ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 370/2010/70
पिछले नौ दिनों से आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आनंद ले रहे हैं इस रंगीन मौसम का, बसंत ऋतु का, फागुन के महीने का, होली के रंगों का, सब के सब गीत संगीत के माध्यम से। आज हम आ पहुँचे हैं इस रंगीन लघु शृंखला की अंतिम कड़ी पर। 'गीत रंगीले' की अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है लता मंगेशकर की आवाज़ में आनंद बक्शी की गीत रचना। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में यह है फ़िल्म 'आए दिन बहार के' का शीर्षक गीत, "सुनो सजना पपीहे ने कहा सब से पुकार के, संभल जाओ चमन वालों, के आए दिन बहार के"। फ़िल्म का शीर्षक जितना रंगीला है, बक्शी साहब ने क्या ख़ूब न्याय किया है इस शीर्षक पर लिखे इस गीत के साथ! शीर्षक की अगर बात करें तो आपको सब से पहले तो यह बताना पड़ेगा कि यह जे. ओम प्रकाश साहब की फ़िल्म थी और उन्होने इस तरह के शीर्षकों का बार बार इस्तेमाल अपनी फ़िल्मों के लिए किया है। १९५९ में उनकी पहली फ़िल्म 'चाचा ज़िंदाबाद' आई थी। बस यही एक फ़िल्म थी जिसका शीर्षक 'अ' से या अंग्रेज़ी के 'ए' अक्षर से शुरु नहीं हुआ था। लेकिन इसके बाद उन्होने जितने भी फ़िल्में बनाई, वो सब 'ए' से शुरु हुए। १९६१ में 'आस का पंछी', और १९६४ में 'आई मिलन की बेला' की कामयाबी के बाद तो उन्होने जैसे इस तरह के फ़िल्मों की कतार ही खड़ी कर दी। १९६६ में आई 'आए दिन बहार के' और फिर एक बार फ़िल्म हिट हुई। धर्मेन्द्र और आशा पारेख इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे। उसके बाद 'आया सावन झूम के', 'आँखों आँखों में', 'आप की क़सम', 'अपनापन', 'आशा', 'अर्पण', 'आख़िर क्यों?', 'आप के साथ', 'अग्नि', और 'अफ़साना दिलवालों का' जैसी फ़िल्में उन्होने बनाई। इन नामों को पढ़कर आपको पता चल गया होगा कि जे. ओम प्रकाश साहब की फ़िल्मों का संगीत कितना कामयाब रहा है, क्योंकि ये जितनी भी फ़िल्में हैं, उनके गानें बेहद मक़बूल हुए थे, जिन्हे आज भी लोग सुनते हैं, गुनगुनाते हैं।
फ़िल्म 'आए दिन बहार के' का प्रस्तुत शीर्षक गीत का फ़िल्मांकन भी बहुत सुंदर तरीक़े से हुआ है। जैसा इस गीत के बोल हैं, मूड है, वैसा ही वातावरण के नज़ारे दिखाई देते हैं पर्दे पर। रंग बिरंगे फूलोँ की डालियाँ, भँवरें, झील का मंज़र, हरी भरी वादियाँ, उपर खुला नीला आसमान, उनमें सफ़ेद बादलों की टोलियाँ, प्रकृति के ये नज़ारे दिल को इस तरह से छू लेते हैं कि गीत के आख़िरी अंतरे में कहा गया है कि "ऐसा समा जो देखा राही भी राह भूले, के जी चाहा यहीं रख दें उमर सारी गुज़ार के, संभल जाओ चमन वालों के आए दिन बहार के"। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के स्वरबद्ध किए उन सुरीली रचनाओं में से हैं जिनमें उन्होने शास्त्रीय संगीत को आधार बनाया था। इस गीत को लक्ष्मीकांत जी ने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में भी बजाया था १९७० में। दोस्तों, इस गीत का आधार भले ही शास्त्रीय हो, लेकिन क्या आपको पता है कि यह दरअसल राग पहाड़ी पर आधारित है। यानी कि शास्त्रीयता के साथ साथ लोक रंग भी मिला हुआ है। आपको एल-पी के स्वरबद्ध कुछ राग पहाड़ी के गीतों की याद दिलाई जाए? ये हैं कुछ ऐसे गीत -
सलामत रहो (पारसमणि)
जाने वालों ज़रा मुड़के देखो मुझे (दोस्ती)
चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे (दोस्ती)
सावन का महीना पवन करे सोर (मिलन)
ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं (इज़्ज़त), आदि।
और दोस्तों, अब इस गीत को सुनिए, और रंग रंगीले गीतों की इस शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिए। हमारी आप सभी के लिए यही शुभकामना है कि आपके जीवन में भी ख़ुशियों के, सफलताओं के, शांति के रंग हमेशा घुलते रहे, आपके साभी सात रंगों वाले सपने पूरे हों, यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है।
दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने आज ३७० अंक पूरे कर लिए है। 'आवाज़' के इस स्तंभ के बारे में आप अपनी राय, अपने उदगार, अपने सुझाव, अपनी शिकायतें हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें। आप अपने पसंद के गीतों की तरफ़ भी हमारा ध्यान आकृष्ट करवा सकते हैं इसी पते पर। अगर आप में से कोई इस स्तंभ के लिए आलेख लिखना चाहते हों, तो आप हमसे इसी पते पर सम्पर्क करें। जिस तरह का सहयोग आपका अब तक रहा है, वै्सा ही सहयोग बनाए रखें, और इस ई-मेल पते के माध्यम से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को बेहतर से बेहतरीन बनाने में हमारा सहयोग करते रहें। धन्यवाद!
क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर ने ११ मार्च १९७४ में विदेश में पहली बार, लंदन के ऐल्बर्ट हॊल में अपना गायन प्रस्तुत किया था। पहला गीत उन्होने गाया था फ़िल्म 'हम दोनों' का "अल्लाह तेरो नाम", और अंतिम गाना उन्होने गाया था "ऐ मेरे वतन के लोगों"।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"मासूम", गीत बताएं -३ अंक.
2. यूं तो इस फिल्म के सभी गीत खूब लिखे हैं इस गीतकार ने पर इस गीत के तो कहने ही क्या, गीतकार बताएं-२ अंक.
3. संगीतकार कौन हैं इस गीत के-२ अंक.
4. विनोद मेहरा पर फिल्माए इस गीत को किसने आवाज़ से संवारा है -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
हम समझ गए इंदु जी कि क्यों आपने २ अंकों वाला सवाल चुना, इतनी सारी बातें भी तो करनी थी न, वैसे सच बताएं तो आपकी मीठी मीठी बातों की हमें आदत हो गयी है बहरहाल शरद जी ५० का आंकड़ा पार कर चुके हैं, देखते हैं १०० तक पहुँचने वाले भी वो पहले हो पाते हैं या नहीं
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
पिछले नौ दिनों से आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आनंद ले रहे हैं इस रंगीन मौसम का, बसंत ऋतु का, फागुन के महीने का, होली के रंगों का, सब के सब गीत संगीत के माध्यम से। आज हम आ पहुँचे हैं इस रंगीन लघु शृंखला की अंतिम कड़ी पर। 'गीत रंगीले' की अंतिम कड़ी के लिए हमने चुना है लता मंगेशकर की आवाज़ में आनंद बक्शी की गीत रचना। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में यह है फ़िल्म 'आए दिन बहार के' का शीर्षक गीत, "सुनो सजना पपीहे ने कहा सब से पुकार के, संभल जाओ चमन वालों, के आए दिन बहार के"। फ़िल्म का शीर्षक जितना रंगीला है, बक्शी साहब ने क्या ख़ूब न्याय किया है इस शीर्षक पर लिखे इस गीत के साथ! शीर्षक की अगर बात करें तो आपको सब से पहले तो यह बताना पड़ेगा कि यह जे. ओम प्रकाश साहब की फ़िल्म थी और उन्होने इस तरह के शीर्षकों का बार बार इस्तेमाल अपनी फ़िल्मों के लिए किया है। १९५९ में उनकी पहली फ़िल्म 'चाचा ज़िंदाबाद' आई थी। बस यही एक फ़िल्म थी जिसका शीर्षक 'अ' से या अंग्रेज़ी के 'ए' अक्षर से शुरु नहीं हुआ था। लेकिन इसके बाद उन्होने जितने भी फ़िल्में बनाई, वो सब 'ए' से शुरु हुए। १९६१ में 'आस का पंछी', और १९६४ में 'आई मिलन की बेला' की कामयाबी के बाद तो उन्होने जैसे इस तरह के फ़िल्मों की कतार ही खड़ी कर दी। १९६६ में आई 'आए दिन बहार के' और फिर एक बार फ़िल्म हिट हुई। धर्मेन्द्र और आशा पारेख इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे। उसके बाद 'आया सावन झूम के', 'आँखों आँखों में', 'आप की क़सम', 'अपनापन', 'आशा', 'अर्पण', 'आख़िर क्यों?', 'आप के साथ', 'अग्नि', और 'अफ़साना दिलवालों का' जैसी फ़िल्में उन्होने बनाई। इन नामों को पढ़कर आपको पता चल गया होगा कि जे. ओम प्रकाश साहब की फ़िल्मों का संगीत कितना कामयाब रहा है, क्योंकि ये जितनी भी फ़िल्में हैं, उनके गानें बेहद मक़बूल हुए थे, जिन्हे आज भी लोग सुनते हैं, गुनगुनाते हैं।
फ़िल्म 'आए दिन बहार के' का प्रस्तुत शीर्षक गीत का फ़िल्मांकन भी बहुत सुंदर तरीक़े से हुआ है। जैसा इस गीत के बोल हैं, मूड है, वैसा ही वातावरण के नज़ारे दिखाई देते हैं पर्दे पर। रंग बिरंगे फूलोँ की डालियाँ, भँवरें, झील का मंज़र, हरी भरी वादियाँ, उपर खुला नीला आसमान, उनमें सफ़ेद बादलों की टोलियाँ, प्रकृति के ये नज़ारे दिल को इस तरह से छू लेते हैं कि गीत के आख़िरी अंतरे में कहा गया है कि "ऐसा समा जो देखा राही भी राह भूले, के जी चाहा यहीं रख दें उमर सारी गुज़ार के, संभल जाओ चमन वालों के आए दिन बहार के"। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के स्वरबद्ध किए उन सुरीली रचनाओं में से हैं जिनमें उन्होने शास्त्रीय संगीत को आधार बनाया था। इस गीत को लक्ष्मीकांत जी ने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में भी बजाया था १९७० में। दोस्तों, इस गीत का आधार भले ही शास्त्रीय हो, लेकिन क्या आपको पता है कि यह दरअसल राग पहाड़ी पर आधारित है। यानी कि शास्त्रीयता के साथ साथ लोक रंग भी मिला हुआ है। आपको एल-पी के स्वरबद्ध कुछ राग पहाड़ी के गीतों की याद दिलाई जाए? ये हैं कुछ ऐसे गीत -
सलामत रहो (पारसमणि)
जाने वालों ज़रा मुड़के देखो मुझे (दोस्ती)
चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे (दोस्ती)
सावन का महीना पवन करे सोर (मिलन)
ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं (इज़्ज़त), आदि।
और दोस्तों, अब इस गीत को सुनिए, और रंग रंगीले गीतों की इस शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दीजिए। हमारी आप सभी के लिए यही शुभकामना है कि आपके जीवन में भी ख़ुशियों के, सफलताओं के, शांति के रंग हमेशा घुलते रहे, आपके साभी सात रंगों वाले सपने पूरे हों, यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है।
दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने आज ३७० अंक पूरे कर लिए है। 'आवाज़' के इस स्तंभ के बारे में आप अपनी राय, अपने उदगार, अपने सुझाव, अपनी शिकायतें हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें। आप अपने पसंद के गीतों की तरफ़ भी हमारा ध्यान आकृष्ट करवा सकते हैं इसी पते पर। अगर आप में से कोई इस स्तंभ के लिए आलेख लिखना चाहते हों, तो आप हमसे इसी पते पर सम्पर्क करें। जिस तरह का सहयोग आपका अब तक रहा है, वै्सा ही सहयोग बनाए रखें, और इस ई-मेल पते के माध्यम से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को बेहतर से बेहतरीन बनाने में हमारा सहयोग करते रहें। धन्यवाद!
क्या आप जानते हैं...
कि लता मंगेशकर ने ११ मार्च १९७४ में विदेश में पहली बार, लंदन के ऐल्बर्ट हॊल में अपना गायन प्रस्तुत किया था। पहला गीत उन्होने गाया था फ़िल्म 'हम दोनों' का "अल्लाह तेरो नाम", और अंतिम गाना उन्होने गाया था "ऐ मेरे वतन के लोगों"।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"मासूम", गीत बताएं -३ अंक.
2. यूं तो इस फिल्म के सभी गीत खूब लिखे हैं इस गीतकार ने पर इस गीत के तो कहने ही क्या, गीतकार बताएं-२ अंक.
3. संगीतकार कौन हैं इस गीत के-२ अंक.
4. विनोद मेहरा पर फिल्माए इस गीत को किसने आवाज़ से संवारा है -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
हम समझ गए इंदु जी कि क्यों आपने २ अंकों वाला सवाल चुना, इतनी सारी बातें भी तो करनी थी न, वैसे सच बताएं तो आपकी मीठी मीठी बातों की हमें आदत हो गयी है बहरहाल शरद जी ५० का आंकड़ा पार कर चुके हैं, देखते हैं १०० तक पहुँचने वाले भी वो पहले हो पाते हैं या नहीं
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
फिर वही रात है, फिर वही रात है ख्वाब की
रात भर ख्वाब में देखा करेंगे तुम्हें ।
अवध लाल
main to aate hi drta hun
teen teen diggajon me apoon bhola bhala aadmi ....
indu ji maaf kijiye aapka style aa gaya apoon ko bhi thoda thoda .
bura mt maniyega .
apoon to aapka bchcha se bahuuuuut chhota .