'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें', 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक विशेषांक में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है! आज १४ अगस्त है और पूरा राष्ट्र इस वक़्त जुटी हुई है अपनी ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस समारोह की तय्यारियों में। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल आप इस अवसर पर ख़ास पेशकश तो सुनेंगे और पढ़ेंगे ही, लेकिन क्योंकि 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' आप ही की यादों को ताज़ा करने का स्तंभ है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना आज के इस अंक में आप में से ही किसी दोस्त की यादों को ताज़ा किया जाए जो देश भक्ति की भावना से सम्बंधित हो। कोई ऐसी देश भक्ति फ़िल्म जो आपने किसी ज़माने में देखी हो, जिसके साथ कई यादगार क़िस्से जुड़े हुए हो, या कोई ऐसा देश भक्ति गीत जिसने आपको बहुत ज़्यादा प्रभावित किया हो और आप उसे इस ख़ास अवसर पर सुनना और सुनवाना चाहते हों। ऐसे में अपने ख़ूबसूरत ईमेल और जगमगाती यादों के ख़ज़ाने के साथ सामने आए राज सिंह जी। तो अब मैं आपका और वक़्त ना लेते हुए राज सिंह जी का ईमेल आपके साथ शेयर करता हूँ।
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प्रिय सुजॉय दा,
मेरे खयाल से राष्ट्रभक्ति के गीतों में अग्रगण्य है 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ........', तो उसी को याद करते मेरे बचपन का सबसे यादगार वाकया।
फिल्म 'जागृति' रिलीज़ हो चुकी थी और उसको मैंने कई बार देखी, दादर के 'प्लाज़ा' सिनेमाघर में, जो हमारे घर से २ मिनट के फासले पर था (चल कर)। उस फिल्म ने जो देशभक्ति भरी वह आज तक लगातार मन का हिस्सा है। उसके सभी गानें मन को छू ही नहीं जाते थे, बल्कि तन मन में बस जाते थे। लेकिन 'आओ बच्चों......' तो मन की अनुगूंज बन गया था, आत्मा में समा गया था, और शायद मेरे लिए पहली बार देश और उसका इतिहास, मेरे बालमन में देश की शान को समझ पाने का गर्व भी रहा। माँ कहती थी कि उनके साथ मैंने पहले भी शैशव में फिल्में देखीं थी, पर मेरी समझ में गाँव से प्राईमरी पास कर आगे की पढ़ाई के लिए मुंबई आने पर (तब बम्बई) वह मेरी पहली फिल्म थी और मैंने जिसे समझा भी।
अक्सर ज्यादातर बच्चे ही (अभिभावकों सहित) होते थे हाल में। पहली बार दादाजी के साथ देखी थी (दादाजी ने भी शायद जिन्दगी में सिर्फ वही एक फिल्म देखी होगी, क्योंकि दूसरे बच्चों से इस फिल्म की प्रशंसा सुन मैंने जिद पकड़ ली देखने की और उन जैसे गांधीवादी को मजबूरन साथ आना पड़ा, वरना फिल्म देखना उनके लिए किसी पाप से कम ना था)। बहरहाल उस फिल्म को देख उनके मन से फिल्म देखना पाप नहीं रह गया और वह फिल्म महीनों चली। उस वक्त प्लाज़ा के रेट होते थे ३ आने, ५ आने, १० आने और एक रूपया एक आने। जब भी मन करता देखने का वह फिल्म दादा जी से कह देता और वे एक रूपया थमा देते थे क्योंकि वह फिल्म उन्हें भी पसंद आयी थी और मेरे मन में देश प्रेम देख वे भी पुलकित ही होते थे। लेकिन मेरे बहुत सारे दोस्त (दादर की मेरी 'चाल' के) वह औकात नहीं रखते थे और फिर उस एक रुपये में हम (एक मैं और चार दूसरे, हर बार अलग अलग) 'जागृति' देखते और बचे हुए एक आने की पानी पुरी खाते। (उस ज़माने में एक पैसे में चार यानी एक आने में सोलह मिलती थी और पूरे एक आने की खाने में एक 'घेलुआ' यानी १७ मिल जाती थी)।
अब आता हूँ उस अविस्मर्णीय स्वर्गिक आनंदमय क्षणों पर। हमारे घराने के हमारे एक चाचा राम सिंह हुआ करते थे। सन बयालीस में वे और प्रसिद्द फिल्म गीतकार 'प्रदीप जी' एक साथ प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ते थे और साथ ही 'हिन्दू हॉस्टल' में रहते थे और गहरे दोस्त भी थे। दोनों फिल्मों के शौक़ीन भी थे। अगस्त बयालीस के उन क्रांतिमय दिनों में विद्यार्थियों ने जान लड़ा दी, पुलिस ने गोलियां चलायी और विद्यार्थी संघ के नेत्रित्व में जुलूस निकला और लाल पद्मधर सिंह शहीद हो गए (उन्हीं के नाम पर प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के भवन का नाम 'लाल पद्मधर सिंह भवन' रखा गया)। हर हॉस्टल खाली करा दिए गए और अनिश्चित काल के लिए विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया।
लेकिन फिल्मों के शौक़ीन ये दोनों महारथी घर ना लौट मुंबई होते हुए पूना के प्रभात स्टूडियो पहुँच गए, फिल्मों में भाग्य आजमाने। घर में कुहराम मच गया। क्योंकि अफवाह थी (शायद सत्य भी) कि पुलिस ने ना जाने कितने विद्यार्थियों को गोलियों से भून, जला कर गंगा में बहा दिया था। खोजबीन हुई और चाचाजी के ना मिलने पर परिवार ने मरा समझ लिया। पर सबूत और लाश ना मिलने के कारण एक आशा भी थी कि शायद जीवित हो और किसी अनजान जगह, कैद में हो अंगरेजी शासन के। बहरहाल कद काठी, पौरुषीय व्यक्तित्व के 'रामसिंह' को कांट्रेक्ट मिल गया प्रभात में 'हीरो' का और सहचर 'पंडित' (चाचाजी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे) प्रदीप साथ थे ही। जहाँ तक मैं जान पाया उस दरमियाँ चाचा रामसिंह ने प्रभात की ६-७ फिल्मे हीरो के रूप में की और स्थापित भी हो गए (रणजीत कौर उनके साथ हिरोईन हुआ करती थीं, जो बाद में उनकी (उप) पत्नी बनीं (ठाकुरों में शादियाँ जल्दी हुआ करती थीं और चाचाजी दो बेटों के बाप थे)। वहीं उनके दोस्तों में गुरुदत्त (जो प्रभात में कोरिओग्रफ़र थे) और देव आनंद भी शामिल हुए (जो उस वक्त स्ट्रगलर थे)। चाचाजी को सफलता तो जल्दी ही मिल गयी पर स्थाई ना रह सकी और के. एन. सिंह (वे भी उनके दोस्त थे) की तरह हीरो से विलेन बनना पड़ा।
दादा, जिस सुरिंदर कौर के 'शहीद' के प्रसिद्द उद्धृत गीत 'बदनाम ना हो जाये........' को आपने सुनवाया, उसी फिल्म में दिलीप कुमार हीरो थे, कामिनी कौशल हिरोईन और 'चाचा' रामसिंह विलेन थे। और उसका प्रसिद्द गीत, जो शायद अब भुला दिया गया है, 'वतन की राह पे वतन के नौजवाँ शहीद हो', सुपरहिट था। बहरहाल मुद्दे पर आता हूँ। अरसे बाद पता चला कि चाचा रामसिंह 'शहीद' नहीं हुए थे, फिल्मों में घुस गए थे और खानदान का कलंक हो गए थे। 'मिरासी' बन और रणजीत कौर को बीवी बनाने के एवज में, 'छुटायल' करार कर दिए गए थे और उनके माहिम के बंगले पर जाना और मिलना पारिवारिक निषेध था। ( मैं भी 'छुटायल' घोषित हो सकता था)। लेकिन फिल्मों का फिर चस्का लग गया था और बहाना बना कर पहुँच जाता था। चाचा भी उत्फुल्लित हो जाते थे कि परिवार का कोई सदस्य नियमों को तोड़ घर आता था। एक कारण और था। वहीं पर पहली बार जाना कि तंदूरी चिकन और कोका कोला क्या होता है और एकाध दोस्तों को भी साथ ले लेता था रुआब जताने के लिए। पंडितजी यानी प्रदीप जी भी अक्सर शाम वहां मौजूद होते थे 'जलपान' करने। वे कभी भी घर पर नहीं पीते थे, पी पाकर ही घर आते थे और चच्चाजी जैसा स्थान कहाँ पाते, प्रेम स्नेह दोस्ती का। वे परदे के नहीं थे तो मैं उनको पहचानता भी नहीं था। लगता था कि चाचाजी के अनगिनत संबंधों में से कोई होगा। एक दिन जब दोनों रसपान कर रहे थे, बरसात थी और कोई नहीं था तो चाचाजी ने पूछ लिया कि सिनेमा देखता भी है या दद्दा की तरह गांधी वाला है। मैंने कहा दद्दा के साथ ही 'जागृति' देखी और वाकया बता दिया। ठठाकर हँसे वो और कहा कि "अब लगता है कि परिवार में शामिल किया जा सकता हूँ"। फिर पूछा कि क्या अच्छा लगा 'जागृति' में। मैंने कहा कि 'आओ बच्चों ...........वन्दे मातरम'। फिर पंडितजी और चाचाजी दोनों ने ठहाके लगाये। मैं चकित कि कोई भूल, गुस्ताखी तो नहीं हो गयी? फिर बोले बेटा इसी पंडित ने लिखा और गाया है, सुनेगा? मैं स्तब्ध। चाचाजी ने कहा कि "यार पंडित चल सुना दे बच्चों को"।
प्रदीप जी ने पूछा कि गाना याद है? मैंने विश्वास पूर्वक कहा कि हाँ पूरा याद है। उन्होंने गाने के लिए कहा। मैंने और साथ के दो लड़कों ने सस्वर सुना दिया। प्रदीपजी का वह संतुष्टिपूर्ण आनंदित चेहरा अब भी याद है। चाचा से मजाक में कहा कि "ठाकुर तेरे जैसे हीरो हिरोइन विलेन आते जाते रहेंगे पर मेरी आवाज़ और लिखा लम्बे वक्त तक याद रहेगा, भले मेरा नाम कोई ना जाने। अब बोल कौन बड़ा है, तू कि मैं"। चाचा ने कहा अरे छोड़ बेटे को गा के सुना"। समा बंध गया। प्रदीप जी ने कहा ठीक है, मैं बेटा मैं गाऊँगा पर वन्दे मातरम जहाँ आता है तुम लोग गाना। मैंने अपने दोनों दोस्तों को देखा। उनका आत्मविश्वास और आनंद मुझसे कम नहीं था। फिर उनके स्वर में 'आओ बच्चों' गूंजा और हमने पूरे जोश से हर अंतरे के बाद 'वन्दे मातरम' गुंजा दिया।
पता नहीं, शायद नियति सब कुछ एक 'ग्रैंड डिजाईन' के तहत सब तय कर लेती है। दृश्य श्रव्य माध्यम को जो कम आंकते हों या नज़रंदाज़ करते हों, उनसे मैं सिर्फ यह कहूँगा कि आज मैं अपनी भारत माता को समर्पित जो फिल्म बनाने को प्रतिबद्ध और समर्पित हूँ, उसके पीछे अचेतन में 'जागृति' और प्रदीप जी का 'आओ बच्चों ..........वन्दे मातरम' ही है।
सुजॉय दा, बहुत सारे लोग, जिनमे देश और देशभक्ति बसती है, मुझसे भी अच्छा कुछ ले आयेंगे। लेकिन मेरी इच्छा है कि मुझ जैसे बहुत सारे इस गीत की सिफारिस करें, तभी यह 'वन्दे मातरम' चुना जाये। सिर्फ मेरी चाहत पर नहीं। और अगर ऐसा हो तो मेरे द्वारा लिखे और संगीत बद्ध 'माता तेरी जय हो' का भी लिंक दे दें, जो प्रदीप जी की प्रेरणा की एक छोटी सी अनुगूंज है और 'आवाज़' पर प्रस्तुत की जा चुकी है। आपका यह 'कुछ हटके' बहुत ही सार्थक प्रयास है। ताजगी भी है, उद्देश्पूर्ण भी। ऐसे ही यह आनंद बनाये रखें।
'हिन्दयुग्म' की पूरी टीम को साधुवाद स्वार्थरहित प्रयोजन के लिए।
सप्रेम, सस्नेह,
राज सिंह
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राज सिंह जी, और हम क्या कहें, आपने फ़िल्म 'जागृति' और कवि प्रदीप जी से आपकी मुलाक़ात और उनकी बोलती हुई आवाज़ में उनके सामने बैठकर उनसे यह गीत सुनना और उनके साथ कोरस वाले जगहों पर 'वंदेमातरम' कहना, आपके लिए कितना रोमांचकर अनुभव रहा होगा और आज भी उसे याद कर कितना रोमांच आप महसूस करते होंगे, इसका अंदाज़ा हम भली भाँति लगा सकते हैं। इसलिए चाहे कोई और फ़रमाइश करे या ना करे, आज तो इस गीत को यहाँ बजाये बिना अगर इस स्तम्भ को समाप्त कर देंगे तो यह अधूरी ही रह जाएगी। आइए ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर सुना जाए राज सिंह जी की यादों में बसे फ़िल्म 'जागृति' के इस यादगार गीत को जिसे लिखा व गाया है कवि प्रदीप ने, और स्वरबद्ध किया है हेमन्त कुमार ने।
गीत - आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की
और राज सिंह जी के अनुरोध पर ये रहा लिंक उन्ही के द्वारा लिखे और स्वरबद्ध गीत "माता तेरी जय हो" का...
गीत - माता तेरी जय हो
दोस्तों, आप सब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हमारे इस नए साप्ताहिक पेशकश में जिस तरह से सहयोग दे रहे हैं, हमारा जिस तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं, उसके लिए हम आप सभी के दिल से आभारी हैं। जिन पाठकों व श्रोताओं ने अब तक हमें ईमेल नहीं भेजा, उनसे भी हमारा निवेदन है कि यह सुनहरा मौका है कि हम आप ही की यादों, संस्मरणों, अनुभवों, फ़रमाइश के गानों, और आप ही के दिल की बातों को इस साप्ताहिक विशेषांक में स्थान देते हैं। आप सभी से निवेदन है कि इसे आगे बढ़ाने और जारी रखने में हमें सहयोग दें और हमें ईमेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। और अब स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ हम आज के लिए आपसे इजाज़त चाहते हैं, कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में एक नई शृंखला के साथ पुन: हाज़िर होंगे, जय हिंद!
प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी
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प्रिय सुजॉय दा,
मेरे खयाल से राष्ट्रभक्ति के गीतों में अग्रगण्य है 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ........', तो उसी को याद करते मेरे बचपन का सबसे यादगार वाकया।
फिल्म 'जागृति' रिलीज़ हो चुकी थी और उसको मैंने कई बार देखी, दादर के 'प्लाज़ा' सिनेमाघर में, जो हमारे घर से २ मिनट के फासले पर था (चल कर)। उस फिल्म ने जो देशभक्ति भरी वह आज तक लगातार मन का हिस्सा है। उसके सभी गानें मन को छू ही नहीं जाते थे, बल्कि तन मन में बस जाते थे। लेकिन 'आओ बच्चों......' तो मन की अनुगूंज बन गया था, आत्मा में समा गया था, और शायद मेरे लिए पहली बार देश और उसका इतिहास, मेरे बालमन में देश की शान को समझ पाने का गर्व भी रहा। माँ कहती थी कि उनके साथ मैंने पहले भी शैशव में फिल्में देखीं थी, पर मेरी समझ में गाँव से प्राईमरी पास कर आगे की पढ़ाई के लिए मुंबई आने पर (तब बम्बई) वह मेरी पहली फिल्म थी और मैंने जिसे समझा भी।
अक्सर ज्यादातर बच्चे ही (अभिभावकों सहित) होते थे हाल में। पहली बार दादाजी के साथ देखी थी (दादाजी ने भी शायद जिन्दगी में सिर्फ वही एक फिल्म देखी होगी, क्योंकि दूसरे बच्चों से इस फिल्म की प्रशंसा सुन मैंने जिद पकड़ ली देखने की और उन जैसे गांधीवादी को मजबूरन साथ आना पड़ा, वरना फिल्म देखना उनके लिए किसी पाप से कम ना था)। बहरहाल उस फिल्म को देख उनके मन से फिल्म देखना पाप नहीं रह गया और वह फिल्म महीनों चली। उस वक्त प्लाज़ा के रेट होते थे ३ आने, ५ आने, १० आने और एक रूपया एक आने। जब भी मन करता देखने का वह फिल्म दादा जी से कह देता और वे एक रूपया थमा देते थे क्योंकि वह फिल्म उन्हें भी पसंद आयी थी और मेरे मन में देश प्रेम देख वे भी पुलकित ही होते थे। लेकिन मेरे बहुत सारे दोस्त (दादर की मेरी 'चाल' के) वह औकात नहीं रखते थे और फिर उस एक रुपये में हम (एक मैं और चार दूसरे, हर बार अलग अलग) 'जागृति' देखते और बचे हुए एक आने की पानी पुरी खाते। (उस ज़माने में एक पैसे में चार यानी एक आने में सोलह मिलती थी और पूरे एक आने की खाने में एक 'घेलुआ' यानी १७ मिल जाती थी)।
अब आता हूँ उस अविस्मर्णीय स्वर्गिक आनंदमय क्षणों पर। हमारे घराने के हमारे एक चाचा राम सिंह हुआ करते थे। सन बयालीस में वे और प्रसिद्द फिल्म गीतकार 'प्रदीप जी' एक साथ प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ते थे और साथ ही 'हिन्दू हॉस्टल' में रहते थे और गहरे दोस्त भी थे। दोनों फिल्मों के शौक़ीन भी थे। अगस्त बयालीस के उन क्रांतिमय दिनों में विद्यार्थियों ने जान लड़ा दी, पुलिस ने गोलियां चलायी और विद्यार्थी संघ के नेत्रित्व में जुलूस निकला और लाल पद्मधर सिंह शहीद हो गए (उन्हीं के नाम पर प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के भवन का नाम 'लाल पद्मधर सिंह भवन' रखा गया)। हर हॉस्टल खाली करा दिए गए और अनिश्चित काल के लिए विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया।
लेकिन फिल्मों के शौक़ीन ये दोनों महारथी घर ना लौट मुंबई होते हुए पूना के प्रभात स्टूडियो पहुँच गए, फिल्मों में भाग्य आजमाने। घर में कुहराम मच गया। क्योंकि अफवाह थी (शायद सत्य भी) कि पुलिस ने ना जाने कितने विद्यार्थियों को गोलियों से भून, जला कर गंगा में बहा दिया था। खोजबीन हुई और चाचाजी के ना मिलने पर परिवार ने मरा समझ लिया। पर सबूत और लाश ना मिलने के कारण एक आशा भी थी कि शायद जीवित हो और किसी अनजान जगह, कैद में हो अंगरेजी शासन के। बहरहाल कद काठी, पौरुषीय व्यक्तित्व के 'रामसिंह' को कांट्रेक्ट मिल गया प्रभात में 'हीरो' का और सहचर 'पंडित' (चाचाजी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे) प्रदीप साथ थे ही। जहाँ तक मैं जान पाया उस दरमियाँ चाचा रामसिंह ने प्रभात की ६-७ फिल्मे हीरो के रूप में की और स्थापित भी हो गए (रणजीत कौर उनके साथ हिरोईन हुआ करती थीं, जो बाद में उनकी (उप) पत्नी बनीं (ठाकुरों में शादियाँ जल्दी हुआ करती थीं और चाचाजी दो बेटों के बाप थे)। वहीं उनके दोस्तों में गुरुदत्त (जो प्रभात में कोरिओग्रफ़र थे) और देव आनंद भी शामिल हुए (जो उस वक्त स्ट्रगलर थे)। चाचाजी को सफलता तो जल्दी ही मिल गयी पर स्थाई ना रह सकी और के. एन. सिंह (वे भी उनके दोस्त थे) की तरह हीरो से विलेन बनना पड़ा।
दादा, जिस सुरिंदर कौर के 'शहीद' के प्रसिद्द उद्धृत गीत 'बदनाम ना हो जाये........' को आपने सुनवाया, उसी फिल्म में दिलीप कुमार हीरो थे, कामिनी कौशल हिरोईन और 'चाचा' रामसिंह विलेन थे। और उसका प्रसिद्द गीत, जो शायद अब भुला दिया गया है, 'वतन की राह पे वतन के नौजवाँ शहीद हो', सुपरहिट था। बहरहाल मुद्दे पर आता हूँ। अरसे बाद पता चला कि चाचा रामसिंह 'शहीद' नहीं हुए थे, फिल्मों में घुस गए थे और खानदान का कलंक हो गए थे। 'मिरासी' बन और रणजीत कौर को बीवी बनाने के एवज में, 'छुटायल' करार कर दिए गए थे और उनके माहिम के बंगले पर जाना और मिलना पारिवारिक निषेध था। ( मैं भी 'छुटायल' घोषित हो सकता था)। लेकिन फिल्मों का फिर चस्का लग गया था और बहाना बना कर पहुँच जाता था। चाचा भी उत्फुल्लित हो जाते थे कि परिवार का कोई सदस्य नियमों को तोड़ घर आता था। एक कारण और था। वहीं पर पहली बार जाना कि तंदूरी चिकन और कोका कोला क्या होता है और एकाध दोस्तों को भी साथ ले लेता था रुआब जताने के लिए। पंडितजी यानी प्रदीप जी भी अक्सर शाम वहां मौजूद होते थे 'जलपान' करने। वे कभी भी घर पर नहीं पीते थे, पी पाकर ही घर आते थे और चच्चाजी जैसा स्थान कहाँ पाते, प्रेम स्नेह दोस्ती का। वे परदे के नहीं थे तो मैं उनको पहचानता भी नहीं था। लगता था कि चाचाजी के अनगिनत संबंधों में से कोई होगा। एक दिन जब दोनों रसपान कर रहे थे, बरसात थी और कोई नहीं था तो चाचाजी ने पूछ लिया कि सिनेमा देखता भी है या दद्दा की तरह गांधी वाला है। मैंने कहा दद्दा के साथ ही 'जागृति' देखी और वाकया बता दिया। ठठाकर हँसे वो और कहा कि "अब लगता है कि परिवार में शामिल किया जा सकता हूँ"। फिर पूछा कि क्या अच्छा लगा 'जागृति' में। मैंने कहा कि 'आओ बच्चों ...........वन्दे मातरम'। फिर पंडितजी और चाचाजी दोनों ने ठहाके लगाये। मैं चकित कि कोई भूल, गुस्ताखी तो नहीं हो गयी? फिर बोले बेटा इसी पंडित ने लिखा और गाया है, सुनेगा? मैं स्तब्ध। चाचाजी ने कहा कि "यार पंडित चल सुना दे बच्चों को"।
प्रदीप जी ने पूछा कि गाना याद है? मैंने विश्वास पूर्वक कहा कि हाँ पूरा याद है। उन्होंने गाने के लिए कहा। मैंने और साथ के दो लड़कों ने सस्वर सुना दिया। प्रदीपजी का वह संतुष्टिपूर्ण आनंदित चेहरा अब भी याद है। चाचा से मजाक में कहा कि "ठाकुर तेरे जैसे हीरो हिरोइन विलेन आते जाते रहेंगे पर मेरी आवाज़ और लिखा लम्बे वक्त तक याद रहेगा, भले मेरा नाम कोई ना जाने। अब बोल कौन बड़ा है, तू कि मैं"। चाचा ने कहा अरे छोड़ बेटे को गा के सुना"। समा बंध गया। प्रदीप जी ने कहा ठीक है, मैं बेटा मैं गाऊँगा पर वन्दे मातरम जहाँ आता है तुम लोग गाना। मैंने अपने दोनों दोस्तों को देखा। उनका आत्मविश्वास और आनंद मुझसे कम नहीं था। फिर उनके स्वर में 'आओ बच्चों' गूंजा और हमने पूरे जोश से हर अंतरे के बाद 'वन्दे मातरम' गुंजा दिया।
पता नहीं, शायद नियति सब कुछ एक 'ग्रैंड डिजाईन' के तहत सब तय कर लेती है। दृश्य श्रव्य माध्यम को जो कम आंकते हों या नज़रंदाज़ करते हों, उनसे मैं सिर्फ यह कहूँगा कि आज मैं अपनी भारत माता को समर्पित जो फिल्म बनाने को प्रतिबद्ध और समर्पित हूँ, उसके पीछे अचेतन में 'जागृति' और प्रदीप जी का 'आओ बच्चों ..........वन्दे मातरम' ही है।
सुजॉय दा, बहुत सारे लोग, जिनमे देश और देशभक्ति बसती है, मुझसे भी अच्छा कुछ ले आयेंगे। लेकिन मेरी इच्छा है कि मुझ जैसे बहुत सारे इस गीत की सिफारिस करें, तभी यह 'वन्दे मातरम' चुना जाये। सिर्फ मेरी चाहत पर नहीं। और अगर ऐसा हो तो मेरे द्वारा लिखे और संगीत बद्ध 'माता तेरी जय हो' का भी लिंक दे दें, जो प्रदीप जी की प्रेरणा की एक छोटी सी अनुगूंज है और 'आवाज़' पर प्रस्तुत की जा चुकी है। आपका यह 'कुछ हटके' बहुत ही सार्थक प्रयास है। ताजगी भी है, उद्देश्पूर्ण भी। ऐसे ही यह आनंद बनाये रखें।
'हिन्दयुग्म' की पूरी टीम को साधुवाद स्वार्थरहित प्रयोजन के लिए।
सप्रेम, सस्नेह,
राज सिंह
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राज सिंह जी, और हम क्या कहें, आपने फ़िल्म 'जागृति' और कवि प्रदीप जी से आपकी मुलाक़ात और उनकी बोलती हुई आवाज़ में उनके सामने बैठकर उनसे यह गीत सुनना और उनके साथ कोरस वाले जगहों पर 'वंदेमातरम' कहना, आपके लिए कितना रोमांचकर अनुभव रहा होगा और आज भी उसे याद कर कितना रोमांच आप महसूस करते होंगे, इसका अंदाज़ा हम भली भाँति लगा सकते हैं। इसलिए चाहे कोई और फ़रमाइश करे या ना करे, आज तो इस गीत को यहाँ बजाये बिना अगर इस स्तम्भ को समाप्त कर देंगे तो यह अधूरी ही रह जाएगी। आइए ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर सुना जाए राज सिंह जी की यादों में बसे फ़िल्म 'जागृति' के इस यादगार गीत को जिसे लिखा व गाया है कवि प्रदीप ने, और स्वरबद्ध किया है हेमन्त कुमार ने।
गीत - आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की
और राज सिंह जी के अनुरोध पर ये रहा लिंक उन्ही के द्वारा लिखे और स्वरबद्ध गीत "माता तेरी जय हो" का...
गीत - माता तेरी जय हो
दोस्तों, आप सब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हमारे इस नए साप्ताहिक पेशकश में जिस तरह से सहयोग दे रहे हैं, हमारा जिस तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं, उसके लिए हम आप सभी के दिल से आभारी हैं। जिन पाठकों व श्रोताओं ने अब तक हमें ईमेल नहीं भेजा, उनसे भी हमारा निवेदन है कि यह सुनहरा मौका है कि हम आप ही की यादों, संस्मरणों, अनुभवों, फ़रमाइश के गानों, और आप ही के दिल की बातों को इस साप्ताहिक विशेषांक में स्थान देते हैं। आप सभी से निवेदन है कि इसे आगे बढ़ाने और जारी रखने में हमें सहयोग दें और हमें ईमेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। और अब स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ हम आज के लिए आपसे इजाज़त चाहते हैं, कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में एक नई शृंखला के साथ पुन: हाज़िर होंगे, जय हिंद!
प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी
Comments
Aapke sansmaran ke liye.
Maine bhi aapki hi tarah apne bachpan men Jagriti kai kai baar dekhi. Sach men jab bhi uske geet parde par aate, poora cinema hall Vande Mataram ki awaz se goonj uthta tha. Hum Laye hain toofan se kishti nikal ke bajne ke samay Jai Hind ka ghosh bhi goonjta tha.
Avadh Lal
अवध जी की टिप्पणी पढ़ अपार हर्ष हुआ . हमारे ज़माने के लोग यह आनंद जान समझ सकते हैं .मेरा ख्याल है आज की पीढी के लिए भी यह गीत अजर अमर की श्रेणी में ही होगा .
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!