ये साये हैं....ये दुनिया है....जो दिखता है उस पर्दे के पीछे की तस्वीर इतने सरल शब्दों में कौन बयां कर सकता है गुलज़ार साहब के अलावा
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 462/2010/162
मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था। आशा जी की ही आवाज़ में फ़िल्म में एक और मुजरा शैली में लिखा हुआ ग़ज़ल था - "आप आए ग़रीबख़ाने में, आग सी लग गई ज़माने में"। जब भी गुलज़ार और पंचम साथ में आए, गाना ऐसा बना कि बस कालजयी बन कर रह गया। अपने इस सुरीले दोस्त के असमय जाने का ग़म गुलज़ार साहब को हमेशा रहा है। पंचम को याद करते हुए गुलज़ार साहब कहते हैं - "तुम्हारे साथ बैठकर सीरियस गीत लिखना बड़ा मुश्किल होता था। तुम्हारे प्रैंक्स ख़त्म नहीं होते। एक बार एक संजीदा गाना लिखते वक़्त तुमने कहा था कि तुम क्यों बंद बोतल की तरह सीरियस बैठे हो? कितने कम लोगों को यह मालूम है कि सिर्फ़ धुन बनाने से ही गाना नहीं बन जाता। तुम्हारे शब्दों में गाने को नरिश (nourish) और परवरिश करनी पड़ती है, कई घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक गाते रहने के बाद ही गाने में चमक आती है। पहले तुम्हारे पीठ पीछे कहता था, अब तुम्हारे सामने कहता हूँ पंचम कि तुम जितने अच्छे क्रीएटिव फ़नकार थे उतने ही बड़े क्राफ़्ट्समैन भी थे।"
फ़िल्म जगत में सितारा बनने का ख़्वाब बहुत से लोग देखते हैं। वो इस जगमगी दुनिया की चमक धमक से इतना ज़्यादा प्रभावित हो जाते हैं कि इस तेज़ चमक के पीछे का अंधेरा कई बार दिखाई नहीं देता। उन लोगों के लिए यह गीत है। ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की। पंचम के जाने के बाद गुलज़ार साहब भी अकेले रह गए थे, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों के बीच घिर गए थे। ऐसे में अपने परम मित्र को याद करते हुए अपने शायराना अंदाज़ में उन्होंने कहा था - "याद है बारिशों के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं। और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों पास पास। उस दिन हम पटरी पर बैठे उस मुसाफ़िर का इंतेज़ार कर रहे थे, जिसे आना था पिछली शब, लेकिन उसकी आमद का वक़्त टलता रहा। हम ट्रेन का इंतेज़ार करते रहे, पर ना ट्रेन आयी और ना वो मुसाफ़िर। तुम युंही धुंध में पाँव रख कर गुम हो गए। मैं अकेला हूँ धुंध में पंचम!"
ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की,
भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की।
यहाँ कोई साहिल सहारा नहीं है,
कहीं डूबने को किनारा नहीं है,
यहाँ सारी रौनक रुसवाइयों की।
कई चाँद उठकर जले बुझे,
बहुत हमने चाहा ज़रा नींद आए,
यहाँ रात होती है बेदारियों की।
यहाँ सारे चेहरे है माँगे हुए से,
निगाहों में आँसू भी टाँगे हुए से,
बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की।
क्या आप जानते हैं...
कि १९८८ में एक बच्चों की फ़िल्म बनी थी 'चत्रण' जिसमें गुलज़ार, पंचम और आशा भोसले की तिकड़ी के गानें थे। इस फ़िल्म के "ज़िंदगी ज़िंदगी ज़िंदगी ख़ूबसूरत है तू जन्म लेती हुई", "धूप छाँव में ऐसी बुनी ज़िंदगी", "न वो दरिया रुका न किनारा मिला" और "सूखे गीले से मौसम गुज़रते हुए" जैसे काव्यात्मक गीतों का न सुना जाना वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस फिल्म की कहानी भी गुलज़ार साहब ने लिखी है, मुख्य किरदार एक पोस्टमैन का है, किसने निभाया है इसे - २ अंक.
२. लता के गाये इस गीत में संगीत किसका है - २ अंक.
३. फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
भारत में लगता है सब जश-ए-आजादी के उत्साह में डूब गए, सारे जावाब कनाडा से आये मगर हम नहीं समझ पाए कि आप सब किस गीत की बात कर रहे हैं जिसे गुलज़ार साहब ने लिखा है. अंक तो नहीं मिलेगा, पर आप सब ने कोशिश की यही काफी है
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था। आशा जी की ही आवाज़ में फ़िल्म में एक और मुजरा शैली में लिखा हुआ ग़ज़ल था - "आप आए ग़रीबख़ाने में, आग सी लग गई ज़माने में"। जब भी गुलज़ार और पंचम साथ में आए, गाना ऐसा बना कि बस कालजयी बन कर रह गया। अपने इस सुरीले दोस्त के असमय जाने का ग़म गुलज़ार साहब को हमेशा रहा है। पंचम को याद करते हुए गुलज़ार साहब कहते हैं - "तुम्हारे साथ बैठकर सीरियस गीत लिखना बड़ा मुश्किल होता था। तुम्हारे प्रैंक्स ख़त्म नहीं होते। एक बार एक संजीदा गाना लिखते वक़्त तुमने कहा था कि तुम क्यों बंद बोतल की तरह सीरियस बैठे हो? कितने कम लोगों को यह मालूम है कि सिर्फ़ धुन बनाने से ही गाना नहीं बन जाता। तुम्हारे शब्दों में गाने को नरिश (nourish) और परवरिश करनी पड़ती है, कई घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक गाते रहने के बाद ही गाने में चमक आती है। पहले तुम्हारे पीठ पीछे कहता था, अब तुम्हारे सामने कहता हूँ पंचम कि तुम जितने अच्छे क्रीएटिव फ़नकार थे उतने ही बड़े क्राफ़्ट्समैन भी थे।"
फ़िल्म जगत में सितारा बनने का ख़्वाब बहुत से लोग देखते हैं। वो इस जगमगी दुनिया की चमक धमक से इतना ज़्यादा प्रभावित हो जाते हैं कि इस तेज़ चमक के पीछे का अंधेरा कई बार दिखाई नहीं देता। उन लोगों के लिए यह गीत है। ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की। पंचम के जाने के बाद गुलज़ार साहब भी अकेले रह गए थे, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों के बीच घिर गए थे। ऐसे में अपने परम मित्र को याद करते हुए अपने शायराना अंदाज़ में उन्होंने कहा था - "याद है बारिशों के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं। और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों पास पास। उस दिन हम पटरी पर बैठे उस मुसाफ़िर का इंतेज़ार कर रहे थे, जिसे आना था पिछली शब, लेकिन उसकी आमद का वक़्त टलता रहा। हम ट्रेन का इंतेज़ार करते रहे, पर ना ट्रेन आयी और ना वो मुसाफ़िर। तुम युंही धुंध में पाँव रख कर गुम हो गए। मैं अकेला हूँ धुंध में पंचम!"
ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की,
भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की।
यहाँ कोई साहिल सहारा नहीं है,
कहीं डूबने को किनारा नहीं है,
यहाँ सारी रौनक रुसवाइयों की।
कई चाँद उठकर जले बुझे,
बहुत हमने चाहा ज़रा नींद आए,
यहाँ रात होती है बेदारियों की।
यहाँ सारे चेहरे है माँगे हुए से,
निगाहों में आँसू भी टाँगे हुए से,
बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की।
क्या आप जानते हैं...
कि १९८८ में एक बच्चों की फ़िल्म बनी थी 'चत्रण' जिसमें गुलज़ार, पंचम और आशा भोसले की तिकड़ी के गानें थे। इस फ़िल्म के "ज़िंदगी ज़िंदगी ज़िंदगी ख़ूबसूरत है तू जन्म लेती हुई", "धूप छाँव में ऐसी बुनी ज़िंदगी", "न वो दरिया रुका न किनारा मिला" और "सूखे गीले से मौसम गुज़रते हुए" जैसे काव्यात्मक गीतों का न सुना जाना वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण है।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस फिल्म की कहानी भी गुलज़ार साहब ने लिखी है, मुख्य किरदार एक पोस्टमैन का है, किसने निभाया है इसे - २ अंक.
२. लता के गाये इस गीत में संगीत किसका है - २ अंक.
३. फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
भारत में लगता है सब जश-ए-आजादी के उत्साह में डूब गए, सारे जावाब कनाडा से आये मगर हम नहीं समझ पाए कि आप सब किस गीत की बात कर रहे हैं जिसे गुलज़ार साहब ने लिखा है. अंक तो नहीं मिलेगा, पर आप सब ने कोशिश की यही काफी है
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
(Hum bhi vyasa thhe Swantantrata Diwas ke jashn mein)
Kishore
Canada
Naveen Prasad
Uttranchal, Foreign Worker in Canada
Pratibha K-S
Canada
"धूप छाँव में ऐसी बुनी ज़िंदगी",गुलजारजी ने लिखा ....और मैंने
हर सपने को पलकों की छाँव में बुना पलके बंद रखती हूं
उठाऊँगी तो आँसू की तरह लुढक कर बाहर आ जायेंगे .
है ना?