मैंने देखी पहली फिल्म 
भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित
 विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों के झरोखे से’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का 
हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और आज बारी है- ‘मैंने देखी
 पहली फिल्म’ की। इस द्विसाप्ताहिक स्तम्भ के पिछले अंक में आपने हमारे 
संचालक मण्डल के सदस्य अनुराग शर्मा की देखी पहली दो फिल्मों ‘गीत’ और 
‘पुष्पांजलि’ के गैरप्रतियोगी संस्मरण के साझीदार रहे। आज निखिल आनन्द गिरि
 अपनी देखी कुछ ऐसी फिल्मों का जिक्र कर रहे हैं जिन्होने उनके मन पर 
गहरा प्रभाव छोड़ा। यह प्रतियोगी वर्ग की प्रविष्टि है।
 मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता।  पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता।  पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।  
मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के 
किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का
 मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ 
चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में
 जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें 
फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म
 देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। 
ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, 
गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही
 पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ
 भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए 
हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की 
बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी 
स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते 
लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव 
सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए 
और फिर पिक्चर देखने बैठे।     
 तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था।
 रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में 
जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन 
अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 
'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा 
था।
तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था।
 रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में 
जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन 
अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 
'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा 
था।  
जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे 
चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 
'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद 
पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर 
वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने 
पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ 
देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच 
रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब 
से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए 
सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर 
में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है। 
 फिर, दिल्ली 
आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस 
रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म 
देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत 
याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते
 हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। 
कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना 
हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।
फिर, दिल्ली 
आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस 
रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म 
देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत 
याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते
 हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। 
कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना 
हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।  
निखिल जी ने अपने संस्मरण में जिन दो आरम्भिक फिल्मों- सूरज और गाइड का उल्लेख किया है। आपको हम इन दोनों फिल्मों से गीत सुनवा रहे हैं। 
फिल्म सूरज : ‘बहारों फूल बरसाओ...’ : मुहम्मद रफी : संगीत – शंकर-जयकिशन 
फिल्म गाइड : ‘पिया तोसे नैना लागे रे...’ : लता मंगेशकर : संगीत – सचिनदेव बर्मन   
आपको निखिल जी का संस्मरण कैसा लगा? हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com
  पर भेज सकते हैं। आप भी हमारे इस आयोजन- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ में भाग
 ले सकते हैं। आपका संस्मरण हम रेडियो प्लेबैक इण्डिया के इस अनुष्ठान में 
सम्मिलित तो करेंगे ही, यदि हमारे निर्णायकों को पसन्द आया तो हम आपको 
पुरस्कृत भी करेंगे। आज ही अपना आलेख और एक चित्र हमे radioplaybackindia@live.com पर मेल करें। जिन्होने आलेख पहले भेजा है, उन प्रतिभागियों से अनुरोध है कि अपना एक चित्र भी भेज दें। 
'मैंने देखी पहली फिल्म' : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता 
दोस्तों,
 भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे 
जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी
 हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो 
सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के 
माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव
 radioplaybackindia@live.com
 पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन
 आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं। 
तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए
 और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में
 आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 31अक्टूबर, 2012 है।
 
 
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