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स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 13


     
भूली-बिसरी यादें


भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में प्रत्येक मास के पहले और तीसरे गुरुवार को हम आपके लिए लेकर आते हैं, मूक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर के कुछ रोचक तथ्य और आलेख के दूसरे हिस्से में सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर की कोई उल्लेखनीय संगीत रचना और रचनाकार का परिचय। आज के अंक में हम आपसे इस युग के कुछ रोचक तथ्य साझा करेंगे।


‘राजा हरिश्चन्द्र’ से पहले : मंच-नाटक का फिल्मांकन- ‘पुण्डलीक’

भारत में सिनेमा-निर्माण और प्रदर्शन के प्रयास 1896 से ही आरम्भ हुए थे। शुरुआती दौर में भारतीय और विदेशी फिल्मों में मात्र किसी घटना का फिल्मांकन कर कर दिया जाता था। 1899 में सावे दादा के नाम से विख्यात हरिश्चन्द्र सखाराम भटवाडेकर ने इंग्लैंड से सिने-कैमरा मँगवा कर दो पहलवानों के बीच कुश्ती का फिल्मांकन किया था। उस दौर में परदे पर चलती-फिरती देखना एक चमत्कार से कम नहीं था। चमत्कार के आगे कथ्य की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था। परन्तु यह सिलसिला बहुत आगे तक नहीं चल सका। शीघ्र ही दर्शक इन कथा-विहीन टुकड़े-टुकड़े दास्तानों से ऊब गए। वर्ष 1900 में बम्बई के इलेक्ट्रिकल इंजीनियर एफ.बी. थानावाला ने तत्कालीन बम्बई शहर के विशिष्ट स्थलों का फिल्मांकन किया और ‘स्प्लेंडिड न्यू व्यू ऑफ बाम्बे’ नामक भारत के प्रथम वृत्त-चित्र का निर्माण किया। फिल्म-दर्शकों के बीच यह प्रयोग भी क्षणिक सफलता का कारक रहा।
दादा साहेब तोरने

मूक फिल्मों के इस दौर में कथा-चित्र की ओर बढ़ते कदम के अन्तर्गत 1903 में कलकत्ता के हीरालाल और मोतीलाल सेन बन्धुओं ने बांग्ला के सुविख्यात रंगकर्मी अमरनाथ दत्त के सहयोग से कुछ ऐसे मंच-नाटकों का फिल्मांकन किया था, जो जन-जन में लोकप्रिय थे। परन्तु यह प्रयोग अधिक सफल नहीं रहा। इस प्रयोग को 1912 में बम्बई में नारायण गोविन्द चित्रे ने दुहराया। उन्होने आर.पी. टिपणीस और कैमरामैन जॉन्सन के सहयोग से अत्यन्त चर्चित मंच-नाटक ‘पुण्डलीक’ का फिल्मांकन किया। नाटक के निर्देशक रामचन्द्र तोरने उपाख्य दादा साहेब तोरने ने किया था। बम्बई के मंगलदास वाड़ी में संगीत मंडली नामक एक व्यावसायिक नाट्य संस्था ने ‘पुण्डलीक’ का मंचन किया था। इस पूरे नाटक का 8000 फुट लम्बा फिल्मांकन किया गया था। 18मई, 2013 को इस फिल्म का प्रदर्शन गिरगाँव स्थित कोरोनेशन थियेटर में किया गया था। इस बार यह प्रयोग काफी सफल रहा। कथा-चित्र की ओर बढ़ते भारतीय सिनेमा के कदमों में फिल्म ‘पुण्डलीक’ की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। परन्तु भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह फिल्म एक कथा-चित्र के रूप में दर्ज़ नहीं हुई। कारण स्पष्ट था, पूरी फिल्म मंच-नाटक के शिल्प में थी। इसी वर्ष एस.एन. पाटनकर ने एक पौराणिक प्रसंग पर लगभग 1000 फुट लम्बाई के लघु कथा-चित्र ‘सावित्री’ का निर्माण किया था। इस फिल्म के निर्माण में पाटनकर के सहयोगी थे, ए.पी. करंदीकर और वी.पी. दिवेकर। परन्तु अनेक तकनीकी कारणों से इस फिल्म का प्रदर्शन ही नहीं हो सका।

सवाक युग के धरोहर : रूढ़ियों के विरुद्ध- 'चण्डीदास'

मूक फिल्मों के युग में अधिकतर फिल्में पौराणिक या अत्यन्त लोकप्रिय कथानकों पर बनीं। परन्तु आवाज़ के आगमन के साथ फ़िल्मकारों का ध्यान पराधीन भारत की विसंगतियों की ओर गया। वाणीयुक्त सिनेमा के आरम्भिक दौर में ऐसी कई फिल्में बनी, जिनमें सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध जनमानस को जगाने का प्रयास किया गया था। 1931 में बनी फिल्म ‘आलमआरा’ से भारतीय फिल्मों में आवाज़ आई और 1932 में कलकत्ता की न्यू थियेटर कम्पनी ने बांग्ला भाषा में फिल्म ‘चण्डीदास’ का निर्माण किया। फिल्म के इस बांग्ला संस्करण का निर्देशन देवकी बोस ने किया था और नायक चण्डीदास की भूमिका में दुर्गादास बनर्जी को प्रस्तुत किया गया था। फिल्म को आशातीत सफलता मिली। कलकत्ता के चित्रा थियेटर में यह फिल्म निरन्तर 64 सप्ताह तक चली। इस सफलता से उत्साहित होकर न्यू थियेटर ने 1934 में फिल्म ‘चण्डीदास’ के हिन्दी संस्करण का निर्माण किया। हिन्दी संस्करण का निर्देशन नितिन बोस ने किया था और फिल्म के नायक की भूमिका में थे, कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल। गायक और अभिनेता के रूप में यह सहगल की पहली बड़ी सफलता थी। फिल्म ‘चण्डीदास’ की चर्चा जारी रहेगी, लेकिन पहले इस फिल्म का एक मनमोहक गीत ‘देखत वाको ही रूप...’ सहगल साहब की आवाज़ में सुनते हैं।

फिल्म ‘चण्डीदास’ : ‘देखत वाको ही रूप...’ : के.एल. सहगल


फिल्म ‘चण्डीदास’ के कथानक की पृष्ठभूमि में पन्द्रहवीं शताब्दी के बंगाल का परिवेश है, जब राधा-कृष्ण को आराध्य मान कर वैष्णव सम्प्रदाय का विस्तार हो रहा था। फिल्म का नायक चण्डीदास शिक्षक और कवि के साथ-साथ वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचारक भी है। उच्च कुल के नायक के साथ अस्पृश्य जाति की नायिका के आत्मिक प्रेम सम्बन्धों के माध्यम से फिल्म में तत्कालीन समाज मे व्याप्त रूढ़ियों के विरुद्ध घोष किया गया था। नायिका रामी की भूमिका में अभिनेत्री उमाशशि ने अभिनय किया था। तत्कालीन आवश्यकता के अनुसार अपने हिस्से के गीतों को उमाशशि ने ही स्वर दिया था। फिल्म में उनके गाये एक गीत को पहले हम सुनते हैं।

फिल्म ‘चण्डीदास’ : ‘बसन्त ऋतु आई आली...’ : उमाशशि
आर.सी. बोराल


फिल्म ‘चण्डीदास’ के संवाद और गीत-लेखन तत्कालीन पारसी नाटकों के विख्यात लेखक आगा हस्र कश्मीरी ने किया था। गीतों में 15वीं शताब्दी के बंगाल में प्रचलित वैष्णव संगीत की छाया दिखाने का प्रयास भी किया गया था। विशेष रूप से सहगल के गाये गीतों में इसकी झलक मिलती है। फिल्म का संगीत राय चन्द्र (आर.सी.) बोराल ने तैयार किया था। यह निर्विवाद है कि बोलती फिल्मों के आरम्भिक दौर के संगीत में मधुर आर्केस्ट्रा के प्रयोग का श्रेय आर.सी. बोराल को ही दिया जाता है और वे इसके हकदार भी थे। फिल्म में के.एल. सहगल और उमाशशि के अलावा पहाड़ी सान्याल, अभि सान्याल, एच. सिद्दीकी, एम. अंसारी, नवाब, अनवरी बाई और पार्वती ने अभिनय किया था। तमाम संघर्षों के बाद अन्ततः चण्डीदास (के.एल. सहगल) और रामी (उमाशशि) का पुनर्मिलन होता है और वे अपने मित्र बैजू (पहाड़ी सान्याल) और उसकी पत्नी कुसुम (सम्भवतः पार्वती) के साथ रूढ़ियों के विरुद्ध प्रेम के विजय-गीत गाते हुए गाँव का परित्याग कर देते हैं। फिल्म के इस गीत में इन्हीं चारो कलाकारों के स्वर हैं, जिसे अब हम आपको सुनवा रहे हैं।

फिल्म ‘चण्डीदास’ : ‘प्रेम की जय जय...’ : के.एल. सहगल, उमाशशि, पहाड़ी सान्याल और पार्वती


‘चण्डीदास’ वाणीयुक्त सिनेमा के प्रारम्भिक दौर की एक सफलतम फिल्म थी। यह हमारा सौभाग्य है कि रूढ़िग्रस्त समाज को प्रेरित और आन्दोलित करने में सफल इस फिल्म के कुछ गीत आज भी एक अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित है। इस फिल्म को इस बात का श्रेय भी प्राप्त है कि आगे चल कर इसी विषय पर अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत फिल्म ‘अछूत कन्या’ का निर्माण भी हुआ था। इस फिल्म की चर्चा हम अगले किसी अंक में करेंगे। आज के अंक से यहीं विराम लेने के लिए अब हमें अनुमति दीजिए।

आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आपकी प्रतिक्रिया, सुझाव और समालोचना से हम इस स्तम्भ को और भी सुरुचिपूर्ण रूप प्रदान कर सकते हैं। ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ के आगामी अंक में बारी है- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ की। अगला गुरुवार मास का दूसरा गुरुवार होगा और इस सप्ताह हम प्रस्तुत करेंगे एक प्रतियोगी संस्मरण। यदि आपने ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता के लिए अभी तक अपना संस्मरण नहीं भेजा है तो हमें तत्काल radioplaybackindia@live.com पर मेल करें।

कृष्णमोहन मिश्र

Comments

बहुत ख़ूब...उत्कृष्ट !!!...बधाई के पात्र हैं आप !!!
cgswar said…
भारतीय सि‍नेमा के 100 वर्ष सीरीज में ये एक संग्रहणीय पोस्‍ट है, ये जानकारी, ये इति‍हास सचमुच 100 भारतीयों में से शायद एकाध को ही होगी्...धन्‍यवाद

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