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दीपक राग है चाहत अपनी, काहे सुनाएँ तुम्हें... "होशियारपुरी" के लफ़्ज़ों में बता रही हैं "शाहिदा"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४३

यूँतो पिछली महफ़िल बाकी के महफ़िलों जैसी हीं थी। लेकिन "प्रश्न-पहेली" के आने के बाद और दो सवालों के जवाब देने के क्रम में कुछ ऐसा हुआ कि एकबारगी हम पशोपेश में पड़ गए कि अंकों का बँटवारा कैसे करें। इससे पहले हमारी ऐसी हालत कभी नहीं हुई थी। तो हुआ यूँ कि सीमा जी ने प्रश्नों का जवाब तो सबसे पहले दिया लेकिन दूसरे प्रश्न में उनका आधा जवाब हीं सही था। इसलिए हमने निश्चय कर लिया था कि उन्हें ३ अंक हीं देंगे। फिर शरद जी सही जवाबों के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए। इस नाते उनको २ अंक मिलना तय था(और है भी)। लेकिन शरद जी के बाद सीमा जी फिर से महफ़िल में तशरीफ़ लाईं और इस बार उन्होंने उस आधे सवाल का सही जवाब दिया। अब स्थिति ऐसी हो गई कि न उन्हें पूरे अंक दे सकते थे और न हीं ३ अंक पर हीं छोड़ा जा सकता था। इसलिए "बुद्ध" का मध्यम मार्ग निकालते हुए हम उन्हें आधे जवाब के लिए आधा अंक देते हैं। इस तरह सीमा जी को मिलते हैं ३.५ अंक और शरद जी को २ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| आज की कड़ी से हम नियमों में थोड़ा बदलाव कर रहे हैं। तो ये रहे प्रतियोगिता के बदले हुए नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) "नेशनल ज्योग्राफ़िक" के कवर पर आने वाली वह फ़नकारा जिनकी बहन का निक़ाह एक पाकिस्तानी सीनेटर से हुआ है। उस फ़नकारा का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि हम किस सीनेटर की बातें कर रहे हैं।
२) "मदन मोहन" के साथ काम करने की चाहत में बंबई आने वाले एक फ़नकार जिन्होंने "भीम सेन" की एक फ़िल्म में गीत लिखकर पहली बार शोहरत का स्वाद चखा। फ़नकार के नाम के साथ उस गीत की भी जानकारी दें।


आज हम जिस फ़नकारा से आपको मुखातिब कराने जा रहे हैं उनकी माँ खुद एक गायिका रह चुकी थीं। चूँकि उनकी माँ को संगीत की समझ थी इसलिए वे चाहती थीं कि उनकी बेटी उन गुरूओं की शागिर्दगी करे जिनका नाम पूरी दुनिया जानती है और जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। आगे बढने से पहले अच्छा होगा कि हम आपको उनकी माँ का नाम बता दें। तो हम बातें कर रहे हैं "ज़ाहिदा परवीन" जी की। ज़ाहिदा जी को संगीत की पहली तालीम मिली थी बाबा ताज कपूरथलावाले सारंगीवाज़ और हुसैन बख्श खान सारंगीवाज़ से। कुछ सालों के बाद वे उस्ताद आशिक़ अली खां की शागिर्द हो गईं जो पटियाला घराने से संबंध रखते थे। ज़ाहिदा जी यूँ तो कई तरह के गाने गाती थीं, लेकिन "काफ़ी" गाने में उनका कोई सानी न था। "काफ़ी" के अलावा गज़ल, ठुमरी, खयाल भी वो उसी जोश और जुनूं के साथ गातीं थी। "ज़ाहिदा" जी के बाद जब उनकी बेटी "शाहिदा परवीन" का इस क्षेत्र में आना हुआ तो "ज़ाहिदा" जी ने अपनी बेटी के गुरू के तौर पर उस्ताद अख्तर हुसैन खां को चुना, जो उस्ताद अमानत अली खां और उस्ताद फतेह अली खां के पिता थे। उस्ताद अख्तर हुसैन खां के सुपूर्द-ए-खाक़ होने के बाद "शाहिदा" ने उस्ताद छोटे गुलाम अली खां की शागिर्दगी की , जो "क़व्वाल बच्चों का घराना" से ताल्लुकात रखते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि "क़व्वाल बच्चों के घराने" में कबीर को गाने की परंपरा रही है। १९७५ में ज़ाहिदा परवीन की मौत के बाद शाहिदा को यह सफ़र अकेले हीं तय करना था। शाहिदा को उनके रियाज़ और उनके गायन के बदौलत वह मुकाम हासिल हो चला था कि लोग उन्हें "रोशन आरा बेगम" के समकक्ष मानने लगे थे। फिर जब "रोशन आरा" भी इस दुनिया में नहीं रहीं तब तो शाहिदा हीं एक अकेली क्लासिकल गायिका थीं जो उनकी कमी को पूरा कर सकती थीं। लेकिन ऐसा न हुआ। कुछ तो वक्त का तकाज़ा था तो कुछ शाहिदा में अकेले आगे बढने की हिम्मत की कमी। जबकि वो मुल्तानी( इस राग को गाना या कहिए निबाहना हीं बड़ा कठिन होता है क्योंकि इसमें रिखब के नुआंसेस सही पकड़ने होते हैं) बड़े हीं आराम से गा सकती थी, फिर भी न जाने क्यों मंच से वो बागेश्वरी, मेघ या मालकौंस हीं गाती थीं, जो कि अमूमन हर कोई गाता है। शाहिदा ने अपने आप को अपनी माँ के गाए काफ़ियों तक हीं सीमित रखा। इसलिए संगीत के कुछ रसिक उनसे नाराज़ भी रहा करते थे। पर जो भी उनके रहने तक यह उम्मीद तो थी कि कोई है जो "रोशन आरा" की तरह गा सकती है, लेकिन १३ मार्च २००३ को उनके दु:खद निधन के बाद यह उम्मीद भी खत्म हो गई।

"शाहिदा" के बारें में कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन वो सब बातें कभी अगली कड़ी में करेंगे। अब हम आज की गज़ल के शायर "हफ़ीज़ होशियारपुरी" की तरफ़ रूख करते हैं। यूँ तो अभी हम जिन बातों का ज़िक्र करने जा रहे हैं उनका नाता सीधे तौर पर हफ़ीज़ साहब से नहीं है, फिर भी चूँकि उन बातों में इनका भी नाम आता है, इसलिए इसे सही वक्त माना जा सकता है। "बाज़ार की एक रात" के लेखक और एक समय में पेशावर रेडियो स्टेशन के स्क्रीप्ट राईटर रह चुके मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी साहब सआदत हसन "मंटो" को याद करते हुए अपने एक लेख "इंतक़ाल के पचास बरस बाद मंटो ज़िंदा हो गया" में लिखते हैं: रेडियो पाकिस्तान से मंटो का अफ़साना ‘नया क़ानून’ सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया कि ये वही हमारी कौमी रेड़ियो सर्विस है जिसने अपने यहाँ मंटो की रचनाओं को बन्द कर रखा था। क़यामे-पाकिस्तान के बाद जब मंटो लाहौर गया तो उसे विश्वास था कि उसकी साहित्यिक ख़िदमत में कोई कमी नहीं होगी। लेकिन इस ख़ुशफ़हमी का अन्त होते देर न लगी। लाहौर आकर उसने रोज़ी-रोटी के सिलसिले में काफ़ी मेहनत की लेकिन ‘अश्लील लेखक मंटो’ किसी भी मरहले में सफल न हो सका। मैं भी 1948 में पेशावर छोड़ कर लाहौर आ गया और मंटो से करीब-करीब रोज़ाना मुलाक़ात रही। लेकिन मैं भी उसी की तरह बेरोज़गार था। एक बेरोज़गार दूसरे बेरोज़गार की क्या मदद करता। उन्हीं दिनों मर्कज़ी हुकूमत के वजीर इत्तलाआत व नशरियात और प्रसिद्ध लेखक एस. एम. एकराम साहब लाहौर आए और जनाब हफ़ीज़ होशियारपुरी को, जो स्टेशन डायरेक्टर या असिस्टेंट डायरेक्टर थे, मेरे पास भेजा कि शाम की चाय मेरे साथ पियो। मुझे आश्चर्च अवश्य हुआ लेकिन पैग़ाम लाने वाले मेरे दोस्त और मशहूर शायर हफीज़ होशियारपुरी थे। और निमत्रण देने वाले अनेक श्रेष्ठ ऐतिहासिक पुस्तकों के लेखक थे। मैं हाज़िर हुआ तो एकराम साहब बड़ी मुहब्बत से मिले। मुझे इस मुहब्बत पर कुछ आश्चर्य भी हुआ कि मुझको तो दूसरे बहुत से लेखकों के साथ उनके विभाग ने "बैन" कर रखा था। उन्होंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ ही इस बात से किया कि मेरे सम्मान में केवल मुझ पर से पाबन्दी हटा रहे हैं। मैं उठ खड़ा हुआ और अर्ज़ किया कि आप जैसे विद्वान व्यक्ति से मुझे इस तरह की पेशकश की आशा नहीं थी। मैं अपने दोस्तों को धोखा देने के बारे में सोच भी नहीं सकता जबकि मेरे दोस्तों में मंटो जैसे महान रचनाकार भी मौजूद हैं। मैं ये कहकर वहाँ से चला आया। बाद में हफीज़ साहब से इस ज़्यादती का शिकवा किया तो उन्होंने क़समें खाकर बताया कि उन्हें एकराम साहब के प्रोग्राम का पता नहीं था। अब आज का हाल देखिए कि जब मंटो नहीं रहा तो उसकी किस तरह से कद्र बढ गई है। मेरी समझ में एक बात कभी नहीं आई कि जो दुनिया छोड़ कर चले गए, उनके बारे में सिर्फ़ अच्छा क्यों लिखा जाता है। उनके ज़िंदा रहते में तो कोई उन्हें पूछने तक नहीं आता। इस तरह से "मंटो" के बहाने हीं सही, लेकिन ज़ौकी साहब ने बड़ा हीं महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। कभी आप भी इस पर विचार कीजिएगा। उससे पहले हफ़ीज़ साहब के इस शेर पर जरा गौर फ़रमा लिया जाए:

आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोलकर देखा किए,
एक हीं लम्हे में जैसे उम्र-भर देखा किए।


कुछ बड़ी हीं ज़रूरी बातों के बाद अब वक्त है आज की गज़ल का। तो लीजिए पेश है "शाहिदा" की मधुर आवाज़ में यह गज़ल:

दीपक राग है चाहत अपनी, काहे सुनाएँ तुम्हें,
हम तो सुलगते हीं रहते हैं, क्यों सुलगाएँ तुम्हें।

तर्क-ए-मोहब्बत, तर्क-ए-तमन्ना कर चुकने के बाद,
हम पे ये मुश्किल आन पड़ी है, कैसे बुलाएँ तुम्हें।

सन्नाटा जब तन्हाई के ज़हर में बुझता है,
वो घड़ियों क्यों कर कटती हैं, कैसे बताएँ तुम्हें।

जिन बातों ने प्यार तुम्हारा नफ़रत में बदला,
डर लगता है वो बातें भी भूल न जाएँ तुम्हें।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

___ की हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया


आपके विकल्प हैं -
a) शहर, b) वतन, c) बस्ती, d) मोहल्ले

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बाम" और शेर कुछ यूं था -

तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है..

"फ़ैज़" की इस नज़्म को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। आपने फ़ैज़ की वह नज़्म भी महफ़िल में पेश की जिससे ये दो मिसरे लिए गए हैं। शरद जी ने सही फ़रमाया था कि आपने शेरों और नज़्मों की वह दीवार खड़ी कर दी थी कि किसी और का सेंध लगाना नामुमकिन था। शायद यही वज़ह है कि हम भी निश्चित नहीं कर पा रहे कि कौन-सा शेर यहाँ पेश करें और कौन-सा छोड़ें। फिर भी कुछ शेर जो हमारे दिल को छू गएँ:

जब भी गुज़रा वो हसीं पैकर मेरे इतराफ़ से,
दी सदा उसको हर एक दर ने हर एक बाम ने

ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे (नासिर काज़मी)

माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए (मिर्ज़ा ग़ालिब)

ये हिन्दियों के फ़िक्र-ए-फ़लक रस का है असर
रिफ़त में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए‍-हिन्द (इक़बाल)

हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दार भी गया
चिराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया (अहमद फ़राज़)

सीमा जी की किलाबंदी को भेदते हुए महफ़िल में हाज़िर हुए "शामिख फ़राज़"। आपने न सिर्फ़ उर्दू/हिंदी के शेर कहे बल्कि ब्रजभाषा (जहाँ तक मुझे मालूम है) की भी एक रचना पेश की। यह रही आपकी पेशकश:

मुरली सुनत बाम काम-जुर लीन भई (देव)

हर बाम पर रोशन काफ़िला - ए - चिराग़
हर बदन पर कीमती चमकते हुए लिबास

बाम-ऐ-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साकी में आफताब आये

सुमित जी महफ़िल में आए तो लेकिन चूँकि उन्हें बाम का अर्थ मालूम न था तो वो सही से कुछ सुना न सके। मंजु जी ने न सिर्फ़ सुमित जी का कुतूहल शांत किया बल्कि कुछ स्वरचित पंक्तियाँ(दोहा) भी पेश की:

हिमालयराज की पुत्री ,ने सहा खूब ताप .
हुयी थी शादी शिव की, पाया शिव का बाम।

आप दोनों के बाद महफ़िल में हाज़िरी लगाई कुलदीप जी ने। ये रहे आपकी तरकश के तीर:

कितना सितमज़रीफ़ है वो साहिब-ऐ-जमाल
उस ने दिया जला के लब-ऐ-बाम रख दिया

देख कर अपने दर -ओ -बाम लरज़ उठाता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे

अंत में हमारी महफ़िल में नज़र आईं रचना जी। यह रहा आपका पेश किया हुआ शेर:

बाम-ऐ-शोहरत से एक शाम चुरा के देखो
दर्द किसी और का दिल में उठा के देखो

मनु जी इतने से काम नहीं चलेगा। आपके शेर को तभी उद्धृत करूँगा जब आप थोड़ा वक्त यहाँ गुजारेंगे। हमारी तरफ़ एक कहावत है कि "हड़बड़ का काम गड़बड़ हीं होता है"। सोचिए..यह आप पर कितना फिट बैठता है!

चलिए इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

seema gupta said…
बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया ... हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

regards
seema gupta said…
बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया ... हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया
साहिर लुधियानवी
regards
seema gupta said…
अरमानों की बस्ती में हम आग लगा बैठे।

ऎ दिल! तेरी दुनिया को हम लुटा बैठे।।
जब से तुम्हें पहलू में हम अपने बसा बैठे।

दिल हमको गवाँ बैठा, हम दिल को गवाँ बैठे।।
पानी में बहा देंगे घड़ियाँ तेरी फुरकत की।

हम आँखों के परदों में सावन को छुपा बैठे।।
regards
seema gupta said…
प्रश्न १
फिर तमन्ना जवां न हो जाए..... महफ़िल में पहली बार "ताहिरा" और "हफ़ीज़" एक साथ
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४१
मोहतरमा ताहिरा सय्यद
इनकी बहन तस्नीम का निकाह पाकिस्तान के सीनेटर एस० एम० ज़फ़र से हुआ है।
regards
seema gupta said…
सुरेश चन्द्र शौक़
लोग यूँ हिरासाँ[१] हैं क़ातिलों की बस्ती में

काँच के हों बुत जैसे पत्थरों की बस्ती में


वक़्त के ख़ुदा—वन्दो रौशनी के मीनारो!

दुश्मनी न फैलाओ दोस्तों की बस्ती में


कल उन्हें भी आख़िर ये फ़स्ल काटनी होगी

अश्क़ बो रहे हैं जो क़हक़हों की बस्ती में


शहर फूँकने वालो! यह ख़याल भी रखना

दोस्तों के घर भी हैं दुश्मनों की बस्ती में


जज़्बा—ए—महब्बत को खा गई नज़र किसकी

छा गया अँधेरा क्यों क़ुमक़ुमों[२] की बस्ती में


नौहा—खाँ[३] हैं मुटियारें, अश्क़बार[४] हैं गबरू

कैसा शोरे—मातम है घुँघरुओं की बस्ती में


जी में अक्सर आता है तज के मोह माया को

दूर जा के बस जायें जोगियों की बस्ती में


शाम के धुँधलके में कौन याद आया है

इक अजीब हलचल है धड़कनों की बस्ती में

शौक़’! अब पहन लो तुम पैरहन[५] शराफ़त का

एह्तियात[६] लाज़िम है ज़ाहिदों[७] की बस्ती में

शब्दार्थ:

↑ भयभीत
↑ बिजली का बल्ब
↑ शोकाकुल
↑ आँसू बहा रहे
↑ वस्त्र
↑ सावधानी
↑ जीतेन्द्रीय लोगों

regards
seema gupta said…
एहतेराम इस्लाम
’मीर’ को कोई क्या पहचाने मेरी बस्ती में,
सब शाइर हैं जाने-माने मेरी बस्ती में।

आम हुए जिसके अफ़साने मेरी बस्ती में,
वो मैं ही हूँ, कोई न जाने मेरी बस्ती में।

रुत क्या आए फूल खिलाने मेरी बस्ती में,
हैं काशाने-ही-काशाने मेरी बस्ती में।

घुल-मिल जाने का क़ाइल हर कोई है लेकिन,
हैं आपस में सब अंजाने मेरी बस्ती में।

मेरी ग़ज़लों के शैदाई घर-घर हैं लेकिन,
कौन हूँ मैं यह कोई न जाने मेरी बस्ती में।

regards
seema gupta said…
गुलज़ार
आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ


चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ


आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ


आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ


regards
seema gupta said…
: बशीर बद्र
आँसूओं की जहाँ पायमाली रही
ऐसी बस्ती चराग़ों से ख़ाली रही

दुश्मनों की तरह उस से लड़ते रहे
अपनी चाहत भी कितनी निराली रही

जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही

लब तरसते रहे इक हँसी के लिये
मेरी कश्ती मुसाफ़िर से ख़ाली रही

चाँद तारे सभी हम-सफ़र थे मगर
ज़िन्दगी रात थी रात काली रही

मेरे सीने पे ख़ुशबू ने सर रख दिया
मेरी बाँहों में फूलों की डाली रही

regards
seema gupta said…
सुदर्शन फ़ाकिर
ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें



अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का
लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का



मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे



जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से
रवायत है शायद ये सदियों पुरानी
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

regards
seema gupta said…
बशीर बद्र
याद किसी की चाँदनी बन कर कोठे कोठे उतरी है
याद किसी की धूप हुई है ज़ीना ज़ीना उतरी है

रात की रानी सहन-ए-चमन में गेसू खोले सोती है
रात-बेरात उधर मत जाना इक नागिन भी रहती है

तुम को क्या तुम ग़ज़लें कह कर अपनी आग बुझा लोगे
उस के जी से पूछो जो पत्थर की तरह चुप रहती है

पत्थर लेकर गलियों गलियों लड़के पूछा करते हैं
हर बस्ती में मुझ से आगे शोहरत मेरी पहुँचती है

मुद्दत से इक लड़की के रुख़्सार की धूप नहीं आई
इसी लिये मेरे कमरे में इतनी ठंडक रहती है

regards
seema gupta said…
जोश मलीहाबादी
अस्सलामें ताजदारे जर्मनी ऐ हिटलरे आजम
फिदा-ए-कौम शेदा-ए-वतन ऐ नैयरे आजम
सुना तो होगा तू ने एक बदवख्तों की बस्ती है
जहां जीती हुई हर चीज जीने को तरसती है
जहां का कैदखाना लीडरों से भरता जाता है
जहां पर परचमे शाही फिजां पर सनसनाता है
जहां कब्जा है सीमोजर्क चोरों का
जहां पर दौर दौरा कमबखत मक्कार गोरों का
वो बस्ती लोग जिसको हिन्दोस्तान कहते हैं
जहां बन बनके हाकिम मगरबी हैवान रहते हैं
मैं आज उन बदबख्तों का अफसाना सुनाता हूं
वतन की रूह पर चंद खून के धब्बे दिखाता हूं
हमारे मुल्क में भी पहले कुछ जांबाज रहते थे
वतन के हमदमो हमसाज रहते थे
जिन्हें चलती हुई तलवार से डरना न आता था
घरों पर बिस्तरे आराम पर मरना न आता था
गरज ये साम्राजी भेड़िया झपटा जवानों
पर गिरी बिजली हमारे खिरमनों पर आशियानों
पर लुटेरों ने हमारे दुख्तरे ईशान को लूटा
वतन की रूह को लूटा और आन को लूटा
सुना है हिटलर दुश्मने हिंदोस्ता भी है
हमारे खुश्क खिरमन के लिए बरके शयां भी है
यकीं रख हिंदियों की दुआएं साथ हैं तेरे
दिले बीमार की टूटी सदाएं साथ हैं तेरे
कसम तुझको शिकस्ते फास की ऐ नैय्यारे आजम
कसम तुझको करोड़ों लाश की ए हिटलर ऐ आजम
खबर लेने बकिंघम की जो अबकी बार तू जाना
हमारे नाम से भी एक गोला फेंकते आना
वक्त लिख रहा है कहानी एक नए मजमून की
जिसकी शुर्खी को जरूरत है तुम्हारे खून की

regards
seema gupta said…
कमलेश भट्ट 'कमल'
समन्दर में उतर जाते हैं जो हैं तैरने वाले

किनारे पर भी डरते हैं तमाशा देखने वाले




जो खुद को बेच देते हैं बहुत अच्छे हैं वे फिर भी

सियासत में कई हैं मुल्क तक को वेचने वाले




गये थे गाँव से लेकर कई चाहत कई सपने

कई फिक्रें लिये लौटे शहर से लौटने वाले




बुराई सोचना है काम काले दिल के लोगों का

भलाई सोचते ही हैं भलाई सोचने वाले




यकीनन झूठ की बस्ती यहाँ आबाद है लेकिन

बहुत से लोग जिन्दा हैं अभी सच बोलने वाले


regards
Shamikh Faraz said…
This post has been removed by the author.
Shamikh Faraz said…
बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

साहिर लुध्यान्वी
Shamikh Faraz said…
बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई

sahir ludhyanvi
Shamikh Faraz said…
बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे
sahir ludhyanvi
Shamikh Faraz said…
nida fazli

बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुन्हेरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की
रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के

बस्ती की गलियों में

अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।
खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
Shamikh Faraz said…
दिल वालों की बस्ती है

यहाँ मौज और मस्ती है।


पत्थर दिल है ये दुनिया

मज़बूरों पर हँसती है।
Shamikh Faraz said…
हम घूम चुके बस्ती-वन में
इक आस का फाँस लिए मन में

ibne insha
Shamikh Faraz said…
बस्ती के उस पार से तो कभी वनों के पीछे से

कभी लम्बी दूरी की, लदी मालगाड़ी के नीचे से

सत्ता के समर्थन में जब गूँजेगा तू बनकर भोंपू

सरस किलकारियाँ भरेगा, हकूमत के बगीचे से


घनघनाएगा, बुड्ढे, तू पहले, फिर साँस लेगा मीठी

और सागर-सा गरजेगा कि दुनिया तूने यह जीती

गूँजेगा तू लम्बे समय तक, कई सदियों के पार

सब सोवियत नगरों की, बस होगा तू ही तो सीटी
seema gupta said…
प्रश्न २
एक हीं बात ज़माने की किताबों में नहीं... महफ़िल-ए-ज़ाहिर और "फ़ाकिर"
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१७
"रफ़ी" साहब
भीम सेन की फ़िल्म दूरियाँ में लिखा गीत "ज़िंदगी,ज़िंदगी मेरे घर आना ज़िंदगी" खासा प्रसिद्ध हुआ था।

regards
Shamikh Faraz said…
बस्ती से अगर उसका टकराव नहीं होता
शीशे की हवेली पर पथराव नहीं होता

praful kumar
seema ji kisi ko mauka hi nahi de rahin
kya kiya jaye
Shamikh Faraz said…
यह जो बस्ती में डर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता

तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता
Shamikh Faraz said…
अरमानों की बस्ती में हम आग लगा बैठे।

ऎ दिल! तेरी दुनिया को हम लुटा बैठे।।
जब से तुम्हें पहलू में हम अपने बसा बैठे।

दिल हमको गवाँ बैठा, हम दिल को गवाँ बैठे।।
पानी में बहा देंगे घड़ियाँ तेरी फुरकत की।

हम आँखों के परदों में सावन को छुपा बैठे।।
seema gupta said…
कैसी कशमकश ये, कैसा या वुस्वुसा है,
यकसूई चाहता है, दो पाट में फँसा है।

दिल जोई तेरी की थी, बस यूँ ही वह हँसा है,
दिलबर समझ के जिस को तू छूने में लसा है।

बकता है आसमा को, तक तक के मेरी सूरत,
पागल ने मेरा बातिन, किस जोर से कसा है।

सच बोलने के खातिर दो आँख ही बहुत थीं,
अल्फाज़ चुभ रहे हैं, आवाज़ ने डंसा है।

कैसी है सीना कूबी? भूले नहीं हो अब तक,
बहरों का फासला था, सदियों का हादसा है।

है वादियों में बस्ती, आबादी साहिलों पर,
देखो जुनून ए "मुंकिर" गिर्दाब में बसा है.
regards
seema gupta said…
जिस तरफ भी देखिए, बस है ग़ुबार,
सारी बस्ती पर यहां छाया ग़ुबार.

इससे बचकर जायेगा कोई कहां?
सबकी हस्ती में भरा है जब ग़ुबार.

आसमां पर जो सितारे चमकते,
वो भी तो एक रोशनी का है ग़ुबार.

ज़िन्दगी की इब्तदा कोई भी हो,
ज़िन्दगी की इन्तहा तो है ग़ुबार.

मौत का उसको कोई भी डर नहीं,
जिसको प्यारा हो गया है ये ग़ुबार.

regards
seema gupta said…
जब मिले सबसे गमों की देर तक चर्चा हुई ।

और जब बिछडें तो कोई दूर तक अपना न था ।।

जिस भरी बस्ती में उनको आज तक खोजा किया ।

वो बहुत वीरान थी, आकाश तक अपना न था ।।

(डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल
regards
Shamikh Faraz said…
बस्ती की औरत से
मत पूछो
कि, उसकी आँखों के नीचे
चमकती बून्दे
पसीने की हैं या आँसू

बस्ती की औरत से
मत पूछो
उसके होंठों की चुप्पियाँ
उसकी मजबूरी है या इच्छा

बस्ती की औरत से
मत पूछो
उसके कोख में
पलता बच्चा
उसकी इच्छा की है या नहीं

बस्ती की औरत से
मत पूछो
वह जिन्दगी काट रही है
या खुद ब खुद जिन्दगी
कट रही है

वह तुम्हे कुछ भी नहीं बताएगी

बस्ती की औरत
बरसों से ऐसे ही
जीती आ रही है
खुद का ही इक शेर पेशे खिदमत है ....

सूझ रहा ना कोई ठिकाना हर बस्ती में रुसवाई है
हर हिन्दू यहाँ का कातिल है हर मुस्लिम बलवाई है

- कुलदीप अन्जुम
बस इतना ही
सद्ब्खैर
इक शेर जो दिल के बहुत करीब है
बशीर बद्र साहब का

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलने में
Shamikh Faraz said…
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार


लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव

सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम


सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप


सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

nida fazili
Shamikh Faraz said…
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें

iqbal
Shamikh Faraz said…
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के

shaharyar
seema gupta said…
सफ़र हुआ पूरा दिन-भर का, धूप ढली, फिर शाम हुई,
फिर सूरज पर कीचड़ उछली, फिर बस्ती बदनाम हुई।

जब-जब मैंने मौसम की तकलीफ़ें अपने सर पर लीं,
मौसम बेपरवाह हो गया, मेरी नींद हराम हुई।

मैंने तल्ख़ हकीक़त को ही चुना ज़िंदगी-भर यारो,
मुझे ख़्वाब से बहलाने की हर कोशिश नाकाम हुई।

मुझसे जुड़कर मेरी परछाईं तक भी बेचैन रही,
मुझसे कटकर मेरे दिल की धड़कन भी उपराम हुई।

आँखों में ख़ाली सूनापन और लबों पर ख़ामोशी,
अपनी तो इस तंग गली में यों ही उम्र तमाम हुई।

अहसासों का एक शहर है, जो अकसर वीरान हुआ,
उसी शहर में अरमानों की अस्मत भी नीलाम हुई।

मैंने जो कुछ कहा, अनसुना किया शहर के लोगों ने
मैंने जो कुछ नहीं कहा था, उसकी चर्चा आम हुई।
regards
Shamikh Faraz said…
एक-एक से बड़े सयानों की ये बस्ती

डुबा रहे हैं बड़े-बड़ों के बजरे कश्ती

तेल नहीं उसकीर रहे पर

यों ही बाती
Shamikh Faraz said…
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के
Shamikh Faraz said…
शब्दों का यह ठेला खींचना है

जिसमें वह सब है

जिसे मैं तुममे से हर एक को

देना चाहता हूँ

पर तुम्हारी बस्ती तक पहुँचू तो।
seema gupta said…
सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा

किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं खुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा

सुकूँ पाएँ चमन वाले हर इक घर रोशनी पहुँचे
मुझे अच्छा लगेगा तुम जला दो आशियाँ मेरा

बचाकर रख उसे मंज़िल से पहले रूठने वाले
तुझे रस्ता दिखायेगा गुबार-ए-कारवाँ1 मेरा

पड़ेगा वक़्त जब मेरी दुआएँ काम आयेंगी
अभी कुछ तल्ख़ लगता है ये अन्दाज़-ए-बयाँ मेरा

कहीं बारूद फूलों में, कहीं शोले शिगूफ़ों2 में
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे, है यही जन्नत निशाँ मेरा

मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था बेकल
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा
regards
seema ji apka blog dekha
its very nice

yaha aap mein aur shamikh ji mein hi mukabla hai
all d best
seema gupta said…
नवनीत शर्मा
यह जो बस्ती में डर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता

तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता

रेत के घर पहाड़ की दस्तक
वाक़िया ये ख़बर नही होता

ख़ुदपरस्ती ये आदतों का लिहाफ़
ख़्वाब तो हैं गजर नहीं होता

मंज़िलें जिनको रोक लेती हैं
उनका कोई सफ़र नहीं होता

पूछ उससे उड़ान का मतलब
जिस परिंदे का पर नहीं होता

आरज़ू घर की पालिए लेकिन
हर मकाँ भी तो घर नहीं होता

तू मिला है मगर तू ग़ायब है
ऐसा होना बसर नहीं होता

इत्तिफ़ाक़न जो शे`र हो आया
क्या न होता अगर नहीं होता.

regards
seema gupta said…
अपने होठों पर सजाना चाहता हूं
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं

कोई आसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं

थक गया मैं करते करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं

छा रहा हैं सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं

आखरी हिचकी तेरे शानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं

कतील शिफ़ाई.
regards
Shamikh Faraz said…
सूरज हाथ से फिसल गया है
आज का दिन भी निकल गया है

तेरी सूरत अब भी वही है
मेरा चश्मा बदल गया है

ज़ेहन अभी मसरूफ़ है घर में
जिस्म कमाने निकल गया है

क्या सोचें कैसा था निशाना
तीर कमां से निकल गया है

जाने कैसी भूख थी उसकी
सारी बस्ती निगल गया है
Shamikh Faraz said…
खूब जमेगा रंग जब मिल बैठेंगे तीन दोस्त कुलदीप जी, मैं और सीमा जी.
हा हः हा
Shamikh Faraz said…
उन सब ने खंडित कर डाला जिन पर था विश्वास मियां
क्या अपनों कोधर के चाटे क्या अपनों की आस मियां

इस बस्ती से आते-जाते नाक पे कपड़ा रख लेना
बड़ी घिनौनी लगती है रे आदम की बू-बास मियां

yogendra modgil
seema gupta said…
आँखों में जल रहा है क्यूं, बुझता नही धुँआ,
उठता तो है घटा सा बरसता नही धुँआ,

चूल्हा नही जलाया य बस्ती ही जल गई,
कुछ रोज हो गए हैं अब उठता नही धुँआ,

आँखों से पोंछने से लगा आंच का पता,
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नही धुँआ,

आँखों से आँसू के मरासिम पुराने है,
मेहमान ये घर में आयें तो चुभता नही धुँआ,

regards
seema gupta said…
हा हा हा हा हा हा Shamikh ... जी सच कहा आपने...
regards
seema gupta said…
@ kuldip ji, thankyou very much and wish u good luck too.

regards
seema gupta said…
जतिन्दर परवाज़

यार पुराने छूट गए तो छूट गए
काँच के बर्तन टूट गए तो टूट गए

सोच-समझ कर होंठ हिलाने पड़ते हैं
तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए

शहज़ादे के खेल-खिलौने थोड़ी थे
मेरे सपने टूट गए तो टूट गए

इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोए
भाग किसी के फूट गए तो फूट गए

छोड़ो रोना-धोना रिश्ते नातों पर
कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए

अब के बिछड़े तो मर जाएंगे ‘परवाज़’
हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए

regards
Shamikh Faraz said…
दिल की बस्ती में उनका घर होना किसको भाया है
किसको भायेगा तेरे क़ूचे से दर—बदर होना
seema gupta said…
धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न
बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न

मोल्सरी की शाख़ों पर भी दिये जलें
शाख़ों का केसरया आँचल भेजो न

नन्ही मुन्नी सब चेहकारें कहाँ गईं
मोरों के पेरों की पायल भेजो न

बस्ती बस्ती देहशत किसने बो दी है
गलियों बाज़ारों की हलचल भेजो न

सारे मौसम एक उमस के आदी हैं
छाँव की ख़ुश्बू, धूप का संदल भेजो न

मैं बस्ती में आख़िर किस से बात करूँ
मेरे जैसा कोई पागल भेजो न
राहत इन्दौरी
regards
Shamikh Faraz said…
नज़र नहीं आता कोई तेरे बिन, जैसे कोई बस्ती आबाद ना हो
थम जाती हे दुनिया की आवाज़ें, इस तरह से तू उदास ना हो
Shamikh Faraz said…
मेरे खयालों की बस्ती से अब जनाजे नहीं उठेंगे,
लोरी सी बातें हैं तुम्हारी जब हमें सुलाने के लिए
seema gupta said…
अंत मे कुछ मेरी पंक्तियाँ...


दिल की उजड़ी हुई बस्ती,कभी आ कर बसा जाते
कुछ बेचैन मेरी हस्ती , कभी आ कर बहला जाते...
युगों का फासला झेला , ऐसे एक उम्मीद को लेकर ,
रात भर आँखें हैं जगती . कभी आ कर सुला जाते ....
दुनिया के सितम ऐसे , उस पर मंजिल नही कोई ,
ख़ुद की बेहाली पे तरसती , कभी आ कर सजा जाते ...
तेरी यादों की खामोशी , और ये बेजार मेरा दामन,
बेजुबानी है मुझको डसती , कभी आ कर बुला जाते...
वीराना, मीलों भर सुखा , मेरी पलकों मे बसता है ,
बनजर हो के राह तकती , कभी आ कर रुला जाते.........
regards
Shamikh Faraz said…
कुलदीप जी आपकी बात पे एक शे'र याद आ गया.

शुक्र है आप का कि माना मुकाबिल हमें
फक्र इस बात का कि जाना काबिल हमें।
Shamikh Faraz said…
कितने सपने साथ लिए बस्ती में आया था।
बिछुडे अपने गाँव खेत ये शहर पराया था।
Shamikh Faraz said…
तनहा जी मैं अब तक का सबसे पसंदीदा शे'र पेश कर रहा हूँ. अगली महफ़िल में इस का ज़िक्र ज़रूर करें.


अब नए शहरों के जब नक्शे बनाए जाएंगे
हर गली बस्ती में कुछ मरघट दिखाए जाएंगे
Shamikh Faraz said…
प्यार की धरती अगर बन्दूक से बांटी गयी
एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जायेगा

आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जाएगा
Shamikh Faraz said…
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
Shamikh Faraz said…
धुन्ध बस्ती की हटे तो बात हो
कुछ नज़र आए दिलों के आफ़ताब
Shamikh Faraz said…
तुम मेरे साथ रहो बस्ती में तन्हाई में,
तुम मेरे साथ चलो दर्द की गहराई मे
Shamikh Faraz said…
बातें तो बहुत करते हैं, ये अहले-सियासत
उजड़ी हुई बस्ती को बसाने नहीं आते

पत्थर को भी हमने दिया भगवन का दर्जा
दुश्मन के भी दिल, हमको दुखाने नहीं आते
Shamikh Faraz said…
बैठा हूँ दर्द की बस्ती में तजुर्बों के लिए
अब रौशनी कहाँ है मेरे हिस्से
Shamikh Faraz said…
शरीफों की बस्ती से नहीं वास्ता मुझे,
अपने छज्जे से इन्हें देखा करती
Shamikh Faraz said…
पूरी बस्ती, हर मंजर , हर नज़ारा धुला सा है और साँस लेने को सारा , आसमा भी खुला सा है
Shamikh Faraz said…
दसविदानिया (रूसी भाषा का इक शब्द जिसका अर्थ होता है फिर मिलेंगे.)
दोस्तों
शामिख जी और कुलदीप जी,
हमारे आलेख में बस "शब्द-पहेली" हीं नहीं है। आप दोनों से गुजारिश है कि आलेख पर भी ध्यान दिया करें और "प्रश्न-पहेली" में हिस्सा लें।

शरद जी,
कहाँ हैं आप?
Shamikh Faraz said…
तनहा जी पहेली का पहले ही सीमा जी जवाब दे चुकी थीं. इसलिए मैंने कोशिश नहीं की.
पहेली का जवाब :
प्रश्न १ : फ़नकारा ताहिरा सय्यद
सीनेटर : एस.एम.जफ़र
कडी सं. 41

प्रश्न २ : सुदर्शन फ़ाकिर
गीत : ज़िन्दगी ज़िन्दघी मेरे घर आना
कडी सं. 17
Manju Gupta said…
जवाब -बस्ती, स्वरचित शेर हैं -
उम्मीदों की बस्ती जलाकर
बेवफा का दिल न जला
वारदात को गुनाहगार बनाकर
चिंगारियों को दी हवा
ख्बावों के आशियाने में सपने सजाकर
मौहब्बत की दी सजा
ऐ 'हमराज 'इश्क का सबक बताकर
दिल से रुखसत की वफा
'मंजू' अरमानों पर आग लगाकर
प्यार तेरे लिए बेजुवा बना
Shamikh Faraz said…
पहेली का जवाब :
प्रश्न १ : फ़नकारा ताहिरा सय्यद
सीनेटर : एस.एम.जफ़र
कडी सं. 41

प्रश्न २ : सुदर्शन फ़ाकिर
गीत : ज़िन्दगी ज़िन्दगी मेरे घर आना
कडी सं. 17
seema gupta said…
प्रश्न दो में गलती से लिखते वक़्त फ़कीर की जगह रफी लिखा गया. इसे "फ़ाकिर" साहब पढा जाये. और हाँ अंक देने की परेशानी हम हल किये देते हैं. पहली बार जब उत्तर दिया तो हमारे दुसरे प्रश्न को आधा ही सही माना जाये और उसी हिसाब से अंक दिए जाएँ. भुल तो भुल है चाहे लिखने में ही हुई हो. अपनी भुल पता चली तो सुधर ली बस इतना ही.......

regards
सीमा जी, दुविधा दूर करने के लिए धन्यवाद। शायद इसी को स्पोर्टिंग स्पीरिट कहते हैं।

शामिख जी, यह क्या आपने तो शरद जी के उत्तर को हुबहू छाप दिया। अगर वही उत्तर देना था तो कम से कम फारमेट तो चेंज कर देते। आपकी इस अदा(गलती, भूल) के कारण शायद आपको कोई अंक न मिले।

-विश्व दीपक

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