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हर एक घर में दिया भी जले- नीलम मिश्रा की गुजारिश

आलेख प्राप्ति समय- 18 Sep 2008 12:33
"आज सुबह एक माँ की गुजारिश थी, अखबार में कि मेरा बेटा बेक़सूर है, अगर उसका गुनाह साबित हो जाय, तो सरेबाजार उसे फांसी दे दीजिये "
वक्त आ गया है, हमे सोचने का कि हम किस राह चल दिए हैं? सभी मुसलमान परिवारों का कैसा रमजान है? और कैसी ईद?कितने मासूम,बेक़सूर और कितने वेवजह इस घटना के शिकार होंगे|कितनी बहने अपने भाई की रिहाई के लिया नमाज अदा कर रही होंगी, रोज एक- एक दिन बड़े होते देख अपनी औलादों को माँ बाप फूले न समाते थे, उनके घरों में कितने दिनों से दिया न जला होगा | अब वक्त आ गया है,हम अपने सभी हिंदू व् मुसलमान भाई को कि एक हो जाय,यह दिखा दे दुनिया वालों को कि कोई लाख चाहे तो भी हमारा कुछ नही बिगाड़ सकता है हम सब एक थे, एक हैं और एक ही रहेंगे |
इस दुआ के साथ -

हर एक घर में दिया भी जले, अनाज भी हो ,
अगर न हो कोई ऐसा तो एहतजाज* भी हो।

हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं,
हुकूमतें जो बदलता है, वो समाज भी हो।

रहेगी कब तलक वादों में कैद खुशहाली,
हर एक बार ही कल क्यों, कभी तो आज भी हो।

न करते शोर-शराबा तो और क्या करते ,
तुम्हारे शहर में कुछ कामकाज तो हो।

हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो,
अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतजाज भी हो।
एहतजाज*= रोष

---निदा फाज़ली

जगजीत सिंह की आवाज़ में 'धूप' फिल्म की यह ग़ज़ल सुनें-

Comments

Vivek Gupta said…
शानदार लेख
लिखना नहीं चाहता था मगर लिखना ही पड़ा कि यह बहुत ही अपरिपक्व और बचकाना लेख है. इससे पता लगता है की आप वास्तविकता से कितनी दूर बैठी हैं. देश में हर तरफ़ बम फट रहे हैं और आप बिना पड़ताल के इस तरह का लेख लिखकर क्या आतंकवादियों से सहानुभूति जताना चाहती हैं. अगर बढ़ती हिंसक घटनाओं के बीच हम इसी तरह अनछुए बैठे अपने खयाली पुलाव पकाते रहे तो वह दिन दूर नहीं है जब हमारी भी बारी आयेगी. ये देशद्रोही किसी के सगे नहीं है.

देश की सेवा में जान न्योछावर करने वाले इंसपेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा को मेरा नमन. देश ने एक वीर खोया है. यह इन वीरों का त्याग ही है की हम घर मैं चैन से बैठकर इस तरह के लेख और उन पर टिप्पणिया लिख पा रहे हैं. हमें इनके त्याग के लिए कृतज्ञ होना चाहिए.
आप जो बात कहना चाह रही थी शायद ठीक से उसे कह नही पायी बेशक जो ग़ज़ल आपने प्रस्तुत की है वो बहुत अच्छी है और मुझे लगता है की शयाद वही भाव आप अपने लेख में भी रखना चाहती थी, लेकिन बहुत अधिक पक्षपाती है आपकी विवेचना, मारे गए मासूम और आम लोगों और मोहन चन्द्र जैसे शहीदों के भी तो परिवार हैं उनकी माँ बहनों के आंसू भी आंसू हैं, अभी एक फ़िल्म आई है "मुंबई मेरी जान" हो सके तो ज़रूर देखियेगा
neelam said…
स्मार्ट इंडियन जी ,
सबसे पहले दिवंगत शर्मा जी को श्रधांजलि देती हूँ ,हमारे घर ,हमारे भारत को महफूज रखने की कोशिश करने वाले उन सभी देशभक्तों को हम सलाम करते हैं ,हमारे भारत को आजाद कराने में मुसलमान भाइयों के योगदान को कोई भी न भूले ,आम जनता जो घुन की तरह पिस रही मेरा आग्रह उन सभी से है ,आपने उनके माँ -बाप की अपील नही सुनी है कि आप जो चाहे वो सजा दीजिये ,और इससे ज्यादा क्या चाहिए आप को ,आप को याद दिलाना चाहती हूँ कि जब, लन्दन में ब्लास्ट हुए थे तब सरदारों को खीच के मारा जा रहा था ,हजारों मील दूर बैठे हुए जो असुरक्षा हम महसूस कर रहे थे ,उन लोगों के प्रति ,आप नही समझेंगे ,क्योंकि आप न तो किसी कि माँ हैं ,न बेटी न ही बहन जो भावनाओं कि प्रतिमूर्ति हैं ,मगर बचकानी नही |
समझ नही पाया आपका उद्देश्य क्या है ?हर मां-बाप को लगता है की उनका बेटा भोला भला बच्चा है ..बिना तथ्यों को जाने आप कैसे ऐसी बातें लिख सकती है....आप एक शहीद की शाहदत पर सवाल उठा रही है ?किसने गोली मारी उन्हें ?क्या आसमान से आयी ?
कुश said…
क्या आप जानती है वो माँ चार साल से अपने बेटे से मिली नही है.. उसे ये भी नही पता की चार सालो से उसका बेटा कहा था और क्या कर रहा था.. और वो कह रही है की दोषी हो तो मार दो.. और उनकी बात को इतनी हाइप दी जा रही है.. ये सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही होता है.. शहीद शर्मा जी को आप दिवंगत शर्मा जी कह रही है.. वो मरे नही है.. शहीद हुए है देश के लिए.. आपके इस पूरे लेख में शहीद शर्मा जी का उल्लेख नही है पर तीन आतंकवादियो के मरने का गम है आपको..

पुलिस आतंकवादियो को पकड़ रही है.. आपसे किसने कहा की मुसलमानो को पकड़ रही है? आतंकवादियो का कोई धर्म नही होता आप जैसे लोग ही तो कहते फिरते है.. फिर जब उन्हे पकड़ा जाए तो मुसलमानो के रमजान में कहा से बाधा आती है.. क्या पूछताछ करना भी पाप है,..

खैर मुझे नही लगता की मेरे कुछ कहने से कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है.. आपका अपना ब्लॉग है जो चाहे लिखे.. पर एक गुज़ारिश है.. यदि आप तीन आतंकवादियो के मरने पर दुखी होकर पोस्ट लिख सकती है.. तो कृपया उन मासूमो के मरने पर भी दुख प्रकट करिए जो ब्लास्ट में मारे गये है...
अच्छी गज़ल पर लेख बिना सोचे समझे और उन राजनैतिक पार्टियों की सोच दिखाता है जो अल्पसंख्यकों पर मात्र वोट के डोरे डाला करती हैं।
आपको पता होना चाहिये कि जामिया में रह रहे आतंकवादियों के बारे में उन्हीं के एक साथी आतंकी ने अहमदाबाद पुलिस और दिल्ली पुलिस को बतलाया था। ये महज संयोग है कि वे आतंकी मुस्लिम समुदाय से थे। आतंकियों का कोई घर-परिवार नहीं होता है। आप को उस माँ का दिखाई पड़ता है पर बम विस्फोट में मारे गये अलग अलग धर्मों के २५ लोग दिखाई नहीं देते?
मोहन चंद्र शर्मा नहीं दिखाई देते जिनका महज १६ वर्ष का लड़का डेंगू की मार झेल रहा था जब वे एंकाऊंटर पर गये? आप इसे "फेक एंकाऊंटर" कह रही हैं? २५ लोगों की जानें भी नकली लग रहीं होंगी?
चाहें कोई मुझे कितना ही कठोर कहे पर मैं यहाँ साफ कहना चाहूँगा कि आतंकियों को देखते ही गोली मार देनी चाहिये। अब चाहें उनके परिवार में कोई भी हो!!! क्योंकि वे भी बम विस्फोट के समय ये नहीं सोचते कि मरने वाला किस धर्म का होगा।

और अगर आप यह समझ रहीं हैं कि केवल मुस्लिम आतंकी ही पकड़े जाते हैं तो ये समझ लीजिये कि आतंकवाद मुस्लिम भी है.. नक्सल और पूर्वोत्तर में बोडो आदि ईसाई भी हैं ...लिट्टे में हिंदू तमिल भी और खालिस्तान समर्थक सिख भी हैं...


मैं भी आप ही तरह आम आदमी हूँ पर न तो मैं दुखी हूँ और न ही अवाक!! मैं दुखी हूँ तो इंस्पेक्टर शर्मा के जाने से.. मैं दुखी हूँ कि कैसे २ आतंकी भाग गये!!
हमें खेद है-

नीलिमा जी का आलेख हमें १८ सितम्बर को ही प्राप्त हो गया था, लेकिन यह ग़ज़ल उपलब्ध न होने स्थिति में हम इसका प्रकाशन नहीं कर सके। फिर यूट्यूब के वीडियो को mp3 में बदलना तय किये, तब तक जामिया नगर की घटना भी घट चुकी थी। कल रात आलेख को सम्पादित करके प्रकाशित किया गया, शायद इसलिए पाठक नीलम मिश्रा का वास्तविक संदेश नहीं समझ पाये।

हमारे संपादन के कारण नीलम मिश्रा जी तथा अन्य पाठकों की भावनाएँ आहत हुई हैं। इसके लिए हम खेद प्रकट करते हैं और मूल लेख को (जैसा हमें प्राप्त हुआ), प्रकाशित कर रहे हैं।

हमारा भी यह उद्देश्य बिलकुल नहीं था कि भावनाओं पर चोट की जाय, शायद संपादन ठीक नहीं हो सका। हिन्द-युग्म परिवार महेश चंद्र शर्मा के बलिदान को झूठला नहीं रहा है। बल्कि सलाम कर रहा है।

पुनः खेद के साथ
Anonymous said…
अब घर से निकलना हो गया है मुश्किल,
जाने किस मोड़ पर खडी है मौत......
दस्तक सी देती रहती है हर वक्त दरवाजे पर,
पलकों के गिरने उठने की जुम्बिश भी सिहरा देती है....
धड़कने बजती है कानो में हथगोलों की तरह,
हलकी आहटें भी थर्राती है जिगर ......
लेकिन जिन्दगी है की रुकने का नाम ही नहीं लेती,
दहशतों के बाज़ार में करते है सांसो का सौदा....
टूटती है, पर बिखरती नहीं हर ठोकर पे संभलती है,
पर कब तक ??? कहाँ तक???????
क्यूंकि अब घर से निकलना हो गया मुश्किल
जाने कौन से मोड़ पे खडी है मौत........
डर से जकड़ी है हवा,दूर तक गूंजते है सन्नाटे...
खुदा के हाथ से छीन कर मौत का कारोबार,
खुद ही खुदा बन बैठे है लोग....
मुखोटों के तिल्लिस्म में असली नकली कौन पहचाने
अपने बेगानों की पहचान में ख़त्म हो रही है जिन्दगी ...
अब लोग दूजों की ख़ुशी में ही मुस्कुरा लेते है,
घर जले जो किसी का तो,दिवाली मना लेते है....
खून से दूजों के खेल लेते है होली,
उडा कर नया कफन किसी को वो ईद मना लेते है........
क्यूंकि घेर से निकलना हो गया है मुशकिल
जाने कौन से मोड़ पर कड़ी है मौत.....
- asha
Atul said…
तो असली खलनायक नियंत्रक महोदय है . मुझे यह भी जानकर आश्चर्य हुआ की पाठको के लेख संपादित करके प्रकाशित किए जाते है , चुनांचे हम उनके असली विचार नहीं पढ़ते है. यह एक बहुत ही दुखद बात है और इस पर बहस होनी चहिये कि हिंद यौग्म संपादित विचारो को क्यो प्रकाशित कर रहा है . क्या किसी लेखक के लेख को यों संपादित करके सिर्फ़ अपनी साईट को लोकप्रिय बनाने के लिए उसके नाम से प्रकाशित करना अपराध नहीं है.
नियंत्रक महोदय के लिए मुझे एक शेर याद आ रहा है

आप अंधेरे में कब तक रहेगे
फ़िर कोई घर जला दीजिये

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