Skip to main content

सब कुछ करना इस दुनिया में, प्यार न करना भूल के...चेता रहे हैं आशा और एस डी बतीश साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 197

ज है '१० गायक और एक आपकी आशा' की सातवीं कड़ी। इस शृंखला में हम आप को सुनवा रहे हैं आशा भोंसले के साथ १० अलग अलग गायकों के गाये फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के १० युगल गीत। इन गायकों में से कुछ गायक हैं अपने ज़माने के मशहूर गायक, और कुछ हैं थोड़े से कम जाने पहचाने, जिन्हे हम कह सकते हैं कमचर्चित। आज ऐसे ही एक कमचर्चित गायक की बारी। ये गायक भी हैं और संगीतकार भी। फ़िल्म संगीत में ये कमचचित ज़रूर हो सकते हैं लेकिन संगीत के क्षेत्र में इनका नाम एक चमकता हुआ सितारा है जिन्होने संगीत के विकास में, संगीत के प्रचार में बेहद सराहनीय योगदान दिया है। ये हैं शिव दयाल बतीश, जिन्हे हम एस. डी. बतीश के नाम से भी जानते हैं, और जिन्होने कई गीत सिर्फ़ बतीश के नाम से भी गाए हैं। हम बतीश जी पर थोड़ी देर में आते हैं, आइए उससे पहले चलते हैं ५० के दशक के शुरुआती साल में। १९५१ में एक फ़िल्म आयी थी 'अदा'. १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' से शुरुआत करने के बाद इसके अगले ही साल संगीतकार मदन मोहन को अपना पहला बड़ा ब्रेक मिला शेखर और रेहाना अभिनीत देवेन्द्र गोयल साहब की ही फ़िल्म 'अदा' में। मदन मोहन लता जी को 'आँखें' में गवाना चाहते थे लेकिन बात नहीं बनी थी। पर 'अदा' से शुरु हुई लता-मदन मोहन की जोड़ी, जिसने आगे चलकर क्या रूप धारण किया यह शायद बताने की ज़रूरत नहीं। इस जोड़ी की बातें तो हम करते ही रहते हैं, चलिए आज बात की जाए मदन मोहन और आशा भोंसले की। मदन साहब अपनी इस दूसरी छोटी बहन आशा के बारे में बता रहे हैं, मौका वही, आशा भोंसले के फ़िल्मी गायन के २५ वर्ष पूरे हो जाने का जश्न, "मेरी अच्छी सी, छोटी सी बहन आशा के गानें के करीयर की सिल्वर जुबिली मनाई जा रही है, मुझे इतनी ख़ुशी हो रही है कि बयान नहीं कर सकता। ज्यों ज्यों वक़्त गुज़रता जाता है, आशा की आवाज़ और गाने का अंदाज़ और रोशन होते जाते हैं। याद्दाश्त ऐसी है कि जवाब नहीं, और आवाज़ का जादू बयान से बाहर। दिल बिल्कुल बच्चों के दिल की तरह है, बहुत साफ़ और बिल्कुल ईमोशनल। हाल ही में मेरे यहाँ रिहर्सल करने के लिए आयीं, और मैने और किसी का गाया हुआ गाना सुना दिया। बच्चों की तरह रोना शुरु कर दिया और कहने लगीं कि 'अब मुझसे और रिहर्सल नहीं हो सकेगी'। यह एक बहुत ही अजीब फ़नकार की निशानी है। और अगर ग़ौर से देखा जाए तो गुज़रे कई बरसों से आशा के गाने का निखार बढ़ता ही जाता है। दुआ है कि यह निखार युंही बढ़ता रहे और मेरी छोटी बहन हमेशा शोख़ और चुलबुली बनी रहे क्योंकि शोख़ी और चुलबुलापन इसके गाने की ख़ूबी है, और (हँसते हुए) मुझसे ज़रा कम लड़ा करे।"

फ़िल्म 'अदा' में लता जी के गाए "प्रीतम मेरी दुनिया में दो दिन तो रहे होते" और "साँवरी सूरत मन भायी रे पिया तोरी" जैसे गीत बेहद मशहूर हुए थे। आशा जी और एस. डी. बतीश ने 'अदा' में एक युगल गीत गाया था "सब कुछ करना इस दुनिया में प्यार न करना भूल के"। युं तो इस फ़िल्म में कई गीतकारों ने गीत लिखे जैसे कि राजा मेहंदी अली ख़ान, प्रेम धवन, बेहज़ाद लखनवी, लेकिन आशा-बतीश के गाए इस प्रस्तुत गीत को लिखा था सरस्वती कुमार 'दीपक' ने। दीपक जी ने इस फ़िल्म में गीता राय का गाया एक और गीत भी लिखा था "सच्ची बातें बताने में कैसी शर्म, हुए मेरे बलम हुए मेरे बलम"। दोस्तों, आइए आज शिव दयाल बतीश जी के फ़िल्म संगीत की थोड़ी से चर्चा की जाए। बतौर गायक उनके जो गीत लोकप्रिय हुए थे वे कुछ इस प्रकार हैं - "पगड़ी सम्भाल जट्टा" (गवाण्डी, १९४२), "ख़ामोश निगाहें ये सुनाती हैं कहानी" (दासी, १९४४), "मेरी मिट्टी की दुनिया निराली" (शाम सवेरा, १९४६), "क्या हमसे पूछते हो किधर जा रहे हैं हम" (आरसी, १९४७), "आँखें कह गईं दिल की बात" (लाडली, १९४९), "देख लिया तूने ग़म का तमाशा" (बेताब, १९५२), "जलाकर आग दिल में ज़िंदगी बरबाद करते हैं" (तूफ़ान, १९५४), इत्यादि। जुलाई १९४७ में पार्श्वगायक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके बतीश जी ने संगीतकार के रूप में कार्य शुरु किया और उनके संगीत से सज कर जो फ़िल्में आईं उनकी सूची इस प्रकार हैं। १९४८ - चुपके चुपके, बलमा, पतझड़ (ग़ुलाम हैदर के साथ); १९४९ - ख़ुश रहो; १९५२ - बहू बेटी, बेताब; १९५४ - अमर कीर्तन, हार जीत, तूफ़ान; १९५५ - दीवार; १९५८ - हम भी कुछ कम नहीं; १९५९ - एक अरमान मेरा, साज़िश, टीपू सुल्तान; १९६० - ज़ालिम तेरा जवाब नहीं। यह आशा जी पर केन्द्रित शृंखला है, इसलिए मुझे बतीश जी के संगीत निर्देशन में आशा जी का गाया एक गीत याद आ रहा है फ़िल्म 'एक अरमान मेरा' का, "ओ मेरे चांद तुम कहाँ"। राहिल गोरखपुरी के लिखे इस गीत में बड़ी ही वेदना भरी आवाज़ में आशा जी गाती हैं "ये उदास आसमान रात ये धुआँ धुआँ, ओ मेरे चांद तुम हो कहाँ, थक गई मेरी ज़ुबान आ गई लबों पे जान, ओ मेरे चांद तुम हो कहाँ"। वैसे आज का जो प्रस्तुत गीत है वह विरह और वेदना से कोसों दूर, एक हल्का फुल्का गीत है जिसमें नायिका प्यार न करने की बात करती है, जबकि नायक प्यार का वकालत करता है। यह गीत हमें फ़िल्म 'आर पार' के उस गीत की याद दिला देता है कि "मोहब्बत कर लो जी भर लो अजी किसने रोका है, पर बड़े गजब की बात है इसमें भी धोखा है"। सुनिए गीत और ख़ुद ही इस बात को महसूस कीजिए।



गीत के बोल-

सब कुछ करना इस दुनिया में
प्यार न करना भूल के
कभी किसी से अपनी आँखें
चार न करना भूल के
जी प्यार न करना भूल के
बतीश: सब कुछ कहना ये मत कहना
प्यार न करना भूल के
नज़रें मिला के उल्फ़त से
इन्कार न करना भूल के
आशा: जी प्यार न करना भूल के

आशा: प्यार किया था परवाने ने
शमा ने उसको जला दिया
बतीश: जलने का ही नाम है मिलना
प्यार ने उनको मिला दिया
आशा: मिलने की इस रीत को तुम
अख़्त्यार न करना भूल के
कभी किसी से अपनी आँखें
चार न करना भूल के
जी प्यार न करना भूल के
प्यार करोगे पछताओगे
ये दुनिया बदनाम करेगी
बदनाम करेगी
बतीश: लाख करे बदनाम मोहब्बत
अपना ऊँचा नाम करेगी \-2
आशा: ऐसे ऊँचे नाम का तुम
ब्योपार न करना भूल के
कभी किसी से अपनी आँखें
चार न करना भूल के
जी प्यार न करना भूल के
बतीश: प्यार करेंगे नहीं डरेंगे
बिना प्यार के दुनिया क्या है
दुनिया क्या है
आशा: बिना प्यार की दुनिया सच्ची
प्यार की दुनिया में धोखा है
बतीश: प्यार में धोखे की बातें
सरकार न करना भूल से
आशा: कभी किसी से

बतीश: सब कुछ कहना ये मत कहना
प्यार न करना भूल के
आशा: नज़रें मिला के उल्फ़त से
इन्कार न करना भूल के \-2

बतीश+आशा: सब कुछ कहना ये मत कहना
प्यार न करना भूल के
नज़रें मिला के उल्फ़त से
इन्कार न करना भूल के....


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. कल होंगें मुकेश साहब, आशा के साथ एक और युगल गीत में.
२. गीतकार हैं कमर जलालाबादी.
३. मुखड़े में शब्द है -"काफिला".

पिछली पहेली का परिणाम -
पूर्वी जी २२ अंकों पर पहुँचने के लिए आपको भी बधाई...अब आप भी पराग जी और रोहित के टक्कर में कड़ी हैं, वाह क्या रोचक मुकाबला है...मुझे उम्मीद है शरद जी और स्वप्न जी इसका पूरा आनंद ले रहे होंगे...पाबला जी महफिल की शान हैं इसमें कोई शक नहीं....सभी प्यारे श्रोताओं का आभार.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

purvi said…
yeh kafila hai pyaar ka, chalta hi jaayega
Manju Gupta said…
पूर्वी जी ९.९,०९ के खेल में जीत गयी . बधाई .
आपने सुना कि इस गाने में आशाजी के आवाज़ में उन दिनों की गायिकायें नूरजहां, या सुरैया का थोडा थोडा सा प्रभाव है.

बाद में कहीं लताजी की भी छाया है. मगर बाद में इस गुणी कलाकार नें ना केवल अपनी अलग अवाज़ बनाई बल्कि अलग पुख्ता पहचान भी बनाई.

आशाजी अद्वितीय हैं.
Shamikh Faraz said…
पाबला जी ने तो पूरा गाना ही पढ़वा दिया.
Parag said…
दिलीप जी
मेरे ख़याल से आशा जी की आवाज़ पर सबसे ज्यादा प्रभाव गीता दत्त जी का था उनके शुरुआती सालों में. मैंने आजतक कभी महसूस नहीं किया की उनकी आवाज़ पर सुरैया जी या फिर नूर जहां जी का प्रभाव है.
आभारी
पराग

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट