ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 451/2010/151
फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर से लेकर ५० और ६० के दशकों में पूरे शबाब पर रहने के बाद ७० के दशक के आख़िर से धीरे धीरे ख़त्म होता जाता है। और इस बारे में यही आम धारणा भी है। ८० के दशक में फ़िल्मों की कहानी ही कहिए, फ़िल्म और संगीत के बदलते रूप ही कहिए, या लोगों की रुचि ही कहिए, जो भी है, हक़ीक़त तो यही है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत एक बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा। कुछ फ़िल्मों, कुछ गीतों और कुछ गिने चुने गीतकारों और संगीतकारों को छोड़ कर ज़्यादातर गानें ही चलताऊ क़िस्म के बने। लेकिन जैसा कि हमने "कुछ' शब्द का प्रयोग किया, तो कुछ गानें ऐसे भी बनें उस दशक में दोस्तों जो उतने ही सुनहरे हैं जितने कि फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीत। दोस्तों, कुछ ऐसे ही सुनहरी ग़ज़लों को चुन कर आज से अगले दस कड़ियों में पिरो कर हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। चारों तरफ़ वीरानी हो, और ऐसे में कहीं से फूलों की ख़ुशबू आ कर हमारी सांसों को महका जाए, कुछ ऐसी ही बात थी इन ग़ज़लों में जो उस वीरान दौर को महका गई। महका क्या गई, आज भी वो महक फ़िज़ाओं में अपनी ख़ुशबू लुटा रही है। 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में हमने जिन १० ग़ज़लों को चुना है वो दस अलग अलग शायरों के क़लम से निकली हुई हैं। तो आइए शुरुआत की जाए इस शृंखला की। दोस्तों, कल यानी कि ३१ जुलाई को मोहम्मद रफ़ी साहब की पुण्यतिथि थी। तो क्यों ना इस महकती शृंखला की शुरुआत रफ़ी साहब की गायी हुई ८० के दशक के एक ग़ज़ल से ही कर दी जाए! ऐसे में बस एक ही यादगार ग़ज़ल ज़हन में आती है। चन्द्राणी मुखर्जी के साथ उनकी गायी हुई फ़िल्म 'पूनम' की ग़ज़ल "मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता"। पहली बार 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गूंज रहा है अनु मलिक का संगीत, और वह भी उनका पहला पहला गीत। इस ग़ज़ल को लिखा था अनु मलिक के मामा, यानी गीतकार और शायर हसरत जयपुरी साहब ने। 'पूनम' १९८१ की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर और पूनम ढिल्लों। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन यह ग़ज़ल सदाबहार बन कर रह गया।
बरसों पहले अनु मलिक साहब विविध भारती में तशरीफ़ लाए थे फ़ौजी जवानों के लिए 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु। उसमें उन्होने इस ग़ज़ल का भी ज़िक्र किया था, और इसकी रिकार्डिंग् से जुड़ी और ख़ास तौर से रफ़ी साहब से जुड़ी संस्मरणों का भी तफ़सील से ख़ुलासा लिया था। आइए उसी हिस्से को यहाँ पेश करते हैं। "फ़िल्मी दुनिया में जगह बनाने के लिए मुझे बेहद संघर्ष करना पड़ा। रोशनी की किरण बन कर आए श्री हरमेश मल्होत्रा जी। सब से पहले चांस मुझे फ़िल्म 'पूनम' में हरमेश मल्होत्रा जी ने दिया। उसका एक गीत बहुत ही ज़्यादा मशहूर हुआ, गीत के बोल मैं कुछ कहने के बाद सुनाना चाहता हूँ क्योंकि पहले मैं इस गाने के साथ मोहम्मद रफ़ी साहब का नाम जोड़ना चाहता हूँ जिन्होने मेरा पहला गाना गाया। रफ़ी साहब से मेरी बात हुई कि रफ़ी साहब, मुझे इतनी बड़ी पिक्चर मिली है, संगीतकार बनने का मौका मिला है, और मेरी ज़िंदगी का पहला गाना आप गाएँगे। मुस्कुराये, और बोले कि बेटा, कल सुबह मेरे घर आ जाना। ९ बजे का रिहर्सल का वक़्त हमने फ़िक्स किया। ९ बजे के बजाए मैं इतना एक्साइटेड था कि मैं ८ बजे ही पहुँच गया। वहाँ जाके देखा कि रफ़ी साहब अपने बाग़ में, अपने गार्डन में चुप चाप बैठे हुए हैं। उन्होने मुझे देखा, बोले, अरे, ९ बजे का वक़्त था, तुम ८ बजे ही आ गये! मैं डर गया, कहीं मुझे डांट ना दें। मुस्कुराये, बोले, चलो, मेरे रिहर्सल रूम में चलो। रफ़ी साहब पाँच वक़्त के नमाज़ी थे। इतना नूर मैंने किसी के चहरे पर नहीं देखा। सब से अच्छी बात मुझे रफ़ी साहब के बारे में यह लगी कि उन्होने कभी मुझे छोटा संगीतकार नहीं समझा। मेरा नाम ही क्या था, मुझे कौन जानता था, मुझे ऊँचा दर्जा दिया, प्यार से मेरा गीत सुना। अपने सजेशन्स मुझे दिए। रिकार्डिंग् होने के बाद रफ़ी साहब ने मेरे कंधे पे हाथ रखा और कहा कि बेटा, इस गाने के साथ तुमने मेरी २० साल की ज़िंदगी बढ़ा दी। अजीब इत्तेफ़ाक़ की बात है, कहाँ वो कह रहे थे कि तुम्हारे गीत से २० साल की ज़िंदगी बढ़ गई, बड़े अफ़सोस से कहना पड़ता है कि मेरे इस गाने को गाने के कुछ ही दिनों बाद वो इस दुनिया से चल बसे। जी हाँ, यह भी सुन कर आप लोग हैरान होंगे कि उनकी ज़िंदगी का आख़िरी गाना उन्होने मेरे लिए गाया। फ़िल्म 'पूनम' का गीत। २७ जुलाई को उन्होने यह गीत रिकार्ड किया, ३० जुलाई की रात वो गुज़र गए।" अब इसके बाद और क्या कहें दोस्तों, बस इस ग़ज़ल के तमाम शेर नीचे लिख रहे हैं। क्या ख़ूबसूरत शेर कहें हैं हसरत साहब ने। नायक के तमाम शरारत भरे इल्ज़ामों का नायिका किस ख़ूबसूरती से जवाब देती है, इस ग़ज़ल को सुन कर दिल से बस एक ही आवाज़ निकलती है, "वाह"!
मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता,
के जैसे रंग लाती है शराब आहिस्ता आहिस्ता।
अभी तो तुम झिझकते हो, अभी तो तुम सिमटते हो,
के जाते जाते जाएगा हिजाब आहिस्ता आहिस्ता।
हिजाब अपनों से होता है, नहीं होता है ग़ैरों से,
कोई भी बात बनती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता।
अभी कमसीन हो क्या जानो, मोहब्बत किसको कहते हैं,
बहारें तुमपे लाएंगी शबाब आहिस्ता आहिस्ता।
बहारें आ चुकी हम पर ज़रूरत बाग़बाँ की है,
तुम्हारे प्यार का दूँगी जवाब आहिस्ता आहिस्ता।
क्या आप जानते हैं...
कि "आहिस्ता आहिस्ता" से कई ग़ज़लें लिखी गई हैं। मूल ग़ज़ल है "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" जिसे लिखा था १९-वीं सदी के शायर अमीर मीनाई ने। इस ग़ज़ल को फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' में लता-किशोर ने गाया था। इसी ग़ज़ल से प्रेरणा लेकर हसरत जयपुरी ने फ़िल्म 'पूनम' में ग़ज़ल लिखी और निदा फ़ाज़ली ने लिखे फ़िल्म 'आहिस्ता आहिस्ता' की ग़ज़ल "नज़र से फूल चुनती है नज़र आहिस्ता आहिस्ता"।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस मास्टर पीस फिल्म में एक से बढ़कर एक ग़ज़लें थी, शायर बताएं - ३ अंक.
२. इस फिल्म की एक रिमेक भी बनी जिसमें जावेद अख्तर साहब ने बोल लिखे, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
३. अभिनय और गायन का उत्कृष्ट मिलन है ये गीत, अभिनेत्री और गायिका बताएं - २ अंक.
४. फिल्म के निर्देशक का नाम बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
आलेख पढ़ कर आप लोग समझ गए होंगें कि क्यों हम 'पूनम' को अनु की पहली फिल्म मान रहे हैं. हो सकता है हंटरवाली को खुद अनु मिल्क भूलना चाह रहे हों...खैर हमें सही जवाब मिले, शरद जी, पवन जी, इंदु जी और किश जी के, सभी को बधाई.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर से लेकर ५० और ६० के दशकों में पूरे शबाब पर रहने के बाद ७० के दशक के आख़िर से धीरे धीरे ख़त्म होता जाता है। और इस बारे में यही आम धारणा भी है। ८० के दशक में फ़िल्मों की कहानी ही कहिए, फ़िल्म और संगीत के बदलते रूप ही कहिए, या लोगों की रुचि ही कहिए, जो भी है, हक़ीक़त तो यही है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत एक बहुत ही बुरे वक़्त से गुज़रा। कुछ फ़िल्मों, कुछ गीतों और कुछ गिने चुने गीतकारों और संगीतकारों को छोड़ कर ज़्यादातर गानें ही चलताऊ क़िस्म के बने। लेकिन जैसा कि हमने "कुछ' शब्द का प्रयोग किया, तो कुछ गानें ऐसे भी बनें उस दशक में दोस्तों जो उतने ही सुनहरे हैं जितने कि फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के गीत। दोस्तों, कुछ ऐसे ही सुनहरी ग़ज़लों को चुन कर आज से अगले दस कड़ियों में पिरो कर हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। चारों तरफ़ वीरानी हो, और ऐसे में कहीं से फूलों की ख़ुशबू आ कर हमारी सांसों को महका जाए, कुछ ऐसी ही बात थी इन ग़ज़लों में जो उस वीरान दौर को महका गई। महका क्या गई, आज भी वो महक फ़िज़ाओं में अपनी ख़ुशबू लुटा रही है। 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में हमने जिन १० ग़ज़लों को चुना है वो दस अलग अलग शायरों के क़लम से निकली हुई हैं। तो आइए शुरुआत की जाए इस शृंखला की। दोस्तों, कल यानी कि ३१ जुलाई को मोहम्मद रफ़ी साहब की पुण्यतिथि थी। तो क्यों ना इस महकती शृंखला की शुरुआत रफ़ी साहब की गायी हुई ८० के दशक के एक ग़ज़ल से ही कर दी जाए! ऐसे में बस एक ही यादगार ग़ज़ल ज़हन में आती है। चन्द्राणी मुखर्जी के साथ उनकी गायी हुई फ़िल्म 'पूनम' की ग़ज़ल "मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता"। पहली बार 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गूंज रहा है अनु मलिक का संगीत, और वह भी उनका पहला पहला गीत। इस ग़ज़ल को लिखा था अनु मलिक के मामा, यानी गीतकार और शायर हसरत जयपुरी साहब ने। 'पूनम' १९८१ की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे राज बब्बर और पूनम ढिल्लों। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन यह ग़ज़ल सदाबहार बन कर रह गया।
बरसों पहले अनु मलिक साहब विविध भारती में तशरीफ़ लाए थे फ़ौजी जवानों के लिए 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु। उसमें उन्होने इस ग़ज़ल का भी ज़िक्र किया था, और इसकी रिकार्डिंग् से जुड़ी और ख़ास तौर से रफ़ी साहब से जुड़ी संस्मरणों का भी तफ़सील से ख़ुलासा लिया था। आइए उसी हिस्से को यहाँ पेश करते हैं। "फ़िल्मी दुनिया में जगह बनाने के लिए मुझे बेहद संघर्ष करना पड़ा। रोशनी की किरण बन कर आए श्री हरमेश मल्होत्रा जी। सब से पहले चांस मुझे फ़िल्म 'पूनम' में हरमेश मल्होत्रा जी ने दिया। उसका एक गीत बहुत ही ज़्यादा मशहूर हुआ, गीत के बोल मैं कुछ कहने के बाद सुनाना चाहता हूँ क्योंकि पहले मैं इस गाने के साथ मोहम्मद रफ़ी साहब का नाम जोड़ना चाहता हूँ जिन्होने मेरा पहला गाना गाया। रफ़ी साहब से मेरी बात हुई कि रफ़ी साहब, मुझे इतनी बड़ी पिक्चर मिली है, संगीतकार बनने का मौका मिला है, और मेरी ज़िंदगी का पहला गाना आप गाएँगे। मुस्कुराये, और बोले कि बेटा, कल सुबह मेरे घर आ जाना। ९ बजे का रिहर्सल का वक़्त हमने फ़िक्स किया। ९ बजे के बजाए मैं इतना एक्साइटेड था कि मैं ८ बजे ही पहुँच गया। वहाँ जाके देखा कि रफ़ी साहब अपने बाग़ में, अपने गार्डन में चुप चाप बैठे हुए हैं। उन्होने मुझे देखा, बोले, अरे, ९ बजे का वक़्त था, तुम ८ बजे ही आ गये! मैं डर गया, कहीं मुझे डांट ना दें। मुस्कुराये, बोले, चलो, मेरे रिहर्सल रूम में चलो। रफ़ी साहब पाँच वक़्त के नमाज़ी थे। इतना नूर मैंने किसी के चहरे पर नहीं देखा। सब से अच्छी बात मुझे रफ़ी साहब के बारे में यह लगी कि उन्होने कभी मुझे छोटा संगीतकार नहीं समझा। मेरा नाम ही क्या था, मुझे कौन जानता था, मुझे ऊँचा दर्जा दिया, प्यार से मेरा गीत सुना। अपने सजेशन्स मुझे दिए। रिकार्डिंग् होने के बाद रफ़ी साहब ने मेरे कंधे पे हाथ रखा और कहा कि बेटा, इस गाने के साथ तुमने मेरी २० साल की ज़िंदगी बढ़ा दी। अजीब इत्तेफ़ाक़ की बात है, कहाँ वो कह रहे थे कि तुम्हारे गीत से २० साल की ज़िंदगी बढ़ गई, बड़े अफ़सोस से कहना पड़ता है कि मेरे इस गाने को गाने के कुछ ही दिनों बाद वो इस दुनिया से चल बसे। जी हाँ, यह भी सुन कर आप लोग हैरान होंगे कि उनकी ज़िंदगी का आख़िरी गाना उन्होने मेरे लिए गाया। फ़िल्म 'पूनम' का गीत। २७ जुलाई को उन्होने यह गीत रिकार्ड किया, ३० जुलाई की रात वो गुज़र गए।" अब इसके बाद और क्या कहें दोस्तों, बस इस ग़ज़ल के तमाम शेर नीचे लिख रहे हैं। क्या ख़ूबसूरत शेर कहें हैं हसरत साहब ने। नायक के तमाम शरारत भरे इल्ज़ामों का नायिका किस ख़ूबसूरती से जवाब देती है, इस ग़ज़ल को सुन कर दिल से बस एक ही आवाज़ निकलती है, "वाह"!
मोहब्बत रंग लाएगी जनाब आहिस्ता आहिस्ता,
के जैसे रंग लाती है शराब आहिस्ता आहिस्ता।
अभी तो तुम झिझकते हो, अभी तो तुम सिमटते हो,
के जाते जाते जाएगा हिजाब आहिस्ता आहिस्ता।
हिजाब अपनों से होता है, नहीं होता है ग़ैरों से,
कोई भी बात बनती है जनाब आहिस्ता आहिस्ता।
अभी कमसीन हो क्या जानो, मोहब्बत किसको कहते हैं,
बहारें तुमपे लाएंगी शबाब आहिस्ता आहिस्ता।
बहारें आ चुकी हम पर ज़रूरत बाग़बाँ की है,
तुम्हारे प्यार का दूँगी जवाब आहिस्ता आहिस्ता।
क्या आप जानते हैं...
कि "आहिस्ता आहिस्ता" से कई ग़ज़लें लिखी गई हैं। मूल ग़ज़ल है "सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" जिसे लिखा था १९-वीं सदी के शायर अमीर मीनाई ने। इस ग़ज़ल को फ़िल्म 'दीदार-ए-यार' में लता-किशोर ने गाया था। इसी ग़ज़ल से प्रेरणा लेकर हसरत जयपुरी ने फ़िल्म 'पूनम' में ग़ज़ल लिखी और निदा फ़ाज़ली ने लिखे फ़िल्म 'आहिस्ता आहिस्ता' की ग़ज़ल "नज़र से फूल चुनती है नज़र आहिस्ता आहिस्ता"।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस मास्टर पीस फिल्म में एक से बढ़कर एक ग़ज़लें थी, शायर बताएं - ३ अंक.
२. इस फिल्म की एक रिमेक भी बनी जिसमें जावेद अख्तर साहब ने बोल लिखे, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
३. अभिनय और गायन का उत्कृष्ट मिलन है ये गीत, अभिनेत्री और गायिका बताएं - २ अंक.
४. फिल्म के निर्देशक का नाम बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
आलेख पढ़ कर आप लोग समझ गए होंगें कि क्यों हम 'पूनम' को अनु की पहली फिल्म मान रहे हैं. हो सकता है हंटरवाली को खुद अनु मिल्क भूलना चाह रहे हों...खैर हमें सही जवाब मिले, शरद जी, पवन जी, इंदु जी और किश जी के, सभी को बधाई.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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PAWAN KUMAR
अवध लाल