महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०२
उनकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष,
पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश।
इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं:
संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा रहे,
काफ़ी है कि मेरी तरफ बस वो खु़दा रहे।
बेग़म आबीदा परवीन,जिनके लिए सितारा-ए-इम्तियाज़ की उपाधि भी छोटी है,की आवाज़ में खुदावंद ने एक अलग हीं कशिश डाली है। आईये अब हम इन्हीं की पुरकशिश आवाज़ में कराँची के हकीम नसीर की लिखी गज़ल सुनते हैं।
गुजरे पहर में रात ने जो ख़्वाब कत्ल किये,
अच्छा है उनको भूलना,शब भर न वे जिये।
इंसान ईश्वर का सबसे पेचीदा आविष्कार है। वह वर्तमान में जीता है, भविष्य के पीछे भागता है और भूत की होनी-अनहोनी पर सर खपाता रहता है। ना हीं वह माज़ी का दामन छोड़ता है और ना हीं मुस्तकबिल से नज़रें हटाता है। इसी माज़ी-मुस्तकबिल के पेंच में उलझा वह मौजूद की बलि देता रहता है। वह जब किसी की चाह पाल लेता है तो या तो उसे पाकर हीं दम लेता है या फिर हरदम उसी की राह जोहता रहता है। और वही इंसान अगर इश्क के रास्ते पर हो तो उसे एक हीं मंज़िल दीखती है,फिर चाहे वह मंजिल कितनी भी दूर क्यों न हो या फिर उस रास्ते की कोई मंजिल हीं न हो। वह उसी रास्ते पर मुसलसल चलता रहता है, ना हीं वह मंजिल को भूलता है और ना हीं रास्ता बदलता है। उस नासमझ को इस बात का इल्म नहीं होता कि "जिस तरह दुनिया बेहतरी के लिए बदलती रही है, उसी तरह इंसान से भी फ़िज़ा यही उम्मीद करती है कि वह बेहतरी के लिए बदलता रहे।" कहा भी गया है कि "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए" । काश यह बात हर इंसान की समझ में आ जाए:
शिकवा क्यों अपने-आप से, ग़र पास सब न हो,
किस्मत में मोहतरम के भी मुमकिन है रब न हो।
मौजूदा गज़ल में अमज़द इस्लाम अमज़द कहते हैं -
"कहाँ आके रूकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था उसे भूल जा,
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा।"
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान की आवाज़ ने इस गज़ल को दर्द से सराबोर कर दिया है। आईये हम और आप मिलकर इस दर्द-ए-सुखन का लुत्फ उठाते हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
जिंदगी तुझसे हर एक बात पे समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको मगर इतना भी नहीं...
इरशाद ....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
उनकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष,
पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश।
इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं:
संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा रहे,
काफ़ी है कि मेरी तरफ बस वो खु़दा रहे।
बेग़म आबीदा परवीन,जिनके लिए सितारा-ए-इम्तियाज़ की उपाधि भी छोटी है,की आवाज़ में खुदावंद ने एक अलग हीं कशिश डाली है। आईये अब हम इन्हीं की पुरकशिश आवाज़ में कराँची के हकीम नसीर की लिखी गज़ल सुनते हैं।
गुजरे पहर में रात ने जो ख़्वाब कत्ल किये,
अच्छा है उनको भूलना,शब भर न वे जिये।
इंसान ईश्वर का सबसे पेचीदा आविष्कार है। वह वर्तमान में जीता है, भविष्य के पीछे भागता है और भूत की होनी-अनहोनी पर सर खपाता रहता है। ना हीं वह माज़ी का दामन छोड़ता है और ना हीं मुस्तकबिल से नज़रें हटाता है। इसी माज़ी-मुस्तकबिल के पेंच में उलझा वह मौजूद की बलि देता रहता है। वह जब किसी की चाह पाल लेता है तो या तो उसे पाकर हीं दम लेता है या फिर हरदम उसी की राह जोहता रहता है। और वही इंसान अगर इश्क के रास्ते पर हो तो उसे एक हीं मंज़िल दीखती है,फिर चाहे वह मंजिल कितनी भी दूर क्यों न हो या फिर उस रास्ते की कोई मंजिल हीं न हो। वह उसी रास्ते पर मुसलसल चलता रहता है, ना हीं वह मंजिल को भूलता है और ना हीं रास्ता बदलता है। उस नासमझ को इस बात का इल्म नहीं होता कि "जिस तरह दुनिया बेहतरी के लिए बदलती रही है, उसी तरह इंसान से भी फ़िज़ा यही उम्मीद करती है कि वह बेहतरी के लिए बदलता रहे।" कहा भी गया है कि "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए" । काश यह बात हर इंसान की समझ में आ जाए:
शिकवा क्यों अपने-आप से, ग़र पास सब न हो,
किस्मत में मोहतरम के भी मुमकिन है रब न हो।
मौजूदा गज़ल में अमज़द इस्लाम अमज़द कहते हैं -
"कहाँ आके रूकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था उसे भूल जा,
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा।"
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान की आवाज़ ने इस गज़ल को दर्द से सराबोर कर दिया है। आईये हम और आप मिलकर इस दर्द-ए-सुखन का लुत्फ उठाते हैं।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
जिंदगी तुझसे हर एक बात पे समझौता करूँ,
शौक जीने का है मुझको मगर इतना भी नहीं...
इरशाद ....
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
1.
''शौक मुझको भी नहीं था जीने का तन्हा-तन्हा
फिर भी काटने से हर लम्हा कट ही जाता है''
2.
''किसी को शौक इतना होता है तनहाइयों से
कि अकेलेपन में ही उनको सुकून मिल पाता है''.
१.
शौक मुझको न था जीने का तन्हा-तन्हा
पर काटने से हर लम्हा कट ही जाता है.
२.
किसी को शौक इतना होता है तन्हाइयों का
कि उनका साथ पाकर सुकून मिल जाता है.
शौक जीने का है मुझको मगर इतना भी नहीं...
shaayad humaari baat kah di shaayar ne ,abhi jaana hai isliye sun nahi paa rahi hoon ,upar waala chaahega to jaldi hi sunna bhi naseeb hoga
main idhar mushkil me tha, katil udhar mushkil me tha
हमीं सो गए दास्तान कहते-कहते.
--- (शायर का नाम भूल गया)
शौक है सुर्खरू होने का जिन्हें.
सर हथेली पे' लिए चलते हैं. -- सलिल
आशिकी का शौक है तो नाज़ भी उठाइये.
नाज़नीनों पे' न तोहमत 'सलिल' अब लगाइए. - - सलिल
आपका शानदार शेर समझा है हमने,,,,,
आप दुबारा भी आयें,,,
आचार्य ,,प्रणाम,,,,,
पहले वाले शेर के कहने वाले का नाम तो हमें भी याद नहीं आ रहा पर शानदार है,,
और बाद के दोनों शेर भी लाजवाब तो हैं ही,,,,आपके है ये जानकर बेहद अच्छा लगा,,,,,
मुझे तो एक ही याद आ रहा है फिलहाल ,,,,,गालिब का,,,,,अजीब सा शेर,,,
"शौक" है रंग रकीबे सरे सामां निकला,
कैस तस्वीर के परदे में भी उरियां निकला,
मुद्ददत हुई है,,,इसी को नहीं समझ पाएं हैं,,,,,,जाने कितने मतलब लिए है,ये एक शेर,,,,,