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लता संगीत उत्सव ( १ ) - पंकज सुबीर

रूह की वादियों में बह रही दिलरुबा नदी

ख़ैयाम साहब ने जितना भी संगीत दिया है वो भीड़ से अलग नज़र आता है । उनके गीत अर्द्ध रात्रि का स्वप्न नहीं हो कर दोपहर की उनींदी आंखों का ख्वाब हैं जो नींद टूटने के बाद कुछ देर तक अपने सन्नाटे में डुबोये रखते हैं । आज जिस गीत की बात हो रही है ये गीत फ़िल्म "शंकर हुसैन" का है । "शंकर हुसैन" जितना विचित्र नाम उतने ही मधुर गीत । दुर्भाग्य से फ़िल्म नहीं चली और बस गीत ही चल कर रह गये । फ़िल्म में ''कैफ भोपाली'' का लिखा गीत जो लता मंगेशकर जी ने ही गाया था ''अपने आप रातों में '' भी उतना ही सुंदर था जितना कि ये गीत है, जिसकी आज चर्चा होनी है । हम आगे कभी ''अपने आप रातों में '' की भी बातें करेंगें लेकिन आज तो हमको बात करनी है ''आप यूं फासलों से ग़ुज़रते रहे दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही'' की । लता जी की बर्फानी आवाज़, जांनिसार अख्तर ( जावेद जी के पिताजी) के शबनम के समान शब्दों को, खैयाम साहब की चांदनी की पगडंडी जैसी धुन पर इस तरह बिखेरती हुई गुज़र जाती है कि समय भी उस आवाज़ के पैरों की मधुर आहट में उलझा अपनी चाल भूलता नज़र आता है ।

इस गीत के भावों को पहचानना सबसे मुश्किल कार्य है कभी यह करुण रस में भीगा होता है तो अगले ही अंतरे में रहस्यवाद की छांव में खड़ा हो जाता है, या एक पल में ही सम्‍पूर्ण श्रृंगार और कुछ भी नहीं । चलिये हम भी लताजी, खैयाम साहब और जांनिसार अख्तर साहब के साथ एक मधुर यात्रा पर चलें । सुनतें हैं ये गीत -



इसकी शुरूआत होती है लता जी के मधुर आलाप के साथ जो शत प्रतिशत कोयल की कूक समेटे है और रूह को आम्र मंजरियों के मौसम का एहसास कराता है । मुखड़े के शुरूआत में एक रहस्य है जो मैं केवल इसलिये नहीं सुलझा पा रहा हूं कि मैंने फ़िल्म नहीं देखी है । रहस्य ये है कि ''आप यूं '' कहते समय लता जी ने हल्‍की सी हंसी का समावेश किया है । खनकती हंसी से शुरू होते हुए मुखड़े की बानगी देखिये -

''( हंसी) आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे...2
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आहटों से अंधेरे चमकते रहे
रात आती रही रात जाती रही
आप यूं ....''

शायद आपको भी इस रहस्यवाद में गुलज़ार साहब की मौज़ूदगी का एहसास हो रहा होगा । जांनिसार अख्तर साहब ने आहटों से अंधेरों को कुछ वैसे ही चमकाया है जैसे गुलज़ार साहब ने आंखों की महकती खुशबू को देखा था । ''आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे. दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही'' में ताने उलाहने का भाव है, या शिकायत है किंतु फिर उस हंसी का क्या ? जो मुखड़े को शुरू करती है और अगले ही क्षण ''आहटों से अंधेरे चमकते रहे रात आती रही रात जाती रही'' में रहस्यवाद का घना कुहासा छा जाता है मानो महादेवी वर्मा का उर्दू रूपांतरण हो गया हो।

लता जी की हल्‍की सी गुनगुनाहट के बाद पहला अंतरा आता है

''गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाईयां...2
दूर बजती रहीं कितनी शहनाईयां
जिंदगी जिंदगी को बुलाती रही
आप यूं ( हंसी) फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आप यूं....

शायद ये दर्द ही है जो अपनी तनहाईयों के गुनगुनाने की आवाज़ को सुन रहा है । क्‍योंकि दूर से आती शहनाईयों की आवाज़ पीड़ा के एहसास को और गहरा कर देती है । जिंदगी ख़ुद को बुला रही है, या अपने सहभागी को कुछ स्पष्ट नहीं है । आप जब तक पीड़ा के मौज़ूद होने के निर्णय पर पहुंचते हैं, तब तक वापस मुखड़े के फासलों शब्द में फिर वही हंसी मौज़ूद नज़र आती है आपके निर्णय का उपहास करती ।

अगला अंतरा गुलज़ार साहब की उदासी और महादेवी वर्मा के सन्नाटों का अद्भुत संकर है

कतरा कतरा पिघलता रहा आसमां ...2
रूह की वादियों में न जाने कहां इक नदी....
हक नदी दिलरुबा गीत गाती रही
आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आप यूं....( हंसी)

आज तक कोई नहीं समझ पाया के आसमान जब शबनम के रूप में पिघलता है तो इसमें करुणा होती है या कोई ख़ुशी? यहां भी आसमां के कतरा कतरा पिघलने पर अधिक व्यक्ख्या नहीं की गई है क्‍योंकि अगले ही क्षण लता जी की आवाज़ आपका हाथ थाम कर रूह की वादियों में उतर जाती है । वैसे इस गाने को आंख बंद कर आप सुन रहे हैं तो पूरे समय आप रूह की वादियों में ही घूमते रहेंगें । और वो दिलरुबा नदी ? निश्चित रूप से लता जी की आवाज़ । मुखड़े के दोहराव के बाद आये ''आप यूं '' के बाद फिर एक सबसे स्पष्ट हंसी ....?

तीसरा अंतरा गीत का सबसे ख़ूबसूरत अंतरा है ।

आपकी नर्म बांहों में खो जायेंगे..2
आपके गर्म ज़ानों पे सो जायेंगे--सो जायेंगे
मुद्दतों रात नींदे चुराती रही
आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे
दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही
आप यूं....( हंसी) आप यूं ....

शायद किसी भटकती हुई आत्मा के अपने पुनर्जन्‍म पाए हुए प्रेमी से पुर्नमिलन के लिये ही ये गीत लिखा गया है । उसका प्रेमी अभी सोलह साल का किशोर ही है जो उसके होने का एहसास भी नहीं कर पा रहा है । चंदन धूप के धुंए की तरह उड़ती वो रूह उस किशोर की नर्म बांहों के आकाश या गर्म ज़ानों ( कंधे) की धरती पर अपनी मुक्ति का मार्ग ढूँढ रही है । थकी सी आवाज़ में लताजी जब इन शब्दों को दोहराती हैं ''सो जायेंगे, सो जायेंगे'' तो जन्मों जन्मों की थकान को स्पष्ट मेहसूस किया जो सकता है । अचानक आवाज़ रुक जाती है संगीत थम जाता है । ऐसा लगता है मानो उस आत्मा को अपने हल्‍की हल्‍की मूंछों वाले किशोर प्रेमी के गर्म ज़ानों पर मुक्ति मिल ही गई है, किंतु क्षण भर में ही सन्नाटा टूट जाता है और पीड़ा अपनी जगरातों भरी रातों का हिसाब देने लगती है ''मुद्दतों रात नींदे चुराती रही '' । फिर वही मुखड़ा और ''आप यूं '' में फिर वही हंसी । और सब कुछ ग़ुज़र जाता है । रह जाते हैं आप ठगे से, लता जी, खैयाम साहब और जां निसार अख्तर साहब तीन मिनट में आपको सूफी बना जाते हैं ।

1975 में ये फ़िल्म 'शंकर हुसैन" आई थी, और आज लगभग 33 साल बीत गये हैं किंतु इस गीत के आज भी उतने ही दीवाने हैं जो 33 साल पहले थे. अंत में इस गीत को सुनने के बाद इसके दीवानों की जो अवस्था होती है उसको शंकर हुसैन का लता जी का दूसरा गीत अच्छी तरह से परिभाषित करता है -

''अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं

चौंकते हैं दरवाज़े सीढि़यां धड़कती हैं ''


प्रस्तुति - पंकज सुबीर

Comments

pooja said…
पंकज सुबीर जी,

किसी भी गीत को मैंने आज से पहले इतना गहराई से नहीं सुना था , एक- एक भाव , एक एक शब्द का जिस तरह से सुंदर और समुचित वर्णन किया गया है वो गीत को अपने आप में अनमोल बनाता है , मुझे याद नहीं आता की मैंने यह गीत पहले कब सुना था? किंतु अब निश्चित तौर पर सुनती रहूंगी , एक खुबसूरत गीत को हमारे सामने लाने का आभार .
पंकज जी,

आपकी यह समीक्षा पढ़कर हर एक श्रोता इसे सुनना चाहेगा। आपने जैसा लिखा है वैसा ही महसूस होता है एकदम। मैंने हज़ारों बार यह गीत सुना है। आज आपकी समीक्षा पढ़ी, पुनः सुना, गीत के आत्मा तक पहुँचने में जो अवरोध था, वो खत्म हो गया। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

इसी फिल्म का एक गीत मुझे बहुत पसंद है, या यूँ कहिए कि जब कोई मुझसे १० पसंदीदा गीत पूछता है तो मैं उसे भी बताता हूँ, उसका नाम है 'कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की'। कमाल अमरोही द्वारा रचित। शायद कमाल अमरोही इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक भी थे। आप ज्यादा सही जानकारी दे पायेंगे।

पुनः शुक्रिया
पंकज सुबीर said…
शैलेष जी वो रफी साहब का गीत तो अमर गीत है कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की बहुत खूबसूरत मगर सावंली सी
shivani said…
बहुत दिनों बाद पंकज जी नजर आए उनकी कमी नज़र आती थी ,परन्तु इस बार लता संगीत पर्व ले कर आने से दिल प्रसन्न हो गया !ये गीत मुझे बहुत पसंद है !पंकज जी की हर पेरे की समीक्षा के बाद गीत सुनने में अलग ही आनंद आया !आपका बहुत बहुत धन्यवाद !आपसे इसी प्रकार और भी गीत सुनने और उसके बारे में जानकारी लेना चाहती हूँ !
शोभा said…
गीत सचमुच ही बहुत प्यारा है और पंकज जी ने काफी डूब कर उसकी व्याख्या की है। शायद इतनी गहराई से लिखने वाले ने भी नहीं लिखा होगा। गीत और उसकी विस्तृत व्याख्या के लिए आभार।
पंकज जी मैंने ये गीत पहले नही सुना था पर अब आपके द्वारा दी गई व्याख्या के साथ इस गीत को सुनने के बाद ये मेरे पसंदीदा गीतों में से एक हो गया है.
आगे भी लता जी के गीतों को इस अलग अंदाज़ में समजने और सुनने की आशा है.
सुबीर जी,

आपका आभार, इतना सुंदर गीत सुनाने और इतने विस्तार से सम्बंधित जानकारी देने के लिए. सचमुच एक कवि-ह्रदय ही "कतरा कतरा पिघलता रहा आसमां" और "आपके गर्म ज़ानों पे सो जायेंगे--सो जायेंगे" के भावों की इतनी अच्छी व्याख्या कर सकता है.

"शंकर हुसैन" फ़िल्म का संगीत आज भी उतना ही दिलकश है जैसा तेंतीस साल पहले था.
धन्यवाद!
हिन्दी में तो बहुत नर्म सा शब्द हम इस्तेमाल करते हैं, शुभारम्भ, पर अंग्रेजी में एक धांसू शब्द है "किक स्टार्ट" यानि किसी भी आयोजन की एक धमाकेदार शुरवात, पंकज जी के इस आलेख और गीत के बाद लता संगीत उत्सव की एक धमाकेदार शुरवात हो चुकी है, आपने इतने ऊँचे स्टैण्डर्ड सेट कर दिए हैं की आने वाले लेखकों के लिए एक चुनौती होगा इसे पार पाना, आपने सही कहा, रहस्य एक ऐसा भाव है जो विलक्षण गायकों की आवाज़ में ही उभरता है, हिन्दी फिल्मों में जितने भी गीत प्रेतात्माओं पर फिल्माए गए हैं उन पर लता जी ने ही आवाज़ दी है, जब मैं छोटा था और दूरदर्शन पर वो कौन थी और बीस साल बाद जैसी फिल्में देखता था तो सोचता था, की कभी किसी प्रेतात्मा से मिलूँगा तो उससे कोई गीत सुनूंगा, तब ये गुमान था की सभी प्रेतात्माएं कितना मधुर गाती हैं :) आभार लता जी का और आपका ....
RAVI KANT said…
गीत और प्रस्तुति दोनों लाजवाब हैं। सुनते ही खुमारी छाने लगती है। हँसी से तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे नायिका आपने अतीत को याद करके हँस रही हो। अक्सर ऐसा होता है कि पुरानी चीजें बाद में याद आती हैं तो हँसी आ जाती है। पहला और दूसरा अंतरा इसकी पुष्टि करता जान पड़ता है। तीसरे अंतरे में कल्पना उड़ान लेती है और जो मिलन अब तक न हो पाया उसके सुनहरे ख्वाब देखती है। फ़िर यथार्थ में लौटती है और उसे अपने नादान खयाल पर हँसी छूट जाती है। वैसे पिक्चर मैने भी नहीं देखी है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कह सकता।
पँकज भाई ने गीत की रुह तक पहुँच कर
जो शायरी , सँगीत और स्वर के सँगमके परे है
जो जिस्मानी ना होकर ,
"सिर्फ अहसास है ये
रुह से महसूस करो वाली बात होती है "
उसे , हम तक पहुँचाने का
सफल प्रयास किया है ~~
जिसे पढकर बेहद खुशी हुई ~~
आप सभी से
यहाँ जो स्नेह भरे सँदेश मिले हैँ
वे सर आँखोँ पर !
जो भी यहाँ तक आया है,
उनसे सिर्फ यही नम्र प्रार्थना है कि,
वे मेरी और आप सब की,
लता दीदी की
लँबी ऊम्र और स्वास्थ्य के लिये
कामना करे
बहुत स्नेह के साथ,
-लावण्या
हरि said…
गीत मधुर है। लता जी जैसा युगों-युगों तक दूसरा न होगा।
Anonymous said…
ufff....maine Lata Sangeet Parv mein bhag liya hai. Pankaj bhai ki entry padhkar lagta hai; prize muzhe nahi milega...Maine, Guide film ka "kanton se kheecch ke ye aanchal..." chunna hai..

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