स्वरगोष्ठी – ८९ में आज
परदे वाले गजवाद्यों की मोहक अनुगूँज
‘स्वरगोष्ठी’
के एक नए अंक के साथ, मैं कृष्णमोहन मिश्र फिर एक बार आज की महफिल में
उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। गत सप्ताह हमारे बीच
जाने-माने इसराज और मयूरवीणा-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र उपस्थित थे,
जिन्होने गज-तंत्र वाद्य सारंगी के विषय में हमारे साथ विस्तृत चर्चा की
थी। हमारे अनुरोध पर श्रीकुमार जी आज भी हमारे साथ हैं। आज हम उनसे कुछ ऐसे
गज-तंत्र वाद्यों का परिचय प्राप्त करेंगे, जिनमें परदे होते हैं।
कृष्णमोहन : श्रीकुमार जी, ‘स्वरगोष्ठी’ के सुरीले मंच पर एक बार पुनः
आपका हार्दिक स्वागत है। गत सप्ताह हमने आपसे सारंगी वाद्य के बारे में
चर्चा की थी। आज इस श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ते हुए सारंगी के ही एक
परिवर्तित रूप के बारे में जानना चाहते हैं। वर्तमान में इसराज, दिलरुबा,
तार शहनाई और स्वयं आप द्वारा पुनर्जीवित वाद्य मयूरवीणा ऐसे वाद्य हैं, जो
गज से बजाए जाते हैं, किन्तु इनमें सितार की भाँति परदे लगे होते हैं। इन
परदे वाले गज-वाद्यों की विकास-यात्रा के बारे में बताएँ।
श्रीकुमार
मिश्र : ‘स्वरगोष्ठी’ के संगीत-प्रेमियों को मेरा अभिवादन। संगीत-रत्नाकर,
संगीतसार व संगीतराज आदि प्राचीन ग्रन्थों में निःशंकवीणा तथा पिनाकीवीणा
का उल्लेख मिलता है। वर्तमान सारंगी इनका ही परिवर्तित और विकसित रूप हैं।
परन्तु परदे वाले गज-वाद्यों का आविष्कार इन वाद्यों के बहुत बाद में हुआ।
इस सम्बन्ध में प्रोफेसर रामकृष्ण ने ऋषि मतंग को किन्नरीवीणा का आविष्कारक
कहा है। मतंग से पूर्व वीणा में परदे नहीं होते थे। उन्होने ही सर्वप्रथम
वीणा पर सारिकाओं (परदों) की योजना की थी। डॉ. लालमणि मिश्र के मतानुसार
आधुनिक युग के सभी तंत्रीवाद्य, जिन पर परदे हैं, किन्नरीवीणा के ही विकसित
रूप हैं।
कृष्णमोहन : वर्तमान में प्रचलित परदे वाले वाद्यों का इतिहास कितना प्राचीन है?
श्रीकुमार
मिश्र : यहाँ मैं पुनः डॉ. लालमणि मिश्र की पुस्तक का सन्दर्भ देना
चाहूँगा। उनके मतानुसार लगभग दो सौ वर्ष पूर्व, दो प्रमुख कारणों से परदे
वाले गज-वाद्यों का प्रचलन आरम्भ हुआ। पहला कारण तो यह था कि सारंगी की
उपयोगिता आरम्भ से ही संगति वाद्य के रूप में ही रही। स्वतंत्र वादन के लिए
सारंगी में परदे की आवश्यकता हुई। दूसरा कारण बताते हुए डॉ. लालमणि लिखते
हैं कि लगभग दो शताब्दी पूर्व सारंगी पर पेशेवर संगीतज्ञों का एकाधिकार था।
वे शिष्यों को सारंगी वादन की बारीकियाँ सिखाने से कतराते थे। ऐसे में
सारंगी में सितार या सुरबहार की भाँति परदे लगा कर एक नए वाद्य की
परिकल्पना की गई। परदायुक्त जो गज-वाद्य पहले प्रचलित हुआ, उसे इसराज नाम
दिया गया। आरम्भ में यह वाद्य काफी बड़े आकार का था और इसकी कुण्डी मयूर की
आकृति की थी, इसलिए इसे मयूरवीणा, ताऊस या मयूर इसराज नाम से पुकारा जाने
लगा। बाद में इसकी कुण्डी और डाँड़ को छोटा कर दिया गया। आकृति में यह
परिवर्तन बंगाल में हुआ और यह इसराज नाम से लोकप्रिय हुआ। छोटी कुण्डी वाले
इसराज के प्रचलित हो जाने के बाद मयूर की आकृति वाले वाद्य विस्मृत से हो
गए।
कृष्णमोहन : पाठकों को हम यह बता देना चाहते हैं कि
मयूर की आकृति वाले विस्मृत वाद्य मयूरवीणा का पुनरोद्धार लगभग एक दशक
पूर्व श्रीकुमार जी ने ही लखनऊ के वाद्य-निर्माता बादशाह भाई उर्फ बारिक
अली के सहयोग से किया था। आइए, यहाँ थोड़ा विराम देकर श्रीकुमार जी का
मयूरवीणा-वादन सुनते हैं। राग है मारूबिहाग और तबला संगति की है, भरत मिश्र
ने।
मयूरवीणा वादन : राग मारूबिहाग : पं. श्रीकुमार मिश्र
कृष्णमोहन : परदायुक्त गजवाद्यों की विशेषताओं के बारे में भी कुछ बताएँ।
श्रीकुमार
मिश्र : इस वर्ग के वाद्यों के निर्माण से स्वतंत्र अथवा एकल वादन के
क्षेत्र में गजवाद्यों की सम्भावनाएँ काफी विस्तृत हो गईं। पहले बंगाल में
और फिर पंजाब में इसराज बेहद लोकप्रिय हुआ। इस लोकप्रियता का कारण है,
इसमें लगे परदे और धातु के तार। परदे और धातु के तारों से उँगलियों के
स्पर्श और क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाली कलात्मक लड़ियाँ, कण, गमक, सूत
आदि में एक अलग प्रकार की खनक कायम हुई। सुनने में ऐसा लगता है मानो सितार
और सारंगी का युगल वादन हो रहा है। इसराज का ही एक लघु रूप दिलरुबा है,
जिसका प्रचलन पंजाब में खूब हुआ। दिलरुबा का चलन बढ़ जाने के कारण लगभग एक
शताब्दी पूर्व पंजाब में मयूर इसराज या मयूरवीणा की लोकप्रियता समाप्त हो
गई थी।
कृष्णमोहन : यहाँ पर एक और विराम लेकर,
संगीत-प्रेमियों को हम दिलरुबा-वादन सुनवाते है। उस्ताद रणवीर सिंह
प्रस्तुत कर रहे हैं, दिलरुबा पर राग तिलंग का वादन।
दिलरुबा वादन : राग तिलंग : उस्ताद रणवीर सिंह
कृष्णमोहन : इसराज वाद्य की विशेषताओं के बारे में हमारे पाठकों-श्रोताओं को परिचित कराइए।
श्रीकुमार
मिश्र : आघात से बजने वाले और गज से बजने वाले, दोनों प्रकार के वाद्यों
के गुण एक वाद्य में आ जाने के कारण इसराज, गतकारी का कौशल प्रदर्शित करने
के लिए एक आदर्श वाद्य बन गया। बंगाल में यह अत्यन्त प्रतिष्ठित हुआ। पिछले
५०-६० वर्षों में सितार, सरोद, संतूर, वायलिन आदि वाद्यों की लोकप्रियता
बढ़ने के कारण इसराज की लोकप्रियता में कमी अवश्य आई है।
कृष्णमोहन
: हमारे पास बंगाल के ही चर्चित इसराज वादक पं. बुद्धदेव दास की एक
रिकार्डिंग है, जिसे हम अपने पाठकों-श्रोताओं के लिए प्रस्तुत कर रहे है।
श्री दास ने इसराज पर राग सिन्धु भैरवी का वादन किया है।
इसराज वादन : राग सिंधु भैरवी : पं. बुद्धदेव दास
कृष्णमोहन
: इसी के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक को यहीं विराम देते हैं और पं.
श्रीकुमार मिश्र जी के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
श्रीकुमार
मिश्र : यह मेरा सौभाग्य है कि ‘स्वरगोष्ठी’ के संगीत-प्रेमियों के बीच
आने का मुझे अवसर मिला। मैं आप सब पाठकों-श्रोताओं को धन्यवाद देता हूँ।
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ की आज की संगीत-पहेली
में हम आपको कण्ठ-संगीत प्रस्तुति का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न
पूछेंगे। ९०वें अंक तक सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले प्रतिभागी श्रृंखला
के विजेता होंगे।
१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?
२ – यह भारतीय संगीत की कौन सी शैली है?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments
में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के
९१वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
के ८७वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पं. रामनारायण की
बजायी एक ठुमरी का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का
सही उत्तर है- राग पीलू और दूसरे का सही उत्तर है- सारंगी वाद्य। दोनों
प्रश्नों के सही उत्तर जबलपुर की क्षिति तिवारी और मीरजापुर (उ.प्र.) के
डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। दोनों विजेताओं को रेडियो प्लेबैक इण्डिया
की ओर से हार्दिक बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों,
‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं,
जिसके अन्तर्गत बीते युग के कुछ भूले-बिसरे स्वरों को आप सुनेंगे। यही नहीं
इन मूर्धन्य कलासाधकों की पारम्परिक रचनाओं को बाद में भारतीय फिल्मों में
भी शामिल किया गया। आपके लिए हम इन रचनाओं के दोनों रूप प्रस्तुत करेंगे।
अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित अपनी इस गोष्ठी में आप अवश्य पधारिए।
हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी।
कृष्णमोहन मिश्र
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