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफर लेके आ गया।
सभी के लिखे शे'र अच्छे लगे, नीलम जी और आशीश जी का लिखा पहला शे'र बहुत अच्छा लगा
आपने बहुत अच्छा शे'र लिखा, ये शेर मै लिखने वाला था पर आपने ये पहले ही लिख दिया, कोई बात नही उम्र शब्द से एक और शे'र है हमारे पास, पर शायर का नाम 'फाकिर' है
ता-उम्र ढूंढता रहा मंजिल मे ईश्क की,
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफर लेके आ गया।
सभी के लिखे शे'र अच्छे लगे, नीलम जी और आशीश जी का लिखा पहला शे'र बहुत अच्छा लगा
उम्र हो गई तुम्हें पहचानने में ,
अभी तक न जान पाई हमदम मेरे !
स्वरचित
iske baad mehadi saahib ki aawaaz mein sunnaa padegaa....
दिल उदास है यूँ ही कोई पैगाम ही लिख दो
अपना नाम ना लिखो तो बेनाम ही लिख दो
मेरी किस्मत में गम-ए-तन्हाई है लेकिन
पूरी उम्र ना सही एक शाम ही लिख दो.
शायर का नाम ...पता नहीं लग पाया.
हर शब् -ए -गम की शहर हो ये जरूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी आगोश में सर हो ये जरूरी तो नहीं
शेख करता तो है मस्जिद में खुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये जरूरी तो नहीं
ज़ीनत नूर
हर शब् -ए -गम की शहर हो ये जरूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी आगोश में सर हो ये जरूरी तो नहीं
शेख करता तो है मस्जिद में खुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये जरूरी तो नहीं
ज़ीनत नूर
पवित्र है धरा पवित्र है गगन
फिर भी भ्रष्ट हो रहा कैसे मेरा मन
सच बना है द्रौपदी झूठ है नियम
स्वार्थ की गली मैं भटक रहे कदम
प्रकृति का जबाब है लेह का आलम
माँ का ही आँचल जला रहा ये आदम
कहीं टूटते है पेट कहीं सड़ रहा है अन्न
आज़ादी का ज़श्न बना रहा मेरा वतन
कुत्ते लगे हैं बांटने फैंकी हुई रोटी
एक ही धरा के कितने हो गए गगन (२८+७)
एक उम्र हो गयी है झेलते झेलते
अचरज है ६३ साल से आज़ाद है वतन (स्वरचित)
आपका हमवतन -अवनींद्र
उम्र अपनी तमाम की वतन के लिये शहीदों ने
उसी वतन की आजादी झुलस रही है हर तरफ.
(स्वरचित)