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लता संगीत उत्सव ( २ ) - लावण्या शाह

आज भी कहीं कुरमुरा देख लेतीं हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं..

लता संगीत उत्सव की दूसरी कड़ी के रूप में हम आज लेकर आए हैं, लता जी की मुंहबोली छोटी बहन और मशहूर कवि गीतकार, स्वर्गीय श्री पंडित नरेन्द्र शर्मा (जिन्होंने नैना दीवाने, ज्योति कलश छलके, और सत्यम शिवम् सुन्दरम जैसे अमर गीत रचे हैं) की सुपुत्री, लावण्या शाह का यह आलेख -

पापाजी और दीदी, २ ऐसे इंसान हैं जिनसे मिलने के बाद मुझे ज़िंदगी के रास्तों पे आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मिली है -
सँघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं- सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उनपर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने इन २ व्यक्तियों से सीखा। उनका सानिध्य मुझे ये सिखला गया कि अपने में रही कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरुरी है- उनके उदाहरण से हमें इंसान के अच्छे गुणों में विश्वास पैदा करवाता है।

पापा जी का लेखन,गीत, साहित्य और कला के प्रति उनका समर्पण और दीदी का संगीत, कला और परिश्रम करने का उत्साह, मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दे गया।

उन दोनों की ये कला के प्रति लगन और अनुदान सराहने लायक है ही परन्तु उससे भी गहरा था उनका इंसानियत से भरापूरा स्वरूप जो शायद कला के क्षेत्र से भी ज्यादा विस्तृत था। दोनों ही व्यक्ति ऐसे जिनमें इंसानियत का धर्म कूटकूट कर भरा हुआ मैंने बार बार देखा और महसूस किया ।

जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर पैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिती रह गयी है। ये शब्द फिर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में --

दीदी ने अपनी संगीत के क्षेत्र में मिली हर उपलब्धि को सहजता से स्वीकार किया है और उसका श्रेय हमेशा परमपिता ईश्वर को दे दिया है। पापा और दीदी के बीच, पिता और पुत्री का पवित्र संबंध था जिसे शायद मैं मेरे संस्मरण के द्वारा बेहतर रीत से कह पाऊँ -

हम ३ बहनें थीं - सबसे बड़ी वासवी, फिर मैं, लावण्या और मेरे बाद बांधवी.

हाँ, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी सबसे बड़ी दीदी थीं जो हमारे साथ-साथ अम्मा और पापाजी की छत्रछाया में पलकर बड़ी हुईं। पर सबसे बड़ी दीदी, लता दीदी ही थीं- उनके पिता पण्डित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद १२ वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पे मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने बाई बहनों को जिनके बारे में, ये सारे किस्से मशहूर हैं। पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं--उनकी मुलाक़ात, पापा से, मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई थी- पापा को याद है दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊँ चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा--- दीदी जान गयी थीं पापा उनके शुभचिंतक हैं- संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र हृदय को समझ पायी थीं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछुडे पिता की छवि दीखलाई दी थी। वे हमारे खार के घर पर आयी थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक, सफलता से जीत रहीं थीं-- संगीत ही उनका जीवन था-गीत साँसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहाँ रात देर से ही अकसर गीत का ध्वनि-मुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि बंबई का शोर-शराबा शाम होने पे थमता- दीदी से एक बार सुन कर आज दोहराने वाली ये बात है !

कई बार वे भूखी ही, बाहर पड़ी किसी बेंच पे सुस्ता लेती थीं, इंतजार करते हुए ये सोचतीं "कब गाना गाऊंगी पैसे मिलेंगें और घर पे माई और बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें, उनके पास पहुँचकर आराम करूंगी!" दीदी के लिए माई कुरमुरों से भरा कटोरा ढँक कर रख देती थी जिसे दीदी खा लेती थीं पानी के गिलास के साथ सटक के ! आज भी कहीं कुरमुरा देख लेती हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं :)

ये शायद उन दिनों की याद है- क्या इंसान अपने पुराने समय को कभी भूल पाया है? यादें हमेशा साथ चलती हैं, ज़िंदा रहती हैं-- चाहे हम कितने भी दूर क्यों न चले जाएँ --

फ़िर समय चक्र चलता रहा - हम अब युवा हो गए थे -- पापा आकाशवाणी से सम्बंधित कार्यों के सिलसिले में देहली भी रहे .फिर दुबारा बंबई के अपने घर पर लौट आए जहाँ हम अम्मा के साथ रहते थे, पढाई करते थे। हमारे पड़ौसी थे जयराज जी- वे भी सिने कलाकार थे और तेलगु, आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी, पंजाबी थीं (उनके बारे में आगे लिखूंगी ) -- उनके घर फ्रीज था सो जब भी कोई मेहमान आता, हम बरफ मांग लाते शरबत बनाने में ये काम पहले करना होता था और हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे ..पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था- एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" जिसे हमने , अनसुना कर दिया। :-))... आख़िर हमारे मेहमान का हमें उस वक्त ज्यादा ख़याल था ...ना कि ऐसी बातों का !!
बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पे नंगे पैर, इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी नें .....
और उनका मन पसीज गया !

- जिसका नतीजा ये हुआ के एक दिन मैं कॉलिज से लौट रही थी,बस से उतर कर, चल कर घर आ रही थी ... देखती क्या हूँ कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपे एक फ्रिज रखा हुआ है रस्सियों से बंधा हुआ।

तेज क़दमों से घर पहुँची, वहाँ पापा, नाराज, पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर-दीदी का फोन आया था-वहाँ बात करने आ-जा रहीं थीं ! फोन हमारे घर पर भी था, पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ़ काम के लिए ही करते थे और कई फोन हमें, जयराज जी के घर रिसीव करने दौड़ कर जाना पड़ता था। दीदी, अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं "पापा से कहो ना भाभी, फ्रीज का बुरा ना मानें। मेरे भाई-बहन आस-पड़ौस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता- छोटा सा ही है ये फ्रीज ..जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं ... ".अम्मा पापा को समझा रही थीं -- पापा को बुरा लगा था -- वे मिट्टी के घडों से ही पानी पीने के आदी थे। ऐसा माहौल था मानो गांधी बापू के आश्रम में फ्रीज पहुँच गया हो!!

पापा भी ऐसे ही थे। उन्हें क्या जरुरत होने लगी भला ऐसे आधुनिक उपकरणों की? वे एक आदर्श गांधीवादी थे- सादा जीवन ऊंचे विचार जीनेवाले, आडम्बर से सर्वदा दूर रहनेवाले, सीधे सादे, सरल मन के इंसान !

खैर! कई अनुनय के बाद अम्मा ने, किसी तरह दीदी की बात रखते हुए फ्रीज को घर में आने दिया और आज भी वह, वहीं पे है ..शायद मरम्मत की ज़रूरत हो ..पर चल रहा है !

हमारी शादियाँ हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुँचीं ..अम्मा से कहने लगीं, "भाभी,लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहाँ से इतना खर्च करेंगें? रख लो ..ससुराल जाएँगीं, वहाँ सबके सामने अच्छा दीखेगा" -- कहना न होगा हम सभी रो रहे थे ..और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमरभर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियाँ सम्पन्न हों उसके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं ! ममता का ये रूप, आज भी आँखें नम कर रहा है जब ये लिखा जा रहा है ...मेरी दीदी ऐसी ही हैं। भारत कोकीला और भारत रत्ना भी वे हैं ही ..मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही,याद रहता है --



फिर पापा की ६०वीं साल गिरह आयी-- दीदी को बहुत उत्साह था कहने लगीं- "मैं,एक प्रोग्राम दूंगीं,जो भी पैसा इकट्ठा होगा, पापा को भेंट करूंगी।"

पापा को जब इस बात का पता लगा वे नाराज हो गए, कहा- "मेरी बेटी हो, अगर मेरा जन्मदिन मनाना है, घर पर आओ, साथ भोजन करेंगें, अगर मुझे इस तरह पैसे दिए, मैं तुम सब को छोड़ कर काशी चला जाऊंगा, मत बांधो मुझे माया के फेर में।"

उसके बाद, प्रोग्राम नहीं हुआ- हमने साथ मिलकर, अम्मा के हाथ से बना उत्तम भोजन खाया और पापा अति प्रसन्न हुए।
आज भी यादों का काफिला चल पड़ा है और आँखें नम हैं ...इन लोगों जैसे विलक्षण व्यक्तियों से, जीवन को सहजता से जीने का, उसे सहेज कर, अपने कर्तव्य पालन करने के साथ, इंसानियत न खोने का पाठ सीखा है उसे मेरे जीवन में कहाँ तक जी पाई हूँ, ये अंदेशा नहीं है फिर भी कोशिश जारी है .........

- लावण्या

(चित्र - स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर पँडित नरेन्द्र शर्मा की " षष्ठिपूर्ति " के अवसर पर, माल्यार्पण करते हुए)

Comments

लावण्या जी,
बहुत अच्छा लगा, दो महान व्यक्तित्वों के बारे में आपके प्यार-भरे संस्मरण सुनकर. सच में यह आपकी खुशनसीबी है की आपको ऐसी दो महान हस्तियों का साथ, प्यार और आशीष मिला.
और आपकी लेखनी भी क्या खूब है, कितना भी पढ़ें, दिल नहीं भरता है.
लावण्या जी,

मेरी भी आंखें नम हो आईं। महान विभूतियों में ईश्वर का वास होता है। आज जाना कि स्वर-सामज्ञ्री, स्नेह-सामज्ञ्री भी हैं।
mamta said…
आपसे पंडित जी और लता जी के जानने का मौका मिला । अहोभाग्य हमारे।
neelam said…
लता जी एक महान विभूति है ,उनके साथ पंडित नरेन्द्र शर्मा के बारे में भी जानकारी मिली ,धन्यवाद लावण्या जी ,आपको शत शत नमन |
pallavi trivedi said…
kitna sundar sansmaran aapne hamare saath shere kiya...thanx...
आप सभी से यहाँ जो स्नेह भरे सँदेश मिले हैँ उन्हेँ सर आँखोँ पर !
जो भी यहाँ तक आया है,
उनसे सिर्फ यही नम्र प्रार्थना है कि,
वे मेरी और आप सब की,
लता दीदी की लँबी ऊम्र
और स्वास्थ्य के लिये कामना करे !
बहुत स्नेह के साथ,
-लावण्या
लावण्या जी पंडित जी और लता जी दोनों ही मेरे लिए पूजनिये हैं, अभी हाल ही में गणेश चतुर्थी पर बेटी के स्कूल में " यशोमती मैया से" गीत पर उसे प्रोग्राम देना था, उसकी तैयारी करते समय, एक बार फ़िर याद आए पंडित जी और लता दी, आपका संस्मरण ऐसा है जो सिर्फ़ जानकारी नही देता बल्कि एक चिरस्थायी प्रेरणा से भर देता है, एक आशा का संचार कर देता है, एक सपना है मेरा लता दी से मिलने का, पता नही पूरा होगा या नही :) पर इस लता संगीत उत्सव का हिस्सा बन कर ख़ुद को बहुत संतुष्ट महसूस कर रहा हूँ, आपका बहुत बहुत आभार एक बार फ़िर
सजीव जी,
नमस्ते !
आपका सँदेश मिला पढकर खुशी हुई - आपकी बिटिया को मेरा स्नेहाषिश दीजियेगा.
" यशोमती मैया से बोले नँदलाला " बडा ही कर्णप्रिय गीत है मेरा प्रिय भी है - दीदी की सालगिरह ला आयोजन बढिया हो रहा है उसकी खुशी है - पूज्य पापाजी के प्रति आपका आदरभाव समझ रही हूँ ये पेरा परम सौभाग्य है कि उन जैसे प्रतिभावान और सच्चरित्र पिता की पुत्री होने का सौभाग्य मिला !
दीदी और पापा से शारीरिक और भौगोलिक दूरी रहते हुए भी मेरी श्रध्धा आज भी उन्हेँ प्रणाम करती रहती है और प्रेरणा स्त्रोत बनी हुई हैँ ..आपकी हरेक ईच्छा पूरी हो और आपका हर कार्य सफल हो यही स्नेहाषिश भेज रही हूँ ..
शुभम्`
- लावण्या
लावण्या जी आपको शत-शत धन्यवाद जो अपने हमें इन महान कलाकारों के बारे में और करीब से जानने का मौका दिया
Vivek Gupta said…
शानदार
Anonymous said…
Lavanya jee, aapka aalekh padha, aur man paseej sa gaya, Lata jee ko to waise hi hum ek kalakar ke roop me adar aur samman karte hai, aapne unka ek naya pahlu bhi dikhaya!! Mujhe nahi pata ki ye mail aap tak pahuchega bhi ya nahi, fir bhi insaan ko chahiye ki wo koshish kare, safalta to bhagwaan ke haathoN meiN hai

jaideep_pandey
दिव्या जी, विवेक जी व जैदीप जी,
आपकी टीप्पणीयाँ मैँने पढी हैँ और आप सभी को सच्चे मन से धन्यवाद कह रही हूँ ~~
स्नेह,
-लावण्या

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