स्वरगोष्ठी – ९४ में आज
‘कौन गली गयो श्याम...’ : श्रृंगार और भक्ति का अनूठा समागम
‘कौन गली गयो श्याम...’ : श्रृंगार और भक्ति का अनूठा समागम
‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक
ठुमरी’ की आज पाँचवीं कड़ी है। इस श्रृंखला में हम आपके लिए कुछ ऐसी
पारम्परिक ठुमरियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्हें फिल्मों में भी शामिल
किया गया। ऐसी ठुमरियों का पारम्परिक और फिल्मी, दोनों रूप आप सुन रहे हैं।
आज के अंक में हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, खमाज की एक बेहद लोकप्रिय
ठुमरी- ‘कौन गली गयो श्याम...’। आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत
करते हुए, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आरम्भ करता हूँ, ‘फिल्मों के आँगन में
ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ श्रृंखला का नया अंक।
हमारी आज की
पारम्परिक ठुमरी राग खमाज की है, जिसके स्थायी के बोल हैं- ‘कौन गली गयो
श्याम...’। इस ठुमरी को कई गायक-गायिकाओं ने गाया है। इनमें से आज के अंक
में हम विदुषी रसूलन बाई, डॉ. प्रभा अत्रे, पण्डित छन्नूलाल मिश्र और
विदुषी परवीन सुलताना के स्वरों में यह ठुमरी प्रस्तुत करेंगे। पिछले अंक
में भी हमने रसूलन बाई के स्वर में एक अन्य ठुमरी प्रस्तुत की थी, जिसे आप
सबने बेहद पसन्द किया था। दरअसल, बात यदि पूरब अंग की ठुमरियों की होगी तो
इस संगीत-साधिका को याद करना आवश्यक हो जाता है। ठुमरी गायकी को चंचल
प्रकृति का माना जाता है, किन्तु रसूलन बाई की गायकी में शान्त भाव से खींच
के बोलों के व्यापक रंग उपस्थित मिलते हैं। इसीलिए उनकी गायी ठुमरियाँ
लालित्यपूर्ण, हृदयग्राही और रस से परिपूर्ण होती हैं। उनकी गायी इस ठुमरी
में श्रृंगार रस के साथ भक्ति भाव का अनूठा समिश्रण मिलता है। लीजिए,
प्रस्तुत है- रसूलन बाई के स्वर में यह ठुमरी। इस प्रस्तुति में आपको पूरब
अंग की ठुमरियों का एक आकर्षक और रोचक हिस्सा- कहरवा की लग्गी लड़ी का आनन्द
भी मिलेगा।
पिछले
छह दशक की अवधि में भारतीय संगीत जगत की किसी ऐसी कलासाधिका का नाम लेना
हो, जिन्होने संगीत-चिन्तन, मंच-प्रस्तुतीकरण, शिक्षण, पुस्तक-लेखन, शोध
आदि सभी क्षेत्रों में पूरी दक्षता के साथ संगीत के शिखर को स्पर्श किया
है, तो वह एक नाम विदुषी (डॉ.) प्रभा अत्रे का ही है। वर्तमान में प्रभा
जी ऐसी महिला कलासाधिका हैं, जो किराना घराने की गायकी का प्रतिनिधित्व कर
रही हैं। गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत प्रभा जी को किराना घराने के
विद्वान सुरेशबाबू माने और विदुषी (पद्मभूषण) हीराबाई बरोडकर से
संगीत-शिक्षा मिली। कठिन साधना के बल पर उन्होने खयाल, तराना, ठुमरी,
दादरा, गजल, भजन आदि शैलियों के गायन में दक्षता प्राप्त की। डॉ. अत्रे को
प्रत्यक्ष सुनना एक दिव्य अनुभूति देता है। उनकी गायकी में राग और रचना के
साहित्य की स्पष्ट भवाभिव्यक्ति उपस्थित होती है। स्पष्ट शब्दोच्चार और
संगीत के विविध अलंकारों से सुसज्जित रचना उनके कण्ठ पर आते ही हर वर्ग के
श्रोताओं मुग्ध कर देती है। मूलतः खयाल गायिका के रूप में विख्यात प्रभा
अत्रे ठुमरी गायन में समान रूप से दक्ष हैं। राग मिश्र खमाज में गायी गई
ठुमरी- ‘कौन गली गयो श्याम...’ अनेक संगीत समारोहों में अनुरोध के साथ सुनी
जाती रही है। लीजिए, आप भी इस ठुमरी की रसानुभूति कीजिए।
ठुमरी मिश्र खमाज : ‘कौन गली गयो श्याम...’ : विदुषी (डॉ.) प्रभा अत्रे
आज
की ठुमरी ‘कौन गली गयो श्याम...’ के तीसरे गायक वर्तमान ठुमरी गायकों में
एक सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र हैं। एक संगीतकार परिवार में ३
अगस्त, १९३६ को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की
प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई। बाद
में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खाँ से घरानेदार गायकी की
बारीकियाँ सीखीं। जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी
श्री मिश्र को मिला। निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी खयाल गायकी
में कई घरानों की विशेषताओं के दर्शन होते हैं। पूरब अंग की उपशास्त्रीय
गायकी के वह एक सिद्ध कलासाधक हैं। उनकी ठुमरी गायकी में जहाँ पूरब अंग की
चैनदारी और ठहराव होता है वहीं पंजाब अंग की लयकारी का आनन्द भी मिलता है।
संगीत के साथ-साथ छन्नूलाल जी ने साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है। तुलसी
और कबीर के साहित्य का जब वह स्वरों में निबद्ध कर गायन करते है, तब
साहित्य का पूरा दर्शन स्वरों से परिभाषित होने लगता है। उनके ठुमरी गायन
के दौरान उप-शास्त्रीय संगीत की सभी विशेषताएँ क्रमबद्ध रूप से परिभाषित
होने लगती है। आइए पण्डित छन्नूलाल मिश्र के स्वरों में सुनते हैं यही
ठुमरी।
ठुमरी मिश्र खमाज : ‘कौन गली गयो श्याम...’ : पण्डित छन्नूलाल मिश्र
अब
हम आपसे आज की ठुमरी के फिल्मी प्रयोग पर थोड़ी चर्चा करेंगे।
फिल्म-संगीत-इतिहास में दो दशकों का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म ‘पाकीज़ा’
है। ६० के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म ‘पाकीजा’ के निर्माण की
योजना बनी थी। फिल्म-निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो
संगीतकारों को फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा। १९७२ में प्रदर्शित इस
फिल्म के संगीत के लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार
लेकर एक से एक गीतों की रचना की थी। गुलाम मोहम्मद ने इस फिल्म के अधिकतर
गीत अपने जीवनकाल में ही रिकार्ड करा लिये थे। इसी दौरान वह ह्रदय रोग से
पीड़ित हो गए थे। अन्ततः १७ मार्च, १९६८ को उनका निधन हो गया। उनके निधन के
बाद फिल्म का पृष्ठभूमि संगीत और तीन ठुमरियाँ- परवीन सुल्ताना, राजकुमारी
और वाणी जयराम कि आवाज़ में संगीतकार नौशाद ने रिकार्ड किया। अन्ततः यह
महत्वाकांक्षी फिल्म गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित
हुई थी। संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके
सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे। आइए, फिल्म ‘पाकीज़ा’
में नौशाद द्वारा शामिल की गई वह पारम्परिक ठुमरी सुनवाते हैं, जिसे
सुप्रसिद्ध गायिका परवीन सुलताना ने स्वर दिया है। विदुषी परवीन सुलताना ने
तीनों सप्तकों में फिरने वाले स्वरो में इस ठुमरी को एक अलग रंग दिया है।
आप इस ठुमरी का रसास्वादन करें और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की
अनुमति दीजिए।
फिल्म – पाकीज़ा : ‘कौन गली गयो श्याम...’ : विदुषी परवीन सुलताना
आज की पहेली
आज
की संगीत पहेली में हम आपको एक पूरब अंग की सुविख्यात गायिका के स्वर में
ठुमरी का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने
हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें
इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।
१- यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?
२- इस ठुमरी की गायिका को पहचानिए और उनका नाम बताइए।
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments
में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के
९६वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं।
'स्वरगोष्ठी’
के ९२वें अंक की पहेली में हमने आपको उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ की आवाज़ में
प्रस्तुत एक ठुमरी का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का
सही उत्तर है- राग ‘भैरवी’ और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- संगीत
निर्देशक रोशन। दोनों प्रश्नों के सही उत्तर लखनऊ से प्रकाश गोविन्द,
जबलपुर से क्षिति तिवारी और जौनपुर, उत्तर प्रदेश से डॉ. पी.के. त्रिपाठी
ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से
हार्दिक बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के
अगले अंक में हम आपको एक और प्राचीन ठुमरी- बाजूबन्द खुल खुल जाए...' और उसके फिल्मी गीत के रूप में
प्रयोग की चर्चा करेंगे। आपके सम्मुख हम बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक काल से लेकर
आधुनिक काल तक की अवधि में ठुमरी गायकी में आए बदलाव को भी रेखांकित
करेंगे। आपकी स्मृतियों में यदि किसी मूर्धन्य कलासाधक की ऐसी कोई
पारम्परिक ठुमरी या दादरा रचना हो जिसे किसी भारतीय फिल्म में भी शामिल
किया गया हो तो हमें अवश्य लिखें। आपके सुझाव और सहयोग से इस स्तम्भ को
अधिक सुरुचिपूर्ण रूप दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित
अपनी इस गोष्ठी में आप अवश्य पधारिए। हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी।
'मैंने देखी पहली फिल्म' : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता
दोस्तों,
भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे
जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी
हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो
सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के
माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव
radioplaybackindia@live.com
पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन
आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं।
तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए
और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में
आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 30 नवम्बर, 2012 है।
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