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"दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे..." - बोलती फ़िल्मों के ८१ वर्ष पूर्ती पर आज एक बार फिर से 'आलम आरा' की यादों को ताज़ा किया जाए!

आज १४ मार्च २०१२ है। ८१ वर्ष पहले आज ही के दिन बम्बई के 'मजेस्टिक सिनेमा' में रिलीज़ हुई थी पहली सवाक फ़िल्म 'आलम आरा'। आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' की ग्यारहवीं कड़ी में इसी फ़िल्म के गीतों की चर्चा, सुजॉय चटर्जी के साथ, और साथ में सुनिए प्रथम फ़िल्मी गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे" का एक संस्करण गायक हरिहरण की आवाज़ में।

एक गीत सौ कहानियाँ # 11

जैसा कि सर्वविदित है पहली भारतीय बोलती फ़िल्म ‘आलम-आरा’ के १४ मार्च १९३१ के दिन बम्बई में प्रदर्शित होने के साथ ही फ़िल्म-संगीत का युग भी शुरु हो गया था। इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी के बैनर तले अरदशेर ईरानी और अब्दुल अली यूसुफ़ भाई ने मिलकर इस फ़िल्म का निर्माण किया था।

इम्पीरियल मूवीटोन कृत

आ ल म – आ रा

सम्पूर्ण बोलती, गाती, बजती फ़िल्म
वार्ता : जोसफ़ डेविड
सीनार्यो : अरदेशर एम. ईरानी
ध्वनि-आलेखन (साउण्ड रिकार्डिंग्) : अरदेशर एम. ईरानी
कैमरामैन : अदि एम. ईरानी
डायरेक्टर : अरदेशर एम. ईरानी
(सहयोगी : रुस्तम भरुचा, पेसी करानी, मोती गिडवानी)
संगीत : पी. एम. मिस्त्री तथा बी. ईरानी
सेटिंग्: मुनव्वर अली [१]

‘आलम आरा’ का सेंसर सर्टिफ़िकेट नंबर है १००४३ और फ़िल्म की लम्बाई थी लगभग १०,५०० फ़ीट। फ़िल्म को आंशिक रूप से सवाक माना जा सकता है। इस फ़िल्म को लोगों ने हाथों-हाथ ग्रहण किया और फ़िल्म देखने के लिए हज़ारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। ऐसे में चंद आने का टिकट भी ४ रुपये तक में बिका। ‘आलम-आरा’ के मुख्य कलाकार थे विट्ठल, ज़ुबेदा, पृथ्वीराज कपूर, ज़िल्लोबाई, याकूब, जगदीश सेठी और वज़ीर मोहम्मद ख़ान। [१] फ़िल्म के संगीतकार थे फ़िरोज़ शाह एम. मिस्त्री और बी. ईरानी। लेकिन ऐसा भी सुना गया है कि अरदेशर ईरानी ने ही फ़िल्म के गीत लिखे और उनके लिए धुने भी बनाईं। फ़िल्म में कुल सात गीत थे, जिनमें से कुछ गीत उस ज़माने में बेहद लोकप्रिय भी हुए थे। अफ़सोस की बात यह है कि ‘आलम-आरा’ के गाने ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड पर उतारे नहीं गये, और आज इस फ़िल्म का कोई भी प्रिण्ट उपलब्ध नहीं है। इस तरह से ‘आलम-आरा’ के गीतों की मूल धुने लुप्त हो गई हैं। वज़ीर मोहम्मद ख़ान की आवाज़ में “दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त है गर देने की, चाहे अगर तो माँग ले उससे, हिम्मत हो गर लेने की” गीत को पहला फ़िल्मी गीत होने का गौरव प्राप्त है। और इस तरह से पहले गायक के रूप में वज़ीर मोहम्मद ख़ान का नाम दर्ज हो गया है। उन्होंने इस फ़िल्म में एक फ़कीर की भूमिका निभाई थी। [२] १९४६ और १९७३ में ‘आलम-आरा’ फिर से बनी और दोनों ही बार वज़ीर ने यही गीत गाया। इस गीत का केवल मुखड़ा ही लोगों को पता है। क्या यह गीत बस मुखड़ा भर का ही था या फिर इसके अंतरे भी थे, फ़िल्म के प्रिण्ट के न होने के कारण इस बारे में अब और पता नहीं लगाया जा सकता। ‘हिंद-युग्म’ ने अपने लोकप्रिय स्तंभ ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ की ५०० अंकपूर्ति पर, और साथ ही फ़िल्म संगीत के ८० वर्ष पूर्ति पर यह तय किया कि इस पहले पहले फ़िल्मी गीत को एक नया जामा पहनाया जाए। आधुनिक शैली में धुन बनाई जाए और नये सिरे से इसके अंतरे भी लिखे जायें। इस तरह से ‘हिंद-युग्म’ ने “दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे” का २०१० संस्करण तैयार किया और दो अंतरों के साथ वह संस्करण कुछ इस तरह का बना –

“दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की,
चाहे अगर तो माँग ले उससे हिम्मत हो गर लेने की।

इत्र परांदी और महावर जिस्म सजा पर बेमानी,
दुल्हन रूह को कब है ज़रूरत सजने और सँवरने की।

चला फ़कीरा हँसता हँसता फिर जाने कब आयेगा,
जोड़ जोड़ कर रोने वाले फ़ुरसत कर कुछ देने की।“

इसमें पहला अंतरा लिखा स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’ ने, तो दूसरा अंतरा था निखिल आनंद गिरि का। संगीतकार कृष्ण राज के धुन पर इस गीत को गाया मनु वर्गीज़ ने।

‘आलम-आरा’ फ़िल्म का दूसरा गीत था ज़ुबेदा की आवाज़ में “बदला दिलवायेगा या रब तू सितमगारों से”। इस गीत को भी लोगों ने ख़ूब गुनगुनाया था उस ज़माने में। गीत के बोल ये रहे:

“बदला दिलवायेगा या रब तू सितमगारों से,
तू मदद पर है तो क्या ख़ौफ़ जफ़ाकारों से,
काठ की तेग जो तू चाहे तो वह काम करे,
जो के मुमकिन ही नहीं लोहे की तलवारों से।” [३]

एक और मशहूर गीत था राग भैरवी पर आधारित और मुन्नीबाई की आवाज़ में “अपने मौला की मैं जोगन बनूंगी”। [४]

“अपने मौला की मैं जोगन बनूंगी,
जोगन बनूंगी, वियोगन बनूंगी।

कोई जावे मस्जिद अंदर, कोई जावे मंदर,
हमने तेरा जलवा देखा, प्यारे दिल के अंदर,
मौला की मैं जोगन बनूंगी…

तेरे इश्क़ में पहनी कफ़नी, छोड़ा ज़ेवर गहना,
तू जिस रंग में ख़ुश हो प्यारे, उसी रंग में रहना,
मौला की मैं जोगन बनूंगी…

कोयल बनके बन-बन ढूंढ़ा, बुलबुल बनके गुलशन,
कलियाँ कलियाँ तुझको ढूंढ़ा, बन के तेरी नागन,
मौला की मैं जोगन बनूंगी…” [३]

फ़िल्म के दो अन्य गीत थे जिल्लो की आवाज़ में “रूठा है आसमाँ गुम हो गया माहताब, दुश्मन है अहले जहाँ, है वीरां मेरा गुलिस्तां” (जिल्लो), और किसी तवायफ़ के किरदार पर फ़िल्माया हुआ “तेरी कटीली निगाहों ने मारा, निगाहों ने मारा अदाओं ने मारा, भवें कमाने नयना रसीले, इन दोनों झूठे गवाहों ने मारा”। नायिका की सहेली के किरदार द्वारा गाया एक गीत था “भर-भर के जाम पिला जा, सागर के चलाने वाले, जालिक तेरी अदा ने, जादू भरी निगाह ने, ज़ख़्मी हमें बनाया, ओ तीर चलाने वाले”। ‘आलम-आरा’ का सातवाँ गीत सहेलियों द्वारा गाया हुआ है, जिसके बोल निम्नलिखित है:

“दे दिल को आराम, ऐ साक़ी गुलफ़ाम,
हो शादमान, तू है दिलाराम…
भर दे मीना जाम, होगा तेरा नाम
बादल घिर के क्या है आया
लाई नसीम अच्छी शमीम
दे हय कसिम पुरजोश अदा
बहरे अज़ीम, बार तू करीम
जलसा हो आबाद, दुश्मन हो बरबाद,
हो शादमान, तू है दिलाराम।” [३]

यह वह दौर था जब प्लेबैक की तकनीक विकसित नहीं हुई थी, जिस वजह से अभिनेता को कैमरे के सामने अभिनय करते हुए ही गीत गाने पड़ते थे। हारमोनियम, तबला और अन्य साज़ लिये साज़िंदे इस तरह से बैठते कि कैमरे के रेंज से बाहर हों, और माइक्रोफ़ोन भी दिखाई न दे जाये। अरदेशर ईरानी के ही शब्दों में - “
There were no sound-proof stages, we preferred to shoot indoors and at night. Since our studio is located near a railway track most of our shooting was done between the hours that the trains ceased operation. We worked with a single system Tamar recording equipment. There were also no booms. Microphones had to be hidden in incredible places to keep out of camera range
”. [५] २३ मार्च १९३१ को ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ में प्रकाशित एक समीक्षा में किसी ने इस फ़िल्म की साउण्ड क्वालिटी के बारे में कुछ इस तरह से लिखा था - “Principal interest naturally attaches to the voice production and synchronization. The latter is syllable perfect; the former is somewhat patchy, due to inexperience of the players in facing the microphone and a consequent tendency to talk too loudly”. [५] साल १९८१ में जब ‘सवाक फ़िल्म स्वर्ण-जयंती’ मनाया गया, तब बड़े दुख के साथ आयोजकों को बताना पड़ा कि ‘आलम-आरा’ का कोई भी प्रिण्ट उपलब्ध नहीं है। हरिहरण ने “दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे” गा कर ही लोगों को संतुष्ट किया। वैसे ‘दास्तान-ए-आलम-आरा’ नाम से उपलब्ध जानकारी और चित्रों के द्वारा एक लघु फ़िल्म का निर्माण किया गया जिसका कथानक प्रसिद्ध गीतकार कैफ़ी आज़्मी ने प्रस्तुत किया। इस लघु फ़िल्म से इस फ़िल्म समारोह का प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों उद्घाटन हुआ था। आलम-आरा’ की समस्त बातें पढ़कर कैसा रोमांच हो आता है न? कैसा रहे होंगे उस ज़माने में फ़िल्म निर्माण के तौर तरीक़े, कैसे रेकॉर्ड होते होंगे गाने? कितनी कठिनाइयों, परेशानियों और सीमित साधनों के ज़रिए काम करना पड़ता होगा! उन अज़ीम फ़नकारों की मेहनत और लगन का ही नतीजा है, यह उसी का फल है कि हिंदी फ़िल्में आज समूचे विश्व में सर चढ़ कर बोल रही हैं। ‘आलम-आरा’ के बाद से लेकर १९४७ तक की प्रमुख फ़िल्मों और उनके गीतों का बयान जारी रहेगा अगले अध्याय में।

संदर्भ

1. “कहानी पहली बोलती फ़िल्म की”, लिस्नर्स बुलेटिन, अंक-४७, नवंबर १९८१
2. “दे दे ख़ुदा के नाम पे – वज़ीर मोहम्मद ख़ान”, सरगम का सफ़र, नई दुनिया, फ़िल्म-स्पेशल एडिशन, पृष्ठ-१०६, जून १९८९
3. “फ़िल्म गीतांजलि – आलम आरा”, लिस्नर्स बुलेटिन, अंक-१२, अगस्त १९७३
4. “धुनों की यात्रा – हिंदी फ़िल्मों के संगीतकार (१९३१-२००५)”, पंकज राग, राजकमल प्रकाशन, २००७
5. “Evolution of the Hindi Film Song – Part 1”, (URL: http://www.upperstall.com/hindisong1.html)

हरिहरण ने ८० के दशक की शुरुआत में 'Mortal Men Immortal Melodies' नामक एक कार्यक्रम में वज़ीर मुहम्मद ख़ान को श्रद्धांजली स्वरूप "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे" गीत को गाया था। गीत के इस संस्करण को सुनने के लिए नीचे प्लेयर पर क्लिक करें...



तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। आज बस इतना ही, अगले बुधवार फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर हाज़िर हो‍ऊंगा, तब तक के लिए अपने इस ई-दोस्त सुजॉय चटर्जी को इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

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सुनते हैं कि एक प्रिंट था वह भी अग्नि की भेंट चढ़ गया.

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