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आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको.... "अश्क़" के हवाले से चेता रहे हैं "चंदन दास"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४४

गर पिछली कड़ी की बात करें तो उस कड़ी की प्रश्न-पहेली का हमारा अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। "सीमा" जी जवाबों के साथ सबसे पहले हाज़िर तो हुईं लेकिन उन्होंने फिर से डेढ सवालों का हीं सही जवाब दिया। हमें लगा कि इस बार भी हमें वही करना होगा जो हमने पिछली बार किया था यानि कि उधेड़बुन का निपटारा, लेकिन "सीमा" जी की खेल-भावना ने हमें परेशान होने से बचा लिया। यह तो हुई अच्छी बात लेकिन जिस बुरे अनुभव का हम ज़िक्र कर रहे हैं वह है शरद जी का देर से महफ़िल में हाज़िर होना (मतलब कि पुकार लगाने के बाद) और शामिख जी का शरद जी के जवाबों को हुबहू छाप देना। शामिख जी, यह बात हमने वहाँ टिप्पणी करके भी बता दी थी कि सही जवाबों के बावजूद आपको कोई अंक नहीं मिलेगा। हमारे प्रश्न इतने भी मुश्किल न हैं कि आपको ऐसा करना पड़े। और हाँ, आपने शायद नियमों को सही से नहीं पढा है। हर सही जवाब देने वाले को कम से कम १ अंक मिलना तो तय है। इसलिए आपका यह कहना कि चूँकि सीमा जी ने जवाब दे दिया था इसलिए मैने कोशिश नहीं की, का कोई मतलब नहीं बनता। शरद जी, आपको भी मान-मनव्वल की जरूरत आन पड़ी। आप तो हमारे नियमित पाठक/श्रोता/पहेली-बूझक रहे हैं। खैर पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब कुछ यूँ बनता है- सीमा जी: ३ अंक , शरद जी: २.५ अंक (.५ अंक बोनस, बाकी बचे आधे सवाल का सही जवाब देने के लिए)। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) "कमाल अमरोही" के शहर में अंतिम साँसें लेने वाला एक शायर जो उनकी एक फ़िल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर भी था। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि महफ़िल-ए-गज़ल में हमने उनकी जो नज़्म पेश की थी उसे आवाज़ से किसने सजाया था?
२) एक फ़नकार जिसने महेश भट्ट के लिए "डैडी" में गाने गाए तो "खय्याम" साहब के लिए "उमराव जान" में। उस फ़नकार के नाम के साथ यह भी बताएँ कि उनकी सर्वश्रेष्ठ १६ गज़लों से लबरेज एलबम का नाम क्या है?


आज हम जिस फ़नकार जिस गायक की नज़्म लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं उसकी ताज़ातरीन एलबम का नाम है "जब दिल करते हैं, पीते हैं"। इस एलबम में संगीत है "जयदेव कुमार" का तो फ़ैज़ अनवर, प्याम सईदी, इसरार अंसारी और नसिम रिफ़त की नज़्मों और गज़लों को इस एलबम में स्थान दिया गया है। १२ मार्च १९५६ को जन्मे इस फ़नकार ने ८ साल की छोटी-सी उम्र में गाना शुरू कर दिया था। इन्होंने उस्ताद मूसा खान से गज़ल और पंडित मणी प्रसाद से शास्त्रीय संगीत की तालीम ली है। २६ साल की उम्र में इनकी गज़लों की पहली एलबम रीलिज हुई थी जिसमें इनका परिचय स्वयं तलत अज़ीज़ साहब ने दिया था। १९८३ में इन्हें "बेस्ट न्यु गज़ल सिंगर" के अवार्ड से नवाज़ा गया। १९९३ में इनकी एलबम "दीवानगी" के लिए "एस०यु०एम०यु०" की तरफ़ से इन्हें "बेस्ट गज़ल" और "बेस्ट गज़ल सिंगर" के दो अवार्ड मिले। आज भी इनकी गज़लों की रुमानियत और इनकी आवाज़ में बसी सच्चाई बरकरार है। अब तो आप समझ हीं गए होंगे कि हम किनकी बात कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं "चंदन दास" की, जिन्होंने "दिल की आवाज़", "सदा", "पिया नहीं जब गाँव में", "इनायत", "एक महफ़िल", "तमन्ना", "अरमान", "जान-ए-गज़ल", "सितम", "चाहत", "ऐतबार-ए-वफ़ा" और "गुजारिश" जैसे न जाने कितने एलबमों में न सिर्फ़ गायन किया है, बल्कि इन्हें संगीत से भी सजाया है। चंदन दास से जब यह पूछा गया कि उनके पास अपने संगीत सफ़र की कैसी यादें जमा हैं तो उनका कहना था: पिताजी नहीं चाहते थे कि मैं संगीत के क्षेत्र को अपनाऊं। वो चाहते थे कि मैं उनका मूर्शिदाबाद का व्यापार संभालूँ। घर में खूब विरोध हुआ और संगीत के लिए मैंने घर छोड़ दिया और ग्यारहवीं कक्षा के बाद अपने चाचा के पास पटना आ गया। १९७६ में फिर मैं दिल्ली चला गया जहाँ ओबराय होटल में काम करने लगा। वहीं पर काफ़ी संघर्ष के बाद जब मुझे दिल्ली दूरदर्शन में गजल पेश करने का मौका मिला तो उस कार्यक्रम को देखकर पिताजी मुझसे मिलने दिल्ली आए थे। उस वक्त लगभग १४ साल बाद पिताजी से मुलाकात हुई थी।

गज़ल पेश करने भोपाल गए "चंदन दास" से "भास्कर" की खास मुलाकात में उन्होंने आजकल के संगीत के बारे में भी ढेर सारी बातें की थी। प्रस्तुत है उनसे किए गए कुछ प्रश्न और उनके बेहतरीन जवाब: फिल्मों से गजलें एकदम गायब सी हैं? आजकल की फिल्मों में वैसी सिचुएशन नहीं रहती कि गजले शामिल हो सकें। पहले की फिल्मों में गजलों को खासी जगह मिलती थी, अब तो फिल्मों में गजलों का नामो-निशान तक नहीं रह गया है। गजल गायकी की वर्तमान हालत से संतुष्ट हैं? गजल पर फ्यूजन हावी हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि इसके मूल स्वरूप से खिलवाड़ होने लगा है। गाने वालों को उर्दू की समझ ही नहीं। क्या गजलों से श्रोताओं की दूरी बन रही है? यह सही है कि पश्चिम के संगीत की वजह से गजलों से श्रोताओं की दूरी बनी है। गजल एक गंभीर विधा है। इसे समझने, जानने वाले श्रोता हमेशा विशिष्ट होते हैं। गजल गायकी की चाहत रखने वालों को इस विधा को सीखने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। इसके लिए पहले अच्छे गुरु से तालीम हासिल करनी चाहिए और निपुण होने के बाद ही गायकी प्रारंभ करनी चाहिए। गजलों के लिए भी रिएलिटी शो होना चाहिए? गजल एक विशिष्ट विधा है। यदि गजलों के लिए रिएलिटी शो होंगे तो इसकी अहमियत खत्म हो जाएगी। फिर सभी गजल गाने लगेंगे और इसकी महत्ता खत्म हो जाएगी, इसलिए गजलों को रिएलिटी शो से नहीं जोड़ना चाहिए। आपकी पसंदीदा गजल? १९८२ में मेरा पहला एलबम आया था और मेरी पहली गजल थी ‘इस सोच में बैठा हूं, क्या गम उसे पहुंचा है..’ लेकिन मुझे पहचान ‘न जी भर के देखा, न कुछ बात की..’ से मिली। आज इसके बिना कोई कार्यक्रम पूरा नहीं होता। चंदन दास के बारे में इतनी सारी बातें करने के बाद अब वक्त है आज की नज़्म के शायर से मुखातिब होने का। शायद हीं कोई ऐसा होगा जिसने "कहो ना प्यार है", "कोई मिल गया" या फिर "क्रिश" के गाने न सुने हो और अगर सुने हों तो उन गानों ने उसे छुआ न हो और अगर छुआ हो तो वह उन्हें जानता न हो। वैसे हम अपनी महफ़िल में उस मँजे हुए गीतकार की एक गज़ल पहले हीं पेश कर चुके हैं। याद न आ रहा हो तो ढूँढ लें नहीं तो कभी न कभी उनसे जुड़ा कोई सवाल हमारी "प्रश्न-पहेली" में ज़रूर हाज़िर हो जाएगा। तो हमारी आज़ की नज़्म के गीतकार/शायर जनाब इब्राहिम अश्क़ साहब हैं। अब चूँकि आज की कड़ी हमने "चंदन दास" के हवाले कर दी है, इसलिए अश्क़ साहब की बातें आज भी नहीं हो सकती। लेकिन उनका यह शेर तो देख हीं सकते हैं। वैसे जानकारी के लिए बता दें कि यह शेर जिस गज़ल से है, उस गज़ल को भी स्वरबद्ध "चंदन दास" ने हीं किया है। ज़रा अपने जेहन पर जोर देकर यह पता लगाएँ कि वह गज़ल कौन-सी है:

इस दौर में जीना मुश्किल है, ऐ अश्क़ कोई आसान नहीं,
हर एक कदम पर मरने की अब रश्म चलाई लोगों ने।


"गज़ल उसने छेड़ी" एलबम से ली गई इस नज़्म की मिठास तब तक समझ नहीं आ सकती जब तक कि आपकी श्रवणेन्द्रियाँ खुद इसका भोग न लगा लें। इसलिए देर न करें और आनंद लें इस नज़्म का:

फिर मेरे दिल पे किसी दर्द ने करवट ली है,
फिर तेरी याद के मौसम की घटा छाई है,
फिर तेरे नाम कोई खत मुझे लिखना होगा,
तेरा खत बाद-ए-सबा लेके अभी आई है।

आखिरी खत है मेरा, जिसपे है नाम तेरा,
आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको।

भूल जाऊँगा तुझे, ये तो नहीं कह सकता,
दिल पे चलता है कहाँ जोर, मोहब्बत करके,
फिर भी इस बात की लेता हूँ कसम ऐ हमदम,
मैं न तड़पाऊँगा तुझको कभी नफ़रत करके,
बेवफ़ा तू है कभी मैं न कहूँगा तुझको,
आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको।

याद भी गए हुई लम्हों की सताएगी अगर,
आप अपने से कहीं दूर निकल जाऊँगा,
इत्तेफ़ाक़न हीं अगर तुझसे मुलाकात हुई,
अजनबी बनके तेरी राह से चल जाऊँगा,
दिल तो चाहेगा पर आवाज़ न दूँगा तुझको,
आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको।

ये तेरा शहर, ये गलियाँ, दरो-दीवार, ये घर,
मेरे टूटे हुए ख्वाबों की यही जन्नत है,
कल ये सब छोड़कर जाना है बहुत दूर मुझे,
जिस जगह धूप है, सहरा है, मेरी किस्मत है,
याद मत करना मुझे, अब न मिलूँगा तुझको,
आज के बाद कोई खत न लिखूँगा तुझको।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा,
ये ___ रात में रोता बहुत है ...


आपके विकल्प हैं -
a) पागल, b) बच्चा, c) दीवाना, d) बन्दा

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बस्ती" और शेर कुछ यूं था -

बस्ती की हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया...

"साहिर लुधियानवी" के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा" जी ने। सीमा जी ने "बस्ती" शब्द पर कुछ ज्यादा हीं शेर और उससे भी ज्यादा गज़लें पेश की। हम उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत किए देते हैं:

आँसूओं की जहाँ पायमाली रही
ऐसी बस्ती चराग़ों से ख़ाली रही (बशीर बद्र)

चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ (गुलज़ार) (इस शेर को आपने दो बार पेस्ट किया है। बस यह शेर हीं नहीं आपने पूरी गज़ल दुहरा दी है। क्या अर्थ निकालें इसका? :) )

छा रहा हैं सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं (क़तील शिफ़ाई)

दिल की उजड़ी हुई बस्ती,कभी आ कर बसा जाते
कुछ बेचैन मेरी हस्ती , कभी आ कर बहला जाते... (यह आपकी पंक्तियाँ... वैसे अगर आप इतनी गज़लें डालेंगी तो हम कोई भी गज़ल पूरा नहीं पढ पाएँगे और हो सकता है कि आपकी अपनी पंक्तियाँ हीं हमारी नज़रों से छूट जाएँ।)

सीमा जी के बाद इस महा-दंगल में उतरे शामिख साहब। आपने भी वही किया जो सीमा जी ने किया मतलब कि शेरों और गज़लों की बौछार। ये रहे आपकी पेशकश से चुने हुए कुछ शेर:

अब नए शहरों के जब नक्शे बनाए जाएंगे
हर गली बस्ती में कुछ मरघट दिखाए जाएंगे (आपका पसंदीदा शेर)

बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे (साहिर)

कुलदीप जी दो पहलवानों के बीच फ़ँसे हुए-से प्रतीत हुए। कोई बात नहीं आपने कैसे भी करके जगह और समय निकाल हीं लिया। ये रहे आपके शेर:

सूझ रहा ना कोई ठिकाना हर बस्ती में रुसवाई है
हर हिन्दू यहाँ का कातिल है हर मुस्लिम बलवाई है (स्वरचित)

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलने में (बशीर बद्र)

अंत में मंजु जी ने भी अपने स्वरचित शेर पेश किए। यह रही आपकी पेशकश:

उम्मीदों की बस्ती जलाकर
बेवफा का दिल न जला

अब कुछ ज़रूरी बात.... यूँ तो हरेक मंच अपने यहाँ लोगों की उपस्थिति देखकर खुश होता है और हम भी उन्हीं मंचों में से एक हैं और यह भी है कि हमने यही सोचकर अपने यहाँ "शब्द-पहेली" की शुरूआत की थी ताकि लोगों की आमद ज्यादा से ज्यादा हो,लेकिन हमने कुछ नियम भी बना रखे हैं, जो लगता है कि धीरे-धीरे हमारे पाठकों/श्रोताओं के मानस-पटल से उतरते जा रहे हैं।

तो नियम यह था कि महफ़िल में वही शेर(बस शेर, गज़ल नहीं) पेश किए जाएँ, जिसमें उस दिन की पहेली का शब्द आता हो। गज़लों को पेश करने से दिक्कत यह आती है कि न आप उस गज़ल को समझ(पढ) पाते हैं और ना हम हीं। फिर इसका क्या फ़ायदा। एक बात और.. अगर आप २५-३० गज़लें या शेर लेकर महफ़िल में आएँगे तो सोचिए बाकियों का क्या हाल होगा। बाकी लोग तो अपनी झोली खाली देखकर निराश होकर लौट जाएँगे। हम ऐसा भी तो नहीं चाहते। इसलिए आज हम एक और नियम जोड़ते हैं कि महफ़िल में आया हरेक रसिक ज्यादा से ज्यादा १० हीं शेर पेश करे, उससे ज्यादा नहीं। उम्मीद करते हैं कि आप सभी सुधी पाठकजन हमारी इस मिन्नत का बुरा नहीं मानेंगे।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

seema gupta said…
मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा ये बच्चा रात में रोता बहुत है

regards
seema gupta said…
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है



खुदा इस शहर को महफ़ूज़ रखे
ये बच्चो की तरह हँसता बहुत है



मैं हर लम्हे मे सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है



मेरा दिल बारिशों मे फूल जैसा
ये बच्चा रात मे रोता बहुत है



वो अब लाखों दिलो से खेलता है
मुझे पहचान ले, इतना बहुत है

बशीर बद्र
regards
seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
1)बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..... एक फ़रमाईश जो पहुँची कफ़ील आज़र तक
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३२


"कफ़ील आज़र" "कमाल अमरोही" की सदाबहार प्रस्तुति "पाकीज़ा" के ये "असिसटेंट डायरेक्टर" रह चुके हैं। जगजीत सिंह
regards
seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
बच्चा सही लफ्ज़ है.

मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा
ये बच्चा रात में रोता बहुत है
Shamikh Faraz said…
मैं मीर साहब का एक शे'र अर्ज़ कर रहा हूँ इसमें बच्चा लफ्ज़ तो नहीं है लेकिन. एक लफ्ज़ है "टुक" जिसका मतलब होता है बच्चा

सराहने मीर के आहिस्ता बोली
रोते रोते टुक अभी सोया है.
seema gupta said…
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seema gupta said…
2)
खुद-बखुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे...... तलत अज़ीज़ साहब की एक और फ़रियाद
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३९
"तलत अज़ीज़" साहब
उस एलबम का नाम है "इरशाद"
regards
Shamikh Faraz said…
जब मैं छोटा बच्चा था
सपनो का गुलदस्ता था

आज नुमाइश भर हूं मैं
पहले जाने क्या-क्या था

shyam sakha shyam
seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
नजीर अकबराबादी.

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल
मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें
एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है क़लन्दर
हां छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले के अन्दर
जिस दिन से ख़ुदा ने ये दिया, रीछ का बच्चा"

मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया
जो सबकी निगाहों में खुबा रीछ का बच्चा

फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा

इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"

जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा

जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा

यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"

कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछ का बच्चा

जिस दिन से नज़ीर अपने तो दिलशाद यही हैं
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं
सब कहते हैं वह साहिब-ए-ईजाद यही हैं
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा
seema gupta said…
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seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
शाम को सड़क पर
वह बच्चा
बचता हुआ कीचड़ से
टेम्पो, कार-ताँगे से
उसकी आँखों में
चमकती हुई भूख है और
वह रोटी के बारे में
शायद सोचता हुआ...
seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
फूलों और किताबों से आरास्ता घर है

तन की हर आसाइश देने वाला साथी

आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला बच्चा

लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में

जहां कहीं जाती हूं

बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई

एक आवाज़ बराबर गिरय: करती है

मुझे निकालो !

मुझे निकालो !


आरास्ता=सुसज्जित, गिरय:=विलाप

parveen shakir
seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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seema gupta said…
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Shamikh Faraz said…
पहले सवाल का जवाब है
कफील आज़र जो की
महफिले ग़ज़ल.
जगजीत सिंहे
कड़ी न. ३२.

दुसर सवाल. का जवाब है.
तलत अज़ीज़.
"इरशाद"
कड़ी न.३९.
seema gupta said…
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प्रश्न १
शायर : क़फ़ील आज़र
गायक : जगजीत सिंह
कडी : ३२
प्रश्न २
गायक : तलत अज़ीज़
एलबम : इरशाद

सही शब्द : बच्चा
शे’र पेश है :
(स्वरचित)
अपनी बातों में असर पैदा कर
तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’
एक बच्चे सी नज़र पैदा कर ।
seema gupta said…
ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर

वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा।
(कमलेश भट्ट 'कमल' )
हर कोई झूठी तसल्ली दे रहा है इन दिनों

ये शहर रूठा हुआ बच्चा हुआ है दोस्तो।
(कमलेश भट्ट 'कमल' )

मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं

माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं


(मुनव्वर राना )
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

(राजेश रेड्डी)

चाहे नन्हा बच्चा मुँह से बोल नहीं पाए, लेकिन,

घर भर से बातें करता है किलकारी की भाषा में
(जहीर कुरैशी )

एक बच्चा था हवा का झोंका

साफ़ पानी को खंगाल आया है

(दुष्यंत कुमार)

पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए

ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ

(देवमणि पांडेय )
धुआँ बादल नहीं होता कि बादल दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
(मुनव्वर राना )
इक डूबता बच्चा कैसे वो बचाता
उस शख्स में यारों हिम्मत की कमी थी

घर में वो अपनी ज़िद्द से सताता किसे नहीं
ऐ दोस्त ज़िद्दी बच्चा रुलाता किसे नहीं

(प्राण शर्मा )
regards
seema gupta said…
क्षमा कीजियेगा , पोस्ट के अंत मे नये नियमो पर ध्यान नहीं गया और न जाने कितनी गजले पोस्ट कर दी. लकिन अगर भूल का पता चल जाये और सुधार ली जाये तो ......... आगे से इन नियमो पर ध्यान रहेगा. हमने अपने सभी कमेन्ट delete कर दिए है जो यहाँ नियमो का उल्लंघन करते दिखाई दिए.

regards
सीमा जी,
उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारे बदले नियमों का बुरा नहीं लगा होगा और आप हमारी मजबूरी समझ रही होंगी।

आपने जिस तरह से हमारी इस अपील को लिया है, उसे देखकर बहुत हीं अच्छा लगा। आप इसी तरह हमारी महफ़िल की शोभा बनी रहें इसी आग्रह और इसी दुआ के साथ आपका फिर से स्वागत करता हूँ।

-विश्व दीपक
seema gupta said…
आदरणीय विश्व दीपक जी,

शर्मिंदा हूँ की पहली बार में ही नियमो पर ध्यान नहीं दे पाई.....बुरा लगने जैसी कोई बात ही नहीं है, नियम या शर्ते किसी भी मंच पर पालन के लिए होती है उल्लंघन के लिए नहीं ये मै जानती हूँ. मुझसे भूल जरुर हुई मगर जल्द ही पता भी चल गया और सुधर भी ली गयी. आपके समर्थन और हौसला अफजाही का शुक्रिया.

regards
sumit said…
सही शब्द मुझे पता नहीं पर शरद जी सीमा जी और शमिख जी यदि बच्चा शब्द कह रहे है तो येही होना चाहिए

शेर-बच्चो के छोटे हाथो को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबे पढ़कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे
sumit said…
शायर- नीदा फाजली
manu said…
सही शब्द बच्चा ही है...

बच्चे पर कभी कोई शे'र नहीं कहा है शायद मैंने...

और शामिख भाई ने जो मेरे साहिब के शे'र का जिक्र किया है.

सिरहाने मेरे के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है...

इसमें जाने क्यों हमें टुक का अर्थ बच्चा नहीं बल्कि (ज़रा....just ) लग रहा है...

just अभी सोया है रोते-रोते....
Manju Gupta said…
जवाब -बच्चा
स्वरचित - बच्चा हूँ तो क्या
नहीं अक्ल से कच्चा
आग -पानी सा हूँ सच्चा
इसलिए हूँ ईश्वर-सा
This post has been removed by the author.
महफिले ग़ज़ल के सभी साथियों को आदाब

सही शब्द "बच्चा" है

में कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है

मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा
ये बच्चा रात में रोता बहुत है


फिर देर से आया हूँ
इसलिए प्रश्न पहेली का जबाब देने से क्या फायदा ?
इक शेर याद आ रहा है
जगजीत सिंह की गाई हूई बहुत ही पसंदीदा ग़ज़ल है
राजेश रेड्डी साहब का कलाम है

दिल भी जिद पर अदा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

हमने देखा है कई ऐसे खुदाओं को यहाँ
सामने जिनके वो सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं
इक शेर इफ्तिखार आरिफ साहब के खजाने से

गुडियों से खेलती हुई बच्ची की आंख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमे
shanno said…
हाँ जी, आपकी बातें सुनके मैं रोक नहीं पाई, तनहा जी, अपने क़दमों को और फिर से आ गयी हूँ यहाँ ताक - झाँक करने. फिर सबको झेलना होगा मुझे.....सॉरी...लेकिन अब तो आ ही गई....

एक बच्चे की तरह खाली झोली लेकर ही आते रहे
और एक कोने में दुबक तमाशाई बन हम बैठ जाते थे.

प्रश्नों का जबाब मत पूछिए मुझसे, please. लेकिन चन्दन दास जी की गाई ग़ज़ल ' आज के बाद कोई ख़त नहीं लिखूंगा तुझको ' बहुत अच्छी लगी. सुनवाने का शुक्रिया.
Shamikh Faraz said…
तनहा जी मैंने आपके नए नियम पढ़ लिए हैं लेकिन यह वो पोरी ग़ज़ल है जिसका यह शे'र है. इसलिए लिख रहा हूँ.

मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
खुदा इस शहर को महफ़ूज़ रखे
ये बच्चो की तरह हँसता बहुत है
मैं हर लम्हे मे सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है

मेरा दिल बारिशों मे फूल जैसा
ये बच्चा रात मे रोता बहुत है

वो अब लाखों दिलो से खेलता है
मुझे पहचान ले, इतना बहुत है

बशीर बद्र

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