ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 453/2010/153
ख़य्याम साहब एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होने ना केवल अपने संगीत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्होनें कभी सस्ते बोल वाले गीतों को स्वरबद्ध करना भी नहीं स्वीकारा। नतीजा यह कि ख़य्याम साहब का हर एक गीत उत्कृष्ट है, क्लासिक है। ख़्य्याम साहब ८० के दशक के उन गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत के बदलते तेवर के बावजूद अपने स्तर को बनाए रखते हुए एक से एक नायाब गानें हमें दिए। इसलिए आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि हमारी इस शृंखला में कुल १० ग़ज़लों में से ४ ग़ज़लें ख़य्याम साहब की कॊम्पोज़ की हुई हैं। इन चार ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल फ़िल्म 'उमरावजान' से कल आपने सुनी, आज दूसरी ग़ज़ल की बारी। और इस बार आवाज़ आशा जी की बड़ी बहन लता जी की। नक्श ल्यालपुरी साहब का कलाम है और क्या ख़ूब उन्होने लिखा है कि "अहल-ए-दिल यूँ भी निभा लेते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं"। आज 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में इसी ग़ज़ल की बारी। १९८१ की फ़िल्म 'दर्द' की यह ग़ज़ल है। इस फ़िल्म के गीतों की अगर बात करें तो इसमें दो शीर्षक गीत शामिल हैं; एक तो आशा-किशोर का गाया "प्यार का दर्द है, मीठा मीठा प्यारा प्यारा", और दूसरा है यह प्रस्तुत ग़ज़ल। इस ग़ज़ल के भी दो वर्ज़न हैं, पहला लता जी का गाया हुआ और दूसरा भूपेन्द्र की आवाज़ में। ख़य्याम साहब के हिसाब से पहला गीत यंग जेनरेशन के लिहाज़ से बना था, और दूसरा गीत, यानी कि यह ग़ज़ल सीनियर जेनरेशन के लिए बनाया गया था। फ़िल्म 'दर्द' का निर्माण किया था श्याम सुंदर शिवदासानी ने और निर्देशक थे अम्ब्रीश संगल। फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ३१ जुलाई १९८१ के दिन, जिसके मुख्य कलाकार थे राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, पूनम ढिल्लों, कृषण धवन प्रमुख।
नक्श ल्यालपुरी ने ख़य्याम के साथ बहुत सी फ़िल्मों में काम किया है, जैसे कि 'दर्द', 'आहिस्ता आहिस्ता', 'ख़ानदान', 'नूरी', आदि। जब नक्श साहब को विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में ख़य्याम साहब के बारे में पूछा गया, तो और बातों ही बातों में फ़िल्म 'दर्द' का भी ज़िक्र आया था। आइए उसी मुलाक़ात का एक अंश यहाँ पढ़ते हैं -
प्र: ख़य्याम साहब से जुड़ी कोई यादगार घटना याद है आपको?
उ: फ़िल्म 'दर्द' में एक गाना था "न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया", इस गीत के लिए जब मैंने मुखड़ा फ़ाइनलाइज़ किया तो ख़य्याम साहब बोले कि यह तो अंतरे का मीटर है, आपने इसे मुखड़ा बना दिया! मैंने कहा कि सभी को पसंद आ गया और यह भी अच्छा बन सकता है। जब यह गाना बना तो राजेश खन्ना हर एक को यह गाना पूरे एक महीने तक सुनवाते रहे।
प्र: ख़य्याम साहब का कौन सा गीत आपको सब से ज़्यादा पसंद है?
उ: "बहारों मेरा जीवन भी संवारो", 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का यह गीत मेरा फ़ेवरीट है। फिर 'शगुन', 'फिर सुबह होगी' और 'उमरावजान' के गानें भी मुझे बेहद पसंद है।
प्र: ख़य्याम साहब आज भी ऐक्टिव हैं फ़िल्म जगत में।
उ: जी हाँ, भगवान उन्हे लम्बी उम्र दे!
तो दोस्तों, यह तो रही नक्श ल्यालपुरी से कमल शर्मा की बातचीत का एक छोटा सा अंश जिसमें ज़िक्र छिड़ा था ख़य्याम साहब का। आइए अब इस प्यारी सी ग़ज़ल को सुना जाए लता जी की शहद घोलती आवाज़ में, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के कुल ७ शेर ...
लता वर्ज़न:
अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।
दिल की महफ़िल में उजालों के लिए,
याद की शम्मा जला लेते हैं।
जलते मौसम में भी ये दीवाने,
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं।
अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ,
कितने अफ़सानें सुना लेते हैं।
जिनको जीना है मोहब्बत के लिए,
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं।
भूपेन्द्र वर्ज़न:
अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।
ज़ख़्म जैसे भी मिले ज़ख़्मों से,
दिल के दामन को सजा लेते हैं।
अपने क़दमों पे मुहब्बत वाले,
आसमानों को झुका लेते हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि नक्श ल्यालपुरी ने फ़िल्मों के लिए करीब करीब ६० मुजरे लिखे हैं और हर एक का अंदाज़ एक दूसरे से अलग रहा। यह बात उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहा था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. मतले की पहली पंक्ति में शब्द है "खुदा", शायर बताएं - ३ अंक.
२. कल इस महान गायक की जयंती है, नाम बताये - १ अंक.
३. १९८५ में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. इस संगीतकार को भी कल हम पहली बात ओल्ड इस गोल्ड में सुनेंगे, जिन्हें सामानांतर फिल्मों के संगीतकार के रूप में अधिक जाना जाता है, कौन हैं ये कमाल के संगीतकार - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी आपने ओ सवालों के जवाब दे डाले, इसलिए आपको नक् नहीं मिल पायेंगें, पर आपने एक खूबसूरत याद को हमारे साथ शेयर किया, वाकई वो दिन भी कुछ खास थे, शरद जी, और पवन जी सही जवाबों के लिए बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ख़य्याम साहब एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होने ना केवल अपने संगीत के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया, बल्कि उन्होनें कभी सस्ते बोल वाले गीतों को स्वरबद्ध करना भी नहीं स्वीकारा। नतीजा यह कि ख़य्याम साहब का हर एक गीत उत्कृष्ट है, क्लासिक है। ख़्य्याम साहब ८० के दशक के उन गिने चुने संगीतकारों में से हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत के बदलते तेवर के बावजूद अपने स्तर को बनाए रखते हुए एक से एक नायाब गानें हमें दिए। इसलिए आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि हमारी इस शृंखला में कुल १० ग़ज़लों में से ४ ग़ज़लें ख़य्याम साहब की कॊम्पोज़ की हुई हैं। इन चार ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल फ़िल्म 'उमरावजान' से कल आपने सुनी, आज दूसरी ग़ज़ल की बारी। और इस बार आवाज़ आशा जी की बड़ी बहन लता जी की। नक्श ल्यालपुरी साहब का कलाम है और क्या ख़ूब उन्होने लिखा है कि "अहल-ए-दिल यूँ भी निभा लेते हैं, दर्द सीने में छुपा लेते हैं"। आज 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में इसी ग़ज़ल की बारी। १९८१ की फ़िल्म 'दर्द' की यह ग़ज़ल है। इस फ़िल्म के गीतों की अगर बात करें तो इसमें दो शीर्षक गीत शामिल हैं; एक तो आशा-किशोर का गाया "प्यार का दर्द है, मीठा मीठा प्यारा प्यारा", और दूसरा है यह प्रस्तुत ग़ज़ल। इस ग़ज़ल के भी दो वर्ज़न हैं, पहला लता जी का गाया हुआ और दूसरा भूपेन्द्र की आवाज़ में। ख़य्याम साहब के हिसाब से पहला गीत यंग जेनरेशन के लिहाज़ से बना था, और दूसरा गीत, यानी कि यह ग़ज़ल सीनियर जेनरेशन के लिए बनाया गया था। फ़िल्म 'दर्द' का निर्माण किया था श्याम सुंदर शिवदासानी ने और निर्देशक थे अम्ब्रीश संगल। फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ३१ जुलाई १९८१ के दिन, जिसके मुख्य कलाकार थे राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, पूनम ढिल्लों, कृषण धवन प्रमुख।
नक्श ल्यालपुरी ने ख़य्याम के साथ बहुत सी फ़िल्मों में काम किया है, जैसे कि 'दर्द', 'आहिस्ता आहिस्ता', 'ख़ानदान', 'नूरी', आदि। जब नक्श साहब को विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में ख़य्याम साहब के बारे में पूछा गया, तो और बातों ही बातों में फ़िल्म 'दर्द' का भी ज़िक्र आया था। आइए उसी मुलाक़ात का एक अंश यहाँ पढ़ते हैं -
प्र: ख़य्याम साहब से जुड़ी कोई यादगार घटना याद है आपको?
उ: फ़िल्म 'दर्द' में एक गाना था "न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया", इस गीत के लिए जब मैंने मुखड़ा फ़ाइनलाइज़ किया तो ख़य्याम साहब बोले कि यह तो अंतरे का मीटर है, आपने इसे मुखड़ा बना दिया! मैंने कहा कि सभी को पसंद आ गया और यह भी अच्छा बन सकता है। जब यह गाना बना तो राजेश खन्ना हर एक को यह गाना पूरे एक महीने तक सुनवाते रहे।
प्र: ख़य्याम साहब का कौन सा गीत आपको सब से ज़्यादा पसंद है?
उ: "बहारों मेरा जीवन भी संवारो", 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का यह गीत मेरा फ़ेवरीट है। फिर 'शगुन', 'फिर सुबह होगी' और 'उमरावजान' के गानें भी मुझे बेहद पसंद है।
प्र: ख़य्याम साहब आज भी ऐक्टिव हैं फ़िल्म जगत में।
उ: जी हाँ, भगवान उन्हे लम्बी उम्र दे!
तो दोस्तों, यह तो रही नक्श ल्यालपुरी से कमल शर्मा की बातचीत का एक छोटा सा अंश जिसमें ज़िक्र छिड़ा था ख़य्याम साहब का। आइए अब इस प्यारी सी ग़ज़ल को सुना जाए लता जी की शहद घोलती आवाज़ में, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के कुल ७ शेर ...
लता वर्ज़न:
अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।
दिल की महफ़िल में उजालों के लिए,
याद की शम्मा जला लेते हैं।
जलते मौसम में भी ये दीवाने,
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं।
अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ,
कितने अफ़सानें सुना लेते हैं।
जिनको जीना है मोहब्बत के लिए,
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं।
भूपेन्द्र वर्ज़न:
अहल-ए-दिल युं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं।
ज़ख़्म जैसे भी मिले ज़ख़्मों से,
दिल के दामन को सजा लेते हैं।
अपने क़दमों पे मुहब्बत वाले,
आसमानों को झुका लेते हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि नक्श ल्यालपुरी ने फ़िल्मों के लिए करीब करीब ६० मुजरे लिखे हैं और हर एक का अंदाज़ एक दूसरे से अलग रहा। यह बात उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहा था।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. मतले की पहली पंक्ति में शब्द है "खुदा", शायर बताएं - ३ अंक.
२. कल इस महान गायक की जयंती है, नाम बताये - १ अंक.
३. १९८५ में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. इस संगीतकार को भी कल हम पहली बात ओल्ड इस गोल्ड में सुनेंगे, जिन्हें सामानांतर फिल्मों के संगीतकार के रूप में अधिक जाना जाता है, कौन हैं ये कमाल के संगीतकार - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी आपने ओ सवालों के जवाब दे डाले, इसलिए आपको नक् नहीं मिल पायेंगें, पर आपने एक खूबसूरत याद को हमारे साथ शेयर किया, वाकई वो दिन भी कुछ खास थे, शरद जी, और पवन जी सही जवाबों के लिए बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
Kish..
Ottawa, Canada
ये जो साइड में गाना दिया है न 'ओ बेकरार दिल हो गया है मुझको आंसुओं से प्यार' बस उसी में खो गए.
मजा आ गया सच्ची.
बहुत शैतान,शरारती,नालायक और दुष्ट हूं मैं किन्तु...........
एक 'इंदु' है जो इन गानों और ऐसे गानों को बहुत पसंद करती है और उन्हें सुन कर उसे टप टप आँसू टपकाना भी बहुत भाता है.
हा हा हा
क्या करूँ?
ऐसिच हूं मैं
प्यार
इंदु