पौराणिक, धार्मिक व ऐतिहासिक फ़िल्मों के जौनर में संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी का नाम सर्वोपरि है। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके द्वारा स्वरबद्ध बहादुर शाह ज़फ़र की एक ग़ज़ल की चर्चा 'एक गीत सौ कहानियाँ' में सुजॉय चटर्जी के साथ। साथ ही बहस इस बात पर कि क्या इस ग़ज़ल के शायर ज़फ़र ही हैं या फिर कोई और?
एक गीत सौ कहानियाँ # 13
फ़िल्म निर्माण के पहले दौर से ही पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों का अपना अलग जौनर रहा है, अपना अलग जगत रहा है। और हमारे यहाँ ख़ास तौर से यह देखा गया है कि अगर किसी कलाकार ने इस जौनर में एक बार क़दम रख दिया तो फिर इससे बाहर नहीं निकल पाया। शंकरराव व्यास, अविनाश व्यास, चित्रगुप्त और एस. एन. त्रिपाठी जैसे संगीतकारों के साथ भी यही हुआ। दो चार बड़ी बजट की सामाजिक फ़िल्मों को अगर अलग रखें तो इन्हें अधिकतर पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, स्टण्ट और फ़ैंटसी फ़िल्मों में ही काम मिले। पर इस क्षेत्र में इन संगीतकारों ने अपना उत्कृष्ट योगदान दिया और इस जौनर की फ़िल्मों को यादगार बनाया। एस. एन. त्रिपाठी की बात करें तो काव्य की सुन्दरता, मधुरता, शीतलता, सहजता और शालीनता उनके संगीत की ख़ासीयत रही है। उनके गीतों में रस और परिवेश का पूरा ध्यान रखा गया है। वाद्यों की भीड़ नहीं है पर अगर प्रभाव की बात करें तो उनका संगीत सुननेवालों के मन में एक अमिट छाप छोड़ देती है। एस. एन. त्रिपाठी का संगीत हमें अपने इतिहास और परम्परा से भी जोड़ते हैं। 'जय चित्तौड़' (१९६१), 'वीर दुर्गादास' (१९६०), 'महाराजा विक्रम' (१९६५) और 'नादिर शाह' (१९६८) जैसी फ़िल्मों के साथ साथ १९६० की फ़िल्म 'लाल क़िला' भी उनके ऐतिहासिक फ़िल्मी सफ़र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।
एस. एन. त्रिपाठी के अपने शब्दों में, "अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र बहुत अच्छे शायर थे। बहादुर शाह की जीवनी पर एक ऐतिहासिक चित्र बन रही थी जिसका नाम था 'लाल क़िला'। इस चित्र में मुझे अवसर मिला कि बहादुर शाह की लोकप्रिय ग़ज़ल को मैं अपने संगीत से सजा सकूँ। इसमें मैं कहाँ तक सफ़ल रहा हूँ इसकी परीक्षा आप कर लीजिए"।
एस. एन. त्रिपाठी के अपने शब्दों में, "अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र बहुत अच्छे शायर थे। बहादुर शाह की जीवनी पर एक ऐतिहासिक चित्र बन रही थी जिसका नाम था 'लाल क़िला'। इस चित्र में मुझे अवसर मिला कि बहादुर शाह की लोकप्रिय ग़ज़ल को मैं अपने संगीत से सजा सकूँ। इसमें मैं कहाँ तक सफ़ल रहा हूँ इसकी परीक्षा आप कर लीजिए"।
वैसे एक नहीं ज़फ़र की दो ग़ज़लों को उन्होंने इस फ़िल्म के लिए कम्पोज़ किया था। एक थी "न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ" और दूसरी "लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में"। कहते हैं कि ये ग़ज़लें बहादुर शाह ने उस समय लिखे थे जब १८५७ में स्वाधीनता संग्राम के ऐलान पर उन्हें ब्रिटिश सरकार ने क़ैद कर लिया था और आजीवन कारावास के रूप में रंगून (बर्मा) भेज दिया था। इन ग़ज़लों में मुग़ल संस्कृति के समाप्त होने की पीड़ा और बहादुर शाह का अकेलापन साफ़ झलकता है। एस. एन. त्रिपाठी ने इन दोनों ग़ज़लों को क्रम से राग शिवरंजनी और राग यमन कल्याण के उदास सुर देकर कालजयी बना दिया है। केवल हारमोनियम के प्रयोग से ऐसी कालजयी रचनाएँ तैयार करने पर फ़िल्मी ग़ज़लों के बादशाह माने जाने वाले संगीतकार मदन मोहन ने भी एस. एन. त्रिपाठी की तारीफ़ की थी। वैसे "न किसी की आँख का नूर हूँ" और मदन मोहन की ग़ज़ल "है इसी में प्यार की आबरू" में न जाने क्यों मुझे एक समानता दिखती है। ज़रा पहली ग़ज़ल को दूसरे की धुन पर गा कर देखिए, आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।
अब एक अहम मुद्दा। क्या 'लाल क़िला' फ़िल्म में शामिल इन ग़ज़लों के शायर वाक़ई बहादुर शाह ज़फ़र हैं? हालाँकि इनके साथ ज़फ़र का नाम जोड़ा जाता है और कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें रंगून में क़ैदावस्था में लिखे थे, पर इस बात में काफ़ी संशय है। उर्दू साहित्यिक जगत में भले इस पर बहस हुई है, पर सर्वसाधारण इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं। दरसल इन दोनों ग़ज़लों के बोल कुछ ऐसे हैं कि जिन्हें पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे ज़फ़र अपने अन्तिम दिनों का हाल बयान कर रहे हों। अपने वतन को याद कर, यह सोचते हुए कि उन्हें अपने वतन में दफ़न का भी मौका नहीं मिला, ये सब बातें इन ग़ज़लों में होने की वजह से लोगों का शक़ यकीन में बदल जाता है कि ज़फ़र के अलावा इनका शायर कोई और हो ही नहीं सकता। और फिर दूसरी ग़ज़ल में तो 'ज़फ़र' शब्द का भी उल्लेख है - "कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी ना मिली कुए-यार में"। उर्दू स्कॉलर फ़्रान्सेस प्रिटशेट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उस समय ज़फ़र का स्वास्थ्य बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुका था, और अपने निकट के किसी दीवान के उस विदेश में मौजूद न होने की वजह से इन ग़ज़लों के लिखने की तारीख़ को साबित करने का कोई ज़रिया नहीं था। और तो और अगर उन्होंने ये लिखे भी थे तो ये बाहर कैसे आए? उन्होंने किन काग़ज़ों पर लिखे होंगे क्योंकि वहाँ तो काग़ज़, कलम, स्याही, इन सभी सामग्रियों पर पाबन्दी थी? फ़्रान्सेस ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ज़फ़र ने १८५७ के बाद कोई भी शायरी लिखी हो, और ख़ास कर रंगून के क़ैद में जाने के बाद तो बिल्कुल नहीं। यह वाक़ई रोचक बात है कि जहाँ इन दो ग़ज़लों के शायर के बारे में संशय है, वहीं दूसरी ओर ये दो ग़ज़लें ज़फ़र की सबसे लोकप्रिय दो ग़ज़लें मानी जाती हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के उर्दू स्कॉलर डॉ. ज़हीर अहमद सिद्दिकी ने डॉ. असलम फ़ारूख़ी की किताब 'लाल सब्ज़ कबूतरों की छतरी' में इस बात का ख़ुलासा किया है कि "उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन, दो अर्ज़ों में कट गए दो इन्तज़ार में" शेर जो बहादुर शाह ज़फ़र के नाम से मनसूब है, इसे दरअसल सीमाब अकबराबादी ने लिखा है। डॉ. फ़ारूख़ी ने बताया कि सीमाब के शेर में "लाये थे" की जगह "लाई थी" है। इस शेर का ज़फ़र के चार दीवानों में कहीं भी ज़िक्र नहीं है और केवल इस बात के लिए कि मक़ते में 'ज़फ़र' के तख़ल्लुस का ज़िक्र है और शेर ज़फ़र के स्टाइल का है, इसे ज़फ़र के नाम नहीं कर दिया जाना चाहिए। डॉ. फ़ारूख़ी ने "न किसी की आँख का नूर हूँ" के बार में कहा कि इसके असली शायर थे १९-वीं सदी के मशहूर शायर मुज़तर ख़ैराबादी, जो शायर व फ़िल्मी गीतकार जाँनिसार अख़्तर के पिता व जावेद अख़्तर के दादा थे। मुहम्मद शमसुल हक़ के 'उर्दू के ज़रबिसमिल अशार' में इन दो ग़ज़लों/शेरों के साथ सीमाब और मुज़तर का ही नाम दिया गया है, बहादुर शाह ज़फ़र का नहीं। इनके साथ यह नोट भी दिया गया है कि इन्हें ज़फ़र के साथ जोड़ना ग़लत है।
अब ज़रा नज़र डालें बहादुर शाह ज़फ़र के दीवानों पर। उनका पहला दीवान, जो १८०८ में पूरा हुआ था, १८४५/१८४६ में जाकर प्रकाशित हुआ। पहले संस्करण में बहुत ज़्यादा टंकण-ग़लतियों की वजह से १८४९ में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। इसी साल ज़फ़र का दूसरा दीवान भी प्रकाशित हुआ। तीसरा व चौथा दीवान सम्भवत: १८५६ में प्रकाशित हुआ था। चारों दीवानों का संग्रह (कुल्लियात) पहली बार १८६२ में और फिर उसके बाद १८७०/१८८७ में प्रकाशित हुआ। बहादुर शाह ज़फ़र के रंगून के दिनों के बारे में हमें बहुत कम मालूमात है, पर अहम बात यह कि उन्हें वहाँ क़ैद में कागज़, कलम और स्याही की इजाज़त नहीं थी। इसका उल्लेख वहाँ के जेल गवर्नर ने 'बियाज़-ए-ज़फ़र' में किया है जिसका कम्पाइलेशन सलीमुद्दीन क़ुरेशी ने किया था (संग-ए-मील पब्लिकेशन, १९९४)। कुछ देर के लिए अगर यह हम मान भी लें कि उन्होंने ग़ज़लों को याद कर अपने दिल में रखा होगा और किसी और के ज़रिए वो बाहर आए होंगे, पर जेल में उन्हें किसी बाहरी व्यक्ति से मिलने की इजाज़त तो थी नहीं। तो फिर किन ख़ूफ़िया तरीक़ों से ये बाहर निकले होंगे? इस तरह से यह एक बहुत ज़्यादा उत्साहवर्धक शोधकार्य बन जाता है कि ये दोनों ग़ज़लें किस तरह से ज़फ़र के नाम के साथ जुड़ी होंगी?
"न किसी की आँख का नूर हूँ" को अगर मुज़तर ख़ैराबादी के नाम किया जाता है, तो उसमें भी कई सवाल उभरते हैं। अगर वाक़ई ऐसा था तो फिर इसका पता जाँनिसार अख़्तर और जावेद अख़्तर को भी होना चाहिए था। और अगर उन्हें पता था तो जब फ़िल्म 'लाल क़िला' में रफ़ी साहब की गाई ये दोनों ग़ज़लों ने अपार शोहरत हासिल की और फ़िल्म क्रेडिट में बहादुर शाह ज़फ़र का नाम दिया गया था, तब जाँनिसार अख़्तर साहब ने फ़िल्म जगत का ध्यान इस ओर आकृष्ट क्यों नहीं किया? क्या उन्हें इस बात का डर रहा होगा कि एक मुग़ल बादशाह के ख़िलाफ़ जाने का उन्हें भारी मूल्य चुकाना पड़ सकता है? उनका सामाजिक विरोध हो सकता है? पिछले दिनों मैंने जावेद अख़्तर साहब को ईमेल के ज़रिए इस ग़ज़ल के बारे में पूछा था पर उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। यह ग़ज़ल अगर मुज़तर ख़ैराबादी ने लिखी है तो यह एक और रोचक तथ्य है कि उनका परिवार एकमात्र ऐसा परिवार है जिसकी तीन पीढ़ी के गीतकार की रचनाएँ हिन्दी फ़िल्मों में आई हैं- मुज़तर, जाँनिसार और जावेद।
मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में "न किसी की आँख का नूर हूँ" सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें।
तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में या आप मुझ तक पहुँच सकते हैं cine.paheli@yahoo.com के पते पर भी। इस स्तंभ के लिए अपनी राय, सुझाव, शिकायतें और फ़रमाइशें इस ईमेल आइडी पर ज़रूर लिख भेजें। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर होऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!
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Sujoy