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नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे...रहबर पर चाँदपुरी का यकीन, साथ है मेहदी हसन की आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६२

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। शामिख जी की इस बार की फरमाईश हमारे लिए थोड़ी मुश्किल खड़ी कर गई। ऐसा नहीं है कि हमें गज़ल ढूँढने में मशक्कत करनी पड़ी...गज़ल तो बड़े हीं आराम से हमें हासिल हो गई, लेकिन इस गज़ल से जुड़ी जानकारी ढूँढने में हमें बड़े हीं पापड़ बेलने पड़े। हमें इतना मालूम था कि इस गज़ल में आवाज़ मेहदी हसन साहब की है और संगीत भी उन्हीं का है। हमारे पास उनसे जुड़े कई सारे वाकये हैं, जो हम वैसे भी आपके सामने पेश करने वाले थे। लेकिन हम चाहते थे कि हमारी यह पेशकश बस गायक/संगीतकार तक हीं सीमित न हों बल्कि गज़लगो को भी वही मान-सम्मान और स्थान मिले जो किसी गायक/संगीतकार को नसीब होता है और इसीलिए गज़लगो का जिक्र करना लाजिमी था। अब हम अगर इस गज़ल की बात करें तो लगभग हर जगह इस गज़ल के गज़लगो का नाम "कलीम चाँदपुरी" दर्ज है, लेकिन इस गज़ल के मक़ते में तखल्लुस के तौर पर "क़ामिल" सुनकर हमें उन सारे स्रोतों पर शक़ करना पड़ा। अब हम इस पशोपेश में हैं कि भाई साहब "चाँदपुरी" तो ठीक है, लेकिन आपका असल नाम क्या है..."कलीम" (जो थोड़ा अजीब लगता है) या फिर "क़ामिल"। अंतर्जाल को खंगालने से हमें इस बात का पता लगा कि "क़ामिल चाँदपुरी" नाम के एक शख्स थे तो जरूर..जिन्होंने १९६१ की फिल्म "सारा जहां हमारा" के लिए "है ये जमीन हमारी वो आसमां हमारा" लिखा था(इस गाने में आवाज़ थी मुकेश की)। लेकिन हद तो यह है कि इनके बारे में जोड़-घटाव करके बस इतनी हीं जानकारी मौजूद है। अब अगर बात करें "कलीम चाँदपुरी" की तो "मेहदी हसन" साहब के इस एलबम में एक और गज़ल(आज की गज़ल के अलावे) के सामने इन महाशय का नाम दर्ज है और वह गज़ल है "जब भी मैखाने से"। आप खुद देखिए कि चाँदपुरी साहब अपने इस शेर के माध्यम से मैकशों का हाल-ए-दिल किस तरह बयां कर गए हैं:

जब भी मैखाने से पीकर हम चले,
साथ लेकर सैकड़ों आलम चले।


यकीन मानिए इनके बारे में भी इससे ज्यादा जानकारी कहीं नहीं। तो हम आपसे दरख्वास्त करेंगे कि आपको अगर इनके(अव्वल तो यह मालूम करें कि शायर का सही नाम क्या है) बारें में कुछ भी पता चले तो हमें जरूर बताएँ...हमें इन जानकारियों की सख्त जरूरत है। शायराना चर्चा के बाद अब हम रूख करते हैं जानेमाने फ़नकार मेहदी हसन साहब की ओर। अभी हाल में हीं २० अक्टूबर २००९ को खां साहब पर पहली पुस्तक प्रकाशित की गई है। (रिपोर्ट:मीडिया खबर)गजल के आसमान के ध्रुवतारे मेहदी हसन पर लिखी गई पहली किताब ‘मेरे मेहदी हसन’ (हिंदी और उर्दू दोनों में) का विमोचन नई दिल्‍ली के दीन दयाल उपाध्‍याय मार्ग स्थित राजेंद भवन में राष्‍ट्रीय योजना आयोग की सदस्‍या डॉ. सईदा हमीद द्वारा 20 अक्‍तूबर को हुआ। मूल रूप से हिंदी में लिखी गई ‘मेरे मेहदी हसन’ पुस्‍तक के लेखक हैं भारतीय विदेश मंत्रालय के वरिष्‍ठ अधिकारी अखिलेश झा। इस अवसर पर मेहदी हसन साहब के बेटे शहजाद हसन ने कहा कि उनके पास अखिलेश झा का आभार व्‍यक्‍त करने के लिए शब्‍द नहीं हैं क्‍योंकि जो काम आजतक किसी ने पाकिस्‍तान में भी नहीं हुआ, (मेहदी हसन पर किताब के संदर्भ में) उसे अखिलेश ने करके दिखा दिया। इन पंक्तियों से यह जाहिर होता है कि खां साहब भले हों पाकिस्तान के लेकिन उन्हें चाहने वाले हिन्दुस्तान में कहीं ज्यादा हैं। कुछ दिनों पहले "अमर उजाला" में "केसरिया बालम आओनी पधारो म्हारे देस रे" शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित हुआ था, जिसके लेखक यही अखिलेश जी थे। इस आलेख में अखिलेश जी ने मेहदी हसन साहब से जुड़ी कई सारी बातों का जिक्र किया था। अखिलेश जी लिखते हैं:

मेहदी हसन! गज़ल की तरह हीं एक मखमली रूमानी नाम और दिलकश्तों के लिए एक रूहानी नाम। पहले गज़ल एक साहित्य की विधा थी, उसे संगीत की विधा बनाया मेहदी साहब ने। मेहदी हसन साहब ने गज़लों और फिल्मी गीतों के साथ-साथ खयाल, सूफी कलाम, ठुमरी, दादरा, राजस्थानी-पंजाबी लोकगीतों के साथ हीं हिन्दी गीत भी उतनी हीं शिद्दत से गाए। दुर्भाग्य से उनकी इस तरह की गायकी की रिकार्डिंग बहुत कम हीं उपलब्ध है। ...मेहदी साहब ने बुल्ले शाह के "जाणा मैं कौन बुल्लया, की जाणा मैं कौन" को अपनी रूहानी आवाज़ में इस तरह गाया है कि उनको सुनने के बाद आमतौर पर गाए जाने वाले सूफी कलामों में कुछ कमी-सी महसूस होने लगती है।...वैसे तो हीर की पहचान पंजाबी से है, पर मेहदी साहब ने राग भैरवी में उर्दू में लिखी हीर "तेरे बज़्म में आने से ऐ साकी" गाकर एक मिसाल कायम कर दी। इस हीर को सूफ़ी गुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम ने लिखा था। मेहदी साहब ने वारिस शाह के लिखे हीर भी गाए।...मेहदी साहब ठुमरी गायन में उस्ताद अब्दुल करीम खां, फैयाज खां, बड़े गुलाम अली खां और बरकत अली खां जैसे गायकों की श्रेणी में आते हैं। मेहदी साहब ने बोल-बांट और बोल-बनाव, दोनों तरह की ठुमरियाँ गाईं। ठुमरी के साथ-साथ मेहदी साहब के गाए दादर भी काफी लोकप्रिय हुए। इसका एक कारण यह था कि बड़े भाई पंडित गुलाम कादिर साहब के सान्निध्य में उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन विधाओं की प्रामाणिक शिक्षा मिली। इस तरह की शिक्षा पाकिस्तान के अन्य गायकों को नहीं मिली।...मेहदी हसन विभाजन के बाद भले हीं पाकिस्तान में जा बसे हों, लेकिन उनकी आत्मा हमेशा मारवाड़ में हीं रही। जब भी उन्हें मौका मिला, वे अपनी पैतृक गाँव लूना की धूल ले हीं जाते। वह जब भी लूना आते, उनके गाँव वाले उनसे "केसरिया बालम..." जरूर सुनते। वह कहा करते हैं कि "मारवाड़ी तो अपनी जबान में है, उसमें गाने का सुख अलग है।"...मेहदी साहब ने जिस भी जुबान में गाया, चाहे वह पंजाबी हो, उर्दू, हिंदी, सिंधी, बांग्ला, पश्तो, फारसी, अरबी या नेपाली, सबमें उन्हें खूब यश मिला। यही नहीं, एक बार उन्होंने अफ़्रीकी जुबान में भी गाना रिकार्ड किया। इस बारे में वह बताते हैं- "किसी ने मेरा नाम उन्हें बताया होगा। उन्होंने धुन सुनाई, बोल दिए, मैंने गा दिया।"

बातें तो होती हीं रहती हैं...कभी कम तो कभी ज्यादा। जैसे आज कहने को कुछ खास नहीं था, इसलिए आलेख छोटा रह गया। लेकिन कोई बात नहीं..हमारा मक़सद बस जानकारियाँ इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि गज़ल की एक ऐसी महफ़िल सजाना है, जिसका हर कोई लुत्फ़ उठा सके। तो अब वक्त है आज की गज़ल से मुखातिब होने का। "मेहदी हसन - द लीजेंड" एलबम में शामिल आठ गज़लों में से हम आपके लिए वह गज़ल चुनकर लाए हैं जिसमें हर आशिक की कोई न कोई दास्तां गुम है। आप खुद सुनिए और गुनिए कि क्या यह आपके साथ नहीं हुआ है:

मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे
ये जहर मेरे लहू में उतर गया कैसे

कुछ उसके दिल में ____ जरूर थी वरना
वो मेरा हाथ दबाकर गुजर गया कैसे

जरूर उसके तवज्जो की रहबरी होगी
नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे

जिसे भुलाये कई साल हो गये ’क़ामिल’
मैं आज उसकी गली से गुजर गया कैसे




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सराबों" और शेर कुछ यूं था -

अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के सराबों में मिलें

चूँकि इस गज़ल की फ़रमाईश शामिख जी ने हीं की थी, इसलिए उन्हें सही शब्द का पता होना हीं था। तो इस तरह सही शब्द पहचान कर महफ़िल की शोभा बने शामिख जी। यह बात अच्छी लगी कि आप औरों से पहले महफ़िल में हाज़िर हुए...जो पिछली तीन महफ़िलों से शरद जी नहीं कर पा रहे थे। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

वो सराबों के समंदर में उतर जाता है
गाँव को छोड़ के जब कोई शहर जाता है (परवेज़)

किस मुंह से कहें तुझसे समन्दर के हैं हक़दार
सेराब सराबों से भी हम हो गये होते (शहरयार)

रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफ़र! (गुलज़ार)

शामिख जी के बाद महफ़िल को रौशन किया सीमा जी ने। ये रही आपकी पेशकश:

सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं,
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं (हमारे अपने "प्रेमचंद सहजवाला")

सरों पे सायाफ़िग़न अब्र-ए-आरज़ू न सही
हमारे पास सराबों का सायबान तो है (अज्ञात)

मंजु जी, शुरू-शुरू में "सराब" का अर्थ न जानने से सकपकाई तो जरूर थीं, लेकिन एकबारगी जब उन्हें इसके मायने मालूम हुए तो फिर वो कहाँ थमने वाली थीं..यह रहा आपका शेर:

तमन्ना थी कि तुम्हारे करीब आ जाऊं
सराबों-सा ख्वाब दिल को बहला न सका

हमें लगता है कि दो सप्ताह का जो ब्रेक हो गया, इस कारण से बहुत सारे साथी अपनी महफ़िल में सही समय पर हाज़िर नहीं हो पाए। कोई बात नहीं..इस बार ऐसा नहीं होगा...यह यकीन है हमें।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

सही शब्द है - लगावट
शे’र पेश है :-
ये लगावट नहीं तो फिर क्या है
क़त्ल करके मुझे वो रोने लगा । (स्वरचित)

शरद तैलंग
seema gupta said…
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तेरी तरह कोई तेग़-ए-निगाह को आब तो दे
(ग़ालिब )
मस्ती में लगावट से उस आंख का ये कहना
मैख्‍़वार की नीयत हूँ मुमकिन है बदल जाना
(फ़िराक़ गोरखपुरी )
बेहयाई, बहक, बनावट नें,
कस किसे नहीं दिया शिकंजे में।
हित-ललक से भरी लगावट ने,
कर लिया है किसी ने पंजे में॥
(अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध )

regards
Shamikh Faraz said…
"लगावट"
गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
किसलिए यह मुझ से झूठी लगावट है
(विनय प्रजापति ‘नज़र’)
Shamikh Faraz said…
एक बार फिर आपका शुक्रगुजार हूँ. शुक्रिया तन्हा जी.
Shamikh Faraz said…
नतीजा लगावट का जाने क्या निकले
मोहब्बत में वो आजमा कर चले
unknown
Shamikh Faraz said…
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
(unknown)
Shamikh Faraz said…
हुस्न वालों में मोहब्बत की कमी होती है
चाहने वालों की तक़दीर बुरी होती है
इनकी बातों में बनावट ही बनावट देखी
शर्म आँखों में निगाहों में लगावट देखी
Manju Gupta said…
जवाब -लगावट
स्वरचित शेर -
उनकी लगावट से साँसे चल रहीं ,
नहीं तो कब के मर गये होते .

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