महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४५
पूरी दो कड़ियों के बाद "सीमा" जी ने अपने पहले हीं प्रयास में सही जवाब दिया है। इसलिए पहली मर्तबा वो ४ अंकों की हक़दार हो गई हैं। "सीमा" जी के बाद हमारी "प्रश्न-पहेली" में भागेदारी की शामिख फ़राज़ ने। हुज़ूर, इस बार आपने सही किया. पिछली बार की तरह ज़ेरोक्स मशीन का सहारा नहीं लिया, इसलिए हम भी आपके अंकों में किसी भी तरह की कटौती नहीं करेंगे। लीजिए, २ अंकों के साथ आपका भी खाता खुल गया। आपके लिए अच्छा अवसर है क्योंकि हमारे नियमित पहेली-बूझक शरद जी तो अब धीरे-धीरे लेट-लतीफ़ होते जा रहे हैं, इसलिए आप उनके अंकों की बराबरी आराम से कर सकते हैं। बस नियमितता बनाए रखिए। "शरद" जी, यह क्या हो गया आपको। एक तो देर से आए और ऊपर से दूसरे जवाब में कड़ी संख्या लिखा हीं नहीं। इसलिए आपका दूसरा जवाब सही नहीं माना जाएगा। इस लिहाज़ से आपको बस .५ अंक मिलते हैं। कुलदीप जी, हमने पिछली महफ़िल में हीं कहा था कि सही जवाब देने वाले को कम से कम १ अंक मिलना तो तय है, इसलिए जवाब न देने का यह कारण तो गलत है। लगता है आपने नियमों को सही से नहीं पढा है। अभी भी देर नहीं हुई, वो कहते हैं ना कि "जब जागो, तभी सवेरा"। ये तो हुई पिछली कड़ी की बातें, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) ‘रावलपिंडी कांस्पिरेसी केस’ के सिलसिले में गिरफ़्तार किए गए एक शायर जिन्होंने अपने परम मित्र की मौत के बाद उनके एक शेर के जवाब में कहा था "चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर"। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि उनके उस मित्र ने किस आँदोलन में हिस्सा लिया था?
२) १९७६ में अपने संगीत-सफ़र की शुरूआत करने वाले एक फ़नकार जिनकी उस गज़ल को हमने सुनवाया था जिसे "हस्ती" ने लिखा था। उस फ़नकार का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह गज़ल किस एलबम में शामिल है?
आज हम जिस गज़ल को पेश करने जा रहे हैं उसके शायर और गज़ल-गायक दोनों हमारी महफ़िल में पहले भी आ चुके हैं या यूँ कहिए कि इनकी जोड़ी हमारी महफ़िल में तशरीफ़ ला चुकी है। वह नज़्म थी "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा"। जी हाँ हम शायर "ज़फ़र गोरखपुरी" और गज़ब के गज़ल-गायक "पंकज उधास" की बातें कर रहे हैं। पंकज उधास का नाम आते हीं लोगों को शराब, साकी, मैखाना की हीं यादें आती हैं और इसलिए उन पर आरोप भी लगाया जाता है कि कच्ची उम्र के श्रोताओं को इनकी ऐसी नज़्में/गज़लें रास्ते से भटकाती हैं। लेकिन इस सिलसिले में पंकज जी के कुछ अलग हीं विचार हैं। "यह मेरे कैरियर से जुड़ी सबसे अहम बात है, जिसका खुलासा आज मैं करना चाहता हूं.....देखिए, मैं गायकी की दुनिया में २८ साल से हूं और पहले एलबम "आहट" से लेकर अब तक ४० से ज्यादा एलबम रिलीज हो चुके हैं और अगर सारी कंपोजीशन को आप देखें, तो पाएंगे कि सिर्फ पच्चीस के आस-पास ऎसी गजलें हैं, जिनमें शराब और साकी वगैरह का जिक्र है। लेकिन बदकिस्मती से म्यूजिक कंपनियों ने इन्हे इस तरह रिलीज किया कि मेरी ऐसी इमेज बन गई कि मैं पीने-पिलाने टाइप की गजलें ही गाता हूं।" जो भी हो, लेकिन संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल में भी ऐसे हीं किसी "मैखाने" का ज़िक्र है। पंकज उधास साहब जहाँ एक तरफ़ गज़लों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए भी उसकी स्थिति को सामान्य मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ हिन्दी-फिल्मी संगीत की स्थिति पर कठोर शब्दों में चिंता ज़ाहिर करते हैं। उनका कहना है कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में फिल्म उद्योग में बूम आया, लेकिन फिल्म संगीत इस बूम से अछूता है। जैसा संगीत फिल्मों के लिए तैयार किया जा रहा है, उसे देखकर महसूस होता है कि म्यूजिक आगे नहीं जा रहा है। पाँच साल बाद फिल्मों में मौसिकी रहेगी ही नहीं। आजकल फिल्मों में दो-तीन आइटम सांग को ही फिल्म संगीत कहा जाने लगा है। कई फिल्में ऐसी भी आई हैं, जिनके मुख्य किरदार पर एक भी गाना नहीं फिल्माया गया। फिल्म संगीत में कहीं गंभीर काम की झलक दिखाई नहीं देती। वैसे जितने लोगों को यह लगता है कि पंकज उधास साहब अपनी गायकी की शुरूआत फिल्म "नाम" के "चिट्ठी आई है" से की थी, तो उनके लिए एक खास जानकारी हम पेश करने जा रहे हैं। १९७१ में बी० आर० इशारा की फिल्म "कामना" के लिए इन्होंने उषा खन्ना के संगीत में "नक्श लायलपुरी" की एक नज़्म गाई थी जिसके बोल कुछ यूँ थे -"-तुम कभी सामने आ जाओ तो पूछूं तुमसे/किस तरह दर्दे मुहब्बत को सहा जाता है"। बदकिस्मती से वह फिल्म रीलिज न हो पाई लेकिन इसके रिकार्ड रीलिज ज़रूर हुए। तो इतने पुराने हैं हमारे पंकज साहब।
आज से ७ साल पहले "खजाना" नाम के एक महोत्सव की शुरूआत करने वाले पंकज साहब इसके बारे में कहते हैं: सात साल पहले हमने ये सिलसिला इसलिए शुरु किया था कि साल में एक बार ग़ज़ल की दुनिया के सभी लोग एक मंच पर इकट्ठा हो सकें और हमें खुशी है कि ये कार्यक्रम हर साल कामयाबी की बुलंदियां छूता जा रहा है। इसमें दो उभरते गजल गायकों को सामने लाया जाता है। इस तरह से हम सारे स्थापित गज़ल गायक मिलकर गजल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल यह कार्यक्रम मदन मोहन साहब को समर्पित था। गज़लों की आजकल की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए ये कहते हैं: 'कौमी आवाज' जैसा अखबार बंद हो गया, लेकिन कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मौसिकी और शायरी दोनों का स्तर गिरा है, मगर इसके लिए सिर्फ गायकों को दोष देना सही नहीं है।इसके लिए नगमानिगार (गीत लिखने वाले) भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जो बेहतरीन शायरी नहीं लिख रहे। नतीजतन, नई पीढ़ी का शायरी और साहित्य के साथ लगाव कम होता जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि शायर को मुफलिसी में जीना पड़ता है, इसीलिए शायर या कवि बनने से बेहतर है कि कुछ और किया जाए, जिसमें पैसा जल्द पैदा होता हो। दाग जैसे नामचीन शायरों को अपने परिवार की चिंता नहीं रहती थी। निजाम से उन्हें घर चलाने के लिए धन मिलता था। श्रोता भी अपना दामन बचा नहीं सकते। नई पीढ़ी के शायरों को न तो बढ़ावा मिलता है, न दाद। नए शायरों को प्रोत्साहन करने से तस्वीर बदल सकती है। आज केवल गंभीर काम पर जिंदा नहीं रहा जा सकता। आगे बढ़ना तो नामुमकिन है। आवाम को नए शायरों और गजल गायकों की हौसला अफजाई करना चाहिए। इतना होने के बावजूद पंकज उधास को इस बात की खुशी है कि गज़ल सुनने वाले आज भी उसी उत्साह के साथ महफ़िलों में आते हैं। इस बाबत इनका कहना है कि: गजल का साथ कभी नहीं छूट सकता और मेरा तो मानना है कि लोग आज भी उसी कशिश के साथ गजल सुनना पसंद करते हैं। आज भी जब कहीं हमारा कंसर्ट होता है, तो उसमें बेशुमार संगीत प्रेमी शिरकत करते हैं। अगर गजलों का दौर खत्म हो गया होता, तो इतने सारे लोग कहां से आते हैं। इतना जरूर है कि बीच में जब पॉप म्यूजिक का हंगामा था, तब थोड़े वक्त के लिए गजल पिछड़ गई थी, लेकिन जल्द ही पॉप हाशिए पर चला गया और गजल को फिर पहले वाला मुकाम हासिल हो गया। पंकज उधास के बारे में इतनी बातें करने के बाद यूँ तो हमें अब आज की गज़ल के शायर की तरफ़ रूख करना चाहिए, लेकिन समयाभाव(पढें: स्थानाभाव) के कारण हमें अपने इस आलेख को यहीं विराम देना होगा। "ज़फ़र" साहब की बातें कभी अगली कड़ी में करेंगे। आज हम उनके इस शेर से हीं काम चला लेते हैं:
वो बदगुमां हो तो शेर सूझे न शायरी
वो महर-बां हो ’ज़फ़र’ तो समझो ग़ज़ल हुई।
क्या आपको यह मालूम है कि "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे" के दो गीतों "न जाने मेरे दिल को क्या हो गया" और "तुझे देखा तो ये जाना सनम" की रचना "ज़फ़र" साहब ने हीं की थी। नहीं मालूम था ना। कोई बात नहीं, आज तो जान गए। तो चलिए शायर की उसी रूमानियत को महसूस करते हुए इस गज़ल का आनंद उठाते है:
एक ऐसा घर चाहिए मुझको, जिसकी फ़ज़ा मस्ताना हो,
एक कोने में गज़ल की महफ़िल, एक कोने में मैखाना हो।
ऐसा घर जिसके दरवाज़े बंद न हों इंसानों पर,
शेखो-बरहमन, रिंदो-शराबी सबका आना जाना हो।
एक तख्ती अंगूर के पानी से लिखकर दर पर रख दो,
इस घर में वो आये जिसको सुबह तलक न जाना हो।
जो मैखार यहाँ आता है अपना महमां होता है,
वो बाज़ार में जाके पीले जिसको दाम चुकाना हो।
प्यासे हैं होठों से कहना कितना है आसान "ज़फ़र"
मुश्किल उस दम आती है जब आँखों से समझाना हो।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
मैं बहुत जल्दी ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी ____ यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे...
आपके विकल्प हैं -
a) बेज़ारी, b) परछाई, c) तन्हाई, d) बेकरारी
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बच्चा" और शेर कुछ यूं था -
मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा,
ये बच्चा रात में रोता बहुत है ...
बशीर बद्र साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा जी" ने। ये रहे आपके पेश किए हुए कुछ शेर:
ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर
वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा। (कमलेश भट्ट 'कमल' )
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं| (मुनव्वर राना ) ..वाह! क्या बात है!
पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ (देवमणि पांडेय )
घर में वो अपनी ज़िद्द से सताता किसे नहीं
ऐ दोस्त ज़िद्दी बच्चा रुलाता किसे नहीं (प्राण शर्मा )
सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। आपने भी कुछ मनोहारी शेर पेश किए। ये रही बानगी:
आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
सुमित जी ने निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर महफ़िल के सुपूर्द किया:
बच्चो के छोटे हाथो को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबे पढ़कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे।
मंजु जी और शन्नो जी भी अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाईं। ये रहे इनके कहे हुए शेर(क्रम से):
बच्चा हूँ तो क्या,नहीं अक्ल से कच्चा,
आग -पानी सा हूँ सच्चा,इसलिए हूँ ईश्वर-सा।
एक बच्चे की तरह खाली झोली लेकर ही आते रहे
और एक कोने में दुबक तमाशाई बन हम बैठ जाते थे.
अंत में कुलदीप जी का हमारी महफ़िल में आना हुआ। आपने भी कुछ बेहतरीन शेर पेश किए:
दिल भी जिद पर अदा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं (राजेश रेड्डी)
गुडियों से खेलती हुई बच्ची की आंख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमे (इफ्तिखार आरिफ)
मनु जी, क्या कहें आपको। छोड़िए..जाने दीजिए...कहने का कोई फ़ायदा नहीं।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
पूरी दो कड़ियों के बाद "सीमा" जी ने अपने पहले हीं प्रयास में सही जवाब दिया है। इसलिए पहली मर्तबा वो ४ अंकों की हक़दार हो गई हैं। "सीमा" जी के बाद हमारी "प्रश्न-पहेली" में भागेदारी की शामिख फ़राज़ ने। हुज़ूर, इस बार आपने सही किया. पिछली बार की तरह ज़ेरोक्स मशीन का सहारा नहीं लिया, इसलिए हम भी आपके अंकों में किसी भी तरह की कटौती नहीं करेंगे। लीजिए, २ अंकों के साथ आपका भी खाता खुल गया। आपके लिए अच्छा अवसर है क्योंकि हमारे नियमित पहेली-बूझक शरद जी तो अब धीरे-धीरे लेट-लतीफ़ होते जा रहे हैं, इसलिए आप उनके अंकों की बराबरी आराम से कर सकते हैं। बस नियमितता बनाए रखिए। "शरद" जी, यह क्या हो गया आपको। एक तो देर से आए और ऊपर से दूसरे जवाब में कड़ी संख्या लिखा हीं नहीं। इसलिए आपका दूसरा जवाब सही नहीं माना जाएगा। इस लिहाज़ से आपको बस .५ अंक मिलते हैं। कुलदीप जी, हमने पिछली महफ़िल में हीं कहा था कि सही जवाब देने वाले को कम से कम १ अंक मिलना तो तय है, इसलिए जवाब न देने का यह कारण तो गलत है। लगता है आपने नियमों को सही से नहीं पढा है। अभी भी देर नहीं हुई, वो कहते हैं ना कि "जब जागो, तभी सवेरा"। ये तो हुई पिछली कड़ी की बातें, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) ‘रावलपिंडी कांस्पिरेसी केस’ के सिलसिले में गिरफ़्तार किए गए एक शायर जिन्होंने अपने परम मित्र की मौत के बाद उनके एक शेर के जवाब में कहा था "चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर"। उस शायर का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि उनके उस मित्र ने किस आँदोलन में हिस्सा लिया था?
२) १९७६ में अपने संगीत-सफ़र की शुरूआत करने वाले एक फ़नकार जिनकी उस गज़ल को हमने सुनवाया था जिसे "हस्ती" ने लिखा था। उस फ़नकार का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह गज़ल किस एलबम में शामिल है?
आज हम जिस गज़ल को पेश करने जा रहे हैं उसके शायर और गज़ल-गायक दोनों हमारी महफ़िल में पहले भी आ चुके हैं या यूँ कहिए कि इनकी जोड़ी हमारी महफ़िल में तशरीफ़ ला चुकी है। वह नज़्म थी "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा"। जी हाँ हम शायर "ज़फ़र गोरखपुरी" और गज़ब के गज़ल-गायक "पंकज उधास" की बातें कर रहे हैं। पंकज उधास का नाम आते हीं लोगों को शराब, साकी, मैखाना की हीं यादें आती हैं और इसलिए उन पर आरोप भी लगाया जाता है कि कच्ची उम्र के श्रोताओं को इनकी ऐसी नज़्में/गज़लें रास्ते से भटकाती हैं। लेकिन इस सिलसिले में पंकज जी के कुछ अलग हीं विचार हैं। "यह मेरे कैरियर से जुड़ी सबसे अहम बात है, जिसका खुलासा आज मैं करना चाहता हूं.....देखिए, मैं गायकी की दुनिया में २८ साल से हूं और पहले एलबम "आहट" से लेकर अब तक ४० से ज्यादा एलबम रिलीज हो चुके हैं और अगर सारी कंपोजीशन को आप देखें, तो पाएंगे कि सिर्फ पच्चीस के आस-पास ऎसी गजलें हैं, जिनमें शराब और साकी वगैरह का जिक्र है। लेकिन बदकिस्मती से म्यूजिक कंपनियों ने इन्हे इस तरह रिलीज किया कि मेरी ऐसी इमेज बन गई कि मैं पीने-पिलाने टाइप की गजलें ही गाता हूं।" जो भी हो, लेकिन संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल में भी ऐसे हीं किसी "मैखाने" का ज़िक्र है। पंकज उधास साहब जहाँ एक तरफ़ गज़लों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए भी उसकी स्थिति को सामान्य मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ हिन्दी-फिल्मी संगीत की स्थिति पर कठोर शब्दों में चिंता ज़ाहिर करते हैं। उनका कहना है कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में फिल्म उद्योग में बूम आया, लेकिन फिल्म संगीत इस बूम से अछूता है। जैसा संगीत फिल्मों के लिए तैयार किया जा रहा है, उसे देखकर महसूस होता है कि म्यूजिक आगे नहीं जा रहा है। पाँच साल बाद फिल्मों में मौसिकी रहेगी ही नहीं। आजकल फिल्मों में दो-तीन आइटम सांग को ही फिल्म संगीत कहा जाने लगा है। कई फिल्में ऐसी भी आई हैं, जिनके मुख्य किरदार पर एक भी गाना नहीं फिल्माया गया। फिल्म संगीत में कहीं गंभीर काम की झलक दिखाई नहीं देती। वैसे जितने लोगों को यह लगता है कि पंकज उधास साहब अपनी गायकी की शुरूआत फिल्म "नाम" के "चिट्ठी आई है" से की थी, तो उनके लिए एक खास जानकारी हम पेश करने जा रहे हैं। १९७१ में बी० आर० इशारा की फिल्म "कामना" के लिए इन्होंने उषा खन्ना के संगीत में "नक्श लायलपुरी" की एक नज़्म गाई थी जिसके बोल कुछ यूँ थे -"-तुम कभी सामने आ जाओ तो पूछूं तुमसे/किस तरह दर्दे मुहब्बत को सहा जाता है"। बदकिस्मती से वह फिल्म रीलिज न हो पाई लेकिन इसके रिकार्ड रीलिज ज़रूर हुए। तो इतने पुराने हैं हमारे पंकज साहब।
आज से ७ साल पहले "खजाना" नाम के एक महोत्सव की शुरूआत करने वाले पंकज साहब इसके बारे में कहते हैं: सात साल पहले हमने ये सिलसिला इसलिए शुरु किया था कि साल में एक बार ग़ज़ल की दुनिया के सभी लोग एक मंच पर इकट्ठा हो सकें और हमें खुशी है कि ये कार्यक्रम हर साल कामयाबी की बुलंदियां छूता जा रहा है। इसमें दो उभरते गजल गायकों को सामने लाया जाता है। इस तरह से हम सारे स्थापित गज़ल गायक मिलकर गजल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल यह कार्यक्रम मदन मोहन साहब को समर्पित था। गज़लों की आजकल की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए ये कहते हैं: 'कौमी आवाज' जैसा अखबार बंद हो गया, लेकिन कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। मौसिकी और शायरी दोनों का स्तर गिरा है, मगर इसके लिए सिर्फ गायकों को दोष देना सही नहीं है।इसके लिए नगमानिगार (गीत लिखने वाले) भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जो बेहतरीन शायरी नहीं लिख रहे। नतीजतन, नई पीढ़ी का शायरी और साहित्य के साथ लगाव कम होता जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि शायर को मुफलिसी में जीना पड़ता है, इसीलिए शायर या कवि बनने से बेहतर है कि कुछ और किया जाए, जिसमें पैसा जल्द पैदा होता हो। दाग जैसे नामचीन शायरों को अपने परिवार की चिंता नहीं रहती थी। निजाम से उन्हें घर चलाने के लिए धन मिलता था। श्रोता भी अपना दामन बचा नहीं सकते। नई पीढ़ी के शायरों को न तो बढ़ावा मिलता है, न दाद। नए शायरों को प्रोत्साहन करने से तस्वीर बदल सकती है। आज केवल गंभीर काम पर जिंदा नहीं रहा जा सकता। आगे बढ़ना तो नामुमकिन है। आवाम को नए शायरों और गजल गायकों की हौसला अफजाई करना चाहिए। इतना होने के बावजूद पंकज उधास को इस बात की खुशी है कि गज़ल सुनने वाले आज भी उसी उत्साह के साथ महफ़िलों में आते हैं। इस बाबत इनका कहना है कि: गजल का साथ कभी नहीं छूट सकता और मेरा तो मानना है कि लोग आज भी उसी कशिश के साथ गजल सुनना पसंद करते हैं। आज भी जब कहीं हमारा कंसर्ट होता है, तो उसमें बेशुमार संगीत प्रेमी शिरकत करते हैं। अगर गजलों का दौर खत्म हो गया होता, तो इतने सारे लोग कहां से आते हैं। इतना जरूर है कि बीच में जब पॉप म्यूजिक का हंगामा था, तब थोड़े वक्त के लिए गजल पिछड़ गई थी, लेकिन जल्द ही पॉप हाशिए पर चला गया और गजल को फिर पहले वाला मुकाम हासिल हो गया। पंकज उधास के बारे में इतनी बातें करने के बाद यूँ तो हमें अब आज की गज़ल के शायर की तरफ़ रूख करना चाहिए, लेकिन समयाभाव(पढें: स्थानाभाव) के कारण हमें अपने इस आलेख को यहीं विराम देना होगा। "ज़फ़र" साहब की बातें कभी अगली कड़ी में करेंगे। आज हम उनके इस शेर से हीं काम चला लेते हैं:
वो बदगुमां हो तो शेर सूझे न शायरी
वो महर-बां हो ’ज़फ़र’ तो समझो ग़ज़ल हुई।
क्या आपको यह मालूम है कि "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे" के दो गीतों "न जाने मेरे दिल को क्या हो गया" और "तुझे देखा तो ये जाना सनम" की रचना "ज़फ़र" साहब ने हीं की थी। नहीं मालूम था ना। कोई बात नहीं, आज तो जान गए। तो चलिए शायर की उसी रूमानियत को महसूस करते हुए इस गज़ल का आनंद उठाते है:
एक ऐसा घर चाहिए मुझको, जिसकी फ़ज़ा मस्ताना हो,
एक कोने में गज़ल की महफ़िल, एक कोने में मैखाना हो।
ऐसा घर जिसके दरवाज़े बंद न हों इंसानों पर,
शेखो-बरहमन, रिंदो-शराबी सबका आना जाना हो।
एक तख्ती अंगूर के पानी से लिखकर दर पर रख दो,
इस घर में वो आये जिसको सुबह तलक न जाना हो।
जो मैखार यहाँ आता है अपना महमां होता है,
वो बाज़ार में जाके पीले जिसको दाम चुकाना हो।
प्यासे हैं होठों से कहना कितना है आसान "ज़फ़र"
मुश्किल उस दम आती है जब आँखों से समझाना हो।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
मैं बहुत जल्दी ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी ____ यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे...
आपके विकल्प हैं -
a) बेज़ारी, b) परछाई, c) तन्हाई, d) बेकरारी
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बच्चा" और शेर कुछ यूं था -
मेरा दिल बारिशों में फूल जैसा,
ये बच्चा रात में रोता बहुत है ...
बशीर बद्र साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा जी" ने। ये रहे आपके पेश किए हुए कुछ शेर:
ज़िन्दगी की पाठशाला में यहाँ पर उम्र भर
वृद्ध होकर भी हमेशा आदमी बच्चा रहा। (कमलेश भट्ट 'कमल' )
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं| (मुनव्वर राना ) ..वाह! क्या बात है!
पाल-पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख़्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ (देवमणि पांडेय )
घर में वो अपनी ज़िद्द से सताता किसे नहीं
ऐ दोस्त ज़िद्दी बच्चा रुलाता किसे नहीं (प्राण शर्मा )
सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए शामिख साहब। आपने भी कुछ मनोहारी शेर पेश किए। ये रही बानगी:
आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
सुमित जी ने निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर महफ़िल के सुपूर्द किया:
बच्चो के छोटे हाथो को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबे पढ़कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे।
मंजु जी और शन्नो जी भी अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाईं। ये रहे इनके कहे हुए शेर(क्रम से):
बच्चा हूँ तो क्या,नहीं अक्ल से कच्चा,
आग -पानी सा हूँ सच्चा,इसलिए हूँ ईश्वर-सा।
एक बच्चे की तरह खाली झोली लेकर ही आते रहे
और एक कोने में दुबक तमाशाई बन हम बैठ जाते थे.
अंत में कुलदीप जी का हमारी महफ़िल में आना हुआ। आपने भी कुछ बेहतरीन शेर पेश किए:
दिल भी जिद पर अदा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं (राजेश रेड्डी)
गुडियों से खेलती हुई बच्ची की आंख में
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमे (इफ्तिखार आरिफ)
मनु जी, क्या कहें आपको। छोड़िए..जाने दीजिए...कहने का कोई फ़ायदा नहीं।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४०
‘फ़ैज़’
उनके मित्र हैदराबाद के सुप्रसिद्ध जनकवि मख़दूम मुहीउद्दीन, जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन मे भाग लिया था
regards
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०६
प्यार का पहला ख़त" जिसे लिखा है हस्ती ने और जिसे अपनी साज़ और आवाज़ से सजाया है पद्म भूषण "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी ने
"फ़ेस टू फ़ेस"
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कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे
पेड़ सब नंगे फकीरों की तरह सहमे हैं
किस से उम्मीद ये की जाए कि साया दे दे
वक्त की संग-ज़नी नोच गई सारे नक़्श
अब वो आईना कहाँ जो मेरा चेहरा दे दे
दुश्मनों की भी कोई बात तो सच हो जाए
आ मेरे दोस्त किसी दिन मुझे धोखा दे दे
मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे
डूब जाना ही मुकद्दर है तो बेहतर वरना
तूने पतवार जो छीनी है तो तिनका दे दे
जिसने कतरों का भी मोहताज किया मुझको
वो अगर जोश में आ जाए तो दरिया दे दे
तुमको राहत की तबीयत का नहीं अंदाज़ा
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे।
राहत इंदौरी
regards
हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं
सुदर्शन फ़ाकिर
तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है
शहरयार
कावे-कावे सख़्तजानी हाय तन्हाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
ग़ालिब
नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहर देखूँ
परवीन शाकिर सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले
अहमद फ़राज़
regards
प्रश्न १ : कडी़ सं. ४० /फ़ैज़ अहमद फ़ैज़/मख्दूम मुहीउद्दीन/ तेलंगाना आन्दोलन
प्रश्न २ : कड़ी ६ / जगजीत सिंह / फ़ेस टू फेस
पिछ्ले कुछ दिनों से नेट कनेक्टीविटी में व्यवधान आ रहा है अत: समय पर नहीं आ पाता हूँ फिर कभी कभी भूल भी जाता हूँ । वैसे भी पिछ्ले कुछ माह से आवाज़ पर मेरा नाम इतनी बार आ गया है कि सोचता हूँ कि और लोगों को भी आगे आना चाहिए इस लिए कुछ आलस भी कर जाता हूँ लेकिन देर सबेर आता जरूर हूँ ।
जब भी आती है तेरी याद भी आ जाती है ।
(स्वरचित)
स्वरचित शेर -
मेरी तन्हाई के गरजते -बरसते बादल हो ,
यादों के आंसुओं से समुन्द्र बन जाते हो .
क्या बढ़िया सी जफ़र जी की ग़ज़ल पंकज जी की उदास और दर्द में डूबी आवाज़ में सुनवाई आपने. मयखानों वाली गज़लों को गाने के लिए बेहतरीन आवाज़. बहुत शुक्रिया. सारी दुनिया के ग़मों में सिमटी हुई इक ऐसी आवाज़ जिसे सुनकर खुद भी कुछ देर को उसी आवाज़ में डूबकर सब काम-धाम भूलकर ग़मगीन हो जाओ.
अब आदत से मजबूर हम भी कुछ लाये हैं जिसे बिना सुनाये नहीं जायेंगें:
तन्हाई के आलम में तन्हाई मुझे भाती
कुछ ऐसे लम्हों में हो जाती हूँ जज्बाती.
मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे
ये रात ये तन्हाई
ये दिल के धड़कने की आवाज़
ये सन्नाटा
ये डूबते तारॊं की
खा़मॊश गज़ल खवानी
ये वक्त की पलकॊं पर
सॊती हुई वीरानी
जज्बा़त ऎ मुहब्बत की
ये आखिरी अंगड़ाई
बजाती हुई हर जानिब
ये मौत की शहनाई
सब तुम कॊ बुलाते हैं
पल भर को तुम आ जाओ
बंद होती मेरी आँखों में
मुहब्बत का
एक ख्वाब़ सजा जाओ
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच रही हूं
उनको थामूं
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहख़ानों में उतरूं
या अपने कमरे में ठहरूं
चांद मेरी खिड़की पर दस्तक देता है
parveen shakir
मुझ पे एहसान हवा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है
parveen shakir
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की
qateel shifai
तन्हाई में रो लेंगे
हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे
ahmad faraz
मैं भीड़ में गुम हो गई तन्हाई के डर से
parveen shakir
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की
qateel shifai
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४०
दूसरे सवाल का जवाब है गज़लजीत "जगजीत सिंह" और अल्बम का नाम "फेस टू फेस"
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #06