भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित सूफ़ी संगीत की विधाओं में सबसे लोकप्रिय है क़व्वाली. इस विधा के जनक के रूप में पिछली कड़ी में अमीर ख़ुसरो का ज़िक़्र भर हुआ था.
उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली गांव में १२५३ में जन्मे अमीर खुसरो का असली नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था. कविता और संगीत के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियां अपने नाम कर चुके अमीर खुसरो को तत्कालीन खिलजी बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने को तूती-ए-हिन्द का ख़िताब अता फ़रमाया था. 'अमीर' का बहुत सम्मानित माना जाने वाला ख़िताब भी उन्हें खिलजी बादशाह ने ही दिया था.
भीषणतम बदलावों, युद्धों और धार्मिक संकीर्णता का दंश झेल रहे तेरहवीं-चौदहवीं सदी के भारतीय समाज की मूलभूत सांस्कृतिक एकता को बचाए रखने और फैलाए जाने का महत्वपूर्ण कार्य करने में अमीर खुसरो ने साहित्य और संगीत को अपना माध्यम बनाया.
तब तक भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद अपनी जड़ें जमा चुका था और उसे इस विविधतापूर्ण इलाक़े के हिसाब से ढाले जाने के लिये जिस एक महाप्रतिभा की दरकार थी, वह अमीर ख़ुसरो के रूप में इस धरती पर आई. सूफ़ीवाद के मूल सिद्धान्त ने अमीर खुसरो को भी गहरे छू लिया और वे इस बात को जान गये कि बरबादी की कगार पर पहुंच चुके भारतीय समाज को बचाने का इकलौता रास्ता हिन्दू-मुस्लिम समरसता में निहित है. इसी बीच उन्होंने दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को उन्होंने अपना रूहानी उस्ताद मान लिया था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का उनके जीवन पर ताज़िन्दगी असर रहा. गुरु को ईश्वर से बड़ा दर्ज़ा दिए जाने की ख़ास उपमहाद्वीपीय परम्परा का निर्वहन अमीर ख़ुसरो ने जिस शिद्दत से किया, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है.
गंगा-जमनी ख़ून उनके रक्त तक में इस लिहाज़ से मौजूद था कि उनके पिता मुस्लिम थे और मां हिन्दू राजपूत. घर पर दोनों ही धर्मों के रस्म-त्यौहार मनाए जाने की वजह से अमीर ख़ुसरो साहब को इन दोनों धर्मों की नैसर्गिक रूप से गहरी समझ थी. सोने में सुहागा इस बात से हुआ कि उनकी काव्य प्रतिभा बहुत बचपन में ही प्रकट हो गई थी. उनकी असाधारण काव्यप्रतिभा और प्रत्युत्पन्नमति के बारे में सैकड़ों क़िस्से-कहानियां प्रचलित हैं. सो उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों की धार्मिक और अन्य परम्पराओं को गहरे समझते हुए कविता की सान पर जो ज़मीन तैयार की उसमें साहित्य के शुद्धतावादियों द्वारा बिसरा दी जाने वाली छोटी-छोटी डीटेल्स को जगह मिली और सूफ़ीवाद को नया रास्ता.
उनके जीवन का एक क़िस्सा यूं है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को एक बार स्वप्न में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए. इस के बाद उन्होंने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण-चरित्र को आमफ़हम हिन्दवी ज़ुबान में लिखने का आदेश दिया. 'हालात-ए-कन्हैया' नामक यह ग्रन्थ अब उनकी काव्य-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में अपनी जगह बना चुका है.
बाद में क़व्वाली जैसी पारलौकिक संगीत विधा को रच देने के बाद उन्होंने जो काव्य रचा वह अब काल-समय की सीमाओं से परे है. पहले सुनिये नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब की आवाज़ में उन्हीं की एक बहुत विख्यात रचना:
क़व्वाली को स्थापित कर चुकने के बाद उन्होंने भाषा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयोग करने आरम्भ किये - ग़ज़ल, मसनवियां, पहेलियां बोल-बांट और तक़रार इत्यादि विधाओं में उनका कार्य देखा जाए तो एकबारगी यक़ीन नहीं होता कि फ़क़त बहत्तर साल की उम्र में एक शख़्स इतना सारा काम कर सकता है.
उनके सारे रचनाकर्म में सूफ़ीवाद की गहरी छाया होती थी और वे उस निराकार परमशक्ति को अपना मेहबूब मानते थे जिस तक पहुंचना ही सूफ़ीवाद का मुख्य उद्देश्य माना गया है. अन्य सूफ़ीवादियों से वे इस मायने में अलहदा थे कि वे भाषा के स्तर पर भी सतत प्रयोग करते रहे. मिसाल के तौर पर सुनिये छाया गांगुली के स्वर में एक और रचना, जिसकी उत्कृष्टता इस बात में निहित है कि ग़ज़ल का रदीफ़ फ़ारसी में है और क़ाफ़िया हिन्दवी में. आप की सहूलियत के लिए इसका अनुवाद भी किये दे रहा हूं:
ज़ेहाल-ए-मिस्किन मकुन तग़ाफ़ुल, दुराये नैना बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रां नदारम अय जां, न लेहो काहे लगाए छतियां
चो शाम-ए-सोज़ां चो ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियां ब इश्क़ आं माह
ना नींद नैनां ना अंग चैना ना आप ही आवें ना भेजें पतियां
यकायक अज़ दिल बज़िद परेबम बबुर्द-ए-चश्मश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां
शबान-ए-हिज्रां दराज़ चो ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह
सखी़ पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां
(आंखें फ़ेरकर और कहानियां बना कर यूं मेरे दर्द की अनदेखी न कर
अब बरदाश्त की ताब नहीं रही मेरी जान! क्यों मुझे सीने से नहीं लगा लेता
मोमबत्ती की फड़फड़ाती लौ की तरह मैं इश्क़ की आग में हैरान-परेशान फ़िरता हूं
न मेरी आंखों में नींद है, न देह को आराम, न तू आता है न कोई तेरा पैगाम
अचानक हज़ारों तरकीबें सूझ गईं मेरी आंखों को और मेरे दिल का क़रार जाता रहा
किसे पड़ी है जो जा कर मेरे पिया को मेरी बातें सुना आये
विरह की रात ज़ुल्फ़ की तरह लम्बी, और मिलन का दिन जीवन की तरह छोटा
मैं अपने प्यारे को न देख पाऊं तो कैसे कटे यह रात)
उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली गांव में १२५३ में जन्मे अमीर खुसरो का असली नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था. कविता और संगीत के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियां अपने नाम कर चुके अमीर खुसरो को तत्कालीन खिलजी बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने को तूती-ए-हिन्द का ख़िताब अता फ़रमाया था. 'अमीर' का बहुत सम्मानित माना जाने वाला ख़िताब भी उन्हें खिलजी बादशाह ने ही दिया था.
भीषणतम बदलावों, युद्धों और धार्मिक संकीर्णता का दंश झेल रहे तेरहवीं-चौदहवीं सदी के भारतीय समाज की मूलभूत सांस्कृतिक एकता को बचाए रखने और फैलाए जाने का महत्वपूर्ण कार्य करने में अमीर खुसरो ने साहित्य और संगीत को अपना माध्यम बनाया.
तब तक भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद अपनी जड़ें जमा चुका था और उसे इस विविधतापूर्ण इलाक़े के हिसाब से ढाले जाने के लिये जिस एक महाप्रतिभा की दरकार थी, वह अमीर ख़ुसरो के रूप में इस धरती पर आई. सूफ़ीवाद के मूल सिद्धान्त ने अमीर खुसरो को भी गहरे छू लिया और वे इस बात को जान गये कि बरबादी की कगार पर पहुंच चुके भारतीय समाज को बचाने का इकलौता रास्ता हिन्दू-मुस्लिम समरसता में निहित है. इसी बीच उन्होंने दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को उन्होंने अपना रूहानी उस्ताद मान लिया था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का उनके जीवन पर ताज़िन्दगी असर रहा. गुरु को ईश्वर से बड़ा दर्ज़ा दिए जाने की ख़ास उपमहाद्वीपीय परम्परा का निर्वहन अमीर ख़ुसरो ने जिस शिद्दत से किया, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है.
गंगा-जमनी ख़ून उनके रक्त तक में इस लिहाज़ से मौजूद था कि उनके पिता मुस्लिम थे और मां हिन्दू राजपूत. घर पर दोनों ही धर्मों के रस्म-त्यौहार मनाए जाने की वजह से अमीर ख़ुसरो साहब को इन दोनों धर्मों की नैसर्गिक रूप से गहरी समझ थी. सोने में सुहागा इस बात से हुआ कि उनकी काव्य प्रतिभा बहुत बचपन में ही प्रकट हो गई थी. उनकी असाधारण काव्यप्रतिभा और प्रत्युत्पन्नमति के बारे में सैकड़ों क़िस्से-कहानियां प्रचलित हैं. सो उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों की धार्मिक और अन्य परम्पराओं को गहरे समझते हुए कविता की सान पर जो ज़मीन तैयार की उसमें साहित्य के शुद्धतावादियों द्वारा बिसरा दी जाने वाली छोटी-छोटी डीटेल्स को जगह मिली और सूफ़ीवाद को नया रास्ता.
उनके जीवन का एक क़िस्सा यूं है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को एक बार स्वप्न में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए. इस के बाद उन्होंने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण-चरित्र को आमफ़हम हिन्दवी ज़ुबान में लिखने का आदेश दिया. 'हालात-ए-कन्हैया' नामक यह ग्रन्थ अब उनकी काव्य-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में अपनी जगह बना चुका है.
बाद में क़व्वाली जैसी पारलौकिक संगीत विधा को रच देने के बाद उन्होंने जो काव्य रचा वह अब काल-समय की सीमाओं से परे है. पहले सुनिये नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब की आवाज़ में उन्हीं की एक बहुत विख्यात रचना:
क़व्वाली को स्थापित कर चुकने के बाद उन्होंने भाषा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयोग करने आरम्भ किये - ग़ज़ल, मसनवियां, पहेलियां बोल-बांट और तक़रार इत्यादि विधाओं में उनका कार्य देखा जाए तो एकबारगी यक़ीन नहीं होता कि फ़क़त बहत्तर साल की उम्र में एक शख़्स इतना सारा काम कर सकता है.
उनके सारे रचनाकर्म में सूफ़ीवाद की गहरी छाया होती थी और वे उस निराकार परमशक्ति को अपना मेहबूब मानते थे जिस तक पहुंचना ही सूफ़ीवाद का मुख्य उद्देश्य माना गया है. अन्य सूफ़ीवादियों से वे इस मायने में अलहदा थे कि वे भाषा के स्तर पर भी सतत प्रयोग करते रहे. मिसाल के तौर पर सुनिये छाया गांगुली के स्वर में एक और रचना, जिसकी उत्कृष्टता इस बात में निहित है कि ग़ज़ल का रदीफ़ फ़ारसी में है और क़ाफ़िया हिन्दवी में. आप की सहूलियत के लिए इसका अनुवाद भी किये दे रहा हूं:
ज़ेहाल-ए-मिस्किन मकुन तग़ाफ़ुल, दुराये नैना बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रां नदारम अय जां, न लेहो काहे लगाए छतियां
चो शाम-ए-सोज़ां चो ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियां ब इश्क़ आं माह
ना नींद नैनां ना अंग चैना ना आप ही आवें ना भेजें पतियां
यकायक अज़ दिल बज़िद परेबम बबुर्द-ए-चश्मश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाएं प्यारे पी को हमारी बतियां
शबान-ए-हिज्रां दराज़ चो ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह
सखी़ पिया को जो मैं ना देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां
(आंखें फ़ेरकर और कहानियां बना कर यूं मेरे दर्द की अनदेखी न कर
अब बरदाश्त की ताब नहीं रही मेरी जान! क्यों मुझे सीने से नहीं लगा लेता
मोमबत्ती की फड़फड़ाती लौ की तरह मैं इश्क़ की आग में हैरान-परेशान फ़िरता हूं
न मेरी आंखों में नींद है, न देह को आराम, न तू आता है न कोई तेरा पैगाम
अचानक हज़ारों तरकीबें सूझ गईं मेरी आंखों को और मेरे दिल का क़रार जाता रहा
किसे पड़ी है जो जा कर मेरे पिया को मेरी बातें सुना आये
विरह की रात ज़ुल्फ़ की तरह लम्बी, और मिलन का दिन जीवन की तरह छोटा
मैं अपने प्यारे को न देख पाऊं तो कैसे कटे यह रात)
Comments
आपने बहुत अच्छी और दुर्लभ जानकारी दी है। अमीर खुसरो जी हिन्दी में लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं। उनके बारे में आपने सुन्दर जानकारी दी है। आभार
अमीर खुसरो की पहली रचना प्ले नहीं हो रही, शायद '0' सेकेण्ड की है फाइल। कृपया उसे दुबारा अपलोड करें, सुनने की इच्छा है।
छाया गाँगुली की स्वर वाली रचना के शुरू के कुछ शब्द गुलामी (मिथुन चक्रवर्ती, अनिता राज फेम) फिल्म 'ग़ुलामी' में सुनने को मिलते हैं
"ज़ेहाल-ए-मिस्किन मकुन बारंजिश, बेहाल-ए-हिज़्रा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।"
मैंने कहीं पढ़ा था कि इसमें इस शब्दों का सफल प्रयोग गुलज़ार ने अमीर खुसरो से ही प्रेरित होकर किया था। 'ग़ुलामी' का यह गीत हर पीढ़ी का सुनवैया सुनना चाहता है।
छाया गांगुली की आवाज़ वाली रचना में ज़ादू है। बहुत सुखद है सुनना।
सूफीवाद की यह शृंखला बहुत अनमोल है। आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
अशोक जी ,
आभार व बधाई
- लावण्या