स्वरगोष्ठी – ६१ में आज
‘चोरी चोरी मारत हो कुमकुम.....’
भारतीय पर्वों में होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें संगीत-नृत्य की प्रमुख भूमिका होती है। जनसामान्य अपने उल्लास को व्यक्त करने के लिए मुख्य रूप से देशज संगीत का सहारा लेता है। इस अवसर पर प्रस्तुत की जाने वाली रचनाओं में लोक-संगीत की प्रधानता के बावजूद सभी भारतीय संगीत शैलियों में होली की रचनाएँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। आज के अंक में हम आपके लिए कुछ संगीत शैलियों में रंगोत्सव के चुनिन्दा गीतों पर चर्चा करेंगे।
आज की इस सतरंगी गोष्ठी का आरम्भ हम एक फिल्मी गीत से करेंगे। १९९६ में एक संगीतप्रधान फिल्म, ‘सरदारी बेगम’ का प्रदर्शन हुआ था। इस फिल्म में ठुमरी अंग में एक अत्यन्त मोहक गीत शामिल था। संगीतकार वनराज भाटिया ने गीतकार जावेद अख्तर के शब्दों को राग पीलू के स्वरों की चाशनी में डुबो कर और ठुमरी अंग से अलंकृत कर फिल्म में प्रस्तुत किया था। इस गीत में होली के उमंग और उल्लास के साथ-साथ सौम्य भाव भी परिलक्षित होता है। उपशास्त्रीय गायिका आरती अंकलीकर के स्वरों में आप यह फिल्मी ठुमरी सुनिए और अनुभव कीजिये कि राग पीलू में भी होली के रंग किस प्रकार निखरते है?
फिल्म – सरदारी बेगम : ‘मोरे कान्हा जो आए पलट के...’ : स्वर – आरती अंकलीकर
पिछले अंक में हमने इस तथ्य को रेखांकित किया था कि भारतीय संगीत की सभी शैलियों में होली के गीत मिलते हैं। मेरे मित्र, संगीत समीक्षक और हाथरस से प्रकाशित प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका- ‘संगीत’ के परामर्शदाता मुकेश गर्ग ने इस तथ्य को इन शब्दों में रेखांकित किया है- ‘हिन्दुस्तानी संगीत में होली की जगह कुछ अलग ही है. ध्रुपद शैली की धमार गायकी से लेकर ख़याल और ठुमरी गायकी तक, इस रंग-बिरंगे त्योहार का उल्लास देखते ही बनता है। इन गायन-शैलियों में संयोग श्रृंगार के ढेरों चित्र तो मिलते ही हैं, वियोग की पीड़ा को दर्शाने वाली ठुमरियों की भी कोई कमी नहीं। यहाँ तक कि ठुमरी का एक प्रकार तो 'होरी' या 'होली' नाम से ही जाना जाता है। इन ठुमरियों ने शब्द और स्वर दोनों स्तरों पर बहुत कुछ लोक-संगीत से ग्रहण किया है।’ लोक संगीत की इस महत्ता को स्वीकारती हुई लखनऊ स्थित भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) की सेवानिवृत्त प्रोफेसर कमला श्रीवास्तव का मत है कि भारतीय संगीत के कई राग, लोक संगीत की धुनों को ही विकसित और परिमार्जित कर निर्मित है। राग पीलू, पहाड़ी, माँड़ आदि का उदगम लोक संगीत से ही हुआ है। आइए अब आपको होली की एक लोक संगीत की रचना सुनवाते हैं, किन्तु किसी लोक कलाकार से नहीं, बल्कि वरिष्ठ शास्त्रीय गायक पण्डित छन्नूलाल मिश्र से-
शिव की होली : ‘खेले मसाने की होली दिगम्बर...’ : स्वर – पं. छन्नूलाल मिश्र
भारतीय संगीत की प्राचीन और शास्त्र-सम्मत शैली है- ध्रुवपद। इस शैली के अन्तर्गत धमार गायकी तो पूरी तरह रंगों के पर्व पर ही केन्द्रित रहती है। धमार एक प्रकार की गायकी भी है और एक ताल विशेष का नाम भी है। यह पखावज पर बजने वाला १४ मात्रा का ताल है, जिसकी संगति धमार गायन में होती है। धमार की रचनाओं में अधिकतर राधा-कृष्ण की होली का वर्णन मिलता है। कुछ धमार रचनाओं में फाल्गुनी परिवेश का चित्रण भी होता है। गम्भीर प्रवृत्ति के रागों की अपेक्षा चंचल प्रवृत्ति के रागों में धमार की प्रस्तुतियाँ मन को अधिक लुभातीं हैं। आज हम आपको धमार गायकी के माध्यम से रंगोत्सव का एक अलग रंग दिखाने का प्रयास करेंगे।
ध्रुवपद-धमार गायकी में एक युगल गायक हैं- गुंडेचा बन्धु (रमाकान्त और उमाकान्त गुंडेचा), जिन्हें देश-विदेश में भरपूर यश प्राप्त हुआ है। इनकी संगीत-शिक्षा उस्ताद जिया फरीदउद्दीन डागर और विख्यात रुद्रवीणा वादक उस्ताद जिया मोहिउद्दीन डागर द्वारा हुई है। ध्रुवपद के ‘डागुरवाणी’ गायन में दीक्षित इन कलासाधकों से ‘स्वरगोष्ठी’ के होली अंकों के लिए हमने एक धमार अपने पाठकों/श्रोताओं को सुनवाने का अनुरोध किया था। हमारे अनुरोध का मान रखते हुए रमाकान्त गुंडेचा ने हमें तत्काल राग केदार का यह मनमोहक धमार, आपको सुनवाने के लिए उपलब्ध कराया। गुंडेचा बन्धु के प्रति आभार व्यक्त करते हुए, राग केदार का यह धमार -'चोरी चोरी मारत हो कुमकुम, सम्मुख हो क्यों न खेलो होरी...' प्रस्तुत है-
धमार- केदार : ‘चोरी चोरी मारत हो कुमकुम...’ : स्वर – गुंडेचा बन्धु
होली-पर्व पर ‘स्वरगोष्ठी’ की इस विशेष श्रृंखला का समापन हम संगीत-मंचों की परम्परा के अनुसार राग भैरवी की एक ऐतिहासिक महत्त्व की रचना से करेंगे। उन्नीसवीं शताब्दी में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को समृद्धि प्रदान की। इन्हीं में एक थे गोस्वामी श्रीलाल, जिन्होंने "पछाहीं ठुमरी" को एक नई दिशा दी। इनका जन्म 1860 में दिल्ली के एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था। संगीत की शिक्षा इन्हें अपने पिता गोस्वामी कीर्तिलाल से प्राप्त हुई। ये सितारवादन में भी प्रवीण थे। "कुँवरश्याम" उपनाम से इन्होने अनेक ध्रुवपद, धमार, ख़याल, ठुमरी आदि की रचनाएँ की। इनका संगीत स्वान्तःसुखाय और अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण को सुनाने के लिए ही था। जीवन भर इन्होने किशोरीरमण मन्दिर से बाहर कहीं नहीं गाया-बजाया। इनकी ठुमरी रचनाएँ कृष्णलीला प्रधान तथा स्वर, ताल और साहित्य की दृष्टि से अति उत्तम है। राग भैरवी की ठुमरी -"बाट चलत नई चुनरी रंग डारी श्याम..." कुँवरश्याम की सुप्रसिद्ध रचना है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी देवालय संगीत की परम्परा कहीं-कहीं दीख पड़ती थी| संगीतज्ञ कुँवरश्याम इसी परम्परा के संवाहक और पोषक थे| आज हम यही पसिद्ध ठुमरी आपको सुनवाएँगे। राधा-कृष्ण की होली के रंगों से सराबोर इस ठुमरी को कई प्रसिद्ध गायकों ने स्वर दिया है। यहाँ तक कि १९५३ की फिल्म "लड़की" में गायिका गीता दत्त ने और १९५७ की फिल्म "रानी रूपमती" में कृष्णराव चोंकर व मुहम्मद रफी ने भी इस ठुमरी को अपना स्वर दिया था। आज यह ठुमरी और उसके बाद तराना आपके लिए प्रस्तुत करेंगे ‘श्यामचौरासी’ घराने के संवाहक उस्ताद शफकत अली खाँ। आप भैरवी के स्वरों में होली के एक अलग रंग का आनन्द लीजिए और मुझे रंगोत्सव के इस विशेष अंक को विराम देने की अनुमति दीजिए। अगले अंक के संगीत-अनुष्ठान में आपसे फिर मिलेंगे।
ठुमरी और तराना : ‘बाट चलत नई चुनरी रंग डारी...’ : स्वर - शफकत अली खाँ
आज की पहेली
नीचे दिये गए संगीत के अंश को ध्यान से सुनिए और हमारे दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए। भारतीय वाद्य संगीत के दो दिग्गज वादक कलाकारों की जुगलबन्दी से यह संगीत अंश लिया गया है। इस जुगलबन्दी में उत्तर भारत की बेहद चर्चित लोक-धुन का वादन किया गया है। संगीत के इस अंश को सुन कर आपको हमारे दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ७०वें अंक तक सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले पाठक-श्रोता हमारी दूसरी श्रृंखला के ‘विजेता’ होंगे।
१ – प्रस्तुत संगीत अंश में किन दो वाद्यों की जुगलबन्दी की गई है? दोनों वाद्यों के नाम बताइए।
२ – दोनों वादक कलाकारों ने किस लोक-धुन का वादन किया है? यह लोक-धुन मौसम पर आधारित है।
आप अपने उत्तर हमें तत्काल swargoshthi@gmail.com पर भेजें। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ६३वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com अथवा admin@radioplaybackindia.com पर भी अपना सन्देश भेज सकते हैं।
आपकी बात
‘स्वरगोष्ठी’ के ५९वें अंक में हमने आपको १९६३ की एक फिल्म के होली गीत का एक अंश सुनवाया था और आपसे फिल्म का नाम और उस राग का नाम पूछा था, जिस पर यह गीत आधारित है। दोनों प्रश्नों के क्रमशः सही उत्तर है- फिल्म ‘गोदान’ और राग ‘काफी’। दोनों पश्नों का सही उत्तर देने वाले पाठक हैं- बैंगलुरु के पंकज मुकेश और बरेली, उत्तर प्रदेश के दयानिधि वत्स। इन्दौर की क्षिति तिवारी ने राग की पहचान तो ठीक की, किन्तु फिल्म का नाम पहचानने में भूल कर बैठीं। इन सभी पाठकों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से बधाई। इन पाठकों/श्रोताओं के साथ-साथ फेसबुक के उन सभी मित्रों का हम आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होने ‘स्वरगोष्ठी’ को पसन्द किया।
अपने पाठकों को हम सहर्ष सूचित करते हैं कि ‘सिने-पहेली’ की भाँति ‘स्वरगोष्ठी’ की पहेली के विजेता और महाविजेता का हम चयन करेंगे। ‘स्वरगोष्ठी’ के ५१वें से लेकर ६०वें (पिछले अंक) तक की पहेली में जिस पाठक के सर्वाधिक अंक होंगे उन्हें ‘विजेता’ का सम्मान मिलेगा। यह घोषणा हम ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में करेंगे। तब तक आप इस अंक की पहेली को सुलझाते रहिए।
झरोखा अगले अंक का
‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक में हमने संगीत की विविध शैलियों में होली की रचनाएँ आपके लिए प्रस्तुत किया है। अगले अंक में भी हम आपके लिए ऋतु आधारित संगीत का सिलसिला जारी रखेंगे। भारतीय लोक संगीत की कुछ शैलियाँ ऐसी हैं जो उपशास्त्रीय संगीत में भी बेहद लोकप्रिय हैं। ऐसी ही एक मौसम आधारित लोक संगीत शैली और उपशास्त्रीय संगीत से उसके अन्तर्सम्बन्धों पर चर्चा करेंगे।
कृष्णमोहन मिश्र
‘चोरी चोरी मारत हो कुमकुम.....’
भारतीय पर्वों में होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें संगीत-नृत्य की प्रमुख भूमिका होती है। जनसामान्य अपने उल्लास को व्यक्त करने के लिए मुख्य रूप से देशज संगीत का सहारा लेता है। इस अवसर पर प्रस्तुत की जाने वाली रचनाओं में लोक-संगीत की प्रधानता के बावजूद सभी भारतीय संगीत शैलियों में होली की रचनाएँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं। आज के अंक में हम आपके लिए कुछ संगीत शैलियों में रंगोत्सव के चुनिन्दा गीतों पर चर्चा करेंगे।
इन्द्रधनुषी रंगों में भींगे तन-मन लिये ‘स्वरगोष्ठी’ के अपने समस्त पाठकों-श्रोताओं का, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः अबीर-गुलाल के साथ स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। रंगोत्सव के उल्लासपूर्ण परिवेश में ‘स्वरगोष्ठी’ के पिछले अंक में हमने आपके लिए राग काफी में निबद्ध कुछ संगीत-रचनाओं को प्रस्तुत किया था। आज के अंक में हम यह सिलसिला जारी रखते हुए कुछ अन्य संगीत शैलियों की फाल्गुनी रचनाएँ लेकर उपस्थित हुए हैं। आज प्रस्तुत की जाने वाली होली रचनाएँ हमने राग काफी से इतर रागों में चुनी है।
आज की इस सतरंगी गोष्ठी का आरम्भ हम एक फिल्मी गीत से करेंगे। १९९६ में एक संगीतप्रधान फिल्म, ‘सरदारी बेगम’ का प्रदर्शन हुआ था। इस फिल्म में ठुमरी अंग में एक अत्यन्त मोहक गीत शामिल था। संगीतकार वनराज भाटिया ने गीतकार जावेद अख्तर के शब्दों को राग पीलू के स्वरों की चाशनी में डुबो कर और ठुमरी अंग से अलंकृत कर फिल्म में प्रस्तुत किया था। इस गीत में होली के उमंग और उल्लास के साथ-साथ सौम्य भाव भी परिलक्षित होता है। उपशास्त्रीय गायिका आरती अंकलीकर के स्वरों में आप यह फिल्मी ठुमरी सुनिए और अनुभव कीजिये कि राग पीलू में भी होली के रंग किस प्रकार निखरते है?
फिल्म – सरदारी बेगम : ‘मोरे कान्हा जो आए पलट के...’ : स्वर – आरती अंकलीकर
पिछले अंक में हमने इस तथ्य को रेखांकित किया था कि भारतीय संगीत की सभी शैलियों में होली के गीत मिलते हैं। मेरे मित्र, संगीत समीक्षक और हाथरस से प्रकाशित प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका- ‘संगीत’ के परामर्शदाता मुकेश गर्ग ने इस तथ्य को इन शब्दों में रेखांकित किया है- ‘हिन्दुस्तानी संगीत में होली की जगह कुछ अलग ही है. ध्रुपद शैली की धमार गायकी से लेकर ख़याल और ठुमरी गायकी तक, इस रंग-बिरंगे त्योहार का उल्लास देखते ही बनता है। इन गायन-शैलियों में संयोग श्रृंगार के ढेरों चित्र तो मिलते ही हैं, वियोग की पीड़ा को दर्शाने वाली ठुमरियों की भी कोई कमी नहीं। यहाँ तक कि ठुमरी का एक प्रकार तो 'होरी' या 'होली' नाम से ही जाना जाता है। इन ठुमरियों ने शब्द और स्वर दोनों स्तरों पर बहुत कुछ लोक-संगीत से ग्रहण किया है।’ लोक संगीत की इस महत्ता को स्वीकारती हुई लखनऊ स्थित भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) की सेवानिवृत्त प्रोफेसर कमला श्रीवास्तव का मत है कि भारतीय संगीत के कई राग, लोक संगीत की धुनों को ही विकसित और परिमार्जित कर निर्मित है। राग पीलू, पहाड़ी, माँड़ आदि का उदगम लोक संगीत से ही हुआ है। आइए अब आपको होली की एक लोक संगीत की रचना सुनवाते हैं, किन्तु किसी लोक कलाकार से नहीं, बल्कि वरिष्ठ शास्त्रीय गायक पण्डित छन्नूलाल मिश्र से-
शिव की होली : ‘खेले मसाने की होली दिगम्बर...’ : स्वर – पं. छन्नूलाल मिश्र
भारतीय संगीत की प्राचीन और शास्त्र-सम्मत शैली है- ध्रुवपद। इस शैली के अन्तर्गत धमार गायकी तो पूरी तरह रंगों के पर्व पर ही केन्द्रित रहती है। धमार एक प्रकार की गायकी भी है और एक ताल विशेष का नाम भी है। यह पखावज पर बजने वाला १४ मात्रा का ताल है, जिसकी संगति धमार गायन में होती है। धमार की रचनाओं में अधिकतर राधा-कृष्ण की होली का वर्णन मिलता है। कुछ धमार रचनाओं में फाल्गुनी परिवेश का चित्रण भी होता है। गम्भीर प्रवृत्ति के रागों की अपेक्षा चंचल प्रवृत्ति के रागों में धमार की प्रस्तुतियाँ मन को अधिक लुभातीं हैं। आज हम आपको धमार गायकी के माध्यम से रंगोत्सव का एक अलग रंग दिखाने का प्रयास करेंगे।
ध्रुवपद-धमार गायकी में एक युगल गायक हैं- गुंडेचा बन्धु (रमाकान्त और उमाकान्त गुंडेचा), जिन्हें देश-विदेश में भरपूर यश प्राप्त हुआ है। इनकी संगीत-शिक्षा उस्ताद जिया फरीदउद्दीन डागर और विख्यात रुद्रवीणा वादक उस्ताद जिया मोहिउद्दीन डागर द्वारा हुई है। ध्रुवपद के ‘डागुरवाणी’ गायन में दीक्षित इन कलासाधकों से ‘स्वरगोष्ठी’ के होली अंकों के लिए हमने एक धमार अपने पाठकों/श्रोताओं को सुनवाने का अनुरोध किया था। हमारे अनुरोध का मान रखते हुए रमाकान्त गुंडेचा ने हमें तत्काल राग केदार का यह मनमोहक धमार, आपको सुनवाने के लिए उपलब्ध कराया। गुंडेचा बन्धु के प्रति आभार व्यक्त करते हुए, राग केदार का यह धमार -'चोरी चोरी मारत हो कुमकुम, सम्मुख हो क्यों न खेलो होरी...' प्रस्तुत है-
धमार- केदार : ‘चोरी चोरी मारत हो कुमकुम...’ : स्वर – गुंडेचा बन्धु
होली-पर्व पर ‘स्वरगोष्ठी’ की इस विशेष श्रृंखला का समापन हम संगीत-मंचों की परम्परा के अनुसार राग भैरवी की एक ऐतिहासिक महत्त्व की रचना से करेंगे। उन्नीसवीं शताब्दी में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को समृद्धि प्रदान की। इन्हीं में एक थे गोस्वामी श्रीलाल, जिन्होंने "पछाहीं ठुमरी" को एक नई दिशा दी। इनका जन्म 1860 में दिल्ली के एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था। संगीत की शिक्षा इन्हें अपने पिता गोस्वामी कीर्तिलाल से प्राप्त हुई। ये सितारवादन में भी प्रवीण थे। "कुँवरश्याम" उपनाम से इन्होने अनेक ध्रुवपद, धमार, ख़याल, ठुमरी आदि की रचनाएँ की। इनका संगीत स्वान्तःसुखाय और अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण को सुनाने के लिए ही था। जीवन भर इन्होने किशोरीरमण मन्दिर से बाहर कहीं नहीं गाया-बजाया। इनकी ठुमरी रचनाएँ कृष्णलीला प्रधान तथा स्वर, ताल और साहित्य की दृष्टि से अति उत्तम है। राग भैरवी की ठुमरी -"बाट चलत नई चुनरी रंग डारी श्याम..." कुँवरश्याम की सुप्रसिद्ध रचना है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी देवालय संगीत की परम्परा कहीं-कहीं दीख पड़ती थी| संगीतज्ञ कुँवरश्याम इसी परम्परा के संवाहक और पोषक थे| आज हम यही पसिद्ध ठुमरी आपको सुनवाएँगे। राधा-कृष्ण की होली के रंगों से सराबोर इस ठुमरी को कई प्रसिद्ध गायकों ने स्वर दिया है। यहाँ तक कि १९५३ की फिल्म "लड़की" में गायिका गीता दत्त ने और १९५७ की फिल्म "रानी रूपमती" में कृष्णराव चोंकर व मुहम्मद रफी ने भी इस ठुमरी को अपना स्वर दिया था। आज यह ठुमरी और उसके बाद तराना आपके लिए प्रस्तुत करेंगे ‘श्यामचौरासी’ घराने के संवाहक उस्ताद शफकत अली खाँ। आप भैरवी के स्वरों में होली के एक अलग रंग का आनन्द लीजिए और मुझे रंगोत्सव के इस विशेष अंक को विराम देने की अनुमति दीजिए। अगले अंक के संगीत-अनुष्ठान में आपसे फिर मिलेंगे।
ठुमरी और तराना : ‘बाट चलत नई चुनरी रंग डारी...’ : स्वर - शफकत अली खाँ
आज की पहेली
नीचे दिये गए संगीत के अंश को ध्यान से सुनिए और हमारे दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए। भारतीय वाद्य संगीत के दो दिग्गज वादक कलाकारों की जुगलबन्दी से यह संगीत अंश लिया गया है। इस जुगलबन्दी में उत्तर भारत की बेहद चर्चित लोक-धुन का वादन किया गया है। संगीत के इस अंश को सुन कर आपको हमारे दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ७०वें अंक तक सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले पाठक-श्रोता हमारी दूसरी श्रृंखला के ‘विजेता’ होंगे।
१ – प्रस्तुत संगीत अंश में किन दो वाद्यों की जुगलबन्दी की गई है? दोनों वाद्यों के नाम बताइए।
२ – दोनों वादक कलाकारों ने किस लोक-धुन का वादन किया है? यह लोक-धुन मौसम पर आधारित है।
आप अपने उत्तर हमें तत्काल swargoshthi@gmail.com पर भेजें। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ६३वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। हमसे सीधे सम्पर्क के लिए swargoshthi@gmail.com अथवा admin@radioplaybackindia.com पर भी अपना सन्देश भेज सकते हैं।
आपकी बात
‘स्वरगोष्ठी’ के ५९वें अंक में हमने आपको १९६३ की एक फिल्म के होली गीत का एक अंश सुनवाया था और आपसे फिल्म का नाम और उस राग का नाम पूछा था, जिस पर यह गीत आधारित है। दोनों प्रश्नों के क्रमशः सही उत्तर है- फिल्म ‘गोदान’ और राग ‘काफी’। दोनों पश्नों का सही उत्तर देने वाले पाठक हैं- बैंगलुरु के पंकज मुकेश और बरेली, उत्तर प्रदेश के दयानिधि वत्स। इन्दौर की क्षिति तिवारी ने राग की पहचान तो ठीक की, किन्तु फिल्म का नाम पहचानने में भूल कर बैठीं। इन सभी पाठकों को रेडियो प्लेबैक इण्डिया की ओर से बधाई। इन पाठकों/श्रोताओं के साथ-साथ फेसबुक के उन सभी मित्रों का हम आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होने ‘स्वरगोष्ठी’ को पसन्द किया।
अपने पाठकों को हम सहर्ष सूचित करते हैं कि ‘सिने-पहेली’ की भाँति ‘स्वरगोष्ठी’ की पहेली के विजेता और महाविजेता का हम चयन करेंगे। ‘स्वरगोष्ठी’ के ५१वें से लेकर ६०वें (पिछले अंक) तक की पहेली में जिस पाठक के सर्वाधिक अंक होंगे उन्हें ‘विजेता’ का सम्मान मिलेगा। यह घोषणा हम ‘स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में करेंगे। तब तक आप इस अंक की पहेली को सुलझाते रहिए।
झरोखा अगले अंक का
‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक में हमने संगीत की विविध शैलियों में होली की रचनाएँ आपके लिए प्रस्तुत किया है। अगले अंक में भी हम आपके लिए ऋतु आधारित संगीत का सिलसिला जारी रखेंगे। भारतीय लोक संगीत की कुछ शैलियाँ ऐसी हैं जो उपशास्त्रीय संगीत में भी बेहद लोकप्रिय हैं। ऐसी ही एक मौसम आधारित लोक संगीत शैली और उपशास्त्रीय संगीत से उसके अन्तर्सम्बन्धों पर चर्चा करेंगे।
कृष्णमोहन मिश्र
Comments
मेरी शुभकामनाएँ...
मेरी शुभकामनाएँ...
मुकेश गर्ग
1) Ustad Vilayat Khan Sitar and Ustad bismilla khan Shahnayi.
2)Fagua dhun.
From . Archana Tandan
Patna BIhar.