आज आवाज़ पर, हमारे स्थायी श्रोता, और गजब के संगीत प्रेमी, इंदौर के दिलीप दिलीप कवठेकर लेकर आए हैं महान संगीतकार सलिल चौधरी के दो अदभुत गीतों से जुड़ी कुछ अनमोल यादें.
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा..
सलिल चौधरी- इस क्रान्तिकारी और प्रयोगवादी संगीतकार को जब हम पुण्यतिथि पर याद करते हैं तो अनायास ही ये बोल जेहन में उभरते है, और साथ में कई यादें ताज़ा होती हैं. अपने विविध रंगों में रचे गानों के रूप में जो निशानी वो छोड गये हैं, उन्हें याद करने का और कराने का जो उपक्रम हम सुर-जगत के साथी कर लेते हैं, वह उनके प्रति हमारी छोटी सी श्रद्धांजली ही तो है.
गीतकार योगेश लिख गये है- जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुन कर खामोशी, यूँ चले जाये अकेले कहां?
आनंद के इस गीत के आशय को सार्थक करते हुए यह प्रतिभाशाली गुलुकार महज चालीस साल की अपने संगीतयात्रा को सजाकर अकेले कहीं दूर निकल गया.
गीतकार योगेश की बात चल पड़ी है तो आयें, कुछ उनके संस्मरण सुनें, जो हमें शायद सलिलदा के और करीब ले जाये.
आनंद फ़िल्म में योगेश को पहले सिर्फ़ एक ही गीत दिया गया था, सलिलदा के आग्रह पर- कहीं दूर जब दिन ढल जाये. उसके बाद, एक दिन दादा ने एक बंगाली गीत की रिकॉर्ड योगेश के हाथ में रखी, और उसपर बोल लिखने को कहा. यह उस प्रसिद्ध गीत का मूल बंगाली संस्करण था - ना, जिया लागे ना.. योगेश के पास तो ग्रमोफ़ोन तक नहीं था. खैर, कुछ जुगाड़ कर उन्होंने यह मूल गीत सुना और बैठ गये बोल बिठाने.
उधर एक और ग़फ़लत हो गयी थी. फ़िल्म के निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने यह गीत गुलज़ार को भी लिखने दे दिया. उन्होंने लिखा - ना ,जिया लागे ना, और योगेश ने लिखा - ना, ना रो अखियां. संयोग से गुलज़ार का गीत रिकॉर्ड हो गया, योगेश का गीत रह ही गया.
एक दिन हृषिकेश दा ने उन्हें बुलाकर उनके हाथ में चेक रख दिया. योगेश ने अचंभित हो कहा- कहीं दूर के तो पैसे मिल गये है. ये फिर किसके लिये? 'ये ना, ना रो अंखियां के पैसे' हृषि दा बोले। "यदि गाना रिकॉर्ड होता तो पैसे ले लेता , मगर यूँ लेना अच्छा नहीं लगता." योगेश ने संकोचवश कहा. अब दादा तो मान नहीं रहे थे, तो सलिलदा ने एक उपाय सुझाया. हम लोग फ़िल्म के टाईटल गीत के लिये एक गाना और लिखवा लेते है योगेश से, तो कैसा रहेगा. योगेश मान गये, और तैयार हुई एक कालजयी, आसमान से भी उत्तुंग संगीत रचना-
ज़िंदगी , कैसी है पहेली हाये, कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये....
जब बाद में राजेश खन्ना ने यह गीत सुना तो उन्होंने हृषि दा को मनाया के यह गीत इतना अच्छा बन पड़ा है तो इसे टाईटल पर जाया ना करें, मगर उन पर पिक्चराईज़ करें. हृषि दा बोले, सिच्युएशन कहां है इस गीत के लिये. राजेश खन्ना ने हठ नहीं छोड़ा, कहा "पैदा कीजिये" . वैसे इस गाने को सिर्फ़ एक दिन में ही चित्रित कर लिया गया.
यहां सलिल दा ने कोरस का जो प्रयोग किया है, उसके बारे में भी आर.डी. बर्मन बोले थे - झकास... ऐसे प्रयोग शंकर जयकिशन ने भी कहीं किये थे. सलिलदा ने उससे भी आगे जा कर एक अलग शैली विकसित की, जिसकी बानगी मिलेगी इन गीतों में -
मेरे मन के दिये (परख), जाने वाले सिपाही से पूछो ( उसने कहा था), ए दिल कहां तेरी मंज़िल (माया), न जाने क्यूं होता है ये (छोटी सी बात), जागो मोहन प्यारे (जागते रहो)
तो यूँ हुआ उस बेहतरीन गीत का आगमन हमारे दिल में. आईये सुनते है:
इसी तरह रजनीगंधा फ़िल्म के प्रसिद्ध गीत 'रजनी गंधा फूल हमारे, यूँ ही महके जीवन में ' लिखने के बाद जब ध्वनिमुद्रित किया गया तो सुन कर फ़िल्म के निर्देशक बासु चटर्जी बोले, सलिल दा, इस गाने को थोड़ा १०-१५ सेकंड छोटा करो. सलील दा को समझ नहीं आया . उन्होंने कहा- तो शूटिंग थोड़ी ज्यादा कर लेना. तो बासु दा बोले - दादा, यह गाना तो पहले ही शूट हो चुका है. दरसल यह गाना बैकग्राऊंड में था!!!
पूरी रिकॉर्डिंग फिर से करने का निश्चय किया गया. मगर एक अंतरे में कुछ अलग बोल थे, जो गाने के सिचुयेशन से मेल नहीं खाते थे. योगेश ने लिखा था-
अपना उनको क्या दूं परिचय
पिछले जन्मों के नाते हैं,
हर बार बदल कर ये काया,
हम दोनो मिलने आते है..
धरती के इस आंगन में.....
फ़िल्म के रशेस देखकर सलिल दा को लगा की नायिका के मन के अंतर्द्वंद का, दो नायकों के बीच फ़ंसी हुई उसकी मनस्थिती का यहां वर्णन जम नहीं रहा है. उन्होंने योगेश से फ़िर लिखने को कहा, और बना यह अंतरा..
हर पल मेरी इन आंखों में
अब रहते है सपने उनके ,
मन कहता है कि मै रंगूँ
एक प्यार भरी बदली बन के,
बरसूं उनके आंगन में....
तो यह गीत भी सुनें, सुरों की सिम्फ़नी के बागा़नों से छन कर आती हुई खुशबू का लुत्फ़ उठाएं-
चलते चलते एक पहेली-
माया फ़िल्म का गीत - ऐ दिल! कहां तेरी मंज़िल, ना कोई दीपक है ,ना कोई तारा है, गु़म है ज़मीं, दूर आसमां.. गीत किसने गाया है?
हमें लगता है दिलीप जी का ये सवाल हमारे संगीत प्रेमियों के लिए बेहद आसान होगा, तो जल्दी से लिख भेजिए हमें, अपने जवाब टिप्पणियों के माध्यम से.
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
चित्र "रजनीगंधा फूल तुम्हारे" गीत की रिकॉर्डिंग के दौरान का है
अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा..
सलिल चौधरी- इस क्रान्तिकारी और प्रयोगवादी संगीतकार को जब हम पुण्यतिथि पर याद करते हैं तो अनायास ही ये बोल जेहन में उभरते है, और साथ में कई यादें ताज़ा होती हैं. अपने विविध रंगों में रचे गानों के रूप में जो निशानी वो छोड गये हैं, उन्हें याद करने का और कराने का जो उपक्रम हम सुर-जगत के साथी कर लेते हैं, वह उनके प्रति हमारी छोटी सी श्रद्धांजली ही तो है.
गीतकार योगेश लिख गये है- जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुन कर खामोशी, यूँ चले जाये अकेले कहां?
आनंद के इस गीत के आशय को सार्थक करते हुए यह प्रतिभाशाली गुलुकार महज चालीस साल की अपने संगीतयात्रा को सजाकर अकेले कहीं दूर निकल गया.
गीतकार योगेश की बात चल पड़ी है तो आयें, कुछ उनके संस्मरण सुनें, जो हमें शायद सलिलदा के और करीब ले जाये.
आनंद फ़िल्म में योगेश को पहले सिर्फ़ एक ही गीत दिया गया था, सलिलदा के आग्रह पर- कहीं दूर जब दिन ढल जाये. उसके बाद, एक दिन दादा ने एक बंगाली गीत की रिकॉर्ड योगेश के हाथ में रखी, और उसपर बोल लिखने को कहा. यह उस प्रसिद्ध गीत का मूल बंगाली संस्करण था - ना, जिया लागे ना.. योगेश के पास तो ग्रमोफ़ोन तक नहीं था. खैर, कुछ जुगाड़ कर उन्होंने यह मूल गीत सुना और बैठ गये बोल बिठाने.
उधर एक और ग़फ़लत हो गयी थी. फ़िल्म के निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने यह गीत गुलज़ार को भी लिखने दे दिया. उन्होंने लिखा - ना ,जिया लागे ना, और योगेश ने लिखा - ना, ना रो अखियां. संयोग से गुलज़ार का गीत रिकॉर्ड हो गया, योगेश का गीत रह ही गया.
एक दिन हृषिकेश दा ने उन्हें बुलाकर उनके हाथ में चेक रख दिया. योगेश ने अचंभित हो कहा- कहीं दूर के तो पैसे मिल गये है. ये फिर किसके लिये? 'ये ना, ना रो अंखियां के पैसे' हृषि दा बोले। "यदि गाना रिकॉर्ड होता तो पैसे ले लेता , मगर यूँ लेना अच्छा नहीं लगता." योगेश ने संकोचवश कहा. अब दादा तो मान नहीं रहे थे, तो सलिलदा ने एक उपाय सुझाया. हम लोग फ़िल्म के टाईटल गीत के लिये एक गाना और लिखवा लेते है योगेश से, तो कैसा रहेगा. योगेश मान गये, और तैयार हुई एक कालजयी, आसमान से भी उत्तुंग संगीत रचना-
ज़िंदगी , कैसी है पहेली हाये, कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये....
जब बाद में राजेश खन्ना ने यह गीत सुना तो उन्होंने हृषि दा को मनाया के यह गीत इतना अच्छा बन पड़ा है तो इसे टाईटल पर जाया ना करें, मगर उन पर पिक्चराईज़ करें. हृषि दा बोले, सिच्युएशन कहां है इस गीत के लिये. राजेश खन्ना ने हठ नहीं छोड़ा, कहा "पैदा कीजिये" . वैसे इस गाने को सिर्फ़ एक दिन में ही चित्रित कर लिया गया.
यहां सलिल दा ने कोरस का जो प्रयोग किया है, उसके बारे में भी आर.डी. बर्मन बोले थे - झकास... ऐसे प्रयोग शंकर जयकिशन ने भी कहीं किये थे. सलिलदा ने उससे भी आगे जा कर एक अलग शैली विकसित की, जिसकी बानगी मिलेगी इन गीतों में -
मेरे मन के दिये (परख), जाने वाले सिपाही से पूछो ( उसने कहा था), ए दिल कहां तेरी मंज़िल (माया), न जाने क्यूं होता है ये (छोटी सी बात), जागो मोहन प्यारे (जागते रहो)
तो यूँ हुआ उस बेहतरीन गीत का आगमन हमारे दिल में. आईये सुनते है:
इसी तरह रजनीगंधा फ़िल्म के प्रसिद्ध गीत 'रजनी गंधा फूल हमारे, यूँ ही महके जीवन में ' लिखने के बाद जब ध्वनिमुद्रित किया गया तो सुन कर फ़िल्म के निर्देशक बासु चटर्जी बोले, सलिल दा, इस गाने को थोड़ा १०-१५ सेकंड छोटा करो. सलील दा को समझ नहीं आया . उन्होंने कहा- तो शूटिंग थोड़ी ज्यादा कर लेना. तो बासु दा बोले - दादा, यह गाना तो पहले ही शूट हो चुका है. दरसल यह गाना बैकग्राऊंड में था!!!
पूरी रिकॉर्डिंग फिर से करने का निश्चय किया गया. मगर एक अंतरे में कुछ अलग बोल थे, जो गाने के सिचुयेशन से मेल नहीं खाते थे. योगेश ने लिखा था-
अपना उनको क्या दूं परिचय
पिछले जन्मों के नाते हैं,
हर बार बदल कर ये काया,
हम दोनो मिलने आते है..
धरती के इस आंगन में.....
फ़िल्म के रशेस देखकर सलिल दा को लगा की नायिका के मन के अंतर्द्वंद का, दो नायकों के बीच फ़ंसी हुई उसकी मनस्थिती का यहां वर्णन जम नहीं रहा है. उन्होंने योगेश से फ़िर लिखने को कहा, और बना यह अंतरा..
हर पल मेरी इन आंखों में
अब रहते है सपने उनके ,
मन कहता है कि मै रंगूँ
एक प्यार भरी बदली बन के,
बरसूं उनके आंगन में....
तो यह गीत भी सुनें, सुरों की सिम्फ़नी के बागा़नों से छन कर आती हुई खुशबू का लुत्फ़ उठाएं-
चलते चलते एक पहेली-
माया फ़िल्म का गीत - ऐ दिल! कहां तेरी मंज़िल, ना कोई दीपक है ,ना कोई तारा है, गु़म है ज़मीं, दूर आसमां.. गीत किसने गाया है?
हमें लगता है दिलीप जी का ये सवाल हमारे संगीत प्रेमियों के लिए बेहद आसान होगा, तो जल्दी से लिख भेजिए हमें, अपने जवाब टिप्पणियों के माध्यम से.
प्रस्तुति - दिलीप कवठेकर
चित्र "रजनीगंधा फूल तुम्हारे" गीत की रिकॉर्डिंग के दौरान का है
Comments
इन दो गीतों के पीछे की कहानी तो मुझे बिलकुल नहीं पता थी। सलिल दा को नमन। इस नायाब प्रस्तुति के लिए आपका आभार।
माया फिल्म का यह गीत लता मंगेशकर ने गाया है, साथ में द्विजेन मुखर्जी भी हैं।
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
दिलीप जी ने बहुत सरस
सँगीतमय प्रस्तुति की है !
- लावण्या
जिन्होंने सजाये यहां मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुन कर खामोशी, यूँ चले जाये अकेले कहां?
सजीव भाई ने ठीक ही लिखा, कि यह पहेली हमारे जानकार श्रोता वर्ग के लिये खास कठीण नही है. उत्तर सही है.
दरअसल , कई आम लोगों को यह गीत हेमंत कुमार द्वारा गाया हुआ लगता था. यु ट्युब पर भी सिर्फ़ लता जी का गीत है, और पूछा गया है कि हेमन्त दा का गीत कहां है?
आवाज़ पर मेरे इस पहले प्रयास की प्रतिक्रिया स्वरूप आप सब का प्रोत्साहित करना मेरे लिये अंतिम पावती है.आप सब का तहे दिल से शुक्रिया..