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अब कोई जी के क्या करे जब कोई आसरा नहीं...दर्द में डूबी लता की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 212

"कुछ लोगों के बारे में कहा जाता है कि फ़लाना व्यक्ति इतनी भाग्यशाली है कि मिट्टी को भी हाथ लगाए तो वह सोना बन जाती है। कुमारी लता मंगेशकर के लिए यह बात शत प्रतिशत सही बैठती है। कितनी ही नगण्य संगीत रचना क्यों न हो, लता जी की आवाज़ उसे ऊँचा कर देती है।" दोस्तों, ये अल्फ़ाज़ थे गुज़रे दौर के बहुत ही प्रतिभाशाली और सुरीले संगीतकार एस. एन त्रिपाठी साहब के। 'मेरी आवाज़ ही पहचान है' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, अगर मदन मोहन और लता जी के साथ की बात करें तो आम धारणा यही है कि मदन साहब ने लता जी को पहली बार सन् १९५० की फ़िल्म 'अदा' में गवाया था और तभी से उनकी जोड़ी जमी। जी हाँ यह बात सच ज़रूर है, लेकिन क्या आपको पता है कि सन् १९४८ में लता जी और मदन मोहन ने साथ साथ एक युगल गीत रिकार्ड करवाया था? चलिए आप को ज़रा तफ़सील से आज बताया जाए। हुआ युं कि मास्टर विनायक ने लता को काम दिलाने के लिए संगीतकार ग़ुलाम हैदर साहब के पास ले गए। हैदर साहब लता की आवाज़ और गायकी के अंदाज़ से इतने प्रभावित हुए कि वो उसे अपनी अगली फ़िल्म 'शहीद' में गवाने की ख़ातिर फ़िल्मिस्तान के एस. मुखर्जी के पास ले गए। लेकिन मुखर्जी साहब ने यह कह कर लता को रीजेक्ट कर दिया कि उसकी आवाज़ बहुत पतली है उस ज़माने की वज़नदार गायिकाओं के सामने। उसी वक़्त सब के सामने मास्टर ग़ुलाम हैदर ने यह घोषणा की थी कि एक दिन यही पतली आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। उनकी यह भविष्यवाणी पत्थर की लक़ीर बन कर रह गई। ख़ैर, हैदर साहब लता को फ़िल्म 'शहीद' में तो नहीं गवा सके, और 'शहीद' के गाने चले गए सुरिंदर कौर, ललिता देयोलकर और गीता राय के खाते में। लेकिन हैदर साहब ने इस फ़िल्म के लिए लता और मदन मोहन की आवाज़ों में एक युगल गीत रिकार्ड किया जो कि भाई बहन के रिश्ते पर आधारित था। एस. मुखर्जी ने इस गीत को फ़िल्म में रखने से इंकार कर दिया और इसलिए फ़िल्म के ग्रामोफ़ोन रिकार्ड पर भी यह गीत जारी नहीं हुआ।

चाहते हुए भी ग़ुलाम हैदर 'शहीद' में लता को नहीं गवा पाए, लेकिन उन्हे बहुत ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ा। उसी साल, यानी कि १९४८ में बौम्बे टाकीज़ ने बनाई फ़िल्म 'मजबूर'। और इसमें बात बन गई। ग़ुलाम हैदर के संगीत में लता के गाए इस फ़िल्म के गानें नज़रंदाज़ नहीं हुए, और लता को मिला अपना पहला लोकप्रिय गीत गाने का मौका। याद है ना आपको इस फ़िल्म का "दिल मेरा तोड़ा, हाए कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने"! हिंदू-मुसलिम प्रेम कहानी पर आधारित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे श्याम और मुनव्वर सुल्ताना। नई नई आज़ादी का जश्न मनाते हुए इस फ़िल्म में लता और मुकेश ने गाए "अब डरने की बात नहीं अंग्रेज़ी छोरा चला गया"। यह गीत भी पसंद की गई। लेकिन दोस्तों, क्योंकि यह शृंखला है लता जी के कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों को सुनने का, इसलिए हम आज इस 'मजबूर' फ़िल्म से चुन लाए हैं एक ऐसा गीत जिसे बहुत कम सुना गया और आज तो बिल्कुल नहीं सुनाई देता है कहीं से भी। यह गीत है "अब कोई जी के क्या करे जब कोई आसरा नहीं, दिल में तुम्हारी याद है और कोई इल्तिजा नहीं"। गीतकार नज़ीम पानीपती ने इस गीत को लिखा था। इससे पहले की आप यह गीत सुनें, क्यों ना अमीन सायानी द्वारा लता जी के लिए उस इंटरव्यू का एक अंश पढ़ लें जिसमें लता जी ने मास्टर ग़ुलाम हैदर से उनकी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र किया था। "मैं १९४५ में बम्बई आयी, मैं नाना चौक में, एक जगह है जहाँ हम लोग रहने लगे। हमारी कंपनी में एक कैमरामैन थे, वो मेरे पास आए, कहने लगे कि एक म्युज़िक डिरेक्टर हैं जिन्हे नई सिंगर की ज़रूरत है। तो तुम अगर गाना चाहो तो चलो। हरिशचंद्र बाली उनका नाम था। उनको मैने गाना सुनाया तो उनको बहुत अच्छा लगा। जब उनके गाने मैं रिकार्ड कर रही थी तब एक एक्स्ट्रा सप्लायर होते हैं ना हमारी फ़िल्मों में, वो एक आया, उसने मुझे आ के कहा कि कल तुम फ़िल्मिस्तान में आना, मास्टर ग़ुलाम हैदर आए हैं, उन्होने तुमको बुलाया है। जब मै मास्टर जी को मिलने गई तो उन्होने कहा कि तुम गाना सुनाओ। मैने एक गाना उनका सुनाया, उनकी ही पिक्चर का का कोई गाना। ग़ुलाम हैदर से मैने एक बात सीखी थी कि बोल बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए और दूसरी बात यह कि जहाँ पर 'बीट' आता है, थोड़ा सा ज़ोर देना ताकी गाना एक दम उठे।" तो दोस्तों आज की इस कड़ी में लता जी के साथ साथ मास्टर ग़ुलाम हैदर, मदन मोहन, एस. एन. त्रिपाठी, और थोड़ी बहुत हरिशचंद्र बाली की भी बातें हो गईं, तो चलिए अब इस दुर्लभ गीत को सुना जाए, जिसे हमें उपलब्ध करवाया नागपुर के अजय देशपाण्डे जी ने, जिनके हम बेहद आभारी हैं।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. ३ अंकों की बढ़त पाने के लिए बूझिये लता का एक और दुर्लभ गीत.
२. गीतकार हैं मुल्कराज भाकरी.
३. हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में बने इस गीत को "चुप चुप खड़े हो" वाले अंदाज़ में बुना गया है.

पिछली पहेली का परिणाम -
रोहित जी वाह एक दम सही जवाब ...३ अंक जुड़े आपके खाते में, पराग जी आपने जिस गीत की याद दिलाई वो भी गजब का है

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

बी एस पाबला said…
लब पे फ़रियाद है दिल बरबाद है
लेकिन बरबाद दिल में तू ही आबाद सजनिया
तू ही आबाद है
'अदा' said…
teri ankhiyan
शायद ’ तेरी अंखियां साजन चोर चोर हैं फ़िल्म - सावन भादौ हो सकता है
Manju Gupta said…
पता नहीं अहा !
manu said…
hnm...

kal hi sun ke pataa lagegaa..
:)
Shamikh Faraz said…
पाबला जी क्या बात है. लाजवाब.

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