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जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो...बेगम अख्तर और आशा ताई एक साथ.

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०३

ग़मे-हस्ती, ग़मे-बस्ती, ग़मे-रोजगार हूँ,
ग़म की जमीं पर गुमशुदा एक शह्रयार हूँ।


बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना हीं पड़ता है। अब फ़र्क इतना हीं है कि वह सूरज ता-उम्र,ता-क़यामत खुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऎसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत हीं गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे। वहीं कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क एक ऎसी हीं किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज जमीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-औ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते,बल्कि ये सारे के सारे इसी जहां के जहांपनाहों के पनाह से हीं उसकी झोली में आते हैं। सच हीं है कि:

राह-ए-मोहब्बत के अगर मंजिल नहीं ग़म-औ-अज़ल,
जान लो हाजी की किस्मत में नहीं ज़मज़म का जल।


अपने जमाने के मशहूर शायर "शकील बदायूनी" इन इश्क-वालों का हाले-दिल बयां करते हुए कहते हैं:

"किनारों से मुझे ऎ नाख़ुदा दूर हीं रखना,
वहाँ लेकर चलो तूफां जहाँ से उठने वाला है।"

बेगम अख्तर ने इस गज़ल में उस दर्द की कोई भी गुंजाईश नहीं छोड़ी, मोहब्बत जिस दर्द की माँग करती है। सुनिए और खुद महसूस कीजिए कि दर्द जब हर्फ़ों से छलके तो कैसी टीस उठती है।



यह मेरी हक़-परस्ती भी ना मेरे काम है आई,
जिसे ज़ाहिद कहा मैने,वो निकला रब का सौदाई।


आख़िर ऎसा क्यों होता है कि हम औरों से ईमान की बातें करते हैं और जब खुद पर आती है तो ईमान से आँखें चुराने लगते हैं। हम वफ़ा के कसीदे पढते हैं,तहरीरें लिख डालते हैं लेकिन हक़ीक़त में अपने पास वफ़ा को फटकने भी नहीं देते। हद तो तब हो जाती है जब हम महफ़िलों और मुशाअरों में प्यार-मोहब्बत के रहनुमा नज़र आते हैं, लेकिन जब अपने घर का कोई प्यार के राह पर चल निकले तो शमशीर लेकर दरवाजे पर जम जाते हैं। और यह नहीं है कि यह बस किसी-किसी के साथ होता है, यकीं मानिए यह हर किसी के साथ होता है। हर किसी के अंदर एक बगुला भगत होता है, एक ढोंगी निवास करता है। और यही एकमात्र रोग है, जिसने हर दौर में दुनिया का नाश किया है। सच यह नहीं है कि दुनिया इश्क-वालों को नहीं समझती या समझना नहीं चाहती, सच यह है कि दुनिया ऎसी हीं है और वह अगर इश्क का मतलब जान भी ले तो भी अपनी आदत से बाज़ नहीं आएगी। और यह आदत इसलिए भी है क्योंकि दुनिया का हरेक शख़्स खुद को दूसरे से बड़ा और बेहतर साबित करने में लगा है। भाई, अगर दुनिया ऎसी हीं है तो फ़िर इश्क-वाले क्यों दूसरों की परवाह करें। जां अपनी, जांनशीं अपनी तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो:

जहां वालों की तल्ख़ी का नज़ारा कर लिया मैने,
मुझे खुद पर गुमां है कि गुजारा कर लिया मैने।


यह बस इसी युग या इसी दौर की बात नहीं है। बरसों पहले नक़्श लायलपुरी ने दुनिया की इस तल्ख़ी को नज़र करके लिखा था:

"दुनिया वालों कुछ तो मुझको मेरी वफ़ा की दाद मिले,
मैने दिल के फूल खिलाए शोलों में,अंगारों में।"

ख़य्याम के संगीत से सजी यह गज़ल आशा ताई की आवाज़ में चमक-सी उठती है। शब्दों के मोड़ पर गले की झनकार ने इसे एक अलग हीं पहचान दे दी है। लीजिए आप खुद हीं इसका लुत्फ़ उठाईये।



चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -

आशिकी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब,
दिल का क्या रंग करुँ, खूने-जिगर होने तक.

इरशाद ....


पिछली महफ़िल के साथी-

ग़ैर फिल्मी गीतों की यह महफिल भी सजने लगी है। शन्नो जी अब आप तन्हा कहाँ हैं! आवाज़ की तमाम पेशकश आपके एकांत को दूर करने को तैयार हैं।

नीलम जी, शौक अगर जीने का है तो समझौता नहीं, जिंदगी को गले लगाइए, आपको लगेगा कि वह समझौता नहीं है। गाना गाइए- ऐ जिंदगी! गले लगा ले।

राज़ जी, ख़ुदा करे कि यह मुश्किल बनी रहे, इसका अपना मज़ा है।

संजीव जी, दोहों के बाद शे'र, आपके क्या कहने! मनु जी, इसीलिए तो कहते हैं कि ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ कुछ और था। अपना-अपना मतलब निकालते रहें।


प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -'शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.




Comments

shanno said…
इन्तजार का मज़ा बेताब होकर ही तो आता है
जुनून हद से निकल जाए तो कहर आ जाता है.
--shanno
बेताब है सूरज सवेरा कब होगा?
इठलाती उषा आयेगी वो तब होगा।

जो रहा बेताब वो आगे बढ़ा है।
जो नहीं बेताब वो पीछे खड़ा है।

उठी चिलमन तो देखा हम रहे जिनके लिए बेताब।
चिलमन में छिपे वो भी हमारे लिए थे बेताब।
manu said…
बहुत बेताब देखा 'बे-तखल्लुस' आज फिर हमने,

के जैसे खुद से हो बेजार ढूंढें फासला कोई.

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